🇮🇳Jang e Azadi aur Musalman स्वतंत्रता संग्राम और मुसलमान 🇮🇳
🌹 بِسْــــــمِ الْلــّٰــهِ الـْـرَّحْـمـٰــــنِ الـْـرَّحِیـــمْ 🌹
अपनी जान-माल की कुर्बानी देकर भारत को आज़ाद कराने वाले असली जांबाज़ कौन हैं?
Table of Contents
یا أَيُّهَا النَّاسُ إِنَّا خَلَقْنَاكُمْ مِنْ ذَكَرٍ وَأُنْثَى وَ جَعَلْنَاكُمْ شُعُوبًا وَقَبَائِلَ لِتَعَارَفُوا إِنَّ أَكْرَمَكُمْ عِنْدَ اللَّهِ أَتْقَاكُمْ إِنَّ اللَّهَ عَلِيمٌ خَبِيرٌ.
अनुवाद: (ऐ लोगों! हक़ीक़त यह है कि हमने तुम सबको एक मर्द और औरत से पैदा किया है, और तुम्हें अलग-अलग कौमों और खानदानों में इसलिए बाँटा है ताकि तुम एक-दूसरे को पहचान सको। हकीकत में अल्लाह के नज़दीक तुममें सबसे ज़्यादा इज़्ज़त वाला वह है जो तुममें सबसे ज़्यादा परहेज़गार है। यक़ीन रखो कि अल्लाह सब कुछ जानने वाला और हर चीज़ से ख़बरदार है) (सूरा हजरात: 13)
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तमहीद (परिचय)
15 अगस्त को पूरे भारत में स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है। तिरंगा लहराया जाता है, खुशियां मनाई जाती हैं, मिठाइयां और चॉकलेट बांटी जाती हैं। यह दिन और इसकी खुशियां जो इस देश को नसीब हुईं, वह इस वजह से कि हमारे बुजुर्गों और पूर्वजों ने इस देश को आज़ाद कराने के लिए अपनी जानें दीं।
इसलिए उचित है कि आज़ादी की जंग का संक्षिप्त उल्लेख किया जाए, और यह भी बताया जाए कि क्या हमारा देश वास्तव में एक लोकतांत्रिक और आज़ाद देश है? क्या हम अपने देश में आज़ादी से सांस ले रहे हैं? क्या सच में हमारे देश को इस समय एक आज़ाद लोकतांत्रिक देश कहा जा सकता है, जहां सभी के अधिकार समान और बराबर मिलते हैं? क्या हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, आपस में सभी भाई-भाई हैं और सभी को अपने धर्म और कर्म पर कायम रहने का पूरा-पूरा हक़ दिया जा रहा है?
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आज़ादी का महत्व
इंसान असल में प्राकृतिक रूप से आज़ाद है। उसे आज़ादी का प्राकृतिक अधिकार प्राप्त है। वह अल्लाह के अलावा किसी का भी गुलाम नहीं है। इस्लाम चूंकि प्राकृतिक धर्म है, इसलिए वह इंसान को उसका प्राकृतिक हक़ देते हुए उसे आज़ाद रहने की प्रेरणा देता है। सभी इंसान एक मां-बाप की संतान हैं। हर इंसान आज़ाद ही पैदा होता है। इंसान की फितरत में आज़ादी है। जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा, कुछ ऐसे लोग आए जिन्होंने इंसानों को खरीदना और बेचना शुरू किया। गुलामी का बाज़ार लगाया। जमाना-ए-जाहिलियत में भी यह सिलसिला चल रहा था। जब इस्लाम आया तो धीरे-धीरे इस सिलसिले को खत्म किया।
इंसानों को यह खुशखबरी दी गई:
“وَيَضَعُ عَنْهُمْ إِصْرَهُمْ وَالْأَغْلَالَ الَّتِي كَانَتْ عَلَيْهِمْ”
अनुवाद: (नबी करीम ﷺ उनके बोझ और ज़ंजीरें जो उन पर हैं, उतार देंगे।) (सूरा अल-आराफ़: 157)
