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Sultan Salahuddin Ayyubi History in hindi (फिलिस्तीन का इतिहास किस्त 11)

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Sultan Salahuddin Ayyubi History in hindi (फिलिस्तीन का इतिहास किस्त 11)

फिलिस्तीन का इतिहास किस्त 11

इसमें आप पढेंगे के कैसे Sultan Salahuddin Ayyubi ने अक्का (अका/ऐकर) और बैतूल मुकद्दस को बचाया कैसे अपनों की गद्दारी की वजह से खतरनाक जंग हुई और कत्ल ए आम हुआ कैसे जीते हुए शहर फीर से छीन लिए गए

” फिलिस्तीन का इतिहास ” की ये ग्यारवीं किस्त है पिछली सभी किस्तें पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें Click Here Sultan Salahuddin Ayyubi के इतिहास का कुछ हिस्सा हमने किस्ट 9 में बयान किया था उसे पढ़ने के लिए Click Here और किस्त 10 पढ़ने के लिए Click Here अब आगे का इतिहास इस किस्त में बताएंगे

अक्का की खतरनाक जंग

सूर (टायर) की घेराबंदी उन्होंने सफ़द को भी जीत लिया, ईसाई उनके सामने से भाग गए जो सूर (टायर) में इकट्ठा होने लगे, सलाह उल्लाह अय्यूबी ने हुक्म दिया था कि जो ईसाई लड़ते नहीं और ज़मीन पर चलते फिरते हैं उनका रास्ता न काटा जाए। कुछ इतिहासकारों ने Salahuddin Ayyubi पर इस सिलसिले में तनकीद भी की है क्योंकि इससे ईसाई सूर (टायर) में इकट्ठा हो गए थे, जो सलाह उल्लाह अय्यूबी की बुनियादी ग़लती थी।और Salahuddin Ayyubi ने अपनी शानदार अखलाक की वजह से बादशाह गाएलुज़िनियान को रहा कर दिया, क्योंकि उसने वादा किया था कि वह मुसलमानों से लड़ाई नहीं करेगा, लेकिन उसने धोखा दिया और तुरंत सूर (टायर) चला गया और वहाँ फिर से सेनाएं इकट्ठा कर ली। यूरोप भी नए सामान लेकर आगे बढ़ने लगा और यूरोप से कई सेनाएं सूर पहुँच गईं।

Sultan Salahuddin Ayyubi को अपनी ग़लती का एहसास हुआ, वह तुरंत सूर की ओर बड़े और उसकी घेराबंदी कर ली, सर्दी के दिन दाखिल हो रहे थे, सर्दी की तेज़ी बढ़ गई थी और बर्फबारी हो रही थी, ईसाई बहरी बेड़े सूर की ओर बढ़े और Salahudin ayyubi ने अपनी नौसेना भेजी लेकिन ईसाई नौसेना ज़्यादा संख्या में थे इसलिए उन्होंने सूर में Salahuddin Ayyubi की नौसेना को हरा दिया, सूर का घेराबंदी दो साल तक जारी रहने के बाद Salahuddin Ayyubi ने सूर से निकलने का फ़ैसला किया, इस दौरान लड़ाई जारी थी, Salahuddin Ayyubi ने वापस जाने का फ़ैसला किया ताकि सर्दियां गुज़र जाएं इस के बाद फिर हम देखेंगे।

585 हिजरी, 1189ई को यूरोपी बादशाहों ने अका की घेराबंदी की सलीबी सेनाओं की आगमन के कारण सूर में क्रूसेडर (सलीबी) शक्ति में वृद्धि हुई और फिर वहाँ से सलीबी मुहिम ओर बढ़ी। उन्होंने साहिल के बीच में स्थित इस शहर का चयन इसलिए किया क्योंकि इससे वे पूरे फ़िलिस्तीन की ओर आगे बढ़ सकते थे और इस पर नियंत्रण कर सकते थे, और क्योंकि अका एक बड़ा व्यापारिक केंद्र भी था, यह बड़ी दौलत का ज़रिया था। यूरोप, सलीबी युद्धों को कराने के लिए उत्साह से शोले भड़का रहा था, और इस प्रकार वह का को घेरने में सफल हो गया।

ईसाई बादशाहों ने मुल्के शाम की ओर बढ़ना शुरू किया, लेकिन वह सकलियह (सिसली) में रुक गए और इस पर कब्ज़ा कर लिया, और इसके बाद ईसाई बादशाह फ़िलिस्तीन पहुँच गए, उनके इस हमले को बादशाहों की मुहिम कहा जाता है क्योंकि इसमें बादशाह शामिल थे, जबकि इस से पिछली मुहिम को शाहज़ादों की मुहिम कहा जाता था।

जर्मनी का बादशाह फ़्रेड्रिक बारबरोसा एक भयानक भूमि सेना साथ ले आया था, लेकिन वह रास्ते में नदी में नहाते हुए डूब गया था , इतिहासकारों का ख्याल है कि अगर यह जर्मनी महिमा योजना के अनुसार पहुँचती तो अक्रा को हराना मुश्किल था, लेकिन जर्मनी की यह महिमा मंदित हो गई, क्योंकि उनमें से कुछ जर्मनी वापस आ गए और कुछ ने अक्रा की ओर अपना मार्ग जारी रखा।

रिचर्ड दि लायन हार्ट ईसाई शासकों का सरदार

इंग्लैंड के राजा रिचर्ड दि लायन हार्ट समुद्री फौजों के साथ आया और जब वह तीर्थस्थल रोम में था, तो रास्ते में उनके कुछ जहाज भटक गए, जिस पर सीसिलि के शासकों ने हमला किया और उन्हें कब्ज़ा में ले लिया, जिसके कारण रिचर्ड ने सीसिलि पर हमला करके उस पर कब्ज़ा कर लिया, उसने वहाँ से अपनी सेनाएं तैनात करना शुरू कीं लेकिन अका तक पहुंचने में देर हो चुकी थी। इसी तरह फ्रांस के राजा ने भी एक समुद्री मुहिम में अका की ओर प्रस्थान किया, इस तरह यूरोप से अका की ओर बड़ने वालों की संख्या दो लाख पचास हजार योद्धाओं तक पहुंच गई।

Sultan Salahuddin Ayyubi की तयारी

सलाहुद्दीन ने अपनी सेना की तैयारी शुरू कर दी थी जब उन्हे यूरोप से सलीबी जंगो की तहरीक ख़बर पहुंची, तो उन्होंने मुसलमानों को जिहाद की दावत देना शुरू की, और लोग उनकी दावत पर जमा होने लगे, सलाहुद्दीन ने अपनी सभी सेनाओं को हित्तीन में जमा किया, जिनकी संख्या बारह हजार थी, ईसाई ने समुंद्र और सूखे दोनों से अक्का (एकर) का घेराव कर लिया। सलाहुद्दीन ने अपने सैनिकों को लेकर अक्का की ओर चल पड़े जो उनके पास जमा हो गए थे, सलाहुद्दीन ने अब्बासी खलीफा के पास भी मदद की अपील भेजी इसके अलावा मशरिक में मौजूद अन्य मुसलमान ताक़तों को भी पेगाम भेजा, इसके अलावा माराकश के बादशाह को भी उनका पेगाम पहुँच गया।

वह ईसाई जो सलाहुद्दीन के सामने से भाग गए थे और वह ईसाई जिन्हें सलाहुद्दीन ने अपनी शफ़क़त के कारण कैद से आज़ाद कराया था वह सभी सूर में एकठे हो गए थे और वहाँ से अक्का की ओर बढ़े और इसका घेराव करने लगे, सलाहुद्दीन तक अक्का के घेराव की खबर पहुँची, यूरोप के क्रुसेडर भी आने लगे और ईसाई बादशाह अक्का की ओर आना शुरू हुए।ईसाई सेनाओं की बड़ी संख्या होने के कारण सलाहुद्दीन को बहुत खतरे में घिर गए क्योंकि सभी ईसाई सैनिकों की संख्या दो लाख पचास हजार थी जबकि सलाहुद्दीन की सेनाएँ सबसे अच्छे मौके पर भी बारह हजार जंगजूओं तक नहीं पहुँची थी, दोनों तरफ़ में फ़र्क़ बहुत ज़्यादा था।

