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जंग-ए-आज़ादी में उलमा ए किराम का किरदार

इस समय वतन अज़ीज़ हिंदुस्तान में 78वां यौम-ए-आज़ादी बड़े धूमधाम के साथ मनाया जा रहा है। लेकिन यह एक अफ़सोसनाक हक़ीक़त है कि आज के दिन लोग तहरीक-ए-आज़ादी में पसीना बहाने वालों को तो खूब याद करते हैं, लेकिन ख़ून बहाने वालों को भूल जाते हैं। यह एक मुस्लिम-उस्सबूत और नाक़ाबिल-ए-तर्दीद हक़ीक़त है कि हिंदुस्तान की आज़ादी उलेमा-ए-किराम के ही दम-ए-कदम से मुमकिन हुई है। आज हम आज़ादी की जिस खुशगवार फिज़ा में ज़िंदगी के लमहात गुज़ार रहे हैं, यह उलेमा-ए-हक़ के ही सरफरोशाना जज़्बात और मुजाहिदाना किरदार का नतीजा है।

इन्हीं के मुकद्दस लहू से शजर-ए-आज़ादी की आबियारी और आबीपाशी हुई है। अगर उन्होंने बरोक्त हालात के तुफानी रुख़ का तदारक न किया होता, तो आज मुसलमान यहाँ किस हाल में होते, वह ख़ुदा ही बेहतर जानता है। लेकिन अंदाज़ा यह लगाया जाता है कि अव्वलन हिंदुस्तान में मुसलमानों का वजूद ही न होता और अगर होता भी तो उनके अंदर इस्लामी रूह, ईमानी जज़्बा और दीनी ग़ैरत और हिम्मत मफक़ूद होती।

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जंग-ए-आज़ादी के चंद नामवर क़ाइदीन

Jung e Azadi mein Ulma e Kiram ka Kirdar

मुफ़्ती इनायत अहमद काकोरोवी

आप 9 शवाल-उल-मुकर्रम 1228 हिजरी मुताबिक़ 5 अक्टूबर 1813 ईस्वी को मकाम दीवी में पैदा हुए। तहसील-ए-इल्म के लिए रामपुर तशरीफ़ ले गए। फिर अलीगढ़ जाकर मन्क़ूल और म’क़ूल की सनद हासिल की। मौलाना बुज़ुर्ग अली मारहरवी से रियाज़ पढ़ी। अलीगढ़ ही में सरकारी मुलाज़मत इख़्तियार कर ली और मुफ़्ती व मुंसिफ़ के ओहदे पर फ़ाइज़ हुए। एक साल के बाद बरेली शरीफ़ तबादला हो गया। इसी दौरान 1857 ईस्वी की आज़ादी की शो’लें भड़कने लगे, आपने इसमें बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया।

बरेली शरीफ़ के इन्क़िलाबी गिरोह की मुशावरती मजालिस में बराबर शरीक होते रहे। नवाब ख़ान बहादुर की क़ियादत में कार-ए-नुमायाँ अंजाम दिए। उस वक़्त बरेली शरीफ़ मुजाहिदीन-ए-आज़ादी का मरकज़ था। यहाँ मुजाहिदीन-ए-आज़ादी की हर क़िस्म की इमदाद व आं’नत मौलाना रज़ा अली ख़ान और मौलाना नक़ी अली ख़ान फ़रमा रहे थे। आपने उनके साथ मिलकर बड़ी ख़िदमात अंजाम दीं। जब जनरल बख़्त ख़ान बरेली शरीफ़ पहुंचे तो मुफ़्ती इनायत अहमद काकोरोवी साहब उनके साथ हो गए।

