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kya Islam mein Love Marriage ki ijazat hai

पसंद की शादी करना जायज़ है, लेकिन पसंद की बुनियाद और मापदंड वह होना चाहिए जो शरीअत के अनुसार हो।

हदीस-ए-मुबारका से मालूम होता है कि रिश्ते के चुनाव में दौलत, खूबसूरती, खानदान, और दींदारी में से दींदारी को प्राथमिकता देनी चाहिए। जैसा कि **मिश्कात शरीफ** की एक हदीस में है…

وعن أبي هريرة قال: قال رسول الله صلى الله عليه و سلم: “تنكح المرأة لأربع: لمالها ولحسبها ولجمالها ولدينها فاظفر بذات الدين

अनुवाद: हज़रत अबू हुरैरा (रज़ि०) कहते हैं कि रसूल-ए-करीम (सल्ल०) ने फ़रमाया: किसी औरत से निकाह करने के बारे में चार चीज़ों का ख़याल रखा जाता है:

पहला: उसका मालदार होना।

दूसरा: उसका अच्छे ख़ानदान से होना।

तीसरा: उसका हसीन-ओ-जमील होना।

चौथा: उसका दीनदार होना। इसलिए ऐ मुख़ातिब! तुम दींदार औरत को अपना मक़सूद बनाओ!

📚(क़िताब उन निकाह, पहली फस्ल, सफा न. 267)

हदीस का निचोड़ यह है कि आम तौर पर लोग औरत से निकाह करने के सिलसिले में इन चार चीज़ों को ख़ास तौर पर ध्यान में रखते हैं:

  • कुछ लोग मालदार औरत से निकाह करना चाहते हैं,
  • कुछ अच्छे ख़ानदान वाली औरत को अपनी बीवी बनाना पसंद करते हैं,
  • बहुत से लोग चाहते हैं कि एक हसीन और ख़ूबसूरत औरत उनकी ज़िंदगी की साथी बने,
  • और कुछ नेक बंदे दींदार औरत को तरजीह देते हैं।

इसलिए हर मुसलमान को चाहिए कि वह अपने निकाह के लिए दींदार औरत को ही चुने, क्योंकि इसमें दुनिया की भी भलाई है और आख़िरत की भी कामयाबी है।

इसी के साथ शरियत ने निकाह के मामले में माँ-बाप और बच्चों दोनों को ये हिदायत दी है कि वो एक-दूसरे की पसंद का ख़याल रखें। माँ-बाप को चाहिए कि अपने बच्चों का निकाह वहाँ न करें जहाँ वो बिल्कुल राज़ी न हों।

इस मामले में माँ-बाप का दबाव डालना, ऐतराज़ करना या नाराज़गी ज़ाहिर करना सही नहीं है। हाँ, अगर खानदानी बराबरी न हो तो शरियत के तहत माँ-बाप को ऐतराज़ और नाराज़गी का हक़ दिया गया है।

इसी तरह बच्चों को भी ऐसी जगह निकाह करने पर ज़िद नहीं करनी चाहिए जहाँ माँ-बाप बिल्कुल राज़ी न हों, क्योंकि जब बच्चे अपनी मर्ज़ी से शादी करते हैं और इसमें शरीअत के हुक्म और माँ-बाप की रज़ामंदी का ख़याल नहीं रखते, तो अक्सर देखा गया है कि ऐसी शादियाँ कामयाब नहीं होतीं।

इस तरह की शादियों में लड़का-लड़की के कुछ वक्ती जज़्बात ही चलाने वाले होते हैं, लेकिन वक़्त के साथ ये जज़्बात और पसंद फीके पड़ने लगते हैं, और नतीजतन ऐसी शादियाँ नाकाम हो जाती हैं, यहाँ तक कि तलाक़ की नौबत आ जाती है।

इसके बरअक्स, माँ-बाप और घर के बड़े जो रिश्तों और खानदानों की समझ और तजुर्बा रखते हैं, उनके किए हुए रिश्ते ज़्यादा टिकाऊ साबित होते हैं। आम तौर पर शरीफ घरानों में यही तरीका अपनाया जाता है। ऐसे रिश्तों में शुरआती नापसंदगी अक्सर गहरी पसंद में बदल जाती है। इसलिए मुस्लिम बच्चों को चाहिए कि वो अपने सिर पर बोझ न उठाएं, बल्कि अपने बड़ों पर भरोसा करें और उनकी रज़ामंदी के बिना कोई क़दम न उठाएं।

शादी-ब्याह एक बेहद ज़रूरी और नाज़ुक मसला है। यह बच्चों का खेल नहीं है कि जब चाहा शादी कर ली और जब चाहा इसे खत्म कर दिया। इसके लिए तजुर्बेकार लोगों के अनुभव से फ़ायदा उठाना बहुत ज़रूरी है ताकि आगे चलकर पछताना न पड़े।

