Fateh-e-Baitul Muqaddas Sultan Salahuddin Ayyubi ke Aakhiri 6 Saal
दुनिया में कुछ लोग हमेशा के लिए किसी बात की अलामत और निशान बन जाते हैं या कोई ख़ास चीज़ उनकी पहचान बन कर रह जाती है
इसी तरह, महान मुजाहिद, गोरिल्ला कमांडर और शानदार सेनापति Sultan Salahuddin Ayyubi रहमतुल्लाह अलैह अपने कारनामों की वजह से बहादुरी और साहस का प्रतीक बन गए। जब भी कहीं दिलेरी और बहादुरी की बात होती है, तो तुरंत Sultan Salahuddin Ayyubi का नाम याद आता है।
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जिन लोगों से अल्लाह तआला भविष्य में कोई बड़ा काम लेना चाहता है, उनकी असाधारण क्षमताओं की झलक उनके बचपन में ही किसी न किसी तरीके से दिखा देता है।
Sultan Salahuddin Ayyubi, जिन्होंने इस्लामी इतिहास पर अपनी महानता और शक्ति के अमिट निशान छोड़े हैं, उनकी इस्लाम और मुसलमानों के प्रति गैरत और इज्जत का यह हाल था कि जब वे किशोर थे, तब ईसाई सेना “रहा” पर कब्जा कर के लूटपाट करती और औरतों को बंदी बनाकर ले जाती। यह जुल्म देखकर सलादीन एक तुर्क बूढ़े को लेकर सुल्तान इमाद-उद-दीन जंगी के पास पहुंचे और ईसाइयों के अत्याचारों से सुल्तान को अवगत कराया। उन्होंने राजा की इस्लामी गैरत को जगाया और रो-रोकर मदद की गुहार लगाई।
जब नेक दिल राजा को इन हालात का पता चला, तो उन्होंने अपनी पूरी सेना को इकट्ठा किया, उन्हें “रहा” की परिस्थितियों के बारे में बताया और उन्हें जिहाद के लिए प्रेरित किया। उन्होंने घोषणा की, “कल सुबह मेरी तलवार ‘रहा’ के किले पर लहराएगी, तुम में से कौन मेरा साथ देगा?”
यह सुनकर सभी सैनिक हैरान रह गए, क्योंकि “रहा” यहां से 90 मील दूर था। रातों-रात वहां पहुंचना लगभग नामुमकिन था। सभी सैनिक इस बारे में सोच ही रहे थे कि तभी एक किशोर लड़के की आवाज गूंज उठी, “हम बादशाह का साथ देंगे।” लोगों ने देखा तो वह एक किशोर लड़का था। कुछ लोगों ने कहा,
“जाओ मियां, खेलो कूदो! यह जंग है, बच्चों का खेल नहीं।”
सुल्तान ने यह सुना और गुस्से से उनका चेहरा लाल हो गया। उन्होंने कहा,
“यह बच्चा सच कहता है। इसकी शक्ल देखकर लगता है कि यह कल मेरा साथ देगा। यही वह लड़का है जो ‘रहा’ से मेरे पास फरियाद लेकर आया है। इसका नाम सलाहुद्दीन है।”
यह सुनकर सैनिकों में गैरत आई और वे सब तैयार हो गए। अगले दिन दोपहर तक उन्होंने ‘रहा’ पर हमला कर दिया। भीषण युद्ध हुआ। ईसाई सेनापति बड़ी शान के साथ मुकाबले के लिए निकला, सुल्तान ने उस पर जोरदार वार किया, लेकिन लोहे की जिरहबख्तर ने वार को बेअसर कर दिया। ईसाई सेनापति ने पलटकर सुल्तान पर हमला किया और भाला तानकर फेंकने ही वाला था कि Salahuddin की तलवार बिजली की तरह चमकी और जिरह के कटे हुए हिस्से पर गिरकर ईसाई सेनापति के दो टुकड़े कर दिए। सेनापति के मरते ही ईसाई सेना भाग खड़ी हुई और ‘रहा’ पर मुसलमानों का कब्जा हो गया।
आज हर जुबान पर नौजवान सलाहुद्दीन की बहादुरी के चर्चे हैं और यह वाकया इस्लाम के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में लिखा गया है। जवान होकर में यही सलाहुद्दीन पूरब के ऐसे सेनापति और जनरल बने जिनकी तलवार हमेशा ईसाइयों पर अल्लाह का कहर बनकर बरसती रही।