नबी करीम ﷺ ने गुलामों को आज़ाद करने की प्रेरणा दी, उसके फ़ज़ीलत बयान की। इंसान से कोई ऐसी गलती हो जाए जिस पर कफ्फ़ारा (प्रायश्चित) लाजिमी हो, तो कई कफ्फ़ारों में गुलाम और बांदी को आज़ाद करने का हुक्म कुरान मजीद ने दिया, ताकि यह सिलसिला खत्म हो। और धीरे-धीरे यह सिलसिला खत्म हो गया। अब कहीं इस पुराने अंदाज़ में गुलाम और बांदी नहीं बनाए जाते, लेकिन गुलामी की कई और भी सूरतें अब भी मौजूद हैं।
आज़ादी के संबंध में यह बुनियादी बात कभी नजरअंदाज नहीं होनी चाहिए कि जब तक आज़ादी हासिल न हो इंसान का हक़ रहता है। हासिल हो जाए तो यह आज़ादी सबसे बड़ी जिम्मेदारी बन जाती है। आज़ादी इंसान की विशेषता भी है और उसकी सबसे बड़ी परीक्षा भी। आज़ादी सिर्फ एक शब्द नहीं है, जीवन का एक रुख़ है। गुलामी में ताकतवर इंसान कमजोर पर बंदिशें लगाता है। इंसानी ज़िंदगी के लिए जो महत्व ऑक्सीजन का है वही महत्व सामाजिक जीवन के लिए आज़ादी का है। ऑक्सीजन न हो तो आदमी का दम घुटने लगता है, आज़ादी न हो तो पूरे समाज का दम घुटने लगता है।
अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने आज़ाद और गुलाम की मिसाल बयान की है
“ضَرَبَ اللّٰهُ مَثَلًا عَبۡدًا مَّمۡلُكًا لَّا يَقۡدِرُ عَلٰى شَىۡءٍ وَّمَنۡ رَّزَقۡنٰهُ مِنَّا رِزۡقًا حَسَنًا فَهُوَ يُنۡفِقُ مِنۡهُ سِرًّا وَّجَهۡرًاؕ هَلۡ يَسۡتَوٗنَؕ اَ لۡحَمۡدُ لِلّٰهِؕ بَلۡ اَكۡثَرُهُمۡ لَا يَعۡلَمُوۡنَ”
(अल्लाह एक मिसाल देता है कि एक तरफ एक गुलाम है जो किसी की मिल्कियत में है, उसको किसी चीज़ पर कोई इख्तियार नहीं। और दूसरी तरफ वह शख्स है जिसको हमने अपने पास से उम्दा रिज़्क अता किया है, और वह इसमें से पोशीदा तौर पर भी और खुले तौर पर भी खूब खर्च करता है। क्या ये दोनों बराबर हो सकते हैं? सारी तारीफ़ें अल्लाह की हैं, लेकिन इनमें से ज़्यादातर लोग (ऐसी साफ बात भी) नहीं जानते।) (सूरा अन-नहल: 75)
यानी गुलाम की मिसाल मखलूक़ की सी है, जिसके ताकत और इख्तियार में कुछ नहीं है। और आज़ाद शख्स की मिसाल एक दर्जे में खालिक़ की सी है, जो माल और दौलत का मालिक है और उसमें से खर्च करने का पूरा इख्तियार रखता है। तो जब एक आज़ाद और गुलाम बराबर नहीं हो सकते तो खालिक़ और मखलूक़ कैसे बराबर हो सकते हैं? फिर किसी इंसान के लिए यह बात क्यों कर दुरुस्त हो सकती है कि वह इबादत में खालिक़ के साथ मखलूक़ को शामिल करे? तौहीद (अल्लाह की एकता) को समझाने के लिए यह मिसाल दी गई है लेकिन इससे आज़ादी का महत्व भी मालूम होता है।
हर व्यक्ति की ख्वाहिश होती है कि वह आज़ाद रहे और उसकी आज़ादी को कोई चैलेंज करने वाला न हो। इसी कुदरती जज़्बे का एहतराम करते हुए इस्लाम ने इंसान को पूरी तरह आज़ादी दी है। आज़ादी का सही तजुर्बा वही कर सकता है जो आज़ाद फिजा में ज़िंदगी गुज़ारने के बाद गुलामी की ज़ंजीरों में जकड़ा गया हो। इसी लिए इस्लाम ने आज़ादी पर बहुत जोर दिया। इंसानों को इंसानों की गुलामी से निजात दिलाना इस्लाम का बुनियादी मकसद है।