अब्बासी खलीफा का जवाब

इस लिए सलाहुद्दीन ने मुसलमानों को दावत देना शुरू किया, उन्होंने ख़िलाफ़ा अब्बासी को भी पेगाम भेजा कि वह बग़दाद से अब्बासी ताक़तें भेज दें, उन्होंने खलीफा से कहा कि वह उसके बदले अपनी सभी दौलत और अपनी सभी सल्तनत खलीफा के मातहत करेगा, वह सिर्फ़ इस्लाम और मुसलमानों को इस सलीबी पेश कदमी से बचाए, लेकिन खलीफा ने इसके बजाय सलाहुद्दीन को पेगाम भेजा और उस पर इलज़ाम लगाया कि तुमने अलमलिक अलनासिर का लक़ब इख़्तियार किया है जो सिर्फ़ खलीफा का लक़ब है, उस लक़ब में वह अपनी हमसरी को पसंद नहीं करता।

फ़िलस्तीन के खो जाने और सलीबियों के हाथों हार के संभावना के सामने खलीफा का यह जवाब बहुत दुखद था, सलाहुद्दीन को मजबूर किया गया कि वह अपनी सेना के साथ अक्का (एकर) का घेराव करने वाले ईसाईयों पर हमला करें, उन्होंने घेराव तोड़ कर अक्का में महसूर लोगों तक सामान पहुँचाने की कोशिश शुरू की, उन्होंने मुसलमान ममालिक को “या लीलइस्लाम” (इस्लाम के लिए उठो) के नाम पर आवाज़ दी, उन्होंने लोगों को बताया कि अगर ईसाई फौजें आईं तो वह उनका मुकाबला नहीं कर सकेंगे, वह बहुत बड़ी फौजें हैं जिनकी संख्या दो लाख पचास हजार है, और फिर न केवल फ़िलस्तीन बल्कि सभी इस्लामी ममालिक ख़तरे में होंगे।

Salahuddin Ayyubi मदद का इंतजार करते हुए

इसके बाद सलाहुद्दीन ने एक लश्कर को बढ़ाया, वह चाहते थे कि युद्ध अक्का से बाहर स्थानांतरित हो जाए, और ऐसा ही हुआ, युद्ध अक्का से बाहर तल अल-ख़रबा में स्थानांतरित हो गया, जहाँ वह अपने भाई मिस्र के गवर्नर आदिल की मदद का इंतजार करने लगे, और अक्का से बाहर युद्ध शुरू हुआ, अक्का को सभी ओर से ईसाई घेरे रहे, सिवाए उस शिगाफ के जो सलाहुद्दीन ने उसमें से खोल दिया था, सलाहुद्दीन उनका मुकाबला कर सकते थे लेकिन सलाहुद्दीन की सेना में बड़ी संख्या में हलाकतों ने उसे किसी हद तक पस्पाई इख्तियार करने पर मजबूर कर दिया, जिसके कारण ईसाई उस शिगाफ को बंद करने के योग्य हो गए, और वह सलाहुद्दीन के सामना करने वाले क्इलाकों के इर्दगिर्द खाईयां खोदने में कामयाब हो गए।

लेकिन सलाहुद्दीन स्थिर रहे और आने वाले सहायता का इंतजार कर रहे थे, मिस्र से सबसे पहले फ़ौजी बहरी बेड़ा पहुँचा, मिस्र अब तक सलाहुद्दीन के नियंत्रण में था, यहाँ उनकी सल्तनत बहुत फैल गई थी जिसमें मुल्क शाम, मिस्र, हिजाज और यमन शामिल थे, सिर्फ़ अक्का, त्राबलस, अंताकिया पर उनका नियंत्रण नहीं था।

मिस्र से समुद्री बेड़े की आमद

मिस्री समुद्री बेड़ा पहुँचा और उसका सामना सलीबी समुद्री बेड़े से हुआ, जो अक्का से निकला था, लेकिन क्योंकि यह छोटा समुद्री बेड़ा था जिसे मिस्री समुद्री बेड़ा तोड़ने में कामयाब हुआ, और यह अक्का की ओर पहुँचा, मिस्री समुद्री बेड़े में बारूद और सामान था, जिसके कारण अक्का फिर से जीवित हो गया। सलाहुद्दीन और सालिबियों के बीच फिर से लड़ाईयाँ शुरू हुईं, और मैदान युद्ध में मरने वालों की लाशें बिखर गईं, जिससे बदबू फैल गई, इस बदबू की वजह से सलाहुद्दीन बीमार हो गए, ताहम वह लड़ते रहे, फिर डॉक्टर उनके पास आए और उनसे कहा कि आप बीमारी की हालत में लड़ नहीं सकते,

इस पर सलाहुद्दीन ने अपना महान मकूला कहा

जब मैं जिहाद के लिए सवार होता हूँ तो दर्द चला जाता है, जब उतरता हूँ तो लौट आता है

Quote: Sultan Salahuddin Ahmed

सलाहुद्दीन की जिहाद की ख़्वाहिश बहादुर हीरो की तरह थी, दुश्मनों का सामना करने की तड़प ने उनसे दर्द को भुला दिया था, जब आराम करते तो दर्द लौट आता था, उनकी बीमारी बहुत बढ़ गई थी, डॉक्टरों का आग्रह बढ़ गया, उनको लाशों से दूर होने की ताक़ीद की, क्योंकि यह बदबू बीमारियों का स्रोत था, जिसकी वजह से वह कैम्प में वापस चले गए, उनके और सलीबियों के बीच फ़ासला बढ़ गया, लेकिन इसके बावजूद झड़पों का सिलसिला चलता रहा, इस तरह कई महीनों तक जारी रहा, और कोई निर्णयक(फ़ैसला कुन) युद्ध नहीं हुआ।

हलब और मोसुल की आमद

थोड़ी देर बाद सलाहुद्दीन की हमायत में फौजें आना शुरू हुईं, हलब से सलाहुद्दीन के बेटे की क़ायदत में एक लश्कर पहुँचा, जिसका नाम इमादुद्दीन ज़ंगी था, सलाहुद्दीन ने उसका यह नाम अज़ीम हीरो इमादुद्दीन ज़ंगी के नाम पर नेक़ शगून के तौर पर रखा था। इसके बाद मोसुल के हक़ीम ने भी सलाहुद्दीन अय्यूबी की आवाज़ पर लबेक कहा, जिसका नाम अलाउद्दीन बिन मस’ऊद था, यह ज़ंगी ख़ानदान के बहादुरों में से एक था,

उनके साथ ज़ंगी ख़ानदान के दूसरे बहादुर भी थे, इस तरह यह छोटी छोटी फौजें मुख्तलिफ़ मकामात से आने लगीं। हर वो शख़्स जिसने अपने अंदर मुसलमानों की सरज़मीन की हिफ़ाज़त का अज़म और वलवला पाया वह आ गया, जबकि बग़दाद के ख़लीफ़ा, उसके हक़ीमों और आला गवर्नरों ने ईसाईयों के साथ मुसलमान फ़ौज की मदद के लिए कोई हरकत नहीं की।

इसके बाद सलाहुद्दीन अय्यूबी ने हमले और झड़पें शुरू कीं, जिससे ईसाईयों को भारी नुक़्सान पहुँचा। सलाहुद्दीन उन पर ज़ोरदार ज़रबें लगाने में कामयाब हो गए, लेकिन ईसाई अब भी स्थिरकदम और मज़बूत थे, क्योंकि उन्होंने इस दौरान ऊँचे टावर (बुर्ज) तामीर किए थे ताकि वह अका में दाखिल होकर उसकी दीवारों पर हमला कर सकें, अगरचे अका बहुत महफ़ूज़ था, इसकी दीवारें बहुत ऊँची थीं, लेकिन ईसाईयों ने उससे भी ऊँचे टावर बनाए थे, वह उन टावरों को दीवारों के तरफ़ धकेल रहे थे, जिसकी वजह से अका के लोगों में ख़ौफ़ और हिरास फैल गया, उनको यक़ीन हो गया कि ईसाई अब ज़रूर दाखिल हो जाएँगे।

एक नौजवान की नयी तख़लीक़ (invention)

सलाहुद्दीन उन बर्जों को तबाह करने का तरीक़ा सोच रहे थे, उन्होंने जंग के माहिर और तज़रबेकार लोगों के साथ मशविरा किया, और तीरंदाज़ों से कहा कि वह मंज़नीक के साथ टावरों पर हमला करें, उन्होंने कोशिश की, लेकिन नाकाम रहे, इसके बाद एक नौजवान आया जो तांबे का काम करने वाले एक शख़्स का बेटा था, जिसकी उम्र सोलह साल थी, उसने कहा कि मैं उन टावरों को आग लगा सकता हूँ,

लोगों ने उसकी बात को मज़ाक समझा, लोगों ने कहा कि तुम उसे कैसे तबाह कर सकते हो जबकि बड़े बड़े माहिरीन उसे तबाह करने से आज़िज़ हैं! नौजवान ने कहा मैं उसे तबाह कर सकता हूँ, सलाहुद्दीन अय्यूबी ने कहा उसे कोशिश करने दो। चूनांचक उस लड़के ने कुछ तेल लिया और उसमें कुछ केमिकल मिलाया, जिससे एक मज़बूत, सख्त और देरतक जलने वाली आग तैयार हुई, जो उसने टावरों पर फेंक दिया, जिसने उनको जलाकर तबाह कर दिया।

इस ज़माने में तेल बहुत मशहूर था, लेकिन लोग उसे सिर्फ़ जल्दी बुझ जाने वाली आग के तौर पर इस्तेमाल करते थे, उससे ज़्यादा इस्तेमाल करना नहीं जानते थे, लेकिन उस केमिकल की मिलाने से उसका असर का दौरानीया ज़्यादा हो गया, और उसने एक तबाह करने युद्ध का किरदार अदा किया, जब उस नौजवान ने यह कारनामा सर अंजाम दिया तो सलाहुद्दीन ने कहा कि उस नौजवान को मेरे पास ले आओ, मैं उसे इनाम दूंगा, उसने अका को बचाया है। वह नौजवान आया, सलाहुद्दीन ने उस को इनाम लेने का हुक्म दिया, उसने इनाम लेने से इनकार कर दिया, उसने कहा कि मैं ने यह काम अल्लाह ताअला के लिए किया है, मुझे सिर्फ़ अल्लाह ताअला से इनाम चाहिए।

यह ऐसे ईमानदार, मुख्लिस और बहादुर लोग थे, जिन लोगों की तरबीयत सच्चे दीन पर होती है उस के नौजवान ऐसे ही होते हैं, ऐसे लोगों पर मुश्तमिल मुसलमान लड़ते हैं और इस तरह के लोग जीत जाते हैं।

टावरों को तबाह करने के बाद सलाहुद्दीन ने एक मज़बूत हमला किया, जिससे ईसाई बहुत नुक़्सान उठाए, लेकिन उन्होंने स्थिरता बनाए रखी, क्योंकि उनकी सेना सलाहुद्दीन की सेना से बहुत अधिक थी। इस पर सलाहुद्दीन अय्यूबी ने मराकेश के बादशाह से मदद के लिए अनुरोध किया, लेकिन मराकश का बादशाह दूर था, और वह ज़मीनी सेना भेज नहीं सकता था, सलाहुद्दीन ने उससे कहा कि कुछ भी करलो लेकिन मदद के लिए चलो, तुम मुतमइन होकर बैठे रहोगे,

कुफ़्र कुफ़्र की मदद कर रहा है और इस्लाम इस्लाम की मदद नहीं कर रहा!!?

Quote: Sultan Salahuddin Ayyubi
अदिल का हमला

मराकश के बादशाह ने यूरप के समुद्री बेड़ों को दरहम-बरहम करने के लिए समुद्री बीड़े भेजे, और वास्तव में इस हरकत से वह यूरप की हरकत को देर करने में कामयाब हो गए, सलाहुद्दीन अय्यूबी की भी ईसाईयों से झड़पों का सिलसिला जारी रहा, लेकिन ईसाई जमे रहे और ज़्यादा खाईयों को खोदने लगे, ईसाईयों के विशेष स्थान थे जहां से वे निकलते थे और वापस लौटते थे।

एक दिन ईसाई उन खाईयों से अचानक प्रकट हुए, जब समय मिस्र से सलाहुद्दीन के भाई आदिल की नेतृत्व में सेना पहुंची, तो ईसाई ने उन फौजों को हैरान कर दिया, उन दोनों फिरकों में जबरदस्त जंग हुई, सलाहुद्दीन ने जिहाद और हमले का हुक्म दिया, इस लड़ाई में ईसाईयों को बहुत नुक़्सान हुआ, यह जंग अक्का से बाहर लड़ी गई थी जिसे आदिल की जंग के तौर पर याद किया जाता है, जो मिस्र के शासक थे और सलाहुद्दीन अय्यूबी के भाई थे।

इसके बाद ईसाईयों ने सिर्फ़ अक्का के घेराबंदी पर ध्यान दिया, और सलाहुद्दीन अय्यूबी के साथ मुक़ाबले से हट गए, और खाईयों में डेरा डाल दिया, उन्होंने केवल अक्का पर अपनी ध्यान केंद्रित की, और रात दिन अक्का पर हमले करने लगे, जिससे अक्का (अका) के मुसलमानों को भारी नुक़्सान पहुंचा।

अक्का वालों का हमला

अक्का के मुसलमानों ने कोशिश की कि वे अंदर से ईसाई पर हमला करें, उन्होंने अचानक दरवाज़ा खोल दिया और बाहर निकल आए, और एक ऐसा हैरान कर दिया जिसकी उनके दुश्मनों को ताक़तवर उम्मीद नहीं थी, वे ईसाईयों को हराने और उनके खेमों तक पहुंचने और उन्हें जलाने में कामयाब हुए, लेकिन ईसाईयों ने स्थिरता से इस हमले को पस्पा कर दिया, और अक्का की दोबारा घेराबंदी कर ली।

समुद्री युद्ध

इस समय पर ईसाइयों ने समुद्र से अका पर हमला करने का सोचा, लेकिन अका की रक्षा करने वाले एक बड़े टावर ने उन्हें रोक दिया, जो समुद्र के अंदर ऊँची चट्टानों पर बना हुआ था। समुद्र से किसी भी हमले को टावर में मौजूद लोग रोक रहे थे, वे हमलावरों पर आग बरसा रहे थे और तीर फेंक रहे थे। ईसाइयों ने यह फैसला किया कि इस टावर को जलाना चाहिए या उसे तोड़ना चाहिए, ताकि वे समुद्र से अका पर हमला कर सकें,

लेकिन तीन ईसाई कमांडो जहाज हरकत करने लगे, उन्होंने पहले जहाज पर एक टावर बनाया ताकि अका के रक्षा करने वाले समुद्री टावर में आग लगा दी जाए, दूसरे समुद्री जहाज में तेल मौजूद था ताकि यह समुद्र के किनारे पर मौजूद मुसलमानों के समुद्री जहाजों के साथ चिपक जाए और मुसलमान इस पर हमला करके अपने जहाजों को खुद आग लगा दें, जिससे आग अका के पूरे बंदरगाह तक फैल जाए। तीसरे जहाज में उन्होंने सिपाहियों से भरा एक बड़ा तहखाना बनाया, ताकि जितने भी तीर आए वह उन्हें न लगे।

और ऐसा ही हुआ, उन तीनों जहाजों ने बहुत खतरनाक तरीके से अका पर हमला किया, उन्होंने मुसलमानों के समुद्री टावर में आग लगाने की कोशिश की और अपनी तेल वाले जहाज को भी आग लगाई ताकि वे मुसलमानों की किश्तियों को जला दें, लेकिन अल्लाह ताला का फैसला कुछ और था, हवाएं चलीं, जिस की वजह से तेल वाली किश्ती मुसलमानों की किश्तियों के करीब न आसकी, ईसाइयों ने अपनी किश्ती को खुद आग लगा दी, उसके बाद मुसलमानों ने उस किश्ती पर हमला किया जिसके तहखाने में ईसाई सिपाही थे, सभी को कत्ल कर दिया, और उन्होंने मुसलमानों के समुद्री टावर में जो आग लगाई थी वह मुसलमानों ने बुझा दी, यह हमला जो मुसलमानों के लिए बहुत बड़ा खतरा बना हुआ था नाकाम हुआ।

