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salahuddin ayyubi ka inteqal aur unke baad

फिलिस्तीन का इतिहास किस्त 12

इस में हम Sultan Salahuddin Ayyubi को अलविदा कहेंगे और उनके बारे में कुछ जानेंगे और देखेंगे आपके बाद आपकी हुकूमत का क्या हुआ जिसको आपने लगातार 15 20 साल तक घोड़े की पीठ पर बैठ कर हासिल किया था

” फिलिस्तीन का इतिहास ” की ये बारवीं किस्त है पिछली सभी किस्तें पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें Click Here Sultan Salahuddin Ayyubi के इतिहास का कुछ हिस्सा हमने किस्ट 9 में बयान किया था उसे पढ़ने के लिए Click Here और किस्त 10 पढ़ने के लिए Click Here और 11 पढ़ने के लिए Click Here अब आगे का इतिहास इस किस्त में बताएंगे

सलाह उद्दीन अय्यूबी की विदाई!

इब्न शदाद एक महान इतिहासकार थे, वे सलाह उद्दीन अय्यूबी के साथी थे और क़ाज़ी और फ़क़ीह भी थे। कहते हैं के एक बार सलाह उद्दीन ने मुझसे पूछा कि कौन सी मौत सबसे ज़्यादा इज़्ज़त वाली है? तो इब्न शदाद ने कहा कि अल्लाह के रास्ते की मौत। इस पर सलाह उद्दीन ने कहा कि मेरी आख़िरी ख़्वाहिश यह है कि सबसे ज़्यादा इज़्ज़त वाली मौत नसीब हो, मैं बरसों से यह तमन्ना करता हूं कि कोई मुझे मैदान जंग में क़त्ल कर दे, अब जंग बंदी हो गई है, अमन हो गया है, लेकिन मैं चाहता हूँ कि अल्लाह के रास्ते में शहीद हो जाऊं।

सलाह उद्दीन का अपना सफ़रे हज मन्सूख़ करना:

जब सलाह उद्दीन अय्यूबी हज़ की तैयारी करने लगे तो मिस्र के क़ाज़ी की तरफ़ से ख़त आए कि मुसलमानों के हालात की तरफ़ तुझे ध्यान दें, हज छोड़ दें, मुल्क तबाह और माशियत तबाह हो गई है, फ़सादात की आग भड़कने लगी है, तुम हज छोड़ दो, मुल्क की तरफ़ मुतावज्जो हो जाओ, यह हज से बड़ा काम है। सलाह उद्दीन ने उनकी बात मान ली और हज का इरादा त्याग दिया।

सुल्तान सलाह उद्दीन की अज़ीम शख़्सियत

शव्वाल 588 हिज्री, अक्टूबर 1192 ईसवी को सलाह उद्दीन ने बैरूत का सफ़र किया और वहाँ के लोगों ने उनका शानदार स्वागत किया, इसी साल नवम्बर में चार साल के बाद वह दमिश्क के दार अल-हुकूमत आए, वहाँ भी सलाह उद्दीन का शानदार स्वागत किया गया। Salahuddin Ayyubi ने 24 साल मिस्र में हुकूमत की और 19 साल मुल्के शाम मे इसमें से 19 साल घोड़े की पीठ पर गुजारे और अल्लाह की राह में जंग कीं। इस दौरान वे क्षेत्र के राजनीतिक भूगोल और फिलिस्तीन की राजनीतिक स्थिति को बदलने में सफल हो गए, तीसरी क्रुसेडर (सलीबी)युद्ध को नाकाम बना दिया, ईसाईयों को सागरीय किनारे तक सीमित किया, देश में शांति स्थापित की, विकास और प्रगति के काम किए, और हाजियों के रास्ते को सुरक्षित बनाया।

लोगों के पैसों से परहेज

सलाह उद्दीन के भाई अलआदिल ने उनसे हलब में ज़मीन का एक टुकड़ा मांगा, सलाह उद्दीन ने एक पत्र में उनको यह जवाब दिया: क्या तुम यह समझ रहे हो कि देश बेचा जा रहा है? तुम्हें मालूम नहीं कि देश उसके बासिन्दों का है और हम उनके रखवाले और उनके संपत्तियों के मुहाफिज हैं!

