फिलिस्तीन का इतिहास (किस्त 1)
हम शुरू कर रहे हैं फिलिस्तीन का इतिहास जिसको हम किस्तों (भागों) में बयान करेंगे इसको शुरू से तारीख के हिसाब से ले कर चलेंगे तो ये पहली किस्त है इंशाल्लाह बाक़ी किस्तें भी बहुत जल्द पोस्ट कर दी जायेंगी
Table of Contents
फ़िलिस्तीन, बैतुल मुकद्दस का ज़िक्र क़ुरआन व हदीस में
फ़िलिस्तीन, बैतुल मुकद्दस का ज़िक्र क़ुरआन में
1. सूरह इस्रा: 1 में नबी करीम ﷺ के मिराज का वाक़िया ज़िक्र किया गया है।
2. सूरह माइदा: 21 में मूसा عليه السلام की ज़बानी फ़िलिस्तीन को अर्द ए मुक़द्दस के लफ़्ज़ के साथ याद किया गया है।
3. सूरह अंबिया: 71 में इब्राहीम عليه السلام का शाम यानी फिलिस्तीन की तरफ हिजरत का ज़िक्र है।
4. सूरह अंबिया: 81 में हज़रत सुलेमान عليه السلام के किस्से में इस जगह का ज़िक्र है, जिसमें है कि हवा, सुलेमान अलैहिस्सलाम के ताबे थी जो उनके हुक्म पर मुबारक ज़मीन (फिलिस्तीन)की तरफ चलती थी।
5. नबी करीम ﷺ जब मक्का में नमाज़ पढ़ते थे तो 2 रुकनों के दरमियान नमाज़ पढ़ते थे जिसमें मस्जिद हराम और बैतुल मुकद्दस दोनों आ जाते थे, इसलिए इस्लाम की शुरुआत में मुसलमानों का क़िबला बैतुल मुकद्दस था, फिर बदल गया। जिसका ज़िक्र सूरह बक़राह: 144 में है।
फ़िलिस्तीन, बैतुल मुकद्दस का ज़िक्र अहादीस में
1. नबी करीम ﷺ की हदीस है कि तुम किसी मस्जिद की तरफ सफर न करो सिवाय तीन मसाजिद के: मस्जिद हराम, मस्जिद नबवी, और मस्जिद अल-अक्सा। मस्जिद हराम में नमाज का सवाब एक लाख नमाजों के बराबर, मस्जिद नबवी में एक हजार नमाजों के बराबर, मस्जिद अल-अक्सा में पांच सौ नमाजों के बराबर हैं।
2. नबी करीम ﷺ की हदीस है: मस्जिद अल-अक्सा धरती पर मस्जिद हराम के बाद दूसरी मस्जिद है, और इन दोनों के दरमियान चालीस साल का ज़माना था।
3. तिरमिज़ी शरीफ में नबी करीम ﷺ की हदीस है कि हल-ए-शाम को खुशख़बरी हो, हल-ए-शाम को खुशख़बरी हो। सहाबा ने अर्ज़ किया आप मल्क-ए-शाम की तारीफ क्यों फरमा रहे हैं? तो नबी करीम ﷺ ने फरमाया फ़रिश्तों ने मुल्क-ए-शाम पर अपने पर पैलाए हैं।
4. बर्राअ बिन आज़िब रदिअल्लाहु अन्हु फ़रमाते हैं कि हम ने नबी करीम ﷺ के साथ बैतुल मुकद्दस की तरफ सोलह या सत्रह महीने नमाज पढ़ी है।
5. हज़रत अनस रदिअल्लाहु अन्हु फ़रमाते हैं कि नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया कि जब मैं मेराज पर जा रहा था तो मेरे पास बुराक लाया गया जो सफ़ेद जानवर था जहाँ इसकी नज़र जाती थी वहाँ इसके पांव पड़ते थे, मैं इस पर सवार हुआ, और बैतुल मकद्दस आया, मैंने बुराक को उस जगह बाँधा जहाँ अंबिया अपनी सवारियाँ बाँधते थे। फिर मैं मस्जिद में दाखिल हुआ, उस में दो रकातें पढ़ीं, फिर मैं निकला, हज़रत जिब्रील अलय्हिस्सलाम मेरे लिए शराब और दूध के दो बर्तन लेकर आए, मैंने दूध को पसंद किया, जिब्रील अलय्हिस्सलाम ने फ़रमाया आपने फ़ितरत का रास्ता इख़्तियार किया, फिर मुझे आसमान पर ले गए।
