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Prophet Muhammad History in Hindi (Beginning of Revelation)

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Seerat e Mustafa Qist 12
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जब रसूलुल्लाह ﷺ की उम्र मुबारक चालीस साल के करीब पहुंची, तो वह वक़्त आ गया जब आपको वही के आसार नज़र आने लगे। सबसे पहले आपको सच्चे ख्वाब नजर आने लगे। आप जो भी ख्वाब देखते, वह हकीकत बनकर सामने आ जाता।

अल्लाह तआला ने सच्चे ख्वाबों का यह सिलसिला इसलिए शुरू किया ताकि अचानक जबराईल अमीन की आमद से आप घबरा न जाएं। इन दिनों आपने सैयदा ख़दीजा रज़ि. से फ़रमाया:

“जब मैं तन्हाई में जाकर बैठता हूं, तो मुझे आवाज़ सुनाई देती है… कोई कहता है: ‘ऐ मुहम्मद… ऐ मुहम्मद।'”

एक बार आपने फ़रमाया: “मुझे एक नूर नज़र आता है, यह नूर जागने की हालत में दिखाई देता है। मुझे डर है कि कहीं इसके नतीजे में कोई बात न पेश आए।”

आपने यह भी फ़रमाया: “अल्लाह की कसम, मुझे जितनी नफरत इन बुतों से है, उतनी किसी और चीज़ से नहीं।”

अल्लाह तआला ने आपको वह्य के लिए तैयार करने के लिए फ़रिश्ते इस्राफ़ील को आपका हमदर्द बना दिया। आप उनकी मौजूदगी को महसूस करते थे, मगर उन्हें देख नहीं सकते थे। इस तरह आपको वह्य के लिए मानसिक और आध्यात्मिक रूप से तैयार किया जाता रहा।

अल्लाह तआला ने आपके दिल में तन्हाई का शौक पैदा कर दिया था। इसी वजह से आप तन्हाई पसंद करते थे। आप अक्सर गार-ए-हिरा (हिरा की गुफा) में जाकर वक़्त बिताते।

गार-ए-हिरा में इबादत

गार-ए-हिरा में आप कई-कई रातें गुज़ारते। आप अल्लाह की इबादत करते। कभी तीन रातें, कभी सात रातें और कभी पूरा महीना वहां गुजारते। आप अपने साथ थोड़ा-बहुत खाना लेकर जाते। यह खाना ज़ैतून का तेल, सूखी रोटी और कभी-कभी गोश्त होता। आप वहां से गुजरने वाले मुसाफिरों या मसाकीन को खाना खिला दिया करते।

गार-ए-हिरा में आप किस तरह इबादत करते थे, इस पर रिवायतें साफ नहीं हैं। उलमा का ख्याल है कि आप कायनात की हकीकत पर गौर और फिक्र करते थे।

पहली वही

आखिरकार वह रात आ गई जब अल्लाह तआला ने आपको नबूवत से नवाजा। यह रबीउल अव्वल का महीना था, तारीख सत्रह थी। कुछ उलमा के मुताबिक, यह रमज़ान का महीना था क्योंकि क़ुरआन रमज़ान में नाजिल हुआ।

पहली वह्य लेकर जबराईल अलैहिस्सलाम तशरीफ लाए। वह सोमवार की सुबह थी। इसी दिन आप इस दुनिया में तशरीफ लाए थे।

आपने फरमाया: “सोमवार का रोज़ा रखा करो, क्योंकि मैं सोमवार को पैदा हुआ और सोमवार को ही मुझे नबूवत मिली।”

बहरहाल, इस बारे में रिवायतें मुख्तलिफ हैं। यह बात तय है कि उस वक़्त आपकी उम्र मुबारक चालीसवां साल थी। आप उस वक़्त नींद में थे कि जिब्राईल अलैहिस्सलाम तशरीफ लाए। उनके हाथ में एक रेशमी कपड़ा था और उस कपड़े में एक किताब थी।

उन्होंने आते ही कहा: ”इक़रा। यानी पढ़िए।”

आपने फ़रमाया: ”मैं नहीं पढ़ सकता।”

इस पर जिब्राईल अलैहिस्सलाम ने आपको सीने से लगाकर ज़ोर से भींचा।

आप फ़रमाते हैं, उन्होंने मुझे इस ज़ोर से भींचा कि मुझे मौत का गुमान हुआ।

इसके बाद उन्होंने मुझे छोड़ दिया और फिर कहा: ”पढ़िए।” ”यानी जो मैं कहूं, वह पढ़िए।”

इस पर आपने फ़रमाया: ”मैं क्या पढ़ूं?”