इस तरह लोगों के पैसों और मुसलमानों की ज़मीनों से परहेज़ में वे मशहूर थे जैसे वे रवादारी और रहमदिली में मशहूर थे, जिन दिनों जंग की वजह से उनके पास काफिर क़ैदी बहुत ज़्यादा थे, सलाह उद्दीन अपने बच्चों को भी साथ ले जाते थे, यहाँ तक कि जिन की उम्र दस बारह साल होती उनको भी जिहाद के लिए ले जाते थे, उनके कुल सत्रह बच्चे थे, सभी उनके साथ मैदान जाते थे, एक जंग में उनके छोटे बच्चों में से एक ने एक क़ैदी को क़त्ल करने की इजाज़त माँगी तो सलाह उद्दीन बहुत ग़ुस्सा हो गए, उसको खूब डांटा, लोग उसको देख कर हैरान रह गए क्योंकि उस क़ैदी को क़त्ल की सज़ा सुनाई गई थी तो सलाह उद्दीन क्यों अपने बच्चे को रोक रहे हैं? सलाह उद्दीन ने कहा ताकि यह वह ख़ूनरेज़ी का आदि ना हो, हम ज़रूरत पर क़त्ल करते हैं, हम अपने बच्चों की परवरिश इस तरह नहीं करेंगे। यह सलाह उद्दीन की अख्लाक और रवादारी थी।

सलाह उद्दीन के अख्लाक और अहले इल्म से मुशावरत

सलाह उद्दीन आयुबीؒ मशवरे के बग़ैर आगे नहीं बढ़ते थे, वह उलिमा، हुक्मां और फौजी कमांडरों से मशवरे करते थे, अगर वह आप से इख्तिलाफ़ करते और किसी राय पर एक हो जाते तो आप इक्तेफाक करते और सलाह उद्दीन उनके साथ चलते थे जैसा कि हमने रमला के सुल्ह नामे में देखा।

वह पाकिज़ा ज़बान, साफ़ सुथरे मजलिस वाले थे, नरम मिज़ाज थे और ग़ुस्सा नहीं करने वाले, ग़रीबों और मसकीनों पर मेहरबान थे, उनकी ख़्वाहिश थी कि वह पूरे शाम को फ़तह करके उसे ईसाईयों से पाक करें ताकि वह यूरप पर हमला कर सकें। इस तरह उनकी ज़िंदगी इरादे, शौर्य, हिम्मत और जज़्बे से भरी हुई थी, इसलिए लोग उनसे बहुत अधिक प्यार करते थे।

एक बीमार बादशाह (Salahuddin Ayyubi ) के अख्लाक

सलाह उद्दीन अय्यूबी रास्ते में हाजियों का स्वागत कर रहे थे जब उन्हें बहुत थकावट महसूस हुई, उन्हें बुखार और सिर में तेज़ दर्द था। इतिहासकार इब्न शदाद कहते हैं कि मैं और क़ाज़ी फाज़िल उनके पास आए और जब हम उनके पास से निकले तो क़ाज़ी फाज़िल ने मुझसे कहा कि तुम्हें ख़ुशख़बरी हो, सलाह उद्दीन अय्यूबी के अदब बहुत शानदार हैं। मैंने पूछा कैसे? तो उसने कहा कि मैंने सलाह उद्दीन को गरम पानी मांगते देखा,

क्योंकि वह बीमारी की वजह से ठंडा पानी नहीं पी सकते थे और न ही बहुत गरम, तो ख़ादिम बहुत गरम पानी ले कर आए, सलाह उद्दीन वह पानी पी नहीं सके, ख़ादिम वह पानी ले कर गए और ठंडा पानी लाये, सलाह उद्दीन वह भी पी नहीं सके, फिर सलाह उद्दीन ने कहा कि नीम गरम ले कर आओ, इससे ज़्यादा कुछ नहीं कहा। इसके बाद क़ाज़ी ने कहा कि अल्लाह की क़सम अगर कोई दूसरा बादशाह होता और उसने दो मर्तबा ऐसा कहा होता तो तीसरी मर्तबा मैं वह ग़ुस्सा होता, चीखता और शायद सज़ा भी सुना देता। ऐ इब्न शदाद! तुम्हें ख़ुशख़बरी हो, मुसलमान ऐसे बादशाह को अलविदा कहने के क़रीब हैं।