6. हज़रत मूसा अलय्हिस्सलाम ने अर्ज़ मकद्दस में मौत की दुआ की थी, नबी करीम ﷺ फरमाते हैं कि मुझे उनकी क़ब्र मालूम है, अगर मैं वहाँ होता तो तुम्हें उनकी क़ब्र दिखा देता जो रास्ते की तरफ़ सुर्ख टीला के पास है।
7. नबी करीम ﷺ ने मुल्क-ए-शाम के लिए दुआ की है, अल्लाहुम्मा बारिक लना फी शामिना। या अल्लाह हमारे लिए मुल्क-ए-शाम में बरकत आता कर।
8. हदीस में है आख़री ज़माने में हज़रमौत से आग निकलेगी जो सभी लोगों को लपेटे में ले लेगी, सहाबा ने अर्ज़ किया, आप हमें किस बात का हुक़म फरमाते हैं, नबी करीम ﷺ ने फरमाया तुम शाम को लाज़म पकड़ो।
9. मैमूना बिन्त सअद रदिअल्लाहु अन्हा ने नबी करीम ﷺ से पूछा कि हमें बैतुल मकद्दस के बारे में कुछ बताएं, नबी करीम ﷺ ने फरमाया यह महशर और मंशर की जगह है यानी क़यामत के दिन इंसानों को यहाँ जमा किया जाएगा, और यहाँ से उठाया जाएगा।
इन फजीलतों की वजह से कई सहाबा कराम ने बैतुल मकद्दस की ज़ियारत की है।
फिलिस्तीन का प्राचीन(क़दीम) इतिहास
फिलिस्तीन की प्राचीन इतिहास के बारे में ये यकीनी तौर पर नहीं कहा जा सकता है कि यहां पहले कौन रहता था, इसका इतिहास जानना कठिन है। सबसे पहला संदर्भ (हवालाह)जो मिलता है वह यह है कि ईसा अलैहिस्सलाम से 1400 साल पहले यहां कुछ कबीले बसे हुए थे जिन्हें “नटोफियून” कहा जाता था, लेकिन उनके बारे में अधिक विवरण नहीं है। 800 साल पहले ईसा पूर्व में फिलिस्तीन के एक शहर “येरिहो” के अवशेष मिलते हैं, लेकिन उनके बारे में भी अधिक जानकारी नहीं है कि यहा कौन थे, और वे कहां से आए थे।
फिलिस्तीन का नाम कैसे पड़ा
जहां तक फिलिस्तीन नाम का कारण है, तो यह नाम कुछ अन्य कबीलों के कारण पड़ गया जो हालात की मजबूरियों के कारण मिस्र आने जा रहे थे, ये रामेसेस तीसरा यानी मिस्र के बादशाह फिरौन सोम(1186 ईसा पूर्व) का समय था।
फिरौन ने उन्हें मिस्र में नहीं बसने दिया, बल्कि उन्हें फिलिस्तीन में मौजूद एक स्थान “बलस्त” में बसने के लिए कहा, यहां बसने के बाद उन्हें बलस्तीनी हा जाता था, जो कुछ दिनों के बाद फिलिस्तीन से बदल गया। वक्त बितते बितते ये लोग यहां पहले से बसे हुए कैनानियों और येबूसियों के पड़ोस में आ गए, और फिर ये एक दूसरे के साथ मिल गए। फिलिस्तीन की इतिहास में यहां तक यहूदियों का कोई भी उल्लेख नहीं है।
यहूदी किसकी औलाद हैं
यह तारीख से साबित होता है कि इस्लाम के नबी इब्राहीम (عليه السلام) के दो बेटे इसहाक (عليه السلام) और इस्माईल (عليه السلام) फिलिस्तीन में पैदा हुए थे, लेकिन वे नियमित फिलिस्तीन के निवासी नहीं थे बल्कि उन्होंने फिलिस्तीन की तरफ हिजरत की थी। याकूब (عليه السلام) जिनका नाम इसराइल था, इसहाक (عليه السلام) के बेटे थे, और यूसुफ (عليه السلام) याकूब (عليه السلام) के बेटे थे। उन्हें मिस्र ले जाकर गुलाम बनाया गया था, जो बाद में मिस्र के खजानेदार बने थे, उन्होंने अपने पिता याकूब (عليه السلام) और उनके बच्चों को मिस्र बुलाया था।