इस छोटे से लेख में हमने सुल्तान की ज़िंदगी के आखिरी 6 सालों का समय चुना है। सुल्तान की ज़िंदगी के ये आखिरी छह साल उसकी ज़िंदगी के सबसे कीमती और यादगार समय हैं, जिसमें उसने लगातार क्रूसेडर्स (सलीबी) से जंग करते हुए, जिहाद और लड़ाई के मैदान गर्म रखते हुए, क्रूसेडर्स को चारों तरफ से घेर-घेर कर उनका शिकार करते हुए, बैतुल मुकद्दस को उनके नापाक इरादों से बचाने के लिए, अल्लाह के इस पवित्र घर की इज्जत और सुरक्षा के लिए, दिन-रात अपनी जान हथेली पर लेकर, तलवारों की छांव में, तीरों की बारिश में, भालों की नोकों में, घोड़े की पीठ पर बैठकर दुश्मन की पंक्तियों में घुसते हुए तलवारें लहराई।
अल्लाह के बागियों, काफि-रों, और ज़ालिमों की गर्दनें काटते हुए, ”’مِن دُونِ الله” के इन पुजारियों को खून और मिट्टी में तड़पाते हुए, और ऐसे ही जंग, जुनून और हंगामों को उठाते हुए और दुश्मनों पर हमले करते हुए, बाज़ की तरह चिड़ियों पर झपटते हुए सुल्तान की ज़िंदगी के आखिरी छह सालों में इसी जुझारू रूप को दिखाया गया है।
इस जि-हादी और लड़ाई भरी मेहनत में सुल्तान की ज़िंदगी की आखिरी सुबहें और शामें गुजरीं, यहां तक कि उसने क्रूसेडर्स के सिरों की फसल को जि-हाद की तलवार से काटते हुए मस्जिद अक्सा को नापाक क्रूसेडर्स के कब्जे से आज़ाद करवा लिया।
सुल्तान के इन्हीं शौर्य और बहादुरी से भरे लड़ाई के दिनों के कुछ दृश्यों को हमने लेख का हिस्सा बनाया है, जो पूरी तरह से सुल्तान के जि-हादी और लड़ाई के किरदार को बयां करते हैं। महान मुजाहिद सुल्तान सलादीन अय्यूबी की ज़िंदगी के आखिरी सालों के ये जि-हादी पल हमें यह चुनौती दे रहे हैं कि:
(هل مِن مبارز) क्या तुम में कोई ऐसा बहादुर है जो मैदान में आकर इन क्रूसेडर्स का सामना करे?
आज जब मुस्लिम उम्मा क्रूसेडर्स की घेराबंदी, उनकी गंदी चालों और धोखेबाज़ साजिशों के जाल में फंसकर लहूलुहान हो रही है… आह! आज फिलिस्तीन के मक्तूल, मजबूर, मासूम… कटे-फटे… खून से लथपथ… बारूद की गंध में रचे-बसे… रो-रो कर यह शिकायत कर रहे हैं कि नाम निहाद सभ्य यूरोपीय दरिंदों और उनके चापलूसों ने हमें चीर-फाड़ कर रख दिया… हमें घर से बेघर कर दिया… वतन से बेवतन कर दिया है… हमारा यह हाल कर दिया है… हम किसके पास जाकर शिकायत करें, किसके पास जाकर फरियाद करें? हम किसको अपना दुखड़ा सुनाएं कि कौन हमारे दुखों का इलाज कर सके?
ये दुखियारे आज किसी Sultan Salahuddin Ayyubi और इब्न कासिम रहमतुल्लाह अलैह के इंतजार में हैं, आस लगाए बैठे हैं, आज फिर वही मस्जिद अल-अक्सा… वही बैतुल मुकद्दस जिसे Sultan Salahuddin Ayyubi ने मुस्लिमों की इज्जत का सबूत देते हुए आज़ाद करवाया था, फिर से क्रूसेडर्स और यहूदियों के खूंखार पंजों में फंसी हुई है… और वहां मस्जिद अल-अक्सा… सिसकती हुई… कराहती हुई… आहें भरते हुए हमसे यह सवाल कर रही है, हमसे कह रही है कि:
”मैं अल्लाह का घर मस्जिद अल-अक्सा हूँ, मैं तुम्हारा पहला क़िब्ला हूँ, मैं नबी आखरुज़्ज़मां हज़रत मुहम्मद ﷺ के सजदों की अमानत हूँ।”
ऐ गैरत और शौर्य के अमीन मुसलमानों! मैं तुम्हें पुकार रही हूँ, कब से बिलख रही हूँ… कि का-फिरों के तीर मेरे सजदों के लिए तड़पते शरीर को घायल कर रहे हैं… मेरा शरीर घावों से चूर-चूर हो चुका है, लहूलुहान और वीरान हो चुका है… ऐ आखिरी नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के कलमा पढ़ने वाले उम्मतियों! तुम मेरी चीखों को सुन रहे हो… फिर भी मेरी मदद के लिए नहीं आ रहे? क्या हो गया है तुम्हें… कब आकर मेरे घावों पर मरहम रखोगे?
इन हालात में क्या हमारे बीच कोई ऐसा है जो Sultan Salahuddin Ayyubi बनकर दुनिया भर के क्रूसेडर्स को करारा जवाब दे सके और यह साबित कर सके कि मुस्लिमों की गैरत अभी ज़िंदा है, अय्यूबी का शौर्य अभी ज़िंदा है… हमारी रगों में अभी गजनवी, गौरी और इब्न कासिम रहमतुल्लाह अलैह का गैरत और शौर्य का अमीन खून दौड़ रहा है…
तवाइफ़-उल-मुलूकी का दौर और सलीबीयों की आमद
Sultan Salahuddin Ayyubi के आख़िरी सालों पर चर्चा करने के लिए यह आवश्यक है कि सलीबी जंगों (491 हिजरी/1097 ईस्वी) के शुरू होने और बढ़ने से पहले इस्लामी दुनिया पर एक नज़र डाली जाए, विशेष रूप से उन इलाक़ों पर जो सलाउद्दीन अय्यूबी रहमतुल्लाह अलेह के परवान चढ़ने के लिए अनुकूल साबित हुए, जैसे कि जज़ीरा फ़रातिया, उत्तरी इराक़, और मिस्र के इलाक़े।
सलीबी जंगों के संदर्भ में उस समय की राजनीतिक स्थिति को एक विशेष स्थान प्राप्त है। पूरे इस्लामी जगत में बेचैनी और अशांति का माहौल था। सिर्फ़ बगदाद को ही लें तो अब्बासी ख़िलाफ़त डगमगा रही थी और हालात इतने ख़राब हो चुके थे कि सल्जूक सुल्तानों के इशारे पर ख़िलाफ़त का संचालन हो रहा था।
इसी कारण हम कह सकते हैं कि सल्जूकियों की हुकूमत अब्बासी ख़िलाफ़त को बुवैही शासन की तुलना में अधिक महत्व देती थी, क्योंकि सल्जूक सुन्नी थे और बुवैही शिया। इस ख़िलाफ़त ने इन दोनों के प्रभुत्व से बचते हुए कठिन हालात में सांस ली, और यक़ीनन सल्जूक शासन का इस इलाक़े में सुन्नी अकीदों की तर्वीजऔर इस्तेहकाम में और रोमियों की जंगों की रोकथाम में महत्वपूर्ण भूमिका थी।
यह वही हुकूमत थी जिसने (463 हिजरी/1071 ईस्वी) में मलाज़-ए-कुर्द के निर्णायक जंग में बराबरी का मुकाबला किया था (यानी रोमियों का डटकर सामना किया था)। लेकिन अभी 1097 ईस्वी का साल शुरू नहीं हुआ था कि यह हुकूमत टूट-फूट का शिकार हो गई और आपस में एक-दूसरे से लड़ती हुईं पांच सल्जूक हुकूमतें बन गईं, जो धीरे-धीरे सलीबी हमलावरों का सामना करने में असमर्थ होती गईं। वहीं मिस्र “फ़ातिमी ख़िलाफ़त” के अधीन था, जहां पर आंतरिक संघर्ष अपने चरम पर थे और यह संघर्ष चारों ओर फैलता गया। अंततः यह नौबत आ गई कि हलीफ़ों, वज़ीरों, और सरदारों के बीच ख़त्म न होने वाले झगड़े बढ़ते गए।
इन हालात से बढ़कर, मुल्क-ए-शाम तो फ़ातिमियों और सल्जूकियों की खींचातानी का जंग का मैदान बन गया था। इन दोनों ताक़तों को इस बात की परवाह भी नहीं रही कि वे अपने देश और प्रजा के लिए ज़रूरी अधिकारों का ध्यान रखें।
ऐसे हालात में छोटी-छोटी और हकीर सी तवाइफ़-उल-मुलूकी पर आधारित गुटीय हुकूमतों का जन्म हुआ। कुछ तो ऐसी भी थीं जिनके पास एक किले से ज्यादा और थोड़ी सी ज़मीन के टुकड़े के सिवा कुछ भी नहीं था। ये अजीबो-गरीब हुक्मरान आपस में एक-दूसरे के खिलाफ़ झगड़ने और ज़ुल्म-ओ-ज़्यादती करने वाले बनते चले गए। अबू शामाह के अनुसार, किसी का भी अपने पेट और शर्मगाह से आगे कोई कार्यक्रम नहीं था।
पहली सलीबी जंग और सुकूत-ए-बैतुल मुक़द्दस
पांचवीं सदी हिजरी के आखिर में, जब अब्बासी ख़िलाफ़त ज़वाल पज़ीर थी और उम्मत-ए-मुस्लिम विभिन्न टुकड़ों में बंटकर कमजोर हो चुकी थी, ईसाई क़ौमों को अपनी नापाक ख्वाहिशों की तकमील का मौक़ा मिल गया। “मीडिया वार” के तहत पतरस राहिब ने मुसलमानों के ज़ुल्म की फ़र्ज़ी कहानियां सुना कर पूरे यूरोप में उत्तेजना पैदा कर दी और पूरी दुनिया में एक सिरे से दूसरे सिरे तक आग लगा दी।
पोप अरबन द्वितीय ने इस जंग को “सलीबी जंग” का नाम दिया और इसमें हिस्सा लेने वालों के गुनाहों की माफी और उनके जन्नती होने का मुजदह सुनाया। जबरदस्त तैयारियों के बाद फ्रांस, इंग्लैंड, इटली, जर्मनी और अन्य यूरोपीय मुल्कों की फ़ौजों पर मुश्तमिल तेरह लाख अफ़राद का सैलाब इस्लामी दुनिया की सरहदों पर टूट पड़ा।
रॉबर्ट, नॉर्मंडी, गॉडफ्री, और रेमोन अलतुलोज़ी जैसे मशहूर यूरोपीय फरमानरवा इन बिखरी हुई फ़ौजों की क़यादत कर रहे थे। शाम और फ़िलिस्तीन के साहिली शहरों पर क़ब्ज़ा करने और वहां एक लाख से ज्यादा लोगों का क़त्ले-आम करने के बाद, शाबान 492 हिजरी/जुलाई 1099 ईस्वी में सलीबी फ़ौजों ने बयालीस दिन के मोहासरे के बाद बैतुल मुक़द्दस पर क़ब्ज़ा कर लिया और वहां खून की नदियां बहा दीं।
फ्रांसीसी मौखिक इतिहासकार “मिशो” के अनुसार, सलीबियों ने ऐसा तास्सुब दिखाया जिसकी मिसाल नहीं मिलती। अरबों को ऊंचे-ऊंचे बुर्जों और मकानों की छतों से गिराया गया, आग में ज़िंदा जलाया गया, घरों से निकालकर मैदान में जानवरों की तरह घसीटा गया। सलीबी जंगजू मुसलमानों को मक्तूल मुसलमानों की लाशों पर ले जाकर क़त्ल करते थे। कई हफ्तों तक क़त्ले-आम का यह सिलसिला जारी रहा। सत्तर हज़ार से ज्यादा मुसलमान सिर्फ़ मस्जिद-ए-अक़्सा में तहतेग कर दिए गए। इस्लामी दुनिया पर नसरानी हुक्मरानों की यह वहशियाना यलग़ार तारीख़ में पहली सलीबी जंग के नाम से मशहूर है।
ईसाई कमांडरों ने फ़तह के बाद यूरोप को ख़ुशख़बरी का पैग़ाम भेजा और उसमें लिखा:
“अगर आप अपने दुश्मनों के साथ हमारा सुलूक जानना चाहते हैं तो मुख़्तसरन इतना लिख देना काफ़ी है कि जब हमारे सिपाही हज़रत सुलेमान अलैहिस्सलाम के मअबद (मस्जिद-ए-अक़्सा) में दाख़िल हुए तो उनके घुटनों तक मुसलमानों का खून था।” (तारीख़ ए यूरोप- ए.जे. ग्रांट, पृष्ठ: 257)
एक साल में तीन सलीबी हुकूमतों का क़याम
बैतुल मुक़द्दस के पतन के बाद मसीही क़ौमों ने क़ब्ज़ा की गई शाम और फ़िलिस्तीन की ज़मीन को बांटकर क़ुद्स, त्रिपोली, अनताकिया और याफ़ा की चार स्वतंत्र सलीबी रियासतें क़ायम कर लीं। हालात बेहद ख़तरनाक थे। इस्लामी दुनिया के अधिकांश हुक्मरान आंतरिक संघर्षों में उलझे हुए थे, और कुछ तो सलीबियों के सहयोगी भी बन गए थे। इनमें से कोई भी नसरानियों का सामना करने का हौसला नहीं रखता था।
इस स्थिति में सलीबियों का मुस्लिम इलाक़ों में दाख़िला और भी आसान हो गया, यहाँ तक कि सिर्फ़ एक साल और कुछ महीनों के छोटे से अरसे में इस हस्सास इस्लामी इलाक़े में इन सलीबियों की निम्नलिखित तीन सलीबी हुकूमतें वजूद में आ गईं:
1. “रहा” की हुकूमत: जो 10 मार्च 1098 ईस्वी में क़ायम की गई।
2. “अनताकिया” की हुकूमत: इसी साल के हज़िरान में क़ायम हुई जिसने क़ुद्स शहर पर क़ब्ज़ा कर लिया। फिर 1099 ईस्वी में इस हुकूमत को क़ुद्स शहर में ही मुन्तक़िल कर दिया गया। फिर यह शहर 88 सालों तक सलीबियों के हाथों में रहा, यहाँ तक कि सलाउद्दीन अय्यूबी रहमतुल्लाह अलेह ने 1187 ईस्वी में इसे वापस ले लिया।
3. “त्रिपोली” की हुकूमत: यह 1109 ईस्वी में बनाई गई।
सलीबियों की इतनी तेज़ी से हुकूमतें क़ायम करने में हमें ज़्यादा हैरानी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि हम पहले ही उन अफ़सोसनाक और ज़लील करने वाले कारणों को देख चुके हैं। और इससे बढ़कर यह हालत देख रहे हैं कि हमारे इन क़िलों के वलीयों और शहरों के उमरा में से कुछ लोग बाक़ायदा इन हमलावरों का सहयोग भी करते थे।
वे अपने माल और अपनी फौज उनके सामने पेश कर देते थे, इस हाल में कि वे क़ुद्स शहर पर क़ब्ज़ा करने वाले थे, जैसा कि “शेज़र” में बनू मुनक़िज़ ने किया और “त्रिपोली” में बनू अम्मार ने यह ग़द्दाराना काम किया। और भी कुछ लोग थे जो उनकी राह पर चल पड़े, जो अपनी छोटी-छोटी, कमीनी और ज़लील हुकूमतों को बचाने के बदले इस क़ौमी ख़यानत और ज़िल्लत पर रज़ामंद हो गए थे।
मुसलमानों की बेहदारी का ज़माना
करीब चालीस साल तक इस्लामी दुनिया पर जमूद छाया रहा। फिर अचानक इन शांत लहरों में जि-हादी बेचैनी पैदा होने लगी। यह बिल्कुल मुमकिन नहीं था कि मुसलमान इन्हीं हालात में चलते चले जाएं। इन मायूसियों के बाद उम्मत का शऊर बेदार होने लगा, उनसे निजात पाने और राहत हासिल करने के लिए सोचे जाने लगे, क्योंकि मुसलमान, चाहे जितनी कठिन हालात में हों, फिर भी क़ुरान पाक, सुन्नत-ए-नबवी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और सीरत-ए-नबवी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की बरकत से अपने दिलों में, अपने वजूद के रोवें-रोवें में (और रेशे-रेशे में) इस्लामी अकीदों और तालीमात को जगह देते आए हैं।
इमाद उद्दीन ज़ंगी के हाथों सलीबियों की ठुकाई
इन दर्दनाक हालात में अल्लाह तआला ने एक तुर्की नौजवान इमाद-उद-दीन ज़ंगी को इस काम के लिए हौसला बख़्शा। यहां तक कि 521 हिजरी में मोसुल की छोटी सी रियासत उसके हाथ लग गई। फिर उसने अल्लाह की तौफीक से अपनी महान बुद्धिमत्ता, जुर्रत व हिम्मत, जज़्बा-ए-ईमानी और ग़ैरत-ए-इस्लामी से सरशार होकर मुसलमानों की उम्मीदों और तमन्नाओं पर लब्बैक कहते हुए इस मुश्किल काम को अंजाम देने का बीड़ा उठाया।
उसने अपनी छोटी सी स्टेट को इस तरह से वसीअ किया कि उसने हलब, हमात और हुम्स के इलाकों को अपने साथ मिला लिया, जिससे एक छोटा सा मुत्तहिद इस्लामी ब्लॉक बन गया। फिर देखते ही देखते इस जि-हाद की बरकत से “अल-रहा” का इलाका सलीबियों से वापस ले लिया और 539 हिजरी यानी 1134 ईस्वी में इसाई हुकूमत को खत्म कर दिया। मुसलमानों ने किसी हद तक राहत और इत्मीनान की सांस ली, उनकी खुद-एतमादी वापस आ गई, और उन्होंने “अल-रहा” शहर पर अपने दोबारा क़ब्ज़े को “फ़तह अल-फतूह” का नाम दिया।
इमाद-उद-दीन ज़ंगी के लगातार हमलों ने ईसाई दुनिया के फतह करने वालों के दिमाग से पूरी इस्लामी दुनिया को अपने कब्जे में करने का ख़्याल निकाल दिया और वे फ़िलिस्तीन और शाम की क़ब्जाई हुई ज़मीन के दिफ़ा को अपनी बड़ी कामयाबी समझने लगे। हालांकि, इमाद-उद-दीन ज़ंगी रहमतुल्लाह अलैह ने उनकी यह गलतफहमी भी दूर कर दी और हसन बारिन, बाअलबक और अल-रहा के अहम मराकिज़ को उनके क़ब्जे से आज़ाद करा लिया।
फिर वे इस इस्लामी ब्लॉक की तौसीअ में मुसलसल कोशिश करते रहे। उन्होंने अपने जिहादी हमलों को जारी रखा, यहां तक कि उन्होंने इन दखलअंदाज़ ग़ासिब सलीबियों की नापाक मौजूदगी को हिला कर रख दिया। आखिरकार, 531 हिजरी में “जाबर” नामी किले के महासिरे के दौरान उम्मत-ए-मुसलिमा का यह अज़ीम सिपहसालार और मुजाहिद शहीद कर दिया गया। (इन्नाल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन)
नूर उद्दीन महमूद और उनके इरादे
फिर उनके होनहार सुपूत नूर-उद-दीन महमूद रहमतुल्लाह अलैह ने इस अलम को उठाया। अल्लाह तआला ने उन्हें सलीबियों के खिलाफ जिहाद का सच्चा जज़्बा अता फ़रमाया। उन्होंने कई किले और शहर सलीबियों के क़ब्ज़े से वापस लिए। अल्लाह तआला भी उन्हें उनकी खालिस नियत और जिहाद के कामों की वजह से अपनी ख़ास मदद से नवाजता रहा। यहां तक कि उन्होंने अल-कुद्स शहर को सलीबियों से छुडवाने का पक्का इरादा कर लिया।
इतना ही नहीं बल्कि उन्होंने बैत-उल-मुक़द्दस में रखने के लिए एक मिंबर भी बनवाया। उन्होंने कारीगरों को बहुत ही माहिरता और दिलचस्पी के साथ इसे बनाने का हुक्म दिया। बढ़ई हज़रात को यूं समझाया कि हमें इसे बैत-उल-मुक़द्दस की ज़ीनत बनाना है, इसलिए अपने हुनर की सारी माहिरता दिखा दो। पांच कारीगरों ने कई सालों की कठिन मेहनत से इसे तैयार किया। इमाम इब्न-उल-असीर “अल-कामिल” में इस पर यूं लिखते हैं:
”افجاء على نحو لم یعمل في الاسلام مثله۔”
”यह ऐसा कारनामा है जिसे इससे पहले कोई मुसलमान अंजाम नहीं दे सका था।”
इन कोशिशों के साथ-साथ उन्होंने इस्लामी ब्लॉक को मुत्तहिद और बेदार रखने की भी कोशिशें तेज कर दीं। जिसके नतीजे में अल्लाह तआला ने उन्हें बिखरी हुई छोटी-छोटी मनपसंद क़िलों और शहरों की हुकूमतों के बदले एक ताकतवर जंग को जारी रखने वाली सल्तनत अता फ़रमाई। जजीरा फ़ुरातिया, सीरिया (यानी शाम), जॉर्डन, मिस्र, हिजाज़ और यमन इस सल्तनत के मजबूत पाये-तख्त समझे जाने लगे।
सुल्तान नूर-उद-दीन ज़ंगी रहमतुल्लाह अलैह ने सलीबियों से जिहाद का अलम थाम लिया और अपने मुसलसल हमलों से सारी ईसाई दुनिया को बदहवास कर दिया। और ऐसा महसूस होने लगा कि नूर-उद-दीन ज़ंगी की क़यादत में मुसलमान जल्द या देर में बैत-उल-मुक़द्दस को वापस हासिल कर लेंगे।
इस ख़तरे को भांपते हुए जर्मनी के बादशाह क़ुनराद तृतीय और फ्रांस के ताजदार लुई सातवें ने मिलकर एक बड़ा लश्कर तैयार किया और 542 हिजरी यानी 1147 ईस्वी में इस्लामी दुनिया पर हमला कर दिया। सुल्तान नूर-उद-दीन ज़ंगी रहमतुल्लाह अलैह ने मोमिनाना शुजाअत और ग़ैर-मामूली इस्तिक़ामत के साथ दो साल तक उनका भरपूर मुकाबला किया और उन्हें शर्मनाक शिकस्त देकर वापस लौटने पर मजबूर कर दिया।
ईसाई हमलावरों की इस दूसरी मिली-जुली यलगार को तारीख़ में दूसरी सलीबी जंग के नाम से जाना जाता है। चंद साल बाद सुल्तान नूर-उद-दीन ज़ंगी ने एक ज़बरदस्त मुअरके में दस हज़ार सलीबी जंगजूओं को क़त्ल कर दिया और उनके अहम मरकज किला हारिम पर क़ब्ज़ा कर लिया। बाद में, इसाई दुनिया का मुक़ाबला करने के लिए मजबूत मोर्चे तैयार करने के मक़सद से उन्होंने दमिश्क और मिस्र को भी अपने क़ब्ज़े में कर लिया। रम्यात और इस्कंदरिया की बंदरगाहों पर क़ब्ज़ा करने के बाद, उन्होंने यूरोप से शाम और बैत-उल-मुक़द्दस के ईसाईयों की मदद के रास्ते को बंद कर दिया।
सुल्तान नूर-उद-दीन ज़ंगी रहमतुल्लाह अलैह बैत-उल-मुक़द्दस की आज़ादी के लिए अपनी तैयारियों को आखिरी शक्ल दे रहे थे कि उनका वक़्त-ए-मुअय्यन (मौत का वक्त) आ गया।
काश! ज़ात-ए-बारी तआला उन्हें पूरे आलम-ए-इस्लाम को मुत्तहिद करने के लिए कुछ मोहलत और दे देती… वजूद-ए-इस्लामी की एक-एक नस और रेशे में रूह-ए-इस्लाम को समा लेने देती… अल-कुद्स शहर को फतह होने देती… मस्जिद-ए-अक़सा में उस मिंबर को नस्ब होने देती… अफसोस! कि मौत ने उन्हें मोहलत ना दी और फिर मौत भी इस हाल में कि 569 हिजरी में किला-ए-दमिश्क के एक मामूली से कमरे में यह अल्लाह का मुजाहिद और आज़िज़ बंदा अल्लाह की बारगाह-ए-अक़दस में इबादत में मसरूफ़ था। अभी उन्होंने अपनी उम्र के सिर्फ़ साठ बहारें ही देखी थीं। इन्नाल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन!
तफसील (details) के साथ पढ़ने के लिए आप फिलिस्तीन का इतिहास वाली Category में पढ़ सकते हैं जिसमें आप Sultan Imaduddin Zangi और Sultan Nuruddin Mehmood और Sultan Salahuddin Ayyubi की फिलिस्तीन के लिए कुर्बानियों के बारे में पढ़ सकते हो
Sultan Salahuddin Ayyubi रहमतुल्लाह अ़लैह जिहाद का परचम थामते हैं
सुल्तान नूरुद्दीन महमूद ज़ंगी रहमतुल्लाह अ़लैह के बाद, उनके शिष्य नासिर यूसुफ सलाहुद्दीन ने बैतुल मुक़द्दस और फ़िलिस्तीन को आज़ाद कराने के लिए फिर से इस जिहाद का परचम उठाया। सलाहुद्दीन की शख़्सियत में लगभग सभी इस्लामी गुण और ख़ासियतें भरपूर थीं। उनमें संयम और परहेज़गारी, इरादे की पक्की और आगे बढ़ने की शक्ति, दुनिया से बे रगबती, दरियादिली और कुशलता, राजनीतिक सूझ-बूझ, हर समय जिहाद के लिए तैयार रहना, ज्ञान-प्रेम और विद्वानों की कद्र जैसी उच्चतम विशेषताएँ क़ाबिल-ए-रश्क थीं।
यकीनन, जिन्हें अल्लाह तआला अपने दीन की बुलंदी, अपने दुश्मनों की सरकूबी (दमन) के लिए चुन लेता है, उनमें ये विशेषताएँ ज़रूर होती हैं, जो अपना हिस्सा डालकर इस्लाम के इतिहास की दिशा सही ओर मोड़ देते हैं। Sultan Salahuddin Ayyubi रहमतुल्लाह अ़लैह की शख़्सियत इस्लामी इतिहास में एक नाकाबिले फरामोश स्थान रखती है। उनकी ज़िंदगी का हर लम्हा लगातार जिहाद से भरा हुआ था। उन्होंने दीन-ए-मुबीं (साफ़ और स्पष्ट धर्म) की बुलंदी, कुफ्र से जि-हाद, और बैतुल मुक़द्दस की वापसी के लिए अथक प्रयास किया और अल्लाह ने उन्हें उनके इरादे में कामयाब किया।
Sultan Salahuddin Ayyubi का ताल्लुक़ कुर्द क़ौम से था, जो शाम, इराक़ और तुर्की की दक्षिणी सरहदों में पाई जाती है। उनके वालिद (पिता) नजमुद्दीन अय्यूब, पूर्वी अज़रबाइजान के एक गाँव “द्वीन” के रहने वाले थे। बाद में वे शाम आकर इमादुद्दीन ज़ंगी की फ़ौज में शामिल हो गए। उनके भाई असदुद्दीन शीरकोह भी उनके साथ थे। दोनों ने अपनी काबिलियत के बल पर तरक्की की। नजमुद्दीन अय्यूब के बेटे होने के नाते सलाहुद्दीन अय्यूबी के लिए भी तरक्की के रास्ते खुल गए। सुल्तान नूरुद्दीन ज़ंगी ने उनकी काबिलियत को देखते हुए मिस्र की फ़तह के लिए उन्हें असदुद्दीन शीरकोह का दस्ता बनाकर रवाना किया।
मिस्र पर कब्ज़ा के कुछ समय बाद जब शीरकोह का निधन हो गया, तो नूरुद्दीन ज़ंगी के नायब की हैसियत से सलाहुद्दीन अय्यूबी ने वहाँ की हुकूमत सँभाल ली। 559 हिजरी में सुल्तान नूरुद्दीन ज़ंगी के इंतिक़ाल के बाद, सलाहुद्दीन अय्यूबी मिस्र के खुदमुख़्तार हाकिम बन गए। बाद में उन्होंने दमिश्क और शाम की कुछ और छोटी-छोटी कमज़ोर मुस्लिम रियासतों को भी अपने क़ब्ज़े में लेकर एक शानदार सल्तनत क़ायम की, जो सलीबी हुक्मरानों की संयुक्त ताक़त का मुक़ाबला करने और उन्हें इस्लामी ममलूकात (इलाकों) से बाहर निकालने की पूरी काबिलियत रखती थी।
इससे पहले, सुल्तान की ज़िंदगी एक आम सिपाही की तरह थी। मगर हुक्मरान बनने के बाद, उनकी तबियत में एक अजीब बदलाव आया। उन्होंने आराम और ऐशो-आराम से मुँह मोड़ लिया और मेहनत और संघर्ष को अपने ऊपर लाज़िम कर लिया। उनके दिल में यह ख़्याल जम गया कि अल्लाह उनसे कोई बड़ा काम लेना चाहता है, जिसके साथ आराम और ऐशो-आराम का कोई मेल नहीं। वे इस्लाम की नुसरत (मदद) और हिमायत और जिहाद फी-सबीलिल्लाह (अल्लाह की राह में जिहाद) के लिए कमर कसकर तैयार हो गए। उन्होंने अपनी ज़िंदगी का मक़सद बना लिया कि पवित्र भूमि को सलीबी लड़ाकों के वजूद से पाक करें।
सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी रहमतुल्लाह अ़लैह ने अपनी ज़िंदगी के आख़िरी वर्षों के दौरान इसी काम को पूरा करने की कोशिश की। उनकी शख़्सियत में मौजूद ख़ासियत और कमालात का भी यही तक़ाज़ा था कि इस्लामी इतिहास में हमेशा बाकी रहने वाले कुछ शानदार और आलीशान कारनामों को अंजाम दे सकें।
हत्तीन में सलीबियों पर क़हर और ग़ज़ब
हत्तीन, बहर-ए-तबरिया (गलीली सागर) के पश्चिमी तरफ़ स्थित है, जो अब क़ब्ज़ा किए हुए फ़िलिस्तीन में है। यह एक हरा-भरा गाँव है जहाँ पानी की बहुतायत है। कहा जाता है कि हज़रत शुऐब अ़लैहिस्सलाम की क़ब्र भी यहाँ मौजूद है। इसी गाँव के पास सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी रहमतुल्लाह अ़लैह का सलीबियों से एक ख़ूनी मुआरका (जंग) हुआ था। वह कैसे हुआ था? आइए, तारीख़ के पन्ने पलटते हैं।
583 हिजरी में रबीउल-अव्वल के महीने की 24 तारीख़ को, शनिवार के दिन यह जंग हुई। इस जंग से पहले, सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी रहमतुल्लाह अ़लैह की हालत मज़बूत क़ुव्वत, तवानाई (ताकतवर) लश्कर और लोगों के एक बड़े समूह के साथ थी। इस एक इशारे पर सब इस्लाम की इज़्ज़त के लिए अपनी जान कुर्बान करने को तैयार थे। सुल्तान सलाहुद्दीन ