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Prophet Muhammad History in Hindi Qist 9

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Seerat e Mustafa Qist 9
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۞Jung e Fijar۞

अरबों में एक शख्स बदर बिन मुअशिर ग़िफारी था। यह उकाज़ के मेले में बैठा करता था। लोगों के सामने अपनी बहादुरी के क़िस्से सुनाया करता था। अपनी बड़ाईयाँ बयान करता था। एक दिन उसने पैर फैला कर और गर्दन अकड़ा कर कहा:

“मैं अरबों में से सबसे ज़्यादा इज़्ज़तदार हूँ और अगर कोई खयाल करता है कि वह ज्यादा इज़्ज़त वाला है तो तलवार के ज़ोर पर यह बात साबित कर दिखाए।”

उसके यह बड़े बोल सुनकर एक शख्स को गुस्सा आ गया। वह अचानक उस पर झपटा और उसके घुटने पर तलवार दे मारी। उसका घुटना कट गया। यह भी कहा जाता है कि घुटना सिर्फ ज़ख़्मी हुआ था। इस पर दोनों के क़बीले आपस में लड़ पड़े। उनमें जंग शुरू हो गई। इस लड़ाई को फिजार की पहली लड़ाई कहा जाता है, उस वक्त हुज़ूर की उम्र 10 साल थी।

फिजार की एक और लड़ाई बनू आमिर की एक औरत की वजह से हुई। इसमें बनू आमिर, बनू किनाना से लड़े,

फिजार की तीसरी लड़ाई भी बनू आमिर और बनू किनाना के दरमियान हुई। यह लड़ाई कर्ज़ की अदायगी के सिलसिले में हुई।

फिजार की इन तीनों लड़ाइयों में नबी ﷺ ने कोई हिस्सा नहीं लिया। अलबत्ता फिजार की चौथी लड़ाई में आपने शिरकत फरमाई थी। अरबों के यहाँ चार महीने ऐसे थे कि उनमें किसी का खून बहाना जायज़ नहीं था, यह महीने ज़ुलक़ायदा, ज़ुलहिज्जा, मुहर्रम और रजब थे।

ये लड़ाइयाँ चूंकि हुरमत के इन ही महीनों में हुईं, इसलिए उनका नाम फिजार की लड़ाइयाँ रखा गया। फिजार का मानी है गुनाह, यानी ये लड़ाइयाँ उनका गुनाह थीं। चौथी लड़ाई जिसमें नबी करीम ﷺ ने भी हिस्सा लिया, उसका नाम फिजार बर्राज़ है।

यह लड़ाई इस तरह शुरू हुई कि क़बीला बनू किनाना के बर्राज़ नाम के एक शख्स ने एक आदमी अरोह को क़त्ल कर दिया। अरोह का ताल्लुक क़बीला हवाज़िन से था। यह वाक़िया हुरमत वाले महीने में पेश आया। बर्राज़ और अरोह के ख़ानदान के लोग यानी बनू किनाना और हवाज़िन उस वक्त उकाज़ के मेले में थे। वहीं किसी ने बनू किनाना को यह ख़बर दी कि बर्राज़ ने अरोह को क़त्ल कर दिया है।

यह खबर सुनकर बनू किनाना के लोग परेशान हो गए कि कहीं मेले में ही हवाज़िन के लोग उन पर हमला न कर दें, जिससे मसला और बिगड़ सकता था। लिहाज़ा वे लोग मक्का की तरफ भाग निकले। हवाज़िन को उस वक्त तक यह ख़बर नहीं मिली थी। कुछ वक़्त बाद हवाज़िन को ख़बर हुई, और वे बनू किनाना पर चढ़ दौड़े, लेकिन बनू किनाना ने हरम (मक्का) में पनाह ले ली थी।

अरबों में हरम के अंदर ख़ून बहाना हराम था, इसलिए हवाज़िन के लोग वहाँ रुक गए और उस दिन लड़ाई न हो सकी। अगले दिन बनू किनाना के लोग खुद ही मैदान में मुकाबले के लिए बाहर आ गए, और उनकी मदद के लिए क़बीला क़ुरैश भी मैदान में आ गया। इस तरह फिजार की यह जंग शुरू हुई। यह जंग चार या छह दिन तक जारी रही। चूँकि क़ुरैश भी इस जंग में शरीक हो गए थे, आपके चाचा आपको भी साथ ले गए थे, मगर आपने इन दिनों में लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया।

बल्कि जब भी आप ﷺ मैदान-ए-जंग में पहुंचते, तो बनी किनाना को जीत मिलती और जब आप वहाँ न होते, तो उन्हें शिकस्त होने लगती। आपने इस जंग में सिर्फ़ इतना हिस्सा लिया कि अपने चाचाओं को तीर पकड़ाते रहे और बस।

छह दिनों की इस जंग के बाद भी कोई फैसला न हो सका, इसलिए दोनों क़बीलों के बीच सुलह हो गई। मगर यह सुलह काफी खून-खराबे के बाद हुई थी।

हलफ़ अल-फ़ुज़ूल

इस जंग के फ़ौरन बाद हल्फ़ अल-फ़ुज़ूल (सुलह और न्याय का संकल्प) का वाक़िया पेश आया। यह इस तरह हुआ कि क़बीला जुबैद का एक आदमी अपना कुछ माल लेकर मक्का आया। उससे यह माल आस बिन वाइल ने ख़रीद लिया, लेकिन उसने कीमत अदा नहीं की। यह आस बिन वाइल मक्का के बड़े और इज़्ज़तदार लोगों में से था।

वह ज़ुबैदी आदमी आस बिन वाइल से अपनी रकम का मुतालबा करता रहा, लेकिन उसने देने से इनकार कर दिया। मायूस होकर उस ज़ुबैदी ने मक्का के मुख़्तलिफ़ क़बीलों से मदद की फ़रियाद की। सब ने आस बिन वाइल के खिलाफ मदद करने से इनकार कर दिया और उसे डाँट कर वापस भेज दिया।

आखिरकार, दूसरे दिन सुबह-सवेरे वह शख्स अबू क़ैस नाम की एक पहाड़ी पर चढ़ा और मक्का के क़ुरैशी लोगों को ललकारते हुए कुछ शेर पढ़े जिनमें उसने उनसे इंसाफ़ की गुहार लगाई।

हलफ़ अल-फ़ुज़ूल का गठन

इस चीख-पुकार को सुनकर हज़रत ज़ुबैर बिन अब्दुल मुत्तलिब को बेहद असर हुआ। उन्होंने अल्लाह के नाम पर क़सम खाते हुए इंसाफ़ का साथ देने का संकल्प लिया। उन्होंने अपने दोस्तों को बुलाया, जिनमें अब्दुल्लाह बिन जुदान, बनू हाशिम, बनू ज़हरा, और बनू असद क़बीले के लोग शामिल थे। सभी अब्दुल्लाह बिन जुदान के घर पर इकट्ठा हुए, जहाँ सबने अल्लाह के नाम पर यह हलफ़ लिया कि वे हमेशा मज़लूम का साथ देंगे और उसका हक़ दिलाने के लिए हुक्मरानों तक पहुँचेंगे।

इस हलफ़ का नाम हल्फ़ अल-फ़ुज़ूल रखा गया। इसका उद्देश्य ज़ुल्म के खिलाफ और मज़लूमों के हक़ में आवाज़ उठाना था।

इस अज़ीम इत्तेहाद में अल्लाह के रसूल ﷺ भी शामिल हुए थे।


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