अल्लाह को यह बात हरगिज़ पसंद नहीं कि उसकी मखलूक़ किसी और की गुलामी में रहकर ज़िंदगी गुज़ारे। गुलामी असल में अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त की होनी चाहिए। अल्लाह की गुलामी में आ जाने के बाद एक इंसान हर तरह की गुलामी से आज़ाद हो जाता है।
- इसी लिए सहाबा-ए-कराम जब किसी मुल्क में जाते थे तो लोगों तक अल्लाह का पैग़ाम पहुंचाते हुए कहते थे: “हमें अल्लाह ने इस लिए भेजा है ताकि हम लोगों को इंसान की पूजा से निजात दिलाकर अल्लाह की इबादत की तरफ़ लाएं।”
- हजरत उमर रज़ी अल्लाहु अन्हु का यह कथन मशहूर है: “तुमने लोगों को कब से गुलाम बना लिया जबकि उनकी मांओं ने उन्हें आज़ाद पैदा किया था।”
- इसी तरह आज़ादी के महत्व में अरबी का यह मशहूर कथन भी है: “لا تكن عبد غيرك وقد جعلك الله حراً” (अल्लाह ने तुझे आज़ाद पैदा किया है इसलिये किसी और की गुलामी कुबूल मत कर।)
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आज़ादी में मुसलमानों का किरदार
भारत को लंबी जद्दोजहद के बाद आज़ादी की नेमत हासिल हुई, जिसके लिए हमारे बुजुर्गों ने बेपनाह कुर्बानियाँ दीं। उन्होंने अपनी जान और माल की कुर्बानियाँ दीं, आंदोलन चलाए, फाँसी के तख्ते पर चढ़ गए, फांसी के फंदे को हिम्मत और बहादुरी के साथ खुशी-खुशी गले लगाया। कैद और बंद की कठिनाइयाँ झेलीं और आज़ादी हासिल करने के लिए जंग के मैदान में कूद पड़े। आखिरकार विदेशी हुक्मरानों (अंग्रेज़ों) को देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया।
विदेशी हुक्मरानों ने अपने शासन को कायम रखने के लिए तरह-तरह की चालें चलीं। उन्होंने साजिशें कीं, रिश्वतें दीं, लालच दिया। “फूट डालो और राज करो” के सिद्धांत को बड़े पैमाने पर अपनाया। सांप्रदायिक मतभेद पैदा किए, हक़ीक़त को तोड़-मरोड़ कर पेश किया, आपस में गलतफहमियाँ फैलाईं, इतिहास को विकृत किया।
अंग्रेज़ों ने भारत के मासूम नागरिकों पर जुल्म और सितम के पहाड़ तोड़े और नाहक लोगों को फाँसी के तख्ते पर लटकाया। भारतीयों पर नाहक गोलियाँ चलाईं, चलती ट्रेनों से बाहर फेंका, मगर उनके जुल्म और सितम को रोकने और गुलामी के तौक़ को गले से निकालने के लिए बहादुर स्वतंत्रता सेनानियों ने उनका मुकाबला किया और देश को आज़ाद कर के ही चैन की साँस ली।
भारत की स्वतंत्रता संग्राम में मुसलमानों की हिस्सेदारी स्वाभाविक रूप से बहुत प्रमुख और महत्वपूर्ण रही है। उन्होंने आज़ादी की जंग में नेता और रहनुमा की भूमिका निभाई। इसकी वजह यह थी कि अंग्रेज़ों ने सत्ता मुसलमान हुक्मरानों से छीनी थी। सत्ता से वंचित होने का दर्द और तकलीफ मुसलमानों को हुई। उन्हें शासक से शोषित बनना पड़ा। इस दुख और तकलीफ को उन्हें झेलना पड़ा। इसलिए गुलामी और अधीनता से आज़ादी की असली लड़ाई भी उन्हें ही लड़नी पड़ी।
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अंग्रेज़ों की भारत में आमद
वास्कोडिगामा की क़यादत में पुर्तगाल के नाविकों ने सबसे पहले भारत की सरज़मीन को अपने नापाक कदमों से गंदा किया और बंगाल के शहर कोलकाता और दक्षिण भारत के शहर कालीकट को अपनी तिजारती सरगर्मियों का मरकज़ बनाया। ये लोग व्यापार के मकसद से आए थे, मगर धर्म के प्रचार में भी सक्रिय हो गए। उस समय भारत को “सोने की चिड़िया” कहा जाता था। इस मुल्क में व्यापार के अनगिनत मौके थे। माली तरक्की के वसीह तर मुमकिनात ने इंग्लैंड के व्यापारियों को भी इधर मुतवज्जे किया। उन्होंने तीस हज़ार पाउंड से ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ की बुनियाद रखी और 1601 में पहली मर्तबा इस कंपनी के व्यापारिक जहाज़ हिंदुस्तान के साहिलों पर लंगर अंदाज़ हुए।
1612 में जहांगीर के दौर-ए-हुकूमत में इन अंग्रेज़ व्यापारियों ने शहनशाह की इजाज़त से गुजरात के शहर सूरत में अपना आर्थिक केंद्र बना लिया और जल्द ही इसकी शाखाएं अहमदाबाद, अजमेर, बुरहानपुर और आगरा में क़ायम कर दीं। ये शहर उस ज़माने में व्यापार के लिए अहमियत रखते थे और बड़े व्यापारिक केंद्रों में शुमार किए जाते थे। औरंगज़ेब आलमगीर के दौर-ए-हुकूमत तक अंग्रेज़ों की सरगर्मियां सिर्फ व्यापार तक महदूद थीं।
औरंगज़ेब की वफ़ात के बाद मुग़लिया हुकूमत का ढांचा बिखरने लगा, यहां तक कि अहमद शाह के दौर-ए-हुकूमत (1748 से 1752) में ये मुल्क तवाइफ-उल-मुलूकी का शिकार हो गया। कई सूबों ने अपनी खुदमुख्तारी का ऐलान कर दिया। ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’, जो अब तक सिर्फ एक व्यापारिक कंपनी थी, मुल्कगिरी के लालच में पड़ गई और उसने अपनी सियासी ताकत बढ़ानी शुरू कर दी, यहां तक कि उसने कोलकाता में अपना एक मज़बूत फौजी क़िला भी तैयार कर लिया।
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स्वतंत्रता संग्राम का आग़ाज़
आम तौर पर यह कहा जाता है कि अंग्रेज़ों के खिलाफ सशस्त्र जद्दोजहद (संग्राम) की शुरुआत 1857 से हुई, लेकिन यह बात गलत है जिसे जानबूझ कर आम किया गया है। इसका मकसद यह है कि 1857 से सौ साल पहले जिस तहरीक (आंदोलन) का आगाज़ हुआ था और जिसके नतीजे में बंगाल के सिराजुद्दौला ने 1757 में, फिर 22-23 अक्टूबर 1764 में बंगाल के नवाब मीर क़ासिम, अवध के नवाब शुजाउद्दौला और मुग़ल बादशाह शाह आलम की क़यादत में जो जंग हुई, जिसे “बकसर की जंग” के नाम से जाना जाता है, वह सब तारीख़ के ग़ुबार में दब जाए।
इसके अलावा, हैदर अली ने 1767 में, मजनूं शाह ने 1776 और 1780 में, हैदर अली के बेटे सुल्तान टीपू (1783 से लेकर 1799 तक) ने अपनी आखिरी सांस तक अंग्रेज़ों के खिलाफ जंग लड़ी। मौलवी शरीअतुल्लाह और उनके बेटे दादू मियां ने 1812 में, और सय्यद अहमद शहीद ने 1831 में अंग्रेज़ों के खिलाफ बाक़ायदा जंग की।
यह सब बातें इतिहास के पन्नों में खो जाएं, और मुल्क के लोग यह न जान सकें कि मुसलमानों के दिलों में अंग्रेज़ों के खिलाफ नफरत की चिंगारी उसी दिन से सुलग रही थी, जिस दिन उन्होंने अपने नापाक कदम इस सरज़मीन पर रखे थे और व्यापार के नाम पर सियासी और फौजी असर-रसूख़ हासिल करके यहां के हुक्मरानों को मजबूर कर दिया था।
सौ साल तक मुसलमान पूरी ताकत और कूवत के साथ अपने उलेमा की क़यादत में उनसे मुकाबला करते रहे, यहां तक कि 10 मई 1857 को आज़ादी की जद्दोजहद का दूसरा दौर शुरू हुआ और गैर-मुस्लिम देशवासियों ने भी इस आज़ादी की लड़ाई में अपनी शिरकत दर्ज कराई।
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⭐️ सिराजुद्दौला
सिराजुद्दौला वह पहला शख्स था जिसने अंग्रेज़ों के ख़तरे को महसूस किया और उनके बढ़ते कदमों को रोकने के लिए “प्लासी” के मैदान में उनसे जंग की। अगर सिराजुद्दौला का वज़ीर मीर जाफर गद्दारी न करता तो अंग्रेज़ दम दबाकर भागने पर मजबूर हो जाते। इस गद्दार-ए-वतन की वजह से सिराजुद्दौला को शिकस्त (हार) का सामना करना पड़ा।
इनाम के तौर पर मीर जाफर को बंगाल का इक़्तेदार (शासन) मिला, लेकिन उसका शासन ज्यादा दिन तक कायम नहीं रह सका। कुछ ही दिनों बाद उसे मुअज़्ज़ल (बर्खास्त) कर दिया गया और उसका दामाद मीर क़ासिम सत्ता में आया। अंग्रेज़ों की मुखालफ़त (विरोध) की वजह से वह भी ज्यादा देर तक सत्ता में नहीं रह सका और आखिरकार 1764 में अंग्रेज़ बिहार और बंगाल पर काबिज़ हो गए और जल्द ही अवध तक फैल गए। (उलेमा के खून से रंगीन दास्तान-ए-आज़ादी: मौलाना नदीम अलवाजिदी)
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जंग-ए-आज़ादी में हैदर अली और टीपू सुल्तान का किरदार
दक्खन के फरमानरवा (शासक) हैदर अली और उनके बेटे टीपू सुल्तान के जिक्र के बिना जंग-ए-आज़ादी की तारीख (इतिहास) अधूरी होगी, जो लगातार अंग्रेज़ों के लिए एक चुनौती बने रहे।
अब्दुल अबुल हसन अली नदवी रहमतुल्लाह अलैह लिखते हैं:* सबसे पहला शख्स जिसे इस ख़तरे का एहसास हुआ, वह मैसूर का बुलंद-हिम्मत और ग़ैरतमंद फरमानरवा फतह अली खान टीपू सुल्तान (1313 हिजरी/1799 ईस्वी) था, जिसने अपनी दूरदर्शिता और ग़ैर-मामूली ज़हांती से यह बात महसूस कर ली कि अंग्रेज़ इसी तरह एक-एक सूबे और एक-एक रियासत को हज़म करते रहेंगे। अगर कोई संगठित ताकत उनके मुकाबले में न आई, तो आखिरकार पूरा मुल्क उनका लुक्मा-ए-तर बन जाएगा। इसलिए उन्होंने अंग्रेज़ों से जंग का फैसला किया और अपने पूरे साज़-ओ-सामान, वसाइल और फौजी तैयारियों के साथ उनके मुकाबले में आ गए।
हैदर अली और टीपू सुल्तान ने अंग्रेज़ों से चार जंगें लड़ीं। टीपू सुल्तान 1782 ईस्वी में हुक्मरां (शासक) बने। 1783 ईस्वी में अंग्रेज़ों से टीपू की पहली जंग हुई, जिसमें अंग्रेज़ों को शिकस्त (हार) का सामना करना पड़ा। यह जंग 1784 में खत्म हुई और इसे मैसूर की दूसरी जंग के नाम से जाना जाता है। अंग्रेज़ अपनी हार का बदला लेने के लिए बेकरार थे, इसलिए 1792 ईस्वी में उन्होंने फिर से हमला किया, लेकिन अपने कुछ वज़ीरों और अफसरों, खासकर मीर सादिक की बेवफाई और अपनी ही फौज की गद्दारी और अचानक हमले के कारण टीपू सुल्तान को समझौता करने पर मजबूर होना पड़ा।