लोहे का मेंढ़ा

इसके बाद ईसाइयों ने मुसलमानों के समुद्री टावर पर फिर से हमला करने का फैसला किया, उन्होंने लोहे का एक बड़ा मेंढ़ा बनाया और उसे एक लंबे तख्ते पर चढ़ा दिया, और उस मेंढ़े को एक जहाज पर रख दिया, और वह टावर के क़रीब जा कर उस को मारने लगे, और उसी वक़्त में उन्होंने ज़मीनी हमले का भी फ़ैसला किया, चूनाँकि समुद्र और खुश्क दोनों तरफ दौड़ पड़े, इस मौक़े पर अका के लोगों ने शदीद खतरा महसूस किया, कि लोहे का यह मेंढ़ा उनके टावर को तोड़ सकता है, इसलिए उन्होंने फ़िदायाना अंदाज़ में समुद्र और खुश्की दोनों से हमला किया, उन्होंने अपनी किश्तियाँ उस कश्ती से क़रीब कि जिस में लोहे का मेंढ़ा था, और कुछ मुसलमान तो उस जहाज पर चढ़ने में कामयाब हो गए और मेंढ़ा मुसलमानों के टावर की तरफ पहुँचने से पहले तबाह हो गया।

टैंक के ज़रिए से हमला

लेकिन ईसाई इस से भी मायूस नहीं हुए, उन्होंने इस मर्तबा एक टैंक बनाया जिस को दबाबा कहा जाता था, यह ज़मीन पर रेंगने वाली मशीन थी जिसे वे लकड़ी से बनाते थे, लेकिन इस के ऊपर धात की तीन तहें थीं, जिन्हें मुसलमान जला नहीं सकते थे, यह टैंक अका की दीवार के क़रीब आने लगा, मुसलमान दिन रात जलते हुए तेल से इस पर हमला करते रहे, अगरचे यह टैंक मजबूत धात से ढका हुआ था, लेकिन आख़िर कार तेल इस में अंदर चला गया, अंदर की लकड़ियाँ जल गईं, टैंक में आग लग गई और टैंक तबाह हो गया।

ईसाई बादशाहों की आमद

अका पर घेराव और युद्धी कार्यक्रम लगातार 6 महीने तक जारी रहा, इस दौरान यूरोपीय सेनाएँ पहुंच चुकी थीं, इसलिए फ्रांस का बादशाह फिलिप ऑगस्टस एक सेना लेकर पहुंच गया, जर्मनी का बादशाह बारबरोसा भी आया था, जो इस्लामी और मग़रिबी इतिहास की किताबों में ‘लाल दाढ़ी वाले’ के नाम से प्रसिद्ध हैं, वह अपनी सेना को समुंद्र के रास्ते ले रहा था, लेकिन बारबरोसा डूब गया था, जिसके कारण उसकी सेना टूट गई, उसका अधिकांश हिस्सा वापस चला गया और बाकी सेना अका की ओर अपना रास्ता जारी रखी। इसी तरह अंग्रेजी सेना रिचर्ड दि लियोनहार्ट के नेतृत्व में पहुंच गई।

फ्रांसीसी और अंग्रेजी सेनाएँ पहुंचने में छे महीने की देरी हो गई, इन सेनाओं पर एक तरफ मोरक्को में और दूसरी तरफ सिसिली में हमले हुए, सिसिली ने उनके कुछ बहरी जहाज चुराए थे, जिसके कारण रिचर्ड को सिसिली पर काबू पाने के लिए रुकना पड़ा, और फिर उस पर कंट्रोल पाया, उसके बाद वह फिलिस्तीन की ओर रवाना हुआ, किब्रस के लोगों ने उन लश्करों को दस हजार जंगजू फराहम किए, इस तरह उनके पास दो लाख पचास हजार जंगजू एकट्ठे हो गए, ये सिपाही और गोला बारूद के साथ अका पहुंच गए और अका पर समुंद्र और खुश्की दोनों ओर से हमला किया।

सलाहुद्दीन अय्यूबी ज़मीनी घेराव को तोड़कर दिन-रात उन पर मंजनीक से हमला करने की कोशिश करते रहे, उन्होंने बिना आराम के पूरे दो दिन उन पर हमले किए, केवल दो-तीन घंटे आराम के लिए रुके, लेकिन ईसाई सेनाएं डटी रहीं, इसलिए सलाहुद्दीन उन्हें तोड़ने में नाकाम रहे। हमलों और घेराव के कारण अका के अंदर की स्थिति बहुत खराब हो गई, न कोई अंदर जा सकता था और न ही बाहर निकल सकता था, सलाहुद्दीन सख्त मुहासरे की वजह से उनसे कबूतरों के जरिए संपर्क कर रहे थे।

अका की दीवारों का हिलना

इसके बाद ईसाई इसके काबिल हुए कि वह अका की दीवारों के करीब पहुंच गए और उसका कुछ हिस्सा तोड़ दिया, जिसके कारण खतरा यकीनी बन गया, अका के लोगों ने इस को भरने की कोशिश की, इस दौरान आमने-सामने लड़ाई शुरू हो गई, सलाहुद्दीन अय्यूबी बदस्तूर पीछे से ईसाईयों पर हमला कर रहे थे, लेकिन अका की दीवारों के गिरने के बाद अका लरज़ने लगा,

अका के मुस्लिम शासक को तेजी से ख़तरा महसूस हुआ कि अगर ईसाई अका में दाखिल हो गए तो वह उनके साथ वही करेंगे जो उन्होंने यरुशलम में दाखिल होने के बाद किया था, अला के शासक डर गए और उन्होंने सलाहुद्दीन अय्यूबी की इजाज़त के बिना ईसाई से मुजाकरत के लिए संपर्क किया, कि वे अका को उनके हवाले इस शर्त पर करने को को तयार हैं के उनके लोगों की सुरक्षा करेंगे और किसी को क़त्ल नहीं करेंगे।

रिचर्ड दी लायनहार्ट और फिलिप ऑगस्ट ने कड़वे लहजे में जवाब दिया कि अब जब अक्र हमारे कब्जे में है तो तुम उसे हमारे हवाले करना चाहते हो! हम तुम्हें सुरक्षा नहीं देते। इस पर अका के शासक ने मुस्लिमों में इलान किया कि हम उस वक़्त तक हथियार नहीं डालेंगे जब तक कि हम सभी शहीद ना हो जाएं, हकीम ने ईसाई को संदेश भेजा कि हम में से कोई भी उस वक़्त तक क़त्ल नहीं होगा जब तक कि हर एक तुम्हारे पचास बड़े सिपाहियों को क़त्ल न कर दें, अका के हाकिम ने हथियार डाल दिए थे लेकिन फिर से जेहाद का इलान कर दिया।

मुज़ाकरात की असफलता

इसके बाद ईसाईयों ने मशवरा करना शुरू कर दिया, उन्होंने समझ लिया कि इस तरह वे अका को बहुत नुकसान के साथ जीतेंगे, क्योंकि किसी शहर को अंदर से जीतना कोई आसान काम नहीं है, इसलिए उन्होंने बातचीत के बारे में तैय किया, उन्होंने दो वफद भेजे, एक सलाहुद्दीन अय्यूबी के पास और दूसरा अका के हाकिम के पास। सलाहुद्दीन अय्यूबी ने यह शर्त रखी कि वह अका के सभी लोगों को रिहा करेंगे और उसके बदले अपने पास मौजूद ईसाई कैदियों को रहा करेंगे।

इस गुफ्तगू दौरान ईसाई बहुत टाल मटोल से काम कर रहे थे ताकि वे युद्ध के लिए अधिक पोज़िशनिंग करें, सलाहुद्दीन को भी यह बात मालूम थी, इसलिए जब बातचीत चल रही थीं तो सलाहुद्दीन अय्यूबी इस दौरान भी हमले कर रहे थे ताकि ये बातचीत बहादुरों जैसे मुजाकरात हों, कमज़ोरी या हथियार डालने वाले पोज़िशन से नहीं हों, लेकिन फिर भी मुजाकरात नाकाम हुईं और सलाहुद्दीन के हमले भी नाकाम हुए।अका के लोग अत्यंत तकलीफ में मुब्तला थे, ना मुज़ाकरात कामयाब हो रहे थे और न ही सलाहुद्दीन का हमला कुछ कर सका था।

ईसाई अका वालों को सुरक्षा देने से इनकार कर रहे थे, अका वाले बहुत परेशान हो गए, उनमें कहत भी फैल गया था, जिसके कारण उनकी चीख पुकार शुरू हो गई और मौत पर बैअत करने लगे, उन्होंने बाइज़्जत जिहाद के साथ मरने को तरजीह दी कि इसके बजाय कि वे ईसाई के हाथों तूफ़ान बरपा होने के बाद क़त्ल किए जाएं, जबकि सलाहुद्दीन अय्यूबी अपनी छोटी सेना के साथ ईसाईयों के लाखों की सेना पर हमला में व्यस्त थे, वह साथ साथ अका वालों को संदेश भेज रहे थे कि वे साबित क़दम रहें।