एक महान बहादुर की मौत:

589 हिज्री, 1193 ईसवी को सलाह उद्दीन अय्यूबी सिर्फ़ बारह दिन की बीमारी के बाद इंतक़ाल कर गए, क़ाज़ी उनकी क़ब्र में उतरे उनके हाथ में तलवार थी, उन्होंने तलवार उनके पहलू में रखी और कहा कि यह तलवार जन्नत में जाने का सहारा है, यह तलवार सोलह साल जिहाद की गवाही देगी, जिसमें बड़ी-बड़ी जीतें शामिल हैं जिसमें उन्होंने ईसाईयों को हराया है।

सलाह उद्दीन अय्यूबी के इंतक़ाल पर मुस्लिम मुल्कों में शदीद अफ़सुर्दगी फ़ैली, उनकी वफात की ख़बर यूरप पहुँची उन्होंने भी ग़म का इज़हार किया, ईसाईयों ने कहा कि हमने जिन मुसलमानों के साथ लड़ाईयाँ की हैं उनमें सलाह उद्दीन अय्यूबी जैसा अदब और किरदार वाला नहीं देखा, ईसाईयों ने उनके बारे में किताबें लिखी हैं जो अब भी मौजूद हैं, जिसमें उनके अदब और हस्न सुलूक का ज़िक्र है।

सलाह उद्दीन अय्यूबी का झंडा

सलाह उद्दीन अय्यूबी ने अपनी वफात से पहले झंडा उठाने वाले को बुलाया, वह तमाम जंगों में उनके झंडे को उठाते थे। सलाह उद्दीन ने उनसे अपना इतिहासी क़ोल ईर्शाद फ़रमाया: “तुम ही हो जिसने जंग में मेरा झंडा उठा रखा था, मेरे मरने के बाद भी मेरा झंडा उठाकर रखो, और एक लम्बे नेज़े की नोक पर इस झंडे को उठाए रखो और पूरे मुल्क शाम में चक्कर लगाओ और लोगों में इलान करो, लोग इस झंडे को देख रहे होंगे उनसे कहो कि इस झंडे वाला बादशाह मर गया है, और वह अपने साथ एक चिथड़े के सिवा कुछ नहीं ले गया, जिसमें उसे कफ़न दिया गया है, वह कपड़ा उनके हाथ में था जो बूसीदा हो गया था, लोगों से कहो कि सलाह उद्दीन की सभी विशाल सल्तनतें और उसके हाथ में मौजूद बेपनाह ख़ज़ाने यहीं रह गए, वह अपने साथ कुछ नहीं लेकर गया, वह अपने साथ कितान के उन तीन गज़ कपड़े के अलावा कुछ भी नहीं लेकर गया।

सलाह उद्दीन का झंडा एक बोसीदा चिथड़ा था, क्योंकि सलाह उद्दीन ने अपनी सभी जंगों में इसे तब्दील नहीं किया था। उनकी जंगें सोलह साल चली थीं, वही झंडा गिरता रहता और उठाया जाता था। सलाह उद्दीन अय्यूबी इस दुनिया से चले गए, सिर्फ़ कफ़न अपने साथ लेकर और पीछे सिर्फ़ एक झंडा छोड़ गए। सलाह उद्दीन अय्यूबी एक महान मुस्लिम व्यक्तित्व थे, उन्होंने ख़ालिस नियत, अल्लाह तआला पर तवक़्क़ुल, शहादत और जिहाद से मोहब्बत, मुआरकौं में घुसने और उम्मत मुस्लिमा को एकजुट करने के हिर्स की जैसी सिफ़ात का नमूना थे। इसके अलावा वे फिकही उलूम और कयादत के सिफ़ात से भी मुज़ीय्यन थे। उनकी ख़्वाहिश यह थी कि अल्लाह तआला की ज़मीन को ज़ुल्म से पाक किया जाए और उसमें इंसाफ़ आम किया जाए, उनके साथ साथ वे आम लोगों के पैसों से परहेज़ करते थे और ज़िंदगी भर सादगी को इख़्तियार किया।