टीपू सुल्तान की जद्दोजहद और अज़्म (दृढ़संकल्प)
टीपू ने हिंदुस्तान के राजाओं, महाराजाओं और नवाबों को अंग्रेज़ों से जंग पर आमादा करने की कोशिश की। इस मकसद से उन्होंने सुल्तान-ए-तुर्की सलीम उस्मानी, दूसरे मुस्लिम बादशाहों और हिंदुस्तान के उमरा और नवाबों से खत-ओ-किताबत (पत्राचार) की और ज़िंदगी भर अंग्रेज़ों से सख्त मुआरिका (मुकाबला) करते रहे। करीब था कि अंग्रेज़ों के सारे मंसूबों (योजनाओं) पर पानी फिर जाए और वे इस मुल्क से बिल्कुल बेदखल हो जाएं,
लेकिन अंग्रेज़ों ने दक्षिणी हिंदुस्तान के उमरा को अपने साथ मिला लिया और आखिरकार इस मुजाहिद बादशाह ने 4 मई 1799 ईस्वी को “सरंगपट्टम” के मुआरिका में शहीद होकर सुर्खरूई (सम्मान) हासिल की। उन्होंने अंग्रेज़ों की गुलामी और असारी (कैद) और उनके रहम-ओ-करम पर ज़िंदा रहने की बजाय मौत को तर्जीह दी।
उनका मशहूर तारीखी मक़ूलह (कहावत) है:
- “गीदड़ की सौ साल की ज़िंदगी से शेर की एक दिन की ज़िंदगी अच्छी है।”
जब जनरल हॉर्स को सुल्तान की शहादत की खबर मिली, तो उसने उनकी लाश पर खड़े होकर कहा:
- “आज से हिंदुस्तान हमारा है।”
(📚हिंदुस्तानी मुसलमान: 137)
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जंग-ए-आज़ादी में शाह वलीउल्लाह का किरदार
यह वह दौर था जब अंग्रेज़ों के अलावा ईरान और अफ़गानिस्तान से ताल्लुक रखने वाले दूसरे हुक्मरान भी हिंदुस्तान को अपने ज़ेरे-नगीं करने के लिए हमला आवर हुए। 1738 ईस्वी में नादिर शाह ने दिल्ली को तबाह कर दिया, और 1757 ईस्वी में अहमद शाह अब्दाली ने दो महीने तक इस शहर को यरग़माल बनाए रखा।
दूसरी तरफ़ अंग्रेज़ फ़ौजें मराठों से टकराती हुईं, सिराजुद्दौला को शिकस्त देती हुईं और टीपू सुल्तान को शहीद करती हुईं दिल्ली की तरफ़ बढ़ रही थीं। अभी अंग्रेज़ों ने पूरी तरह दिल्ली का इक़्तिदार हासिल भी नहीं किया था कि उलेमा-ए-हिंद के मीर-ए-कारवां, इमाम-ए-हिंद हज़रत शाह वलीउल्लाह देहलवी रहमतुल्लाह अलैह ने मुस्तकबिल के ख़तरात का अंदाज़ा कर लिया और दिल्ली पर क़ब्ज़े से पचास साल पहले ही अपनी जद्द-ओ-जहद का आग़ाज़ कर दिया।
इसके चलते आप पर जानलेवा हमले भी हुए, लेकिन आप अपने नज़रिये पर डटे रहे। उन्होंने अपनी किताबों, ख़ुतूत, और तक़रीरों में अपना नज़रिया इस तरह पेश किया कि तबाह हाल शहर, जिस पर दरिंदा-सिफ़त इंसानों का तसल्लुत हो, जिन्हें अपनी हिफ़ाज़त और दिफ़ा की पूरी ताक़त हासिल हो, यह ज़ालिम और जाबिर गिरोह जो इंसानियत के लिए सरतान (कैंसर) है, इंसान इस वक़्त तक सेहतमंद नहीं हो सकता जब तक इस सरतान को जड़ से उखाड़ कर फेंक न दिया जाए। (📚हुज्जतुल्लाह अल-बालिग़ा: अल-जिहाद)
अफ़सोस हज़रत शाह साहब 1765 ईस्वी में वफ़ात पा गए और उनका ख्वाब तश्ना-ए-ताबीर रह गया। हालांकि, वह अपनी किताबों और अपने फिक्र-ओ-अमल के ज़रिए एक नस्बुल-ऐन मुतअय्यन कर चुके थे, इंक़लाब का पूरा लायहा-ए-अमल तैयार कर चुके थे, और इंक़लाब के बाद मुमकिना हुकूमत के लिए मज़हबी, इक़्तिसादी, और सियासी उसूलों की रौशनी में एक मुकम्मल निज़ाम वज़ा कर चुके थे। ज़रूरत सिर्फ इस बात की थी कि उनके छोड़े हुए काम को आगे बढ़ाने के लिए कुछ लोग मैदान-ए-अमल में आएं।
चुनांचे, हज़रत शाह अब्दुल अज़ीज़ देहलवी रहमतुल्लाह अलैह ने हौसला दिखाया। हालांकि, वह उस वक्त महज़ सतरह साल के थे, मगर अपने वालिद बुज़ुर्गवार के मिशन को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने अज़्म-ओ-इस्तेकलाल से काम लिया और हज़रत शाह साहब के नज़रिये-ए-इंक़लाब को मुख़सूस लोगों के दिलों से निकाल कर आम इंसानों के दिलों में इस तरह पेवस्त कर दिया कि हर ज़ुबान पर जिहाद और इंक़लाब के नारे मचलने लगे।
इंक़लाब की इस सदा-ए-बाज़गश्त को दिल्ली से बाहर दूर-दूर तक पहुंचाने में हज़रत शाह अब्दुल अज़ीज़ रहमतुल्लाह अलैह के तीनों भाइयों हज़रत शाह अब्दुल क़ादिर रहमतुल्लाह अलैह, हज़रत शाह रफ़ीउद्दीन रहमतुल्लाह अलैह, और हज़रत शाह अब्दुल ग़नी देहलवी रहमतुल्लाह अलैह के अलावा जिन लोगों ने पूरे ख़ुलूस और लिल्लाहियत के साथ अपना भरपूर तआवुन पेश किया, उनमें हज़रत शाह अब्दुल हई रहमतुल्लाह अलैह, हज़रत शाह इस्माइल शहीद रहमतुल्लाह अलैह, हज़रत सैयद अहमद शहीद रहमतुल्लाह अलैह, और मुफ़्ती इलाही बख्श कंधलवी रहमतुल्लाह अलैह के अस्मा-ए-गिरामी ब-तौर-ए-ख़ास काबिल-ए-ज़िक्र हैं।
तर्बियतगाह-ए-अज़ीज़ी से निकल कर मुसल्लह जद्द-ओ-जहद को नस्बुल-ऐन बनाने वालों की तादाद हज़ारों से मुतजाविज थी, और हिंदुस्तान का कोई गोशा ऐसा नहीं था जहां इस इंक़लाब की दस्तक न सुनी गई हो और जहां इस आवाज़ पर लब्बैक कहने वाले मौजूद न हों।
हज़रत शाह अब्दुल अज़ीज़ देहलवी रहमतुल्लाह अलैह ने इस तहरीक को दिल-ओ-जान से परवान चढ़ाया, मगर तरह-तरह की मुश्किलात और मसाइब भी बर्दाश्त किए। आपकी जायदाद भी ज़ब्त की गई, आपको शहरबदर भी किया गया, आप पर क़ातिलाना हमले भी किए गए। दो मर्तबा ज़हर दिया गया और एक मर्तबा उबटन में छिपकली मिला कर पूरे बदन पर मालिश भी की गई, जिससे बिनाई भी जाती रही और बेशुमार अमराज़ भी पैदा हुए। इन तमाम मसाइब के बावजूद उनके पाय-ए-सबात में कभी लग़ज़िश महसूस नहीं की गई।
जंग-ए-आज़ादी का फतवा
1803 ईस्वी में लॉर्ड लेक ने शाह आलम बादशाह के साथ एक मुआहिदा किया और दिल्ली पर क़ाबिज़ हो गया। इस क़ब्ज़े के लिए जो सै-नुकाती फार्मूला अपनाया गया, वह यह था “खलकत ख़ुदा की, मुल्क बादशाह सलामत का और हुक्म कंपनी बहादुर का।” यह फार्मूला इस लिए इख़्तियार किया गया ताकि बादशाहत के ख़ात्मे से अवाम में बददिली और मायूसी पैदा न हो और वह बग़ावत पर आमादा न हो जाएं। इस लिए बादशाह के तख़्त-ओ-ताज को तो बाकी रखा गया, मगर उसके तमाम इख़्तियारात सलब कर लिए गए।
क़नाअतपसंद तबियतों के लिए यह फार्मूला भी तसल्ली बख़्श था। मगर हज़रत शाह अब्दुल अज़ीज़ देहलवी रहमतुल्लाह अलैह और उनके जैसे सोच रखने वाले लोग इस ताबीर में मज़मर फरेब और ख़तरे को महसूस कर रहे थे। यह वह मरहला था जब आपने अंग्रेज़ी इक़्तिदार के ख़िलाफ़ निहायत जुरअत मंदाना फतवा जारी किया, जिसके फ़ारसी मतन का उर्दू तर्जुमा हसब-ए-ज़ैल है👇🏿
“यहाँ रूसा-ए-नसारा (ईसाई अफसरान) का हुक्म बिला दग़दग़ा और ब-धड़क जारी है और उनका हुक्म जारी और नाफ़िज़ होने का मतलब यह है कि मुल्कदारी, इंतेज़ामात-ए-रिआयत, ख़िराज, बाज, अशर-ओ-मालगुज़ारी, अमवाल-ए-तिजारत, डाकुओं और चोरों के इंतेज़ामात, मुकदमात का तस्फिया, जारिमों की सजाओं वग़ैरह (यानी सिविल, फ़ौज, पुलिस, दीवानी और फ़ौजदारी मुआमलात, कस्टम और ड्यूटी वग़ैरह) में यह लोग ब-तौर ख़ुद हाकिम और मुख्तार-ए-मुतलक़ हैं।
हिंदुस्तानियों को उनके बारे में कोई दख़ल नहीं। बेशक नमाज़-ए-जुमा, ईदैन, अज़ान वग़ैरह जैसे इस्लाम के चंद अहकाम में वह रुकावट नहीं डालते, लेकिन जो चीज़ इन सब की जड़ और हुर्रियत की बुनियाद है (यानि ज़मीर और राए की आज़ादी और शहरी आज़ादी) वह क़तअन ब-हक़ीक़त और पामाल है। चुनांचे बिला तकल्लुफ मस्जिदों को मसमार कर देते हैं, अवाम की शहरी आज़ादी ख़त्म हो चुकी है। इंतिहा यह कि कोई मुसलमान या हिंदू उनके पासपोर्ट और परमिट के बग़ैर इस शहर या इसके अतराफ़-ओ-जवानिब में नहीं आ सकता।
आम मुसाफ़िरों या ताजिरों को शहर में आने-जाने की इजाज़त देना भी मुल्की मफ़ाद या अवाम की शहरी आज़ादी की बुनियाद पर नहीं, बल्कि ख़ुद अपने नफ़ा के ख़ातिर है। इसके ब-मुक़ाबिल ख़ास-ख़ास मुमताज़ और नुमायां हज़रात मसलन शुजाअुल्मुल्क और विलायती बेगम, उनकी इजाज़त के बग़ैर इस मुल्क में दाख़िल नहीं हो सकते। दिल्ली से कलकत्ता तक उन्हीं की अमलदारी है। बेशक कुछ दाएं-बाएं, मसलन हैदराबाद, लखनऊ, रामपुर में चूंकि वहां के फ़रमानरवाओं ने इताअत क़ुबूल कर ली है, ब-राह-ए-रास्त नसारा के अहकाम जारी नहीं होते” (मगर इस से पूरे मुल्क के दारुलहर्ब होने पर कोई असर नहीं पड़ता)।
(📚फ़तावा-ए-अज़ीज़ी फ़ारसी जिल्द अव्वल सफ़ह 17 मुतबाअ मुतबा मुजतबाई ब-हवाला उलेमा-ए-हिंद का शानदार माज़ी जिल्द दोम सफ़ह 228-229)
यह अव्वलीन फतवा है जो अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ दिया गया और जिसमें दारुलहर्ब का मुख़सूस इस्तिलाही लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया, जिसका साफ़ और सरीह मतलब यह है कि हर महब्ब-ए-वतन मुसलमान शहरी पर फ़र्ज़ है कि वह इन अजनबी हुक्मरानों के ख़िलाफ़ ऐलान-ए-जंग करे और उस वक्त तक सुकून से न बैठे जब तक क़ाबिज़ीन का एक-एक फ़र्द मुल्क की सरहद से बाहर न हो जाए। हज़रत शाह अब्दुल अज़ीज़ के इस फतवे का असर यह हुआ कि ख़वास तो ख़वास अवाम भी अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ मुसल्लह जद्द-ओ-जहद के लिए उठ खड़े हुए।
(📚उलेमा-ए-हिंद का शानदार माज़ी: 2/104)
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