अका में मुसलमानों का कत्ल ए आम

अका की यह लड़ाइयाँ पूरे दो साल तक जारी रहीं, लोग इतने भूखे हो गए कि वे कुत्तों का मांस खाने पर मजबूर हो गए, तब जाकर अका के हाकिम ने ईसाईयों को एक मर्तबा फिर बातचीत का पैगाम भेजा, उनको मुसलमानों की जानों की फिक्र हुई, उसने ईसाईयों को दिलकश पेशकश कीं कि मैं तुम्हें अका हवाले करता हूँ, मेरे पास पांच सौ ईसाई कैदि हैं जिन्हें मैं रिहा कर दूंगा, और मैं तुम्हें दो लाख सोने के दीनार भी दे दूंगा इस शर्त पर कि वे अका के मुसलमानों को बहिहफ़ाज़ अपनी जानों और मालों के साथ निकलने की इजाज़त दें, सलाहुद्दीन अय्यूबी को जब ये बातें पहुँचीं तो उन्होंने अका के हाकिम को कहला भेजा कि यह पेशकश ख़त्म करदे।

क्योंकि ईसाईयों को अका का मुहासिरा करते हुए तकरीबन दो साल गुजरे थे और उनकी तादाद भी दो लाख पचास हज़ार थी, इस के बावजूद वे हर तरीक़ा से इस क़िले को क़ाबू में करने के क़ाबिल नहीं थे, जिससे उनके हौसले पस्त होने लगे थे और उनकी उम्मीदें माँद पड़ने लगीं थीं, जब अका के हाकिम ने ये पेशकश की तो उन्होंने इसे क़बूल करना दानिश्मंदी समझा, इसलिए उन्होंने मुशाविरा किया और इस पेशकश को क़बूल करने का फ़ैसला किया, और अक्र के हाकिम को इस बारे में आगाह किया।

18 जमादी अल-आखिरह 587 हिजरी, 7 दिसम्बर 1191 ईसवी क्या इस लंबे घेराबंदी के बाद और इतने बड़े हमले के सामने सलाह उद-दीन अय्यूबी की इजाज़त के बिना अका के दरवाज़े खोलने के लिए अका के हक़ीम को दोषी ठहराया जाएगा? देखते रहें क्या हुआ:

इस दिन ईसाई अका में दाखिल हुए और मुसलमान उनकी वादाखिलाफी पर हैरान हुए, ईसाईयों ने सभी मुसलमानों को कैद कर लिया, कहा गए आहद व मोअहदात?

अल्लाह तआला ने सच फरमाया है:

لایرقبون فی مؤمن الا ولا ذمة (तौबा: 10) 

तर्जुमा: यह लोग मुमिन के बारे में ना रिश्ता दारी का ख्याल करते हैं और ना आहद व पेमान का।

ईसाईयों ने कहा कि हम किसी को इस वक़्त जाने की इजाज़त नहीं देते जब तक कि तुम सारी रक़म हमारे हवाले नहीं कर दो और सिर्फ़ अपनी जानों के साथ निकल जाओ, और सलाह उद-दीन भी हमें दो लाख दीनार अदा करेगा। यह मोआहिदे की रू से बहुत बड़ी ख़यानत और बड़ा जुर्म था, लेकिन सलाह उद-दीन ने मुसलमानों की हिफ़ाज़त के लिए दो लाख दीनार सोना जमा करने का हुक्म दिया और ईसाईयों को यह इतलाअ किया कि वह इस रक़म की अदायगी पर आमादा हैं, इस शर्त पर कि वह मुसलमानों को छोड़ दें।

ईसाईयों ने सलाह उद-दीन को लिखा कि वह इस के लिए तैयार हैं, सलाह उद-दीन ने उन से कहा कि तुम मुसलमानों को छोड़ दो हम रक़म आप के हवाले करेंगे, उन्होंने कहा पैसे दे दो हम उन्हें छोड़ देंगे, सलाह उद-दीन ने कहा कि हम पैसे आप को कैसे हवाले करें जब कि आप पहले हमारे साथ ख़ियानत कर चुके हैं? सलाह उद-दीन ने बड़े पादरियों और मज़हबी लोगों को यह कह कर भेजा कि मुझे मुसलमानों की रिहाई का वादा दो मैं तुम्हें रक़म दे दूँगा,

पादरियों ने जो मज़हबी लोग थे, सलाह उद-दीन को जवाब भेजा कि वह ईसाई बादशाहों के अहद पर भरोसा नहीं करते, उन्होंने कहा हम तुम्हें तहफ्फुज दे सकते हैं लेकिन हमारे बादशाह दोबारा ग़दारी कर सकते हैं, सलाह उद-दीन ने इस के बाद दोबारा अपने मोक़फ़ पर इसरार किया कि कैदियों को रहा करो मैं तुम्हें पैसे दे दूँगा।

लेकिन सलीबियों के सरदार रिचर्ड दि लियन हार्ट ने मुसलमान क़ैदियों को कत्ल करने का हुक्म दिया, उसने अका से तीन हज़ार आदमियों को निकाला, उनको एक पहाड़ी पर बिठाया, सलाह उद-दीन उनकी तरफ़ देख रहे थे, सलाह उद-दीन ने उन से कहा कि उन को छोड़ दो तुम्हें पैसे मिल जाएंगे। रिचर्ड ने उन को क़त्ल करने का हुक्म दिया!! यह एक भयंकर क़त्ल ए आम था, एक ऐसा वाक़िया जो नाकाबिल ए यक़ीन था, यह मंज़र सख़्त दिल लोगों को बेज़ार कर देता था। इस तरह उन काफ़िर ईसाईओं ने आहद शिकनी की, और अका के लोग ऐसे अज़ीम जुर्म के साथ मारे गए, जिस की मजम्मत ख़ुद यूरोपी इतिहासकारों ने भी की थी।

इस मौक़े पर सलाह उद-दीन ने मुसलमानों को पैग़ाम भेजा कि उन ईसाईयों का मुसलमानों को ज़बह करने का इरादा है, सलाह उद-दीन के मुनादी ने इस्लामी ममालिक में पुकारना शुरू किया कि फ़िलस्तीन का एक एक शहर एके बाद दूसरा गिरता जाएगा, अगर तुमने मदद का हाथ नहीं बढ़ाया, लेकिन एक तुर्कमान हाकिम के अलावा किसी की तरफ़ से जवाब नहीं मिला, तुर्कमानी हाकिम ने फ़ौज भेजने का वादा किया।

Salahuddin Ayyubi के जीते हुए शहरों पर कब्ज़ा

हैफ़ा का सुकूत (हारना)

रिचर्ड ने अका पर कब्ज़ा के बाद सेना को हैफ़ा की ओर मुन्तकिल करने का हुक़्म दिया, उसने अका में एक छावनी छोड़ दी, सलाह उद-दीन ने उन्हें पीछे हटाने की कोशिश की, लेकिन वह उनका मुकाबला नहीं करसके, वह हैफ़ा में दाखिल होने में कामयाब हो गए। हैफ़ा, अका की तरह क़िला बंद नहीं था, वह इसमें आसानी से दाखिल हुए और फिर कैसरिया की ओर बढ़े, मुसलमानों ने गिरोही कार्यवाहियों की शक्ल में उन पर हमला किया, लेकिन वह थोड़े थे जो बारह हज़ार से ज़्यादा नहीं थे और उनका सामना दो लाख पचास हज़ार के सामने था, ईसाई ने मारक आराई में हिस्सा नहीं लिया, बल्कि वह शहरों की ओर बढ़े और सलाह उद-दीन उन पर हमला करते रहे, ईसाई ने सेना का एक हिस्सा सलाह उद-दीन के मुकाबले के लिए कर लिया और बाक़ी लश्कर कैसरिया की ओर रवाना हुआ, जिसे उन्होंने फ़तह कर लिया, उन हमलों में रिचर्ड ख़ुद भी ज़ख़्मी हुआ था।