याकूब (عليه السلام) ने अपने सभी अहल-ए-वालिद को ले कर मिस्र आए और वहीं बस गए, और फिलिस्तीन को पूरी तरह छोड़ दिया था। याकूब (عليه السلام) इसके बाद मिस्र से नहीं गए थे। इसलिए कहना कि हज़रत याकूब (अलैहिस्सलाम) फिलिस्तीनी थे या उन्होंने फिलिस्तीन को अपना वतन बनाया था सही नहीं है। केवल याकूब (عليه السلام) के कुछ समय फिलिस्तीन में रहने से मौजूदा यहूदियों का यह नतीजा निकालना कि यह यहूदियों की ज़मीन है कैसे सही हो सकता है। याकूब (عليه السلام) के ख़ानदान का यहाँ स्थायी वतन बनाना साबित नहीं है।
मूसा अलैहिस्सलाम और फिलिस्तीन
मूसा अलैहिस्सलाम और फिलिस्तीन हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के दौर में यहूदियों ने दूसरी बार हिजरत फिलिस्तीन की तरफ कि थी, जब वे मिस्र के फिरौन के जुल्म से परेशान थे। यह साबित करता है कि यहूदी, फिलिस्तीन के मूल निवासी नहीं थे, वे फिलिस्तीन के लिए समय-समय पर हिजरत करते थे। फिलिस्तीन के मूल निवासी कनानी थे।
हमने यहूदियों की ये ऐतिहासिक बातें सिर्फ अरबों की ऐतिहासिक किताबों से ही नहीं लीं, बल्कि इसके लिए हमने खुद यहूदी मज़हबी किताबों और West के लेखकों की किताबों को आधार माना है। फिलिस्तीन सियासी और प्रशासनिक रूप से मिस्र के साथ जुड़ा था, फिलिस्तीन सियासी और इतंजामी रूप से मिस्र के साथ जुड़ा था, जब से याकूब अलैहिस्सलाम ने यहाँ इबादतगाह को स्थापित किया था, उस समय में मिस्र के राजाओं ने अपने क्षेत्र में विस्तार करके फिलिस्तीन को भी शामिल कर लिया था।
उस समय में फिलिस्तीन मिस्र के अधीन था, लेकिन यह कहीं से साबित नहीं है कि यहूदी, फिलिस्तीन के मूल निवासी थे, फिलिस्तीन के मूल निवासी कनानी थे। यहूदियों पर अल्लाह ताला न इहसान किया, फिरओन से उन्हें निजात दी, फिरओन और उसके साथी लोगों की समंद्र में डूब कर मौत हो गई। हज़रत मूसा अलैहिस्सला का जमाना 1250 ईसा पूर्व का है। मूसा अलैहिस्सलाम की कई चमत्कारी कहानियाँ हैं, जैसे कि मूसा अलैहिस्सलाम की माँ द्वारा उन्हें नदी में डाला जाना, मूसा अलैहिस्सलाम को फिरओन के घर में पालना। फिर जब मूसा अलैहिस्सलाम युवा हुए, तो मूसा अलैहिस्सलाम मदयन चले गए, जहां उन्हें अल्लाह ताला ने रसूल बनाया, और फिरआउन के पास भेजा।
मूसा अलैहिस्सलाम ने फिरओन को दीन की दावत दी और बनी इस्राइल को आज़ाद करने का कहा, फिरौन ने माना नहीं, फिरौन ने उन्हें मारने की तैयारी की, अल्लाह ताला ने मूसा अलैहिस्सलाम को हुक्म दिया कि मिस्र से निकलो और फिलिस्तीन जाओ, मूसा अलैहिस्सलाम निकले लेकिन पीछे से फिरआउन और उसकी सेना उनका पीछा कर रही थी अल्लाह ताला ने मूसा अलैहिस्सलाम को हुक्म दिया के अपना असा (लाठी)समुद्र पार मारो जैसे ही मूसा अलैहिस्सलाम ने ऐसा किया समंदर बीच से फट गया
और उसमे से सूखे रास्ते निकल पड़े जिस से मूसा अलैहिस्सलाम और बनी इजरायल उसमे से बच निकले फिर जैसे ही फिरओन और उसकी सेना उस रास्ते पर आई तो समन्दर आपस में मिल गया फिरौन और फिरौन की सारी सेना उसमे डूब कर मर गई। और अल्लाह ने उनको लाशों को दुनिया के लिए इबरत बनाया के समंदर में भी उनके जिस्मों को सही सलामत रखा फीर आज के दौर में आकर उनको समन्दर से निकाला गया जिनकी लाशें आज भी मिस्र के म्यूज़ियम में रखी हुईं हैं।