लोगों की मोहब्बत के लिए सलाह उद्दीन

कहा जाता है कि जंग ए हित्तीन से पहले हरम की एक मस्जिद में एक ख़तीब ने खलीफ़ा अब्बासी, वाली मक्का और सलाह उद्दीन तीनों के लिए दुआएँ मांगीं, सब पर लोग आमीन कहते थे, लेकिन जब सलाह उद्दीन के लिए दुआ मांगी तो तकबीर और आमीन की आवाज़ से मस्जिद गूंज उठी, यह जंग ए हित्तीन से पहले लोगों की सलाह उद्दीन अय्यूबी के साथ मोहब्बत की बात है, जंग हतीन की कामयाबी के बाद इसमें और भी इज़ाफ़ा हुआ।

सलाह उद्दीन की अपने बेटे को वसीयत

सलाह उद्दीन ने अपने बेटे अलमलिक अलअफ़्ज़ल के लिए एक महान वसीयत छोड़ी जिसमें वह कहते हैं:

“मैं तुम्हें अल्लाह से डर करने की वसीयत करता हूँ, क्योंकि यह तमाम नेकियों का सरचश्मा है, मैं तुम्हें हुक्म देता हूँ कि तुम वह करो जिसका अल्लाह ताला ने हुक्म दिया है, क्योंकि यही तुम्हारी कामयाबी की ज़मानत है। मैं तुम्हें ख़ूनरेज़ी और इसमें शामिल होने से ख़बरदार करता हूँ, तुम किसी शक की बुनियाद पर क़त्ल न करो, बिना किसी वजह के क़त्ल न करो, क्योंकि ख़ून कभी भी ज़ाया नहीं जाता, उसकी सज़ा ज़रूर इन्सान को मिलती है। मैं तुम्हें नसीहत करता हूँ कि अपने रीयाओं(जनता) के दिलों का ख़्याल रखा करो, उनकी हिफ़ाज़त का ख़्याल रखो, क्योंकि तुम मेरी तरफ़ से और अल्लाह ताला की तरफ़ से रियाओं के ज़िम्मेदार हो। मैं तुम्हें नसीहत करता हूँ कि हुक़्काम, अरबाबे सल्तनत और बड़ों के दिलों का भी ख़्याल रखो, क्योंकि मैंने जो कुछ हासिल किया है वह लोगों के साथ मिलकर हासिल किया है। किसी से बुग़्ज़ मत रखो क्योंकि मौत सब कुछ का ख़ातमा करती है। लोगों के हक़्क़ का ख़्याल रखो क्योंकि अल्लाह ताला उनकी रज़ामंदी के बगैर माफ़ नहीं करता, रही बात अल्लाह ताला के हक़्क़ की, तो अल्लाह ताला बख़्शने वाला है, फ़य्याज़ है और वह तौबा करने वालों को मायूस नहीं करता।

Sultan Salahuddin Ayyubi

मुस्लिमानों में दुख का राज

आपकी वफात के बाद हर तरफ गम ही गम था आपकी मौत पर शायरों और अदिब्बा ने मर्सिये लिखे जिसका तर्जुमा कुछ इस तरह है

शेर वाली शख्सियत आप कहां चले गए?


कहां चले गए वो जिनसे लोग डरते थे और जिनके तोहफों की उम्मीद होती थी?

कहां चले गए वह व्यक्ति, जिनकी बहादुरी ने फ़रंगियों को शर्मसार किया और जिनका इंतिकाम उनसे लिया गया?

ख़ुदा की कसम, कहा हैं अलनासिर, जिनकी नियत ख़ुदा के लिए ख़ालिस (साफ़) थी।

वो इस्लाम की मदद में सदा जागरूक रहता, जन्नत के बाग़ों में उसका मर्तबा आला है।

वह ऐसा बादशाह था जो इस्लाम की वकालत करता था, जब इस्लाम के समर्थक उसे सौंप देते थे।