जब यह लश्कर रामपुर पहुंचा तो मुफ़्ती इनायत अहमद काकोरोवी साहब इसके साथ ही थे। वाई रामपुर ने जब मुजाहिदीन-ए-आज़ादी की इमदाद से इंकार किया और जनरल बख़्त ने उसके ख़िलाफ़ जंग का आग़ाज़ किया, तो मुफ़्ती इनायत अहमद काकोरोवी साहब ने इसमें बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। जनरल बख़्त ने वाई रामपुर से सुलह कर ली तो इस वक़्त मुफ़्ती इनायत अहमद काकोरोवी मौलाना सरफ़राज़ अली के मशवरे से वापस बरेली शरीफ़ आए। ख़ान बहादुर की मजलिस-ए-मशावरत के अलावा मैदान-ए-कारज़ार में भी शरीक रहे। लेकिन आख़िरकार अंग्रेज़ी तसल्लुत क़ायम हो गया।

मुफ़्ती इनायत अहमद काकोरोवी साहब भी गिरफ़्तार कर लिए गए और 1858 ईस्वी में काला पानी रवाना कर दिए गए। वहाँ पहले हज़रत मौलाना फ़ज़ल हक़ ख़ैराबादी और मौलाना मुफ़्ती मज़हर करीम दरयाबादी मौजूद थे। आप सख़्तियों के बावजूद भी तस्नीफ़ व तालीफ़ में मशग़ूल रहे। अस्सीरी के दौरान में, “तक़वीम-उल-बुल्दान” का तर्जुमा किया और आपने क़ुरआन मजीद हिफ़्ज़ किया।

और सीरत-ए-मुस्तफ़ा ﷺ पर मशहूर किताब “तवारीख-ए-हबीबुल्लाह” लिख डाली। और यह कारनामा आपने इस हालत में अंजाम दिया कि मुताला के लिए दूसरी किताबें मौजूद न थीं 1277 हिजरी में हाफिज़ वज़ीर अली दारोगा की कोशिशों से रिहाई पाई काकोरी में कुछ समय के लिए क़याम करके कानपुर आए और वहाँ “मदरसा फ़ैज़-ए-आम” क़ायम किया।

मौलाना लुत्फ़ुल्लाह अलीगढ़ इस मदरसे के पहले फ़ारिग़ होने वाले आलिम-ए-दीन थे। 1279 हिजरी में ज़ियारत-ए-बैतुल्लाह शरीफ़ के लिए रवाना हुए। 17 शवालुल-मुकर्रम 1379 हिजरी को मुताबिक़ अप्रैल 1863 ईस्वी में जहाज़ समुंदर में पहाड़ से टकराकर डूब गया और मुफ़्ती इनायत अहमद काकोरी साहब इस हादसे में एहराम की हालत में ही ख़ुदा को प्यारे हो गए। आपकी तस्नीफ़ात की तादाद 20 से ज़्यादा है।

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मुफ़्ती सदरुद्दीन आज़रदा देहलवी

मुफ़्ती सदरुद्दीन साहब के आबा-ओ-अजदाद कश्मीर के रहने वाले थे। आप दिल्ली में 1194 हिजरी मुताबिक़ 1779 ईस्वी में पैदा हुए। आपने उलूम की तकमील शाह अब्दुल अज़ीज़, शाह अब्दुल क़ादिर, और शाह मुहम्मद इस्हाक़ से की और उलूम-ए-अक़लिया अल्लामा फ़ज़ल इमाम साहब ख़ैराबादी से हासिल किए। आप बड़े पाय के आलिम-ए-दीन, अदीब और शायर थे। उर्दू, फ़ारसी, और अरबी तीनों ज़बानों के फ़ाज़िल थे और दिल्ली के रोयुसा में से थे। दिल्ली में आप “सदरुस्सदूर” के ओहदे पर फ़ाइज़ रहे।