यहूदियों की अपने नाबियों के साथ गद्दारियां
इस अज़ीम अहसान के बावूजूद जब यहूदी मूसा अलैहिस्सलाम के साथ “आर्ज़ ए सीना” में मिस्र में बुत परस्तों (मूर्तिपूजकों) के पास से गुजर रहे थे, तो यहूदीओं ने मूसा अलैहिस्सलाम से कहा कि हमारे लिए भी ऐसी ही मूर्तियाँ बनाई जाएं, तो मूसा अलैहिस्सलाम ने उनसे कहा कि तुम जाहिल लोग हो, अल्लाह ताला ने तुम पर इतनी नेकियाँ की हैं फिर भी तुम शिर्क की बातें करते हो। (सूरह अल-आराफ: 138)। इसकी वजह थी कि यहूदी सदियों से मिस्री राजाओं की गुलामी में रहे थे।
इसके बाद मूसा अलैहिस्सलाम ने अपनी क़ौम को वादी ए सीना में छोड़ कर खुद जबल ए तूर पर अपने रब से मनाजात (दुआ)करने चले गए, चालीस दिन तक ग़ाइब रहे, और अपने भाई हारून अलैहिस्सलाम को यहूदियों का ज़िम्मेदार मुकर्रर किया था। वापस आने पर पता चला कि बनी इस्राइल ने बछड़े की पूजा शुरू कर दी है,
यह ऐसा गुनाह था जो आसानी से माफ़ नहीं हो सकता था, उनकी शरीयत के मुताबिक़ उसकी माफ़ी इस तरह हो सकती थी कि वह अपने आपसमें जंग करें और खुद आपने गुनाह की सज़ा दें यानि कत्ल करें। (सूरह अल-बकराह: 54) लेकिन बनी इस्राइल ने इस तरह की माफ़ी मांगने से इनकार कर दिया, जिस पर अल्लाह ताला ने उनके सर पर जबल ए तूर को उठा दिया,(के नहीं मानोगे तो सब लोगों पर ये पहाड़ गिरा दिया जाएगा) जिसके बाद वह हुक़म मानने के लिए तैयार हो गए। (सूरह अल-आराफ: 171)
उसके बाद में मूसा अलैहिस्सलाम ने बनी इस्राइल में से सत्तर लोगों को चुनकर जबल तूर पर ले जाकर अल्लाह से माफ़ी माँगने के लिए ले गए, अल्लाह से उनसे हम कलाम हुआ, लेकिन उन्होंने मूसा अलैहिस्सलाम से कहा कि हम उस समय मानेंगे जब तक अल्लाह सामने नज़र न आए। तोअल्लाह ने उन पर बिजली की कड़क का अज़ाब भेजा और बिजली की कड़क से वे सभी मर गए, फिर मूसा (अलैहिस्सलाम) ने दुआ की तो वे जिंदा हो गए। (सूरह अल-बकराह: 55) ये सभी पे दर पे मुआज़ज़ात थे जो मूसा अलैहिस्सलाम को अल्लाह ताला ने आता किए।
जब मूसा (अलैहिस्सलाम) फिलिस्तीन के दरवाज़े पर पहुँचे, तो मूसा (अलैहिस्सलाम) ने बनी इस्राइल को बताया कि अल्लाह ताला फरमाता हैं कि तुम बैतुल मकदस में प्रवेश करो, उस पर बनी इस्राइल ने कहा कि फिलिस्तीन में तो बहुत ताक़तवर लोग हैं, हम उनकी मौजूदगी में कैसे प्रवेश करेंगे, अगर वे निकल जाएं तो हम प्रवेश करेंगे। मूसा (अलैहिस्सलाम) और हारून अलैहिस्सलाम ने उन्हें नसीहत की कि तुम प्रवेश करो, अल्लाह ताअला तुम्हारी मदद करेगा।
उस पर उन्होंने जवाब दिया कि तुम जानते हो और तुम्हारा रब जानता है, हम तो जंग नहीं कर सकते, यहाँ बैठे रहेंगे। (सूरह अल-माइदाह: 24) इसके बाद अल्लाह ताला ने बनी इस्राइल को सज़ा के तौर पर फ़रमाया के फ़िलिस्तीन की ज़मीन तुम पर चालीस साल तक हराम की गई, तुम खाना बदूशों की तरह सरगर्दान फिरते रहोगे, निकलने की कोई सूरत नहीं होगी। (सूरह अल-माइदाह: 26) फिर बनी इस्राइल चालीस साल तक वादी ए तैह में रहे।