मुझे नहीं पता था कि एक ऐसा ऊँचा पहाड़ गिरेगा और उसके गढ़े हमें नीचे नहीं लाएंगे।

वो यतिमों और विधवाओं पर रहम करने वाला था, जिसके खैरात बहुत बड़ी थीं।

अगर वह नबी के दौर में होते, तो उनके तारीफ़ में कुरआन की आयतें उतरतीं 

Sultan Salahuddin Ayyubi के बाद

सलाह उद-दीन के निधन के बाद उनके रिश्तेदारों और बेटों ने बादशाही संभाली, सलाह उद-दीन की महान सल्तनत उनके दरमियान तकसीम हो गई, जिसमें सलाह उद-दीन के बेटे अल-मलिक अल-अफजल अली बिन सलाह उद-दीन भी थे, वे दमिश्क, कुद्स और मग़रिबी शाम के हुक्मरान थे, और सलाह उद-दीन के दूसरे बेटे अल-मलिक अल-अज़ीज़ उस्मान बिन सलाह उद-दीन ने मिस्र की बादशाही संभाली थी, और सलाह उद-दीन के भाई अल-मलिक अल-आदिल ने जॉर्डन, करक की हुकूमत संभाली, उनके अलावा भी कई नाम हैं।

बहरहाल, सलाह उद-दीन अय्यूबी की ममलकत टुकड़े टुकड़े होकर तकसीम हो गई। और जब कुछ गवर्नरों ने भी आजाद मुल्कों का ऐलान किया तो मामलात ने और ज़्यादा संगीनी इख्तियार की, जैसे मोसुल के गवर्नर अज़्उल्दीन मसूद ने। इस ज़माने के उलमा और क़ाज़ियों ने इस तकसीम और टुकड़े टुकड़े होने के ख़िलाफ़ लोगों को ख़बरदार किया, उन्होंने गवर्नरों को मुकम्मल मुतहिद होने की ताक़ीद की, लेकिन उन्होंने इत्तिफ़ाक़ नहीं किया और उलमा और क़ाज़ियों की बात नहीं मानी।

Salahuddin Ayyubi का बेटा अल-अफजल जो दमिश्क, कुद्स और मग़रिबी शाम का हाकिम था वह अपने वालिद की तरह अच्छे तरीके से नहीं था, बल्कि उन्होंने आम लोगों, उलमा और अमीरों के साथ बहुत बुरा सुलूक किया था, लोगों पर ज़ुल्म किया था। अल-अज़ीज़ भी तरीके में अफजल से कुछ ज़्यादा अच्छा नहीं था, अल-अज़ीज़ का मिस्र में तरीके में बुरा था, वह भी लोगों पर ज़ुल्म और अत्याचार किया था।

इस तरह सलाह उद-दीन का बेटा अल-अफजल दमिश्क और कुद्स में राआया पर ज़ुल्म करता था और दूसरा बेटा अल-अज़ीज़, मिस्र और दक्षिणी फ़िलिस्तीन में राआया पर ज़ुल्म करता था, इस तरह उनके दरमियान झगड़े होते रहते थे और आहल-ए-शाम के लिए मुसीबतें बढ़ गईं, वह उन नाइंसाफियों से तंग आ गए थे।

इस तरह… दमिश्क जोर्डन के साथ मिलकर आदिल की हुकूमत में शामिल हो गया, जबकि अज़ीज़ का मिस्र और फ़िलिस्तीन पर कंट्रोल हो गया, जिसमें कुद्स भी शामिल हो गया। इसलिए आदिल और अज़ीज़ महत्वपूर्ण व्यक्ति थे जो मिस्र और शाम पर हुकूमत कर रहे थे, जबकि अफज़ल का मामला था तो उन्हें खुश करने के लिए हौरान का क्षेत्र दिया गया ताकि इन भाईयों और रिश्तेदारों में यह झगड़ा ख़त्म हो जाए।

इस बीच बहुत से आपसी झगड़े और ईसाईयों और अन्य लोगों से जंगें हुईं और मुआहिदे हुए।और 595 हिजरी को मिस्र और दक्षिणी फ़िलिस्तीन के हाकिम अल-अज़ीज़ का भी इंतिक़ाल हुआ।

उनके बाद उनके बेटे अल-मंसूर बिन अल-अज़ीज़ ने इक़्तिदार संभाला, इक़्तिदार के समय उसकी उम्र सिर्फ़ दस साल थी और फिर आपसी झगड़े शुरू हुए लेकिन इस मामले को खत्म करने में अल-अदिल कामयाब रहे और वह मिस्र और अन्य जगहों के हाकिम मुक़र्रर हुए।