जब आज़ादी की जंग शुरू हुई तो उलेमा-ए-अहल-ए-सुन्नत ने जो फ़तवा दिया, उस पर आपने भी दस्तख़त किए थे और उसकी तशहीर में भी अहम हिस्सा लिया था। इस जुर्म की पादाश में आपको गिरफ़्तार कर लिया गया। चंद माह बाद आप खुद तो रिहा हो गए, मगर जायदाद नीलाम हो गई। सिर्फ़ नीलामी किए गए कुतुबख़ाने की क़ीमत तीन लाख रुपये थी। इसको वापस लेने के लिए बहुत कोशिशें कीं मगर कुछ हासिल न हुआ। आप दो साल तक फ़ालिज़ (पक्षाघात) में मुबतिला रहे और फिर 81 साल की उम्र में 24 रबी-उल-अव्वल 1285 हिजरी मुताबिक़ 1858 ईस्वी में इस आलम-ए-फ़ानी से रुख़्सत हो गए।

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अल्लामा फ़ज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी

आप जंग-ए-आज़ादी के सबसे अज़ीम हीरो हैं। इनक़िलाबी सरगर्मियों की पादाश में आपको बाग़ी क़रार दिया गया। 1859 ईस्वी में लखनऊ में मुक़द्दमा चला। आपकी शोहरत और मक़बूलियत के पेश-ए-नज़र उम्मीद थी कि आपको बरी कर दिया जाएगा, मगर आपने अपनी जान की परवाह किए बग़ैर भरे मजमे में 1857 ईस्वी की जंग में शिरकत का एतराफ़ किया। इस वजह से आपकी रिहाई मंसूख़ हो गई और आपको काला पानी रवाना कर दिया गया। जिस दिन आपके मुअतक़िदीन रिहाई का परवाना लेकर काला पानी पहुंचे, उसी दिन आप इस दुनिया को अलविदा कह चुके थे। हज़रत अल्लामा फ़ज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी, उमरी, हनफ़ी, मातुरीदी, चिश्ती 1212 हिजरी मुताबिक़ 1797 ईस्वी में पैदा हुए।

अपने वालिद ग़रामी मौलवी फ़ज़ल इमाम के शागिर्द थे। आपने हदीस की तालीम मौलाना अब्दुल क़ादिर देहलवी से हासिल की। क़ुरआन मजीद चार महीने में हिफ़्ज़ कर लिया और तेरह साल की उम्र में आप फ़ारिग़-उल-तहसील हो गए। आप शाह धूमन देहलवी के मुरीद थे। इल्म-ए-मनतिक़, हिकमत-ओ-फ़लसफ़ा, अदब, कलाम, असूल और शायरी में अपने हमअसरों में मुम्ताज़ थे। आपकी तस्नीफ़ात में अल-हसन अल-ग़ाली फ़ी शरह अल-जवाहर अल-आली, हाशिया शरह मुस्लिम क़ाज़ी मुबारक, हाशिया अफ़्क़ अल-मुबीन, हाशिया तलख़ीस-ए-शिफ़ा, अल-हिदायत अल-सईदिया (हिकमत तबी’ई) रीसाला तहक़ीक़ अल-इल्म वल-उलूम, और अल-रौज़ जैसी किताबें शामिल हैं।

हज़रत मौलाना फ़ज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी उलूम-ए-मअक़ूल के इमाम थे। दिल्ली के कमिश्नर के दफ़्तर में पेशकार थे। मौलाना फ़ज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी और शाह मुहम्मद इस्माइल देहलवी के दरमियान बाज़ असूली मसाइल पर इख़तिलाफ़ हुआ। दोनों जानिब से रीसालों का तबादला हुआ। आप एक अरसे तक रईस झाझर, राजा अलवर, नवाब टोंक और रियासत रामपुर में मुलाज़िम रहे। आख़िर में वाजिद अली शाह के ज़माने में लखनऊ में रहे। जब हनुमानगढ़ी का वाक़िया जेहाद पेश आया जिसमें अमीरुद्दीन अली, अमीरुल मुजाहिदीन थे, उसमें मौलवी हकीम नज्मुल गनी (मुअल्लिफ़ तारीख़-ए-अवध) के मुताबिक़ मुफ़्ती सादुल्लाह रामपुरी और मुफ़्ती मुहम्मद यूसुफ़ फ़रंगी महली के साथ मौलाना फ़ज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी ने भी मौलवी अमीरुद्दीन और जिहाद-ए-हनुमानगढ़ी के ख़िलाफ़ फ़तवा दिया।

मगर किसे मालूम था कि मौलाना फ़ज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी 1857 ईस्वी में इसकी पूरी पूरी तिलाफ़ी करेंगे। जंग-ए-आज़ादी 1857 ईस्वी में मौलाना फ़ज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी ने मर्दाना वारी हिस्सा लिया। दिल्ली में जनरल बख्त ख़ान के साथ शामिल रहे। लखनऊ में हज़रत महल की कोर्ट के मेंबर रहे। आख़िरकार गिरफ़्तार हुए। मुक़द्दमा चला, और “ब-उबूर दरियाए शोर” की सज़ा पाई। जज़ीरा अंडमान भेजे गए और वहीं 12 सफ़र अल-मज़फ़्फ़र 1278 हिजरी/ मुताबिक़ 1861 ईस्वी में इंतक़ाल हुआ। जज़ीरा अंडमान में ही आपका मज़ार है। मौलाना फ़ज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी ने तीन साहिबज़ादे, शम्स-उल-उलमा, मौलवी अब्दुल हई, और मौलवी शम्सुल हक़ यादगार छोड़े।

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मौलाना किफ़ायत अली काफ़ी

जिन उलेमा-ए-अहले-सुन्नत ने जंग-ए-आज़ादी की तारीख़ अपने ख़ून से लिखी, उनमें मौलाना किफ़ायत अली काफ़ी एक बहुत ही अहम शख्सियत हैं। आपका असली नाम किफ़ायत अली और तख़ल्लुस काफ़ी था। आप मुरादाबाद के एक सम्मानित सैयद ख़ानदान से ताल्लुक रखते थे। आप इल्म-ए-हदीस, इल्म-ए-फ़िक़्ह, असूल-ए-मनतिक़, फ़लसफ़ा, और अरूज़-ओ-क़वाफ़ी के माहिर थे। मौलाना किफ़ायत अली काफ़ी, हज़रत-ए-सदरुल-अफ़ाज़िल मौलाना नईमुद्दीन साहब मुरादाबादी के वालिद मौलाना सैयद मोईनुद्दीन नज़हत के हमसबक थे।

जंग-ए-आज़ादी 1857 ईस्वी के दौरान आपने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ फ़तवा-ए-जिहाद दिया। जनरल बख्त रोहिल्ला की फौज में कमांडर बनकर दिल्ली आए और अपनी बहादुरी का मुज़ाहिरा किया। दुश्मन को बड़ा नुकसान पहुँचाया। बहादुर शाह ज़फ़र ने कई बार आपको बुलाकर मशवरा लिया। जब दिल्ली का निज़ाम दरहम-बरहम हुआ, तो आप जनरल बख्त के साथ बरेली शरीफ़ पहुँचे। यहाँ मौलवी अहमद उल्लाह शाह मद्रासी भी थे। उनकी मुअय्यत में आपने मौत की आँखों में आँखें डालकर दुश्मनों का मुक़ाबला किया। आख़िरकार, मौलवी अहमद उल्लाह शाह मद्रासी और जनरल बख्त के साथ मुरादाबाद पहुँचे। यहाँ आपको “सदर-उस-सुदूर” बना दिया गया और आपने शरीयत के हुक्म जारी किए।

आखिरकार, अंग्रेज़ों ने आपको गिरफ़्तार कर लिया। आपके जिस्म पर गरम-गरम इस्त्री फेरी गई, ज़ख़्मों पर मिर्चें छिड़की गईं। अंग्रेज़ों ने आपको अपने मकसद से हटाने के लिए हर तरह का जुल्म किया, लेकिन उनका कोई भी वार आपके इस्तेक़लाल को डगमगा न सका। जब अंग्रेज़ पूरी तरह मायूस हो गए, तो उन्होंने 30 अप्रैल 1858 ईस्वी को मुरादाबाद के चौराहे पर आपको आम जनता के सामने फांसी पर लटका दिया।

ख़ुदा रहमत करे इन पाक दिल आशिकों पर!

आपकी यादगार के तौर पर कई किताबें हैं:

“शमाइल-ए-तिरमिज़ी” का मंज़ूम तर्जुमा, “ख़याबान-ए-फ़िरदौस,” “नसीम-ए-जन्नत,” “दीवान-ए-काफ़ी” वग़ैरह। ख़ास तौर पर ये काबिल-ए-ज़िक्र है कि सैय्यदी सरकार-ए-आला हज़रत शाह इमाम अहमद रज़ा ख़ान फाज़िल-ए-बरेलवी रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते थे कि मौलाना किफ़ायत अली काफ़ी का कलाम शुरू से आख़िर तक शरीयत के दायरे में है, और उन्हें “सुलतान-ए-नअत” कहा करते थे। जब आपको आम जनता के सामने फांसी दी जा रही थी, तब भी आपकी ज़बान इश्क़-ए-रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) में यूँ नगमा सराई कर रही थी।

कोई गुल बाक़ी रहेगा न चमन रह जाएगा

पर रसूल अल्लाह का दीन हसन रह जाएगा।

नाम शाहान-ए-जहाँ मिट जाएँगे लेकिन यहाँ

हश्र तक नाम-ओ-निशान पंजतन रह जाएगा।

हम सफीरों! बाग़ में है कोई दम का चहचहा

बुलबुलें उड़ जाएँगी, सूना चमन रह जाएगा।

अतलस-ओ-कम ख़्वाब की पोशाक पर नाज़ाँ न हो

इस तन-ए-बेजान पर ख़ाकी कफ़न रह जाएगा।

जो पढ़ेगा साहिब-ए-लौलाक के ऊपर दरूद

आग से महफ़ूज़ उसका तन-बदन रह जाएगा।

सब फ़ना हो जाएँगे, काफ़ी, लेकिन हश्र तक

नअत-ए-हज़रत का ज़बानों पर सुख़न रह जाएगा।

मौलाना सैय्यद किफायत अली काफी (शहीद) रहमतुल्लाह अलैह-

जंग-ए-आज़ादी में शाह वलीउल्लाह का किरदार

यह वह दौर था जब अंग्रेज़ों के अलावा ईरान और अफ़गानिस्तान से ताल्लुक रखने वाले दूसरे हुक्मरान भी हिंदुस्तान को अपने ज़ेरे-नगीं करने के लिए हमला आवर हुए। 1738 ईस्वी में नादिर शाह ने दिल्ली को तबाह कर दिया, और 1757 ईस्वी में अहमद शाह अब्दाली ने दो महीने तक इस शहर को यरग़माल बनाए रखा।

दूसरी तरफ़ अंग्रेज़ फ़ौजें मराठों से टकराती हुईं, सिराजुद्दौला को शिकस्त देती हुईं और टीपू सुल्तान को शहीद करती हुईं दिल्ली की तरफ़ बढ़ रही थीं। अभी अंग्रेज़ों ने पूरी तरह दिल्ली का इक़्तिदार हासिल भी नहीं किया था कि उलेमा-ए-हिंद के मीर-ए-कारवां, इमाम-ए-हिंद हज़रत शाह वलीउल्लाह देहलवी रहमतुल्लाह अलैह ने मुस्तकबिल के ख़तरात का अंदाज़ा कर लिया और दिल्ली पर क़ब्ज़े से पचास साल पहले ही अपनी जद्द-ओ-जहद का आग़ाज़ कर दिया।

इसके चलते आप पर जानलेवा हमले भी हुए, लेकिन आप अपने नज़रिये पर डटे रहे। उन्होंने अपनी किताबों, ख़ुतूत, और तक़रीरों में अपना नज़रिया इस तरह पेश किया कि तबाह हाल शहर, जिस पर दरिंदा-सिफ़त इंसानों का तसल्लुत हो, जिन्हें अपनी हिफ़ाज़त और दिफ़ा की पूरी ताक़त हासिल हो, यह ज़ालिम और जाबिर गिरोह जो इंसानियत के लिए सरतान (कैंसर) है, इंसान इस वक़्त तक सेहतमंद नहीं हो सकता जब तक इस सरतान को जड़ से उखाड़ कर फेंक न दिया जाए। (📚हुज्जतुल्लाह अल-बालिग़ा: अल-जिहाद)

अफ़सोस हज़रत शाह साहब 1765 ईस्वी में वफ़ात पा गए और उनका ख्वाब तश्ना-ए-ताबीर रह गया। हालांकि, वह अपनी किताबों और अपने फिक्र-ओ-अमल के ज़रिए एक नस्बुल-ऐन मुतअय्यन कर चुके थे, इंक़लाब का पूरा लायहा-ए-अमल तैयार कर चुके थे, और इंक़लाब के बाद मुमकिना हुकूमत के लिए मज़हबी, इक़्तिसादी, और सियासी उसूलों की रौशनी में एक मुकम्मल निज़ाम वज़ा कर चुके थे। ज़रूरत सिर्फ इस बात की थी कि उनके छोड़े हुए काम को आगे बढ़ाने के लिए कुछ लोग मैदान-ए-अमल में आएं।

चुनांचे, हज़रत शाह अब्दुल अज़ीज़ देहलवी रहमतुल्लाह अलैह ने हौसला दिखाया। हालांकि, वह उस वक्त महज़ सतरह साल के थे, मगर अपने वालिद बुज़ुर्गवार के मिशन को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने अज़्म-ओ-इस्तेकलाल से काम लिया और हज़रत शाह साहब के नज़रिये-ए-इंक़लाब को मुख़सूस लोगों के दिलों से निकाल कर आम इंसानों के दिलों में इस तरह पेवस्त कर दिया कि हर ज़ुबान पर जिहाद और इंक़लाब के नारे मचलने लगे।

इंक़लाब की इस सदा-ए-बाज़गश्त को दिल्ली से बाहर दूर-दूर तक पहुंचाने में हज़रत शाह अब्दुल अज़ीज़ रहमतुल्लाह अलैह के तीनों भाइयों हज़रत शाह अब्दुल क़ादिर रहमतुल्लाह अलैह, हज़रत शाह रफ़ीउद्दीन रहमतुल्लाह अलैह, और हज़रत शाह अब्दुल ग़नी देहलवी रहमतुल्लाह अलैह के अलावा जिन लोगों ने पूरे ख़ुलूस और लिल्लाहियत के साथ अपना भरपूर तआवुन पेश किया, उनमें हज़रत शाह अब्दुल हई रहमतुल्लाह अलैह, हज़रत शाह इस्माइल शहीद रहमतुल्लाह अलैह, हज़रत सैयद अहमद शहीद रहमतुल्लाह अलैह, और मुफ़्ती इलाही बख्श कंधलवी रहमतुल्लाह अलैह के अस्मा-ए-गिरामी ब-तौर-ए-ख़ास काबिल-ए-ज़िक्र हैं।

तर्बियतगाह-ए-अज़ीज़ी से निकल कर मुसल्लह जद्द-ओ-जहद को नस्बुल-ऐन बनाने वालों की तादाद हज़ारों से मुतजाविज थी, और हिंदुस्तान का कोई गोशा ऐसा नहीं था जहां इस इंक़लाब की दस्तक न सुनी गई हो और जहां इस आवाज़ पर लब्बैक कहने वाले मौजूद न हों।

हज़रत शाह अब्दुल अज़ीज़ देहलवी रहमतुल्लाह अलैह ने इस तहरीक को दिल-ओ-जान से परवान चढ़ाया, मगर तरह-तरह की मुश्किलात और मसाइब भी बर्दाश्त किए। आपकी जायदाद भी ज़ब्त की गई, आपको शहरबदर भी किया गया, आप पर क़ातिलाना हमले भी किए गए। दो मर्तबा ज़हर दिया गया और एक मर्तबा उबटन में छिपकली मिला कर पूरे बदन पर मालिश भी की गई, जिससे बिनाई भी जाती रही और बेशुमार अमराज़ भी पैदा हुए। इन तमाम मसाइब के बावजूद उनके पाय-ए-सबात में कभी लग़ज़िश महसूस नहीं की गई।

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देश की आज़ादी में हज़रत मुफ़्ती-ए-आज़म हिंद का किरदार

कांग्रेस, 1857 ईसवी की सैन्य कार्रवाई की असफलता को देखते हुए, आज़ादी की लड़ाई को शांतिपूर्ण तरीके से चलाना चाहती थी। देश को आज़ाद कराने का जज़्बा इतना प्रबल हो गया था कि कांग्रेस के कुछ नेता अहिंसा (अहिंसक) मार्ग छोड़कर जंग का रास्ता अपनाना चाहते थे। लेकिन हज़रत मुफ़्ती-ए-आज़म हिंद (रहमतुल्लाह अलेह) इस सिलसिले में लिखते हैं,

“क्या निहत्थों को उनसे (अंग्रेज़ों से) जो सभी हथियारों से लैस हैं, लड़ने का हुक्म देना सख़्ती नहीं है, और यह क्या इंसाफ़ के खिलाफ़ नहीं है? क्या ऐसे लोगों को, जो हथियार चलाना तो दूर की बात, उन्हें उठाना भी नहीं जानते, जिनके वहम में भी कभी नहीं गुज़रा कि बंदूक कैसे उठाते हैं, तलवार कैसे चलाते हैं, जिन्हें कभी भी जंग के हंगामे और लड़ाई के मंज़र ख्वाब में भी नहीं देखे, उन्हें तोपों के सामने खड़ा कर देना कुछ ज़्यादती नहीं है क्या?” (अहकाम अल-इमरत वा अल-जिहाद, पृष्ठ संख्या/ तीस)

खूनी संघर्ष के परिणामों और भारत के लोगों की दुखद स्थिति को बयान करते हुए, हज़रत मुफ़्ती-ए-आज़म हिंद ने आज़ादी की लड़ाई में हिंसा (अहिंसा या जंगी कार्रवाई) के इस्तेमाल का विरोध किया। यह वह वक़्त था जब गांधी जी भी अबुल कलाम आज़ाद को “फतवा-ए-जिहाद” जारी करने से नहीं रोक सके, और न ही अहिंसा के इस्तेमाल का विरोध कर सके। हकीकत तो यह थी कि तहरीक-ए-खिलाफत, तहरीक-ए-हिजरत और तहरीक-ए-जिहाद जैसी आंदोलनों को कांग्रेस के ही लोगों ने शुरू किया था, और मोहनदास करमचंद गांधी उस पार्टी के प्रमुख थे, बल्कि उस आंदोलन की रूह रवा थे। इसलिए यह सिर्फ़ अबुल कलाम आज़ाद का आंदोलन नहीं था, बल्कि गांधीवादी और कांग्रेसी आंदोलन था, जिसका विरोध हज़रत आला हज़रत शाह इमाम अहमद रज़ा खान कादरी फाजिल-ए-बरेलवी (रहमतुल्लाह अलेह) ने किया था, और हज़रत मुफ़्ती-ए-आज़म हिंद (रहमतुल्लाह अलेह) ने भी।

हज़रत मुफ़्ती-ए-आज़म हिंद (रहमतुल्लाह अलेह) “जिहाद बिस्सेफ” (तलवार से जिहाद) के समर्थक थे, लेकिन इस्लाम ने “जिहाद बिस्सेफ” के लिए कुछ शर्तें बताई हैं, और जब वे शर्तें पूरी हो रही हों तो जिहाद बिस्सेफ किया जा सकता है। लेकिन यहां इस्लामी जिहाद बिस्सेफ की शर्तें पूरी नहीं हो रही थीं, इसलिए हज़रत मुफ़्ती-ए-आज़म हिंद (रहमतुल्लाह अलेह) ने हिंदुस्तानियों को “जिहाद बिस्सेफ” से रोका। (क्योंकि तहरीक-ए-जिहाद सिर्फ़ हिंदुस्तानी मुसलमानों के लिए चलाई गई थी, इसलिए हज़रत मुफ़्ती-ए-आज़म हिंद (रहमतुल्लाह अलेह) ने मुसलमानों को इससे रोका और इसके जानलेवा नतीजों से आगाह किया।)

हज़रत मुफ़्ती-ए-आज़म हिंद (रहमतुल्लाह अलेह) लिखते हैं कि “न हमारे पास अंग्रेज़ों जैसे जंग के हथियार हैं, न ही हमारे पास कोई बाक़ायदा फौज है, न कोई सुल्तान है, इसलिए जिहाद मुसलमानों के लिए नुकसानदायक है।” (अहकाम अल-इमरत वा अल-जिहाद, पृष्ठ संख्या/ 32)

हज़रत मुफ़्ती-ए-आज़म हिंद (रहमतुल्लाह अलेह) ने अबुल कलाम आज़ाद की तहरीक-ए-जिहाद को गैर-इस्लामी करार देकर खूनी संघर्ष से रोक दिया, नतीजतन तहरीक-ए-आज़ादी में हिंसा का इस्तेमाल नहीं हुआ। अगर हज़रत मुफ़्ती-ए-आज़म हिंद (रहमतुल्लाह अलेह) अपनी दूरदर्शिता और समझदारी से अबुल कलाम आज़ाद के फतवे की तर्दीद (खंडन) न करते, तो इस तहरीक-ए-आज़ादी का हाल भी 1857 ईसवी की तहरीक-ए-आज़ादी जैसा होता। देश की आज़ादी में हज़रत मुफ़्ती-ए-आज़म हिंद का एक महत्वपूर्ण योगदान है, जिसे भुलाया नहीं जा सकता, और हम आज़ादी के लिए हज़रत मुफ़्ती-ए-आज़म हिंद (रहमतुल्लाह अलेह) के एहसानमंद हैं। (स्रोत: पयाम-ए-रज़ा, हज़रत मुफ़्ती-ए-आज़म हिंद नंबर, पृष्ठ संख्या/ 13)

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आज जिस तरह से मुसलमानों की किरदारकुशी की जा रही है, उसके मद्देनज़र हमें जागरूक रहकर अपने बुज़ुर्गों की रोशन और तबस्सुम भरी शख्सियतों को उजागर करना चाहिए। आने वाली नस्लों के दिलों और दिमाग़ में उनके प्रति मोहब्बत, इज़्ज़त, और उनकी क़ुर्बानियों की रौशनी जलानी चाहिए। साथ ही, शरारती तत्वों की नापाक साज़िशों को नाकाम करना चाहिए। बल्कि, 15 अगस्त को एक नई रवायत शुरू की जानी चाहिए,

जिसमें मदरसों और मकातिब के उस्ताद स्कूलों और कॉलेजों में जाकर तक़रीर करें और स्कूलों और कॉलेजों के उस्ताद मदरसों में जाकर तक़रीर करें। ऐसे मौके पर हमारा पैग़ाम स्कूलों में पहुंच जाएगा और स्कूलों के उस्तादों की तक़रीरें होंगी। इससे अंदाज़ा हो जाएगा कि असली मुस्लिम मुजाहिदीन-ए-आज़ादी के बारे में उनकी मालूमात कितनी है और वे किन्हें असली हीरो मानते हैं। अगर कोई फ़र्ज़ी नाम लेता है, तो उसी वक़्त ऐसी तक़रीर होनी चाहिए जिसमें उनके बयान किए गए तथ्यों का पर्दाफ़ाश किया जाए।


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