यह एक हकीकत है कि इंसान के माँ-बाप और उसके सच्चे गुरु इस मामले में सबसे अहम रोल अदा करते हैं। लेकिन हमारे दौर में प्यार-मोहब्बत को कुछ इस अंदाज़ में लोगों के ज़ेहन में उतारा गया है कि अल्लाह की पनाह! एक तरफ़ तो अलग-अलग तरीकों से नौजवानों के जज़्बात को उकसाया गया और फिर उनके मुक़म्मल होने के सही और ग़लत तरीकों को इस तरह से पेश किया गया कि वो वक्त से पहले ही इसे हासिल करने के लिए बेचैन हो जाते हैं। शादी को सिर्फ़ जिस्मानी मज़े और लुत्फ़ उठाने का ज़रिया बना दिया गया है।

लड़के-लड़कियाँ अपने माँ-बाप और बड़ों की रज़ामंदी हासिल करने की पूरी कोशिश करें। वहीं, माँ-बाप को भी चाहिए कि अपने बच्चों की पसंद-नापसंद का ख़याल रखें। अक्सर अपनी पसंद की शादी तब होती है जब लड़का और लड़की का बार-बार मिलना-जुलना हुआ हो और वो बाकायदा रिलेशनशिप में रहे हों, जो कि खुद एक बड़ा गुनाह है।

शरीअत में एक हिदायत औलाद के लिए है कि वह अपने माँ-बाप की इताअत (आज्ञा) करें। एक हिदायत माँ-बाप के लिए है कि जब औलाद बालिग हो जाए, तो उसकी मर्ज़ी के खिलाफ़ उस पर ज़बरदस्ती न करें, बल्कि सलाह दे दिया जाए। अगर दोनों अपने-अपने फ़र्ज़ पर अमल करें, तो ज़िन्दगी सही तरीके से गुज़रेगी और कोई विवाद नहीं होगा।

अगर औलाद अपनी मर्जी के खिलाफ़ माँ-बाप की पसंद को तरजीह देती है, तो यह बहुत बड़ी सआदत (खुशकिस्मती) है और इसकी बरकत से ज़िन्दगी भी खुशगवार होगी। लेकिन अगर औलाद मजबूर हो, तो माँ-बाप को भी ज़िद नहीं करनी चाहिए और औलाद की मर्जी को मान लेना चाहिए। वरना शादी न चल पाने का डर होता है और इसकी सारी ज़िम्मेदारी माँ-बाप पर आ जाती है।

अक्सर देखा गया है कि आजकल लड़के-लड़कियाँ अपनी पसंद के रिश्ते करने में माँ-बाप की मर्जी और सलाह को नज़रअंदाज़ कर देते हैं, जबकि दूसरी तरफ़ कुछ माँ-बाप अपने बच्चों के लिए ऐसे रिश्ते चुनते हैं, जो उनके बच्चों की पसंद के बिल्कुल खिलाफ़ होते हैं। ये दोनों ही रास्ते सही नहीं हैं। दोनों को एक-दूसरे के जज़्बात और हक़ों का ख़याल रखना चाहिए।

अल्लाह तआला ने ज़िना को हराम किया है और इसके क़रीब जाने तक से मना किया है। ज़िना के कई रास्ते हैं, जैसे नामहरम औरत से तनहाई में मिलना, उससे हंसी-मज़ाक करना, उससे नज़दीकी बढ़ाना वगैरह। इन गुनाहों में पड़े बिना किसी को निकाह के लिए पसंद करना नामुमकिन सा लगता है। इसलिए जो भी गुनाह इस रास्ते पर चलने में होंगे, उनका वबाल (गुनाह) भी बहरहाल रहेगा।

ध्यान रखें कि यह निकाह घर से भागकर और वली की अनुमति के बिना करना नाजायज और हराम है। इस प्रकार का निकाह शरीअत और समाज की नज़र में पसंदीदा नहीं है। क्योंकि शरीअत ने जहां निकाह में औरत की पसंद और नापसंद को ध्यान में रखा है, वहीं रास्ता भी बताया है कि सभी मामले वली के हाथों अंजाम दिए जाएं।

इस्लाम ने जहां इस बात की अनुमति दी है कि एक मुस्लिम महिला का निकाह बिना किसी रंग, नस्ल, अक्ल, शक्ल और दौलत की परवाह किए किसी भी मुस्लिम व्यक्ति से जायज है,

वहीं इसने इंसानी फितरत को ध्यान में रखते हुए यह पाबंदी भी लगाई है कि इस अनुबंध से प्रभावित होने वाले अहम लोगों की रज़ामंदी के बिना गलत तरीके से निकाह न किया जाए, ताकि इस अनुबंध के नतीजे में कड़वाहट, लड़ाई-झगड़ों का तूफ़ान पैदा न हो।

kya islam mein love marriage ki ijazat hai

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