तब जिब्राईल अलैहिस्सलाम ने सूरह अल-अलक़ (इकरा) की ये आयतें पढ़ीं

اِقۡرَاۡ بِاسۡمِ رَبِّکَ الَّذِیۡ خَلَقَ ۚ﴿۱﴾ خَلَقَ الۡاِنۡسَانَ مِنۡ عَلَقٍ ۚ﴿۲﴾ اِقۡرَاۡ وَ رَبُّکَ الۡاَکۡرَمُ ۙ﴿۳﴾ الَّذِیۡ عَلَّمَ بِالۡقَلَمِ ۙ﴿۴﴾ عَلَّمَ الۡاِنۡسَانَ مَا لَمۡ یَعۡلَمۡ ؕ﴿۵﴾

अनुवाद: ”पढ़ो (हे पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अपने रब के नाम से जिसने पैदा किया। जिसने इंसान को खून के लोथड़े से पैदा किया। पढ़ो, और तुम्हारा रब बड़ा ही कृपालु है। जिसने कलम के ज़रिए ज्ञान सिखाया। जिसने इंसान को वो बातें सिखाईं जिन्हें वह नहीं जानता था।”

Surah alaq
पूरी सुरत

आप फ़रमाते हैं: ”मैंने इन आयतों को वैसे ही पढ़ दिया।

इसके बाद वह फ़रिश्ता मेरे पास से चला गया। ऐसा लगा कि मेरे दिल में एक तहरीर लिख दी गई हो, यानी ये आयतें मुझे ज़बानी याद हो गईं।”

इसके बाद आप घर तशरीफ़ लाए।

कुछ रिवायतों में आता है कि जब जिब्राईल अलैहिस्सलाम गार में आए तो उन्होंने पहले ये अल्फ़ाज़ कहे:

”ऐ मुहम्मद! आप अल्लाह के रसूल हैं और मैं जिब्राईल हूँ।”

आपके घर तशरीफ़ लाने से पहले, सैय्यदा ख़दीजा रज़ियल्लाहु अन्हा ने आपके लिए खाना तैयार करके एक शख़्स के हाथ भिजवाया था, लेकिन उस शख़्स को आप गार में नज़र नहीं आए। उसने लौटकर सैय्यदा ख़दीजा रज़ियल्लाहु अन्हा को यह बात बताई। उन्होंने आपकी तलाश में रिश्तेदारों के पास आदमी भेजे, मगर वहां भी आप नहीं मिले। इसलिए सैय्यदा ख़दीजा रज़ियल्लाहु अन्हा परेशान हो गईं। वो अभी इसी परेशानी में थीं कि आप तशरीफ़ ले आए।

आपने जो कुछ देखा और सुना था, उसकी तफ़सील सैय्यदा ख़दीजा रज़ियल्लाहु अन्हा को बताई।

हज़रत जिब्राईल का यह जुमला भी बताया कि, ”ऐ मुहम्मद! आप अल्लाह के रसूल हैं।”

यह सुनकर सैय्यदा ख़दीजा रज़ियल्लाहु अन्हा ने कहा: ”आपको मुबारक हो! आप यक़ीन कीजिए, कसम है उस ज़ात की जिसके क़ब्ज़े में मेरी जान है, आप इस उम्मत के नबी होंगे।”

फिर सैय्यदा ख़दीजा रज़ियल्लाहु अन्हा आपको अपने चचाज़ाद भाई वरक़ा बिन नौफल के पास ले गईं। गार वाला सारा वाक़िया उन्हें सुनाया। वरक़ा बिन नौफल परानी किताबों के आलिम थे।

सारी बात सुनकर वह पुकार उठे: ”क़ुद्दूस… क़ुद्दूस… कसम है उस ज़ात की जिसके क़ब्जे में मेरी जान है, ख़दीजा! अगर तुम सच्ची हो तो इसमें कोई शक नहीं, इनके पास वही नामूस-ए-अकबर यानी जिब्राईल आए हैं जो मूसा अलैहिस्सलाम के पास आया करते थे। मुहम्मद इस उम्मत के नबी हैं।”

वरक़ा बिन नौफल ने कहा: ”कसम है, ये वो ही नबी हैं जिनकी ख़बर तौरात और इंजील में दी गई थी।”

इसके बाद उन्होंने आपसे कहा: ”काश! मैं उस वक़्त तक ज़िंदा रहता जब आप अपनी क़ौम को अल्लाह की तरफ़ बुलाएंगे। मैं आपकी मदद करता और इस अज़ीम काम में आपका साथ देता।”

फिर उन्होंने कहा: ”काश! मैं उस वक़्त ज़िंदा रहूं जब आपकी क़ौम आपको झुठलाएगी, आपको तकलीफ़ पहुंचाएगी और आपको यहां से निकाल देगी।”

ये सुनकर आप हैरान हुए और फ़रमाया: ”क्या मेरी क़ौम मुझे वतन से निकाल देगी?”