अल-अदील ने हुक्मरानी में सलाह उद-दीन अय्युबी के तरीक़े की पैरवी की, उसने अपने बेटों को सल्तनतों पर मुक़र्र किया, मिस्र पर अपने बेटे अल-कामिल मुहम्मद बिन अल-अदिल को मुक़र्र किया, और दमिश्क पर अपने बेटे अल-मुअज़ज़म ईसा बिन अल-अदिल को मुक़र्र किया, उसने हौरान को भी फ़तेह किया और उस पर अपने बेटे अल-अशरफ मूसा बिन अल-अदिल को मुक़र्र किया। जब सारा निजाम अल-अदिल के कंट्रोल में आ गया तो हिजाज़ ने भी अल-अदिल की वफ़ादारी का इलान किया, जिसके बाद अल-अदिल की अच्छे किरदार की वजह से लोग सलाह उद-दीन की ख़ूबियों को उनमें खोजने लगे।

कूदस (जेरूसलम) का सुकूत

अल-अदील के इंतिक़ाल के बाद उसकी सल्तनत उसके तीन बेटों, अल-कामिल, अल-मुअज़ज़म और अल-अशरफ में तकसीम हो गई, ईसाई पोप ने इस हालत से फायदा उठाया और यरूशलम के हासिल करने के लिए सलीबी जंग की दावत देने की शुरुआत की, उसने जान ऑफ़ ब्रेन की नेतृत्व में एक फौज तैनात की और उसे यरूशलम का अपेक्षित बादशाह नामित किया। यह फौज यूरोप से कबरस और वहां से मिस्र की ओर चली, लेकिन वह दमियात के रास्ते से प्रवेश हुई। फौज के कमांडर जॉन ने मिस्र में दमियात के रास्ते प्रवेश करने का चयन किया

ताकि उसके जहाज़ों के लिए नील नदी की दिशा से काहिरा में प्रवेश करना आसान हो, मुसलमानों को जब इस खतरे का एहसास हुआ, तो उन्होंने इसे रोकने के लिए नील नदी की दमियात शाख पर एक बड़ी जंजीर लगा दी जो बहरी जहाज़ों को प्रवेश करने से रोके, इस जंजीर को दमियात के क़िले से मजबूत किया गया था।

ईसाईयों ने दमियात पर कब्ज़ा कर लिया लेकिन काहिरा की ओर जाने से क़ासिर थे, ताहम उन्होंने मिस्र में प्रवेश करने की धमकी दी और उन्होंने अल-कामिल को मिस्र पर कब्ज़े की धमकी के संदेश भेजे, ईसाईयों ने यरूशलम को उनके हवाले करने के बदले मिस्र को खाली करने के लिए तैयारी ज़ाहिर की, इस दौरान दमिश्क के गवर्नर अल-कामिल के भाई अल-मुअज़ज़म ने अपने भाई की सहायता के लिए एक छोटी सी फौज भेजी और अल-कामिल ने मुसलमानों से मदद की दरख़ास्त करने के लिए ख़त और किताबत शुरू की।

यरूशलम पर मुजाकरात

यह वह समय था जिसमें मंगोल तातारियों ने मशरिक से रवाना होकर दुनिया को अपने लपेट में ले लिया था, मंगोलियों ने मशरिकी एशिया और हिंदुस्तान के इलाकों पर क़ब्ज़ा कर लिया था, और आगे की तरफ हरकत करने लगे, यहाँ तक कि इराक के मजाफ़ात में पहुंच गए और अब्बासी खिलाफ़त को ख़तरा लाहिक़ हो गया, जिस की वजह से मुसलमान मिस्र में ईसाइयों के खिलाफ़ अल-कामिल की समर्थन करने की पोज़िशन में नहीं थे, अल-कामिल को यक़ीन हो गया कि लोग उन हालात में उनकी मदद नहीं कर सकेंगे। तो उन्होंने ईसाईयों को मिस्र से निकालने के बदले यरूशलम उनके हवाले करने के लिए सहमति ज़ाहिर की।

अल-कामिल की सहमति के बाद दमियात में तयीनात ईसाइयों ने पोप को पेशग़ाम भेजा ता कि वह मुआहिदे के बारे में उनकी राय मालूम करें, पोप ने पेग़ाम भेजा कि तुम मिस्र से दस्तबरदार न हों, क्योंकि उनके पास और कोई महफ़ूज़ जगह नहीं है, पोप ने उन्हें हुक़्म दिया कि वह मिस्र पर कब्ज़ा करें और फिर यरूशलम की तरफ़ जाएं। इस तरह दमियात का घेराव सत्रह महीनों तक जारी रहा, घेराव ने बहुत शिद्दत इख्तियार की, जिसकी वजह से दमियात के क़िले के अंदर सूखा पड़ गया, कहा जाता है कि एक अंडा एक दीनार सोने की क़ीमत का हो गया था।

अंततः 616 हिजरी में, 1219 ईसवी में दमियात ईसाईयों के कब्जे में आ गया, इसके बाद उन्होंने काहिरा पर कब्जा करने की तैयारी शुरू कर दी, और उन्होंने पोप से और सेनाएं भेजने का आग्रह किया, और ऐसा ही हुआ, यूरोप से और सेनाएं आईं, जिसके बाद सेनाएं सूखे और समुद्री दोनों रास्तों से काहिरा की ओर बढ़ीं, लेकिन मिस्र के लोग बहादुर थे उन्होंने सेना का मुकाबला शुरू किया, उन्होंने उन पुलों को तोड़ दिया जो नील के पानी को दिहाना से रोके हुए थे, पूरा दिहाना पानी से भर गया,

जिसकी वजह से ईसाई सेना की काहिरा की ओर जाने में बहुत परेशानी हुई। जब भी ईसाई सैनिक काहिरा की ओर नई सड़क लेने की कोशिश की तो मिस्र के लोगों ने उसे पानी से भर दिया और गाढ़े बांध बना दिए, यह हालात पूरे तीन साल तक जारी रहे, इस दौरान ईसाई काहिरा तक पहुंच नहीं सके, जिसकी वजह से वे थक गए, ऐसा करने के बाद उन्होंने दमियात की ओर वापस जाने का फैसला किया।

लेकिन दमियात के लोग भी ईसाई सेना के खिलाफ घात लगाकर हमले, छापे और झड़पें तरतीब देने में लगे थे, इस गोरिल्ला युद्ध के तहत ईसाई सेना को तीन साल बाद आका (टायर) की ओर पीछे हटने पर मजबूर किया गया, और इस तरह मिस्र पर कब्ज़ा का खतरा टल गया।

मंगोलों की तहरीकातें

जहां तक मशरिक की बात है, इराक पर मंगोलों की धमकियाँ जारी थीं, लेकिन ऐसा हुआ कि मंगोलों के बादशाह चिंगिज़ खान का इंतिक़ाल हो गया, ऐसा करने के बाद मंगोलों को अपने अंदरीय मामलों को तर्क देने और इराक पर हमला करने से रोकने पर मजबूर होना पड़ा, लेकिन कुछ समय के बाद मंगोलों ने अपना रुख उत्तर की ओर बदल दिया, उन्होंने मस्को पर कब्जा कर लिया और कुछ यूरोपीय देशों पर हमला करने की कोशिश की, इसके बाद वह दकज़िनूब की ओर लौटे और हिंदुस्तान, अफगानिस्तान और फारस पर कब्ज़ा कर लिया, इसके बाद इराक को फिर से ख़तरा शुरू हुआ।

मंगोलों के शहरों में दाख़िल होने का तरीक़ा वहशीयाना और सफ़ाक़ाना था, उन्होंने शहरों को तबाह किया, जलाया और उनके लोगों को क़त्ल किया, वह ग़ैरमहज़ब और बेदीन लोग थे।

फ्रेडरिक यारोशलम का उम्मीदवार बादशाह

624 हिज्री में चंगेज ख़ान की मौत के बाद मशरिक-वस्ती इस्लामी ममालिक पर मंगोलों के हमले ठम गए, इस समय के जर्मनी के बादशाह को फ़्रेड्रिक द्वितीय कहा जाता था, उनको “चर्च से निकाला हुआ” के नाम से भी याद किया जाता था, क्योंकि पोप ने उनकी मुक़द्दस महरूमी कलीसा बदरी का इलान किया था, और उन्हें जन्नत से महरूम किया था, इसकी वजह यह थी कि जब पोप ने उन्हें जेरुसलेम के ख़िलाफ़ सलीबी जंग का हुक्म दिया था तो उन्होंने इस तामील करने से इंकार किया था, जिसकी वजह से उन्हें ज़िन्दीक ए आज़म का लकब दिया गया था।