रिचर्ड को मालूम हुआ कि उसकी नक़ल व हरकत अभी बहुत सुस्त है, और सलाह उद-दीन अपनी सेना के साथ डटे हुए हैं, इसलिए उसने सलाह उद-दीन के पास मुज़ाक़रात के लिए पैग़ाम भेजा, सलाह उद-दीन मुज़ाक़रात पर आमादा हुए ताकि उन्हें वक़्त मिल जाए और इस दौरान तुर्कमान सेना और अन्य मुसल्म अफ़वाज पहुंच जाए, उनके भाई आदिल उनकी तरफ़ से मुज़ाक़रात में हिस्सा लेते थे।

जंग अरसूफ़

ईसाइयों ने अब तक तीन बड़े शहरों पर कब्जा कर लिया था, और सलाहुद्दीन की अब भी उनके खिलाफ मुकाबला जारी थी, लेकिन मुखबातों के दौरान वह अपनी फौजों को अर्सूफ की ओर बढ़ा रहे थे, सलाहुद्दीन को इस बात का अलम हुआ तो उन्होंने अपना लश्कर उस ओर रवाना किया और वहाँ से आगे निकल गए, और अर्सूफ को मजबूत कर लिया, फिर उन्होंने ईसाइयों को घेर लिया, जैसा कि सलाहुद्दीन ने उन्हें पहले हतीन में घेर लिया था, यहाँ उनके बीच एक युद्ध हुआ जिसे अर्सूफ के युद्ध के नाम से याद किया जाता है, रिचर्ड ने ईसाइयों को बदला लेने पर उभारा, सलाहुद्दीन ने भी जिहाद का ऐलान किया, और हित्तीन की याद ताजा कराई, महान युद्ध शुरू हो गया, लेकिन ईसाइयों ने सलाहुद्दीन की फौजों को तोड़ने में कामयाब हो गए और मुसलमान लश्कर, यूरोपी सलीबी फौजों के लश्कर के सामने से भाग गए।

इतिहासकार इब्न शाद्दाद उन इतिहासकारों में से हैं जिन्होंने ख़ुद उन लड़ाइयों में शिरकत की और तारीख़ लिखी है, उन्होंने लिखा है कि मैं जो कुछ लिख रहा हूँ यह मैंने अपनी आँखों से देखा है, ऐसा के लिखा है कि इस मौक़े पर सलाहुद्दीन के लश्कर में से सात हज़ार कत्ल किए गए जो कुल बारह हज़ार थे, और लश्कर इस क़दर टूट गया कि मैंने सलाहुद्दीन को देखा कि वह अकेले थे, उनके साथ कुछ बच्चे और नौजवान की एक जमात थी, इसी तरह मैंने आदिल को देखा कि उसके साथ भी सिर्फ़ एक छोटी सी जमात बच्चों और जवानों की थी।

इस्लामी फौज , रिचर्ड दि लाइन हार्ट की फौजों के सामने पूरी तरह टूट चुकी थी, ईसाइयों ने अपना रास्ता जारी रखा, और अर्सूफ पर कब्जा कर लिया, इस के बाद रिचर्ड ने याफ़ा की ओर पेशगोई का ऐलान करके उस पर कब्जा कर लिया, फिर जेरुसलेम की ओर पेशगोई का ऐलान करके, ये वो शहर थे जिन्हें सलाहुद्दीन ने हित्तीन के फ़तह करने के बाद फ़तह किये थे एके बाद दिगरे क़ब्ज़ा हो रहे थे जबके पूरी दुनिया के मुसलमान देख रहे थे, उन में से कोई भी हतीन की महान फ़तह और याफ़ा की महान फ़तह के बाद सलाहुद्दीन का साथ देने के लिए आगे नहीं बढ़ा।

लुद और रमला का सुकूत

ईसाई सेना की संख्या 2 लाख 50 हजार थी जो यूरोप से आए थे, इसके साथ मुल्क शाम में मौजूद ईसाई भी शामिल हो गए और ये सब यरूशलम की ओर बढ़ने लगे, सलाहुद्दीन अय्यूबी के पास इसके अलावा कोई चारा नहीं था कि वह तुरंत सब कुछ छोड़ कर यरूशलम की ओर चले जाएं, उन्होंने इस्लामी फ़ौजों को हुक्म दिया कि वे जिन जिन शहरों में हैं सब छोड़ कर यरूशलम की ओर । इस तरह Salahuddin Ayyubi ईसाई फ़ौबढ़ेंजों के पहुंचने से पहले यरूशलम पहुंच गए और वहाँ ज़बरदस्त क़िला बन्द कर लिया। रिचर्ड ने रमला पहुंच कर देखा कि उसकी दीवारें तबाह हो चुकी हैं, सालाहुद्दीन ने वहाँ मौजूद लोगों को हुक्म दिया था कि वह उसे छोड़ दें और उसकी दीवारें को ढा दें ताकि ईसाई को उन से फायदा न हो, रिचर्ड ने रमला को बिना किसी मुख़ालिफ़त के हासिल कर लिया, और वह लुद की ओर बढ़ा, उसकी दीवारें को उसने तबाह पाया , लुद भी उसके कब्ज़े में आ गया।

फिर से यरूशलम (कुदस) पर कब्ज़ा करने की कोशिश

सालाहुद्दीन को मालूम था कि ईसाईयों का पहला हदफ़ क़ुदस होगा, इस लिए उन्होंने इसमें अपनी फ़ौजें मजबूत की थीं, और क़ुदस और उसके आस पास से रिचर्ड की फ़ौज पर छापे मारना शुरू कर दिए, जिसने उसे ख़ौफ़ ज़दा किया, फिर सालाहुद्दीन ने फ़िलिस्तीन के बुद्दू क़बाइल को मुतहर्रिक किया, उन क़बाइल ने यरूशलम की ओर बढ़ने वाली ईसाई फ़ौज के ख़िलाफ़ अज़ीम जिहाद की तहरीकें शुरू कीं, जिसने रिचर्ड को थका दिया, वह पूरे रास्ते उन हमलों में मशगूल रहा, रिचर्ड उन हमलों से परेशान होकर बलआख़िर यरूशलम पहुंचा,

उसने देखा कि यरूशलम पूर्ण तौर पर क़िला बंद है, और ख़ुद सालाहुद्दीन और इस्लामी फ़ौज अंदर मौजूद थी। रिचर्ड ने आहवाल मालूम किए कि क़िले कहाँ हैं? कहाँ से उन में आमद व रफ़्त हो सकती है? तहक़ीक़ के बाद उसको मालूम हुआ कि यह इन्तहाई महफ़ूज़ शहर है। अब उसके पास कई रास्ते थे:

एक तो यह कि वह सब एक तरफ़ से हमला करें, इस सूरत में सालाहुद्दीन उन्हें उस तरफ़ से भगा देंगे। दूसरी सूरत यह है कि पूरे यरूशलम के आस पास अपनी फ़ौजें तकसीम करें, इस सूरत में सालाहुद्दीन जिस तरफ़ से चाहे हमला कर सकते थे। एक तरफ़ से हमला करने की सूरत में अगरचे यह फ़ायदा है कि उनकी ताक़त एकजा रहती लेकिन यह सालाहुद्दीन के लिए भी फ़ायदेमंद था क्योंकि उसके पास दूसरी सिमतों से मदद आ सकती थी।

रिचर्ड ने सूरत हाल का बखूबी मुताला किया, उसने सालाहुद्दीन के बारे में बहुत से सवालात पूछे कि वह कैसे लड़ता है? किस तरह वह हरकत में आते हैं? उन सब के बाद वह इस नतीजे पर पहुंचा जिसका उसने फ़ौज में इलान किया: कि क़ुदस एक ऐसा शहर है जिस को फ़तह नहीं किया जा सकता जब तक उसमें सालाहुद्दीन ज़िंदा मौजूद हो, यह व्यक्ति जिसने इन लम्बे सालों में उस जज़्बे जिहाद के साथ ईसाई फ़ौजों के सामने इस्तिक़ामत के साथ डट कर मुक़ाबला किया, वह हमें उस शहर को फ़तह करने की कोई उम्मीद नहीं देता, जब तक वह उसमें मौजूद है और मुसलमान उन के साथ मौजूद हैं, तो उसका घेराव करना मुमकिन नहीं, क्योंकि अगर अहम एक तरफ़ से हमला करेंगे तो उसके पास इमदाद दूसरी तरफ़ से आएगी और अगर हम क़ुदस के आस पास तकसीम हो गए तो वह किसी भी तरफ़ हमला करके हमें शिकस्त देगा, जबकि हम समुंदर में मौजूद अपने इमदादी सामान से भी दूर हैं और वह अपने मुल्क में हैं और इमदादी सामान के क़रीब हैं, इसलिए रिचर्ड ने क़ुदस से निकल जाने का हुक्म दिया।