वरक़ा ने कहा: ”हाँ! जो चीज़ आप लेकर आए हैं, उसे लेकर जो भी आया, उसे सताया गया। अगर मैंने वो वक़्त पाया तो मैं आपकी पूरी मदद करूंगा।”

इसके बाद वरक़ा बिन नौफल ने सैय्यदा ख़दीजा रज़ियल्लाहु अन्हा से कहा: ”तुम्हारे शौहर बिल्कुल सच्चे हैं। यह जो बातें हुई हैं, यह नबूवत की शुरुआत है। यह नबी इस उम्मत के लिए भेजे गए हैं।”

लेकिन इसके कुछ ही अरसे बाद वरक़ा बिन नौफल का इंतिकाल हो गया। उन्हें हजून के मुकाम पर दफ़न किया गया।

क्योंकि उन्होंने आपकी तस्दीक की थी, इसलिए नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उनके बारे में फ़रमाया: ”मैंने वरक़ा को जन्नत में देखा है। उनके जिस्म पर सुर्ख़ लिबास था।”

वरक़ा से मुलाक़ात के बाद आप घर तशरीफ़ लाए।

इसके बाद एक मुद्दत तक जिब्राईल अलैहिस्सलाम आपके सामने नहीं आए। इस दरमियान जो वक़्फ़ा डाला गया, उसमें अल्लाह तआला की ये हिकमत थी कि जिब्राईल अलैहिस्सलाम को देखकर आपके दिल में जो खौफ़ पैदा हुआ था, वह ज़ायल हो जाए। साथ ही उनके ना आने से आपके दिल में वह़ी का शौक़ पैदा हो।

चुनांचे ऐसा ही हुआ। जिब्राईल अलैहिस्सलाम की आमद के बाद सिलसिला रुक जाने से आपको बहुत दुख हुआ। कई बार आप पहाड़ों की चोटियों पर चढ़ जाते,

जिब्राईल अलैहिस्सलाम आपको पुकारते: ”ऐ मुहम्मद! आप वाक़ई अल्लाह के रसूल हैं।” ये अल्फ़ाज़ सुनकर आप सुकून महसूस करते। मगर जब वह़ी का वक़्फ़ा लंबा हो जाता, तो आप बेचैन हो जाते।

आख़िरकार, जिब्राईल अलैहिस्सलाम फिर से आए और सुरह अल-मुद्दस्सिर की पहली ये आयतें लेकर आए

يَا أَيُّهَا الْمُدَّثِّرُ[1] قُمْ فَأَنْذِرْ[2] وَرَبَّكَ فَكَبِّرْ[3] وَثِيَابَكَ فَطَهِّرْ[4]

अनुवाद: ”ऐ कपड़े में लिपटने वाले! उठो और ख़बरदार करो। और अपने रब की बड़ाई बयान करो। और अपने कपड़े पाक रखो।”

इस तरह आपको नबूवत के साथ-साथ तबलीग़ का हुक्म भी दिया गया।

सबसे पहले ईमान लाने वाले

‘सैय्यदा ख़दीजा रज़ियल्लाहु अन्हा पहली शख़्स थीं जो अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाया। उन्होंने अल्लाह की तरफ़ से जो कुछ नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम लेकर आए, उसकी तस्दीक़ की। मुशरिकीन ने जब भी आपको तकलीफ़ पहुंचाई, सैय्यदा ख़दीजा रज़ियल्लाहु अन्हा ने आपको दिलासा दिया।’

सैय्यदा ख़दीजा रज़ियल्लाहु अन्हा के बाद, सबसे पहले ईमान लाने वाले शख़्स हज़रत अबू बक्र रज़ियल्लाहु अन्हु थे। वह आपके क़रीबी दोस्त थे। उन्होंने आपकी ज़ुबान से नबूवत का ज़िक्र सुनते ही तुरंत तस्दीक़ की और ईमान ले आए।

बच्चों में सबसे पहले ईमान लाने वाले हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु थे।

उनके ईमान लाने का वाक़िया कुछ इस तरह है:

एक दिन वह नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास आए। उस वक़्त आप सैय्यदा ख़दीजा रज़ियल्लाहु अन्हा के साथ घर में नमाज़ पढ़ रहे थे।

उन्होंने ये नई बात देखी और पूछा: ”यह आप क्या कर रहे हैं?”

नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया: ”यह वह दीन है जिसे अल्लाह तआला ने अपने लिए पसंद किया है। इसके लिए उसने अपने पैग़ंबर भेजे हैं। मैं तुम्हें भी अल्लाह की तरफ़ बुलाता हूँ और लात व उज़्ज़ा (मूर्तियों) की इबादत से रोकता हूँ।”

हज़रत अली ने यह सुनकर अर्ज़ किया: ”यह एक नई बात है। इसके बारे में मैंने आज तक कुछ नहीं सुना। मैं अभी इस पर कुछ नहीं कह सकता। मैं अपने वालिद से मशविरा कर लूं।”

उनका जवाब सुनकर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया: ”अली! अगर तुम मुसलमान नहीं होते, तो भी इस बात को छुपाए रखना।”

उन्होंने वादा किया और इसका ज़िक्र किसी से नहीं किया। रातभर सोचते रहे। आख़िरकार अल्लाह ने उन्हें हिदायत दी। सुबह-सवेरे वह आपकी ख़िदमत में हाज़िर हुए और मुसलमान हो गए। उलमा लिखते हैं कि उस वक़्त हज़रत अली की उम्र तक़रीबन आठ साल थी। उन्होंने इससे पहले कभी बुतों की इबादत नहीं की थी। वह बचपन से ही नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ रहते थे।

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