इस दौरान जान ऑफ़ ब्रेन भी मर गया था जो मिस्र से आया था और ईसाई सल्तनतों पर क़ाबिज़ हुआ था, यह फ़िलस्तीन में ईसाईयों का बादशाह बन गया था, उनका इंतिक़ाल होने के बाद उसकी बेटी अज़ाबिला ने हुक़ूमत संभाली जो उसके तख़्त के वारिस थी, अगरचे उस तारीख़ तक यरूशलेम पर ईसाईयों का क़ब्ज़ा नहीं था।

जर्मनी के बादशाह फ़्रेड्रिक ने अज़ाबिला से शादी की प्रस्तावना की, उसने रजामंदी ज़ाहिर की, क्योंकि वह एक शाहंशाह था जिससे कोई भी औरत शादी की ख्वाहिश रखती थी, इसलिए उसने उससे शादी की, फ़्रेड्रिक ने उसके नतीजे में अपने आप को क़ुद्स का उम्मीदवार बादशाह क़रार दिया। इसी साल अल-अदिल के बेटे अल-मलिक अल-मुअज्जम का इंतिक़ाल हुआ, उसके बाद शाम और क़द्दस का इक्तिदार अल-अदिल के दूसरे बेटों ने संभाला, अल-मलिक अल-कामिल जो मिस्र का हुक्मरान था, उसने यरूशलेम को अपने साथ मिला दिया, और जॉर्डन के हुक्मरान अल-आश्रफ ने दमिश्क को अपने साथ मिला दिया।

कुदस (जेरुसलेम) ईसाईयों को सौंपना

627 हिजरी में 1229 ईसवी को, इस क्षेत्र में कठिन हालातों और फ्रेड्रिक के नेतृत्व में ईसाइयों की मुहिम के सामने, अल-कामिल ने देखा कि वह ईसाइयों का मुकाबला नहीं कर सकते, इसलिए मुजाकिरात शुरू किये, दोनों गिरोह ने एक नया दस साला समझौता किया जिसमें ईसाइयों ने मिस्र या अल-कामिल की मालकी वाले जगहों पर हमले नहीं करने का वादा किया, इसके बदले में अल-कामिल ने जेरुसलेम, नासिरा, बैतलहम, लीडा और साइदन को फ्रेड्रिक के हवाले कर दिया,

हालांकि फ्रेड्रिक की सेना पांच सौ सैनिकों से अधिक नहीं थी, जैसा कि हमने ऊपर उल्लेख किया है, लेकिन अल-अदिल चाहता था कि वह ईसाइयों की ओर से सुरक्षित हो और अपने भाइयों से लड़ने के लिए फ़रिग हो, इसलिए उसने ऐसा करने में अल-कामिल मुसलमान उम्मत और दीन इस्लाम का बहुत बड़ा गद्दार था।

ईसाइयों के लिए यह विजय नाकाबल यक़ीन थी, फ़्रेड्रिक सादा ताक़त और बग़ैर लड़े जेरुसलेम को वापस हासिल करने में कामयाब हो गया। उसके बाद उसने खुद जेरुसलेम का हज किया, जेरुसलेम के पादरी उस पर गंदगी फेंकने लगे, क्योंकि वह पोप का धत्कारा हुआ था, लेकिन फ़्रेड्रिक ने ईसाइयों से कहा कि तुम ख़ुदा का शुक्र अदा करो कि उसने मुअजिज़ाती तौर पर उन्हें जेरुसलेम वापस कर दिया है।

यक़ीनन इसकी वजह अल-कामिल की बुज़दिली और ख़ियानत थी कि फ़्रेड्रिक ने सिर्फ़ पांच सैनिकों से जेरुसलेम को हासिल कर लिया, जबकि रिचर्ड दी लायनहार्ट ने सलाह उद्दीन एयूबी के ज़माने में पांच लाख सैनिकों के साथ उसे हासिल नहीं किया था जबकि Salahuddin Ayyubi की फौज 12 हज़ार थी। इस घटना से मुसलमान ममलिक नाराज़ हो गए और हर जगह पर उन्होंने अल-अदील की निन्दा की और उसके घिनौने काम पर उसकी रुसवाई की घोषणा की।


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Story of prisoners of Sednaya prison in Syria Urdu

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