ईसाईयों का विभाजन

जब रिचर्ड ने कुद्दूस से वापस जाने का निर्णय लिया, तो ईसाई समुदाय के बीच विवाद पैदा हुआ, कुछ लोग कहने लगे कि हमने यरोशलेम को प्राप्त करने के लिए यूरोप से आए थे, हम कैसे वापस जा सकते हैं? तो रिचर्ड ने उनसे कहा कि मुझे यकीन है कि हम जितना भी लड़ें, कुद्दूस को हासिल नहीं कर सकते, इस पर बहुत संघर्ष हुआ, कुछ ईसाई समुदाय ने घेराव जारी रखने की जिद की, लेकिन रिचर्ड अपनी बात मनवाने में कामयाब हुआ। इस प्रकार रिचर्ड ने पीछे हटकर रमला की तरफ गया, लेकिन इख्तिलाफ़ फिर भी जोरों पर था।

सोर का इसाई हाकिम कोमराज जो इन लड़ाईयों में एक दल के रूप में शामिल था, और रिचर्ड के आने से पहले अक्का को घेरने वाला पहला व्यक्ति था, उन्हें महसूस हो रहा था कि अगर रिचर्ड कुद्दूस से हाथ खींच लेता है तो वह पूरे फिलिस्तीन से हाथ धो बैठेगा, क्योंकि वह तो यूरोप से यरोशलम के लिए आया था और जब यरोशलेम फ़तह नहीं हुआ तो वापस यूरोप चला जाएगा, और इस प्रकार उसने उसे सलाहुद्दीन के पास अकेला छोड़ देगा, जो बहुत बड़ा बदला लेगा। इसलिए उसने रिचर्ड के जाने से पहले सलाहुद्दीन के पास बातचीत के लिए पैगाम भेजा, और उनसे कहा कि मैं सीदा और बैरूत को आपके हाथ में सौंपने के लिए तैयार हूँ, में अक्का में रहूँगा, आप मुझे सुरक्षा दोगे।

फिर से हशशाशियों का आगमन

कुम्राज़ और सलाहुद्दीन के बीच ये पैग़ाम गोपनीय थे लेकिन इसके बावजूद ये खबर रिचर्ड तक पहुँच गई, जिसके कारण रिचर्ड और कुम्राज़ के बीच तनाव बढ़ गया। सलाहुद्दीन चाहते थे कि ईसाई समुदाय के बीच झगड़ा बढ़े ताकि उन्हें उन्हें टुकड़े टुकड़े करने का मौक़ा मिले, लेकिन इस दौरान उसको कुछ हुआ जिसकी उम्मीद भी नहीं थी, इसलिए हशशाशियों ने कुम्राज़ को क़त्ल किया और सलाहुद्दीन को भी क़त्ल करने की कोशिश की लेकिन कामयाब नहीं हुए, कुम्राज़ की हत्या करके उन्होंने मुसलमानों के लिए ईसाईयों को टुकड़े टुकड़े करने का एक मौक़ा खो दिया, इसलिए रिचर्ड के लिए माहौल साफ़ हुआ, और उसने हालात पर नियंत्रण पाया। यह जो हुआ इससे महसूस होता है कि बातिनियत के विचारों से इस्लाम और मुसलमानों को कितना खतरा था।

रिचर्ड की उलझन

सलाहुद्दीन अपनी सेनाओं को विभिन्न शहरों में भेजते रहे और उन शहरों की हिफाजत की कोशिश करते रहे, और वह ये सभी जंगें जीतते रहे, रिचर्ड उलझन में पड़ गया, उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसे क्या करना चाहिए? क्या वह यहाँ से वापस चला जाए और यूरोप लौट जाए? जो बहुत बड़ी हानि होगी, या वह यरोशलेम में प्रवेश किए बिना यहाँ रहे, यह भी बड़ी असफलता थी!?

जहाँ तक यरोशलेम पर हमले की बात है तो यह नामुमकिन था, इसलिए रिचर्ड सलाहुद्दीन से लड़ता रहा और सोचता रहा कि क्या किया जाए, उसने कुद्दूस के अलावा सभी फिलिस्तीन पर कब्ज़ा कर लिया था। इस दौरान अल्लाह का करम हुआ कि रिचर्ड गंभीर बीमार हो गया, जिससे वह तकरीबन मरने के करीब आ गया, सलाहुद्दीन ने उसके लिए डॉक्टर, फल और बर्फ़ भेजा, लोग सलाहुद्दीन के इस तरीके पर हैरान हो गए और उन पर तंज़ीम करने लगे कि उन्होंने अपने दुश्मन की मदद की, और उसके इलाज की कोशिश कर रहे हैं।

लेकिन गौरकरने वाला उसे दूसरे रूप से देख रहा था, सलाहुद्दीन बहुत होशियार और गहरी बसीरत वाले थे, चुनांचा कुछ इतिहासकारों ने उनके इस तरीके के काम की व्याख्या की है कि क्योंकि रिचर्ड यरोशलेम की फ़तह के लिए आया था और फिर वह उसके हाथ में आ गया था, क्योंकि उसे यकीन था कि कुद्दूस को फ़तह करना नामुमकिन है, इस स्थिति में रिचर्ड का जीना उससे बेहतर था कि कोई और कमांडर उसकी जगह आता और वह यरोशलेम पर हमला करने का निर्णय करता। जबकि कुछ इतिहासकारों का ख़याल है कि सलाहुद्दीन ने यह सुलूक दरगुज़र के तौर पर किया था क्योंकि वह बहुत ज़्यादा दरगुज़र करने वाले थे।

रिचर्ड और सलाहुद्दीन के मुजाकिरात (बातचीत)

कोई वजह जो भी हो, रिचर्ड अपनी बीमारी से स्वस्थ हो गया, और सलाहुद्दीन के साथ बातचीत पर सहमत हो गया, और दो वजहों की वजह से सलाहुद्दीन को शांति की प्रस्तावना की: पहला इसलिए कि यरुशलेम को फतह करने के लक्ष्य में उसका सफल होना असंभव है, और दूसरा इसलिए कि सलाहुद्दीन के तरफ से हैरानगी और दिलेराना सुलूक किया गया था। ऐसे में सलाहुद्दीन अय्यूबी ने अपने भाई अलादिल को बातचीत के लिए भेजा।

यहाँ बहुत सी ख्याली कहानियाँ हैं जिनसे इतिहास की किताबें भरी हैं, एक कहानी यह है कि रिचर्ड ने सलाहुद्दीन के साथ जंग की थी, दूसरी कहानी यह है कि सलाहुद्दीन ऐयूबी डॉक्टर के वेश में खुद रिचर्ड के इलाज की निगरानी के लिए गए थे, ये सभी असार हैं, यह सिद्ध नहीं है। जो बात इतिहासी तौर पर सिद्ध है वह यह है कि रिचर्ड ने सलाहुद्दीन के साथ मुलाकात के लिए अनुरोध किया, लेकिन सलाहुद्दीन ने इनकार किया और अपने भाई अलआदिल को बातचीत के लिए भेज दिया।

मुजाकिरात में ईसाई की तरफ से जो मौलिक शर्त थी वह यह थी कि ईसाई यरुशलम ले लेंगे जबकि मुसलमानों को वहाँ इबादत करने की इजाजत दी जाएगी, और हरम मुकद्दस पर मुसलमानों का कंट्रोल होगा, ये वही शर्तें हैं जो आज भी दोहराई जा रही हैं कि क्या क़ुदस यहूदियों का कानूनी तौर पर होगा, अलबत्ता मुसलमानों का मस्जिद अल-अक्सा पर व्यवस्था का कैंट्रोल होगा।

यही प्रस्ताव रिचर्ड ने अलादिल को किया था, अलादिल ने इस बारे में सलाहुद्दीन को सूचित किया, सलाहुद्दीन ने जवाब दिया: “क़ुदस जैसे कि तुम्हारे नज़दीक मोहतरम है उसी तरह हमारे लिए भी मोहतरम है, क्योंकि यह हमारे नबी ﷺ का मंज़िल ए मेराज है, इसलिए यह सोचा नहीं जा सकता कि हम क़ुदस को छोड़ देंगे, किसी भी मुसलमान को इस पर हक़ हासिल नहीं कि वह क़ुदस किसी के हवाले करे चाहे वह कोई भी हो, जहाँ तक फ़िलिस्तीन के कुछ हिस्से आपके ज़ेर कंट्रोल हैं, वह वहाँ के मुसलमानों की कमज़ोरी के कारण आपके कब्ज़े में अस्थाई तौर पर हैं, आज जो हम आपके साथ बातचीत कर रहे हैं वह स्थायी आधारों पर नहीं बल्कि अस्थायी अमन के आधार पर हैं, बाक़ी यह नहीं होसकता कि हम क़ुदस हवाले करें।”

मुजाकरात कुछ देर तक जारी रहे, सलीबी कुदस के हासिल होने पर अड़े रहे, सलाहुद्दीन अय्यूबी भी अपने स्थिति पर डटे रहे, जब उन्होंने यरुशलेम पर इच्छा जताई तो सलाहुद्दीन ऐयूबी ने मुजाकरात समाप्त करने का ऐलान किया और साथ ही जिहाद का ऐलान भी किया, उन्होंने कहा कि क़ुदस से दस्तबर्दारी नहीं हो सकती, इसके अलावा कोई भी शहर हो उस पर मुजाकीरात के लिए तैयार हूं, जहाँ तक क़ुदस का तालुक है उस पर खून के अलावा किसी भी बात पर दस्तबर्दारी नहीं हो सकती।

अल्लाह ताला का करना ऐसा हुआ कि जैसे ही सलाहुद्दीन ऐयूबी ने मुखातिबात समाप्त करने का ऐलान किया और जिहाद का ऐलान किया, उसके बाद इंग्लैंड से यह खबर आई कि रिचर्ड के भाई जॉन ने इंग्लैंड पर कब्जा कर लिया, और उसने घोषणा की कि रिचर्ड के बजाय वह इंग्लैंड के बादशाह होंगे, रिचर्ड अत्यंत उलझन में पड़ गया, वह यरुशलेम को फटाकरने आया था, वह तो हासिल नहीं कर सका, उलट इंग्लैंड उसके हाथ से निकल गया, इसलिए उसने जल्दी से इंग्लैंड जाने का फैसला किया, उसके लिए अपने राज्य को बचाना अधिक महत्वपूर्ण था, उसने इंग्लैंड जाने की तैयारी शुरू की।

इन हालातों में सलाहुद्दीन ऐयूबी ने अपनी सेना को याफ़ा की ओर बढ़ाया, और उसे फ़त्ह किया, अगर उसकी क़िला बंदी की गई थी और उसमें बहुत ज़्यादा सैनिक थे। जहां तक रिचर्ड का तालुक है उसने यह देखा कि वह और लड़ाई जारी रखने के लायक नहीं रहा, और उसे जल्द ही इंग्लैंड जाना चाहिए, जबकि सलाहुद्दीन ने भी जिहाद का ऐलान किया है और हमला करना शुरू किया है, इसलिए रिचर्ड ने यरुशलेम से दस्तबर्दारी पर रज़ामंदी ज़ाहिर करते हुए फिर से सलाहुद्दीन के साथ मुजाकिरात करने को कहा, सलाहुद्दीन ने बातचीत के लिए रज़ामंदी ज़ाहिर की, क्योंकि क़ुदस का मामला दरमियान से निकल गया था, सलाहुद्दीन ने अलादिल को फिर से मुजाकिरात के लिए भेजा।

रिचर्ड ने 1192 ईसवी में मुसलमानों की शराइतों से सहमति की, हालांकि उन्होंने सलाहुद्दीन ऐयूबी के साथ कुछ शहरों पर असहमति जताई, लेकिन अंत में दोनों पक्षों ने समझौते पर सहमति जताई कि यरुशलेम को इस्लामी शहर के रूप में स्वीकार करने के बदले सूर (टायर) से लेकर याफा तक समुद्र तटीय क्षेत्र रिचर्ड के हाथों में रहेंगे। सलाहुद्दीन रिचर्ड के साथ किसी प्रकार की युद्धविरामी करना नहीं चाहते थे, लेकिन उन्हें चाहिए था कि समुद्र तटीय शहरों का संभवतः सैनिक अधिकार न रहे, इसलिए सलाहुद्दीन ने अपनी फ़ौज, रिश्तेदारों और सहायकों की दबाव में रिचर्ड के साथ समझौते पर मजबूर हो गए।

इसकी वजह थी कि सलाहुद्दीन की सेना लगातार चार साल तक चली जा रही जंग की लंबाई के कारण अपनी ताकत को खो चुकी थी, और सैनिक थक कर टूट चुके थे। सैन्य नेताओं ने देखा कि रिचर्ड की वापसी और यरुशलेम से निकास एक बड़ा लाभकारी मौका था जो नष्ट नहीं होना चाहिए था। इन परिस्थितियों में सलाहुद्दीन ऐयूबी ने इस पर रजामंदी जताई और रिचर्ड के साथ समझौते पर हस्ताक्षर किए, हालांकि वे खुद जिहाद जारी रखने को अधिक अफ़ज़ल मानते थे।

तीसरी सलीबी जंग का अंत

ईसाई मुस्तकिल अमन की मांग कर रहे थे, लेकिन सलाहुद्दीन अय्यूबी ने जंग बंदी का समय तीन साल और तीन महीने तक मुख्या कर दिया। जंग बंदी के मुआदे के दौरान यह भी था कि ईसाईयों को अपने मुकद्दस मकामात पर जाने की इजाज़त होगी, इस शर्त पर कि वे कम संख्या में जाएँगे ज़्यादा संख्या में नहीं।

हालात पुरसुकून हुए, रिचर्ड ने सलाहुद्दीन से यरुशलेम की तरफ हज करने की इजाज़त चाही, सलाहुद्दीन ने उन्हें इजाज़त दी, और रिचर्ड ख़ुद यरुशलेम गया, यरुशलेम की ज़ियारत की, और फ़ौरन साहिल की तरफ़ वापस आया, और वहां से इंग्लैंड के लिए रवाना हुआ। बाक़ी रिचर्ड की कहानी इंग्लैंड से मुताल्लिक बहुत लम्बी है जो हमारे मक़सद की नहीं। चौचीज़ हमारे मक़सद की है वह यह है कि तीसरी सलीबी जंग का इस तरह अंत हुआ, जिसमें पांच लाख से ज़्यादा सालिबियों ने हिस्सा लिया था, जिसका अंत नाकामी पर हुआ, यह संख्या कम नहीं थी बहुत बड़ी संख्या थी, यहाँ तक कि हमारे ज़माने के इतिहास के अनुसार भी यह बहुत बड़ी संख्या है, इस समय की तो बात ही कुछ और है।

इसके बाद से सलाहुद्दीन का नाम एक ऐसा नाम बन गया जिसने यूरप को हिला कर रख दिया था, उसका वुज़ूद कपकपी तारी कर देता था, लोग उनसे बहुत डरते थे, यहाँ तक कि अगर कोई औरत अपने बच्चों को डराना चाहती तो वह कहती:

चुप कर वरना सलाहुद्दीन आ जाएगा!!

अग्रेज़ उनको उसी नाम से पुकारते थे, जिस तरह माँ अपने बच्चों को बला डराती है उसी तरह वह सलाहुद्दीन से डराती थीं।

सुलह और अमन

इस जंग बंदी के बाद फ़िलिस्तीन में हालात शांत हुए और लोगों में अमन व अमान फैल गया, मुस्लिम ईसाईयों के कब्जे वाले महलों में दाख़िल होने लगे और ईसाई भी मुस्लमानों के इलाक़ों में आते जाते थे, वह मुस्लिमानों से ख़रीद व फ़रोख़्त करते थे, इस जंग बंदी की वजह से इलाकों में अमन व अमान कायम हो गया, जैसा कि रसूलुल्लाह ﷺ और मुश्रिकीन के बीच हुदैबिया के मुआहिदे में हुआ था, मुश्रिकीन मदीना में दाखिल होते थे और मुस्लिम मक्का में दाखिल होते थे। पूरी तरह से जंग बंदी थी और पूरा अमन था, रिचर्ड के जाने के बाद सलाहुद्दीन अय्यूबी भी एक जगह पर आबाद हुए, हज की तैयारी करने लगे, औरअब सलाहुद्दीन के इन्तिक़ाल का भी वक़्त क़रीब आ गया था।

अगली क़िस्त में हम Sultan Salahuddin Ayyubi को अलविदा करेंगे


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