बनी इस्राइल में गाय का क़िस्सा
इसी वादी ए तैह में बक़रा यानी गाय का मशहूर वाक़िया भी पेश आया, बनी इस्राइल में एक शख्स का क़त्ल हो गया था, क़ातिल का नाम छुपाने के लिए उन्होंने एक दूसरे पर इल्ज़ाम डाले,तो क़ातिल को मालूम करने के लिए उन्हें हुक्म हुआ कि एक गाय को ज़ीबाह करो और उसके गोश्त को उस मक़्तूल शख्स (जो कत्ल किए गया) पर डाल दो, जिस से क़ातिल मालूम हो जाएगा, मगर वो गाय को जबर करने के लिए तैयार नहीं थे, इस लिए मूसा अलैहिस्सलाम से सवाल पर सवाल किए जा रहे थे।
बिलआख़िर मजबूरन गाय ज़िबाह की और अल्लाह ताला ने मक़तूल को जिंदा किया, उसने अपने क़ातिल का नाम बता दिया, ये तेरहवां मुआज़िज़ा था जो अल्लाह ताला ने बनी इस्राइल को दिखाया था। जिस पर उन्हें अल्लाह ताला की इबादत में नरम होना चाहिए था मगर वे पत्थर से भी ज्यादा सख्त दिल हो गए थे। (सूरह अल-बक़राह: 74)
इन वाक़्यात के बयान करने का मक़सद
ये सभी घटनाएँ कुरान मजीद में हैं, यहाँ इन सभी घटनाओं का ज़िक्र करना मकसद नहीं है, सिर्फ यह बताना मकसद है कि बनी इस्राइल की तारीख झूठ, धोखा और गद्दारी से भरी हुई है, इसलिए उनसे यह बईद(दूर नहीं) नहीं कि वह एक नया झूठ गढ़ लें कि फ़िलस्तीन उनका हक़ है।
मूसा अलैहिस्सलाम की वफ़ात और उनकी ख्वाहिश
बनी इस्राइल की इस सख्त दिली के नतीजे में वे चालीस साल तक फ़िलस्तीन से दूर वादी ए तैह में सरगदाँ ज़िंदगी गुज़ार रहे थे। इस दौरान मूसा अलैहिस्सलाम की मौत का समय क़रीब आया, तो मलक-उल-मौत हाज़िर हुए, मूसा अलैहिस्सलाम से पूछा कि ज़िंदगी चाहते हो या मौत?
मूसा अलैहिस्सलाम ने अल्लाह ताअला से दुआ की कि या अल्लाह मुझे अर्ज़ मुक़द्दस फ़िलस्तीन के क़रीब मौत नसीब फ़रमा, चुनांचे मलक-उल-मौत ने ऐसी जगह उनकी रूह क़ब्ज़ की कि उनके और बैत-उल-मुक़द्दस के दरमियान सिर्फ़ एक सुर्ख टीले का फ़ासला था, चुनांचा इस बारे में नबी करीम ﷺ की हदीस भी है कि मुझे उनकी क़ब्र मालूम है, अगर मैं वहाँ होता तो तुम्हें उनकी क़ब्र दिखा देता जो रास्ता की तरफ़ सुर्ख टीले के पास है। (सही बुख़ारी)
लेकिन बनी इस्राइल को इस के बावजूद भी बैत-उल-मुक़द्दस की तरफ़ रहनुमाई नहीं हो रही थी और वादी ए तैह में अपनी हालत पर ज़िंदगी गुज़ार रहे थे, फिर जब यूशअ बिन नून अलैहिस्सलाम का ज़माना आया, जिसका ज़िक्र ख़िज़र अलैहिस्सलाम के किस्से में आता है, तो उन्होंने बनी इस्राइल को वाद ए तैह से निकाला और उर्दुन ले गए। इस पूरे किस्से से अच्छे तरीके से मालूम हो जाता है कि हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम की बनी इस्राइल के साथ पूरी ज़िंदगी कितनी थका देने वाली थी।
यूशआ बिन नून अलैहिस्सलाम और फिलिस्तीन
1186 ईसा पूर्व में बनी इस्राइल ने, यूशअ बिन नून अलैहिस्सलाम की सरदारी में मुकद्दस सरज़मीन फिलिस्तीन में प्रवेश किया, लेकिन सही रिवायतों के मुताबिक बैत-उल-मुकद्दस नहीं गए। कुछ मुह़क्किक़ीन को यह ग़लतफ़हमी हुई है कि उन्होंने बैत-उल-मुकद्दस को फ़तह किया है, सही यह है फिलिस्तीन में मौजूद शहर “आरीहा” गए, वहाँ उनका कनानी ताक़तवर लोगों के साथ जंग हुई थी, जिनका तज़करा क़ुरान मजीद में भी है।
बनी इस्राइल ने आरीहा को फ़तह किया और उसमें आबाद हुए, तारीख और हदीस की किताबों में इस मुआरका का ज़िक्र है, क़ुरान ने सूरह बक़राह आयत:58 में इस का ज़िक्र किया है, कि हम ने उन्हें कहा कि इस शहर में प्रवेश करो, फिर उसमें जहाँ चाहो बिना रोक-टोक के खाओ और पियो।
*इस जंग का आयोजन जुम्मा को हुआ था, जबकि सूरज डूब रहा था और शनिवार का दिन शुरू हो रहा था, बनी इस्राइल परेशान हो गए क्योंकि अल्लाह ताला ने शनिवार के दिन यहूदियों पर जंग को हराम कर दिया था, इसलिए यूशअ बिन नून अलैहिस्सलाम ने दुआ की कि सूरज ठहर जाए, तो सूरज रुक गया और जंग समाप्त हो गई। यूशअ बिन नून अलैहिस्सलाम के लिए सूरज का रुकना सही अहादीस से साबित है,
इसके मुताबिक हाफिज इब्न हजरؒ की मुस्नद अहमद में नबी करीम ﷺ की सही हदीस है कि सूरज किसी इंसान के लिए नहीं रुका सिवाय यूशअ बिन नून अलैहिस्सलाम के जब वह बैत-उल-मुकद्दस की तरफ जा रहे थे। यहां बनी इस्राइल को अल्लाह ताअला ने एक और मुआज़ज़ा दिखाया।आरीहा फतह करने के बाद अल्लाह ताअला ने उन्हें हुक्म दिया कि यहां प्रवेश करो और जहां से चाहो खाओ पियो अल्लाह ताअला ने उन्हें फ़रमाया सजदा करते हुए “हित्तातुन” कहते जाओ
यानि अल्लाह हमें मुआफ़ करे लेकिन उन्होंने यहां भी सरकशी की, यूशाअ बिन नून अलैहिस्सलाम का मज़ाक उड़ाया कि यह हमने अपनी शक्ति से जीता है, जब वे शहर में प्रवेश कर रहे थे तो उन्होंने अपने पीछे का हिस्सा सामने करके शहर में प्रवेश किया, और “हित्तातुन” से कहने की बजाय कहा “हिन्तातुन” जिसका अर्थ है हमें खाना दो। जिसके कारण अल्लाह ताला ने उन पर अज़ाब नाज़िल किया। (बक़रा: 59)*
इसके बाद यहूदियों ने फिलिस्तीन में रहना जारी रखा, फिलिस्तीन का दारुलखिलाफ़ा आरीहा था, जब यूशआ बिन नून अलैहिस्सलाम का इंतेक़ाल हुआ तो यह बिखर गए, उनमें कई जंगें भी हुईं, इस दौरान उनमें बहुत से अंबिया भी भेजे गए, हर नबी के बाद नबी आता था, अक्सर अंबिया बनी इस्राइल में आए हैं, कभी एक समय में तीन अंबिया भी आए हैं, जैसा कि सूरह यसिन आयत: 13-14 में है।
बनी इस्राइल अंबिया की नाफ़रमानी करते रहे, बल्कि बाद में उन्हें कत्ल करना भी शुरू किया। (सूरह निसा: 155) जब वे अपने ख़ानदान से तालुक़ रखने वाले अंबिया को मारते थे तो इसका मतलब उनकी निगाह में किसी इंसान का इहतिराम नहीं रहा। इसलिए अल्लाह ताला ने भी उनकी क़िस्मत में ज़िल्लत और खुआरी लिख दी। (बक़रा: 61)
बनी इजरायल पर कनानियों का क़हर
जब बनी इस्राइल ने बकसरत अल्लाह ताला की नाफ़रमानी की तो उन पर कनानियों का तास्लुत हो गया, जिन्होंने उन्हें तरह-तरह से अज़ाब दिए, उन्होंने बनी इस्राइल से उनका माल और उनके मुक़द्दस चीज़ों को भी छीना, उन मुक़द्दसात में वह ताबूत भी था जो सब से ज़्यादा मुक़द्दस था, यह ताबूत की शक्ल में एक संदूक था जिसमें बनी इस्राइल वह तख़्तियां रखते थे जिस पर तौरात लिखा हुआ था,
जो अल्लाह ताला ने मूसा अलैहिस्सलाम के लिए लिखवाई थीं। और बनी इस्राइल को उस का हुक्म दिया था कि उन तख़्तियों को मजबूती के साथ पकड़ना है, और अच्छे तरीक़े से उस पर अमल करना है। (आल-अराफ: 145)। इस ताबूत में मूसा अलैहिस्सलाम का असा, और उनके और हारून अलैहिस्सलाम के कपड़े भी थे। (अल-बक़रा: 248)। लेकिन अफ़सोस कि बनी इस्राइल ने बाद में तौरात की उन तख़्तियों में तहरीफ़ की, कहा जाता है कि फिर उन असल दस तख़्तियों में से सिर्फ़ दो तख़्तियां बाक़ी रह गई थीं।
कनानी बादशाह जालूत का दौर
बनी इस्राइल की ज़िन्दगी यूंही गुज़र रही थी, यहाँ तक कि कनानी बादशाह जालूत का ज़माना आ गया जो बैत अल-मकदस पर हुकूमत कर रहा था। इस ज़माने में यहूदी बहुत ज़्यादा बुरी हालत में थे, उनकी ताक़त ख़त्म हो गई थी, बनी इस्राइल ने अपने नबी से दरख़्वास्त की कि कुछ करो ताकि हमारी इज़्ज़त बहाल हो और जिस ज़िल्लत में हम हैं उससे निकल जाएं, हमारे लिए कोई बादशाह मुक़र्र करो ताकि हम सब मिलकर उसकी हुक़ूमत में कामयाबी हासिल करें।
वक़्त के नबी ने कहा कि तुम्हारा माज़ि (गुज़रा हुआ ज़माना) बहुत तारीक (अंधेर) है, मुझे यक़ीन नहीं कि अगर मैं तुम्हारे लिए कोई बादशाह मुक़र्र करूं तो तुम उसकी बात नहीं मानोगे। उन्होंने कहा कि हम उसकी बात कैसे नहीं मानेंगे जो फिर से हमारी इज़्ज़त और ताक़त का सबब बनेगा। चुनांचे नबी ने कहा कि अल्लाह ताअला ने तुम्हारे लिए तालूत को बादशाह मुक़र्र कर दिया है,
यह सुनना था कि उनमें से कोई एक भी उसके लिए तैयार नहीं हुआ, क्योंकि तालूत अलैहिस्सलाम उन यहूदियों में से नहीं था जिनके आबाद ओ अज़दाद में बादशाह गुज़रे हों, बनी इस्राइल ने कहा उनको हम पर फजीलतहासिल नहीं, उनके पास माल भी नहीं। नबी ने कहा कि यह तक़़रर अल्लाह ताअला की तरफ़ से है, और अल्लाह ताअला ने तालूत को इल्म व ताक़त से नवाज़ा है। (अल-बक़रा: 247)*
इसके बाद नबी ने उनसे कहा कि अल्लाह ताअला ने तालूत के बादशाह बनने की एक निशानी भी रखी है वह यह है कि जो संदूक तुम से दुश्मनों ने छीन ली है वह फ़रिश्ते उठा कर तुम्हारे पास लाएंगे, जब बनी इस्राइल ने देखा कि हवा में उड़ता हुआ संदूक फ़रिश्ते ले कर उनके पास ला रहे हैं, और उन्होंने अपनी आँखों से गुमशुदा संदूक को देखा, तो वह तालूत को बादशाह मुक़र्र करने पर राज़ी हो गए। (अल-बक़रा: 248)।
बनी इस्राइल के आसार ए क़दीमा में ऐसे नुकूश मिलते हैं जिसमें वह फ़रिश्तों को एक संदूक उठाते हुए दिखाते हैं, यह वाक़िया सच्चा है लेकिन फ़रिश्तों की तस्वीरें ख़याली हैं। लेकिन क्या बनी इस्राइल ने इतने बड़े मुजीजे के बाद भी तालूत की फ़रमानबर्दारी की, इसे हम आगे ज़िक्र करते हैं।
बनी इसराइल की तालूत अलैहिस्सलाम की नाफ़रमानी
इस के बाद भी तमाम बनी इस्राइल तालूत अलैहिस्सलाम के साथ जंग के लिए नहीं गए, एक छोटी जमात उनके साथ निकली, रास्ते में एक नदी आई, तालूत ने उन्हें बताया कि इस नदी से पानी नहीं पीना, बादशाह उनके सब्र और तहमुल का इम्तिहान ले रहे थे कि ये जंग की ताक़त रखते हैं या नहीं, नदी से अक्सर ने पानी पिया सिवाय कुछ लोगों के। (अल-बक़रा: 249)।
यह छोटी सी जमात एक ताक़तवर अज़ीम जिस्म वालों से लड़ने के लिए आगे बढ़ी, तो उसने बादशाह से कहा कि हम में इस अज़ीम लश्कर के साथ लड़ने की ताक़त नहीं, लेकिन अल्लाह ताअला पर यक़ीन करने वाले मोमिनों ने कहा कि कितनी मर्तबा एक छोटी जमात एक बड़ी जमात पर ग़ालिब आई है अल्लाह के हुक्म से, और अल्लाह ताअला सब्र और इस्तिकामत वालों के साथ होता है। उन्होंने अल्लाह ताला से दुआ मांगी या अल्लाह! हमें सब्र अता फरमा और हमें स्थिर बना और काफ़िरों पर हमें फ़तह अता फरमा। (अल-बक़रा: 249, 250)
दाऊद अलैहिस्सलाम और बनी इस्राइल
मौरखीन (इतिहासकार)कहते हैं कि तालूत के साथ इस मुआरका में बहुत कम बनी इस्राइल स्थिर कदम रहे, कुछ कहते हैं कि सत्तर लोग थे, जालूत जब मुकाबला के लिए निकला तो खौफ के मारे कोई भी उस के मुकाबले में नहीं निकला, एक नौजवान सोलह साल उम्र वाला तैयार हुआ, जिस का नाम दाऊद था, जो बाद में एक महान नबी बना। तालूत ने उस को वापस किया, वह उस को छोटा और कमज़ोर समझ रहा था,
तालूत ने बनी इस्राइल को मुकाबले में निकलने पर उभारने के लिए कहा कि जो जालूत के मुकाबले के लिए निकले गा, मैं अपनी बेटी से उस का निकाह कराऊँगा, और वह मेरे बाद बादशाह बने गा, इस ऐलान के बावजूद भी कोई नहीं निकला, जब कोई और नहीं निकला तो उस ने दाऊद अलैहिस्सलाम को इजाज़त दी। दाऊद अलैहिस्सलाम निकले, उनके के हाथ में एक गुलैल थी जिस में पत्थर मौजूद था, उस ने जालूत को उस से पत्थर मारा, जिस से उस का सिर फट गया और तुरंत मर गया, इस तरह जालूत के लश्कर को शिकस्त हुई।
तालूत की वफात
जालूत को पराजित करने के बाद हस्बे वादा दाऊद अलैहिस्सलाम ने तालूत की बेटी से शादी की, 1004 ईसा पूर्व में तालूत की वफात हुई, उनकी वफात के बाद खलीफा के चुनाव में बनी इसराइल में इख्तिलाफ हुआ, कुछ तालूत की वसीयत के मुताबिक दाऊद अलैहिस्सलाम के पीछे चले , और यही सही था क्योंकि दाऊद अलैहिस्सलाम ज़्यादा मुस्तहक थे, जबकि कुछ बनी इस्राइल ने तालूत के बेटे को नामज़द किया।
इस इख्तिलाफ के नतीजे में दाऊद अलैहिस्सलाम मुल्क यहूदा पर बादशाह थे जिसका दारूल खिलाफा खलील था, जबकि तालूत के बेटे कुदस और उसके करीब करीब के इलाक़े पर हुकूमत कर रहे थे, जिसका दारूल खिलाफा कुदुस था। 1000 ईसा पूर्व में दाऊद अलैहिस्सलाम और तालूत के बेटे के बीच लड़ाई हुई, जिसमें दाऊद अलैहिस्सलाम को फ़तह हुई, उन्होंने कुदुस को फ़तह किया और उसको अपना दारुल खिलाफा बनाया, उन्होंने अपने मुल्क में फ़िलस्तीन के दूसरे इलाकों को भी शामिल कर लिया, लेकिन पूरे फ़िलस्तीन पर फिर भी उनकी हुकूमत नहीं थी, फ़िलस्तीन के समंद्री किनारों के इलाकों में अब भी कानानियों की हुकूमत थी।
क़िस्त 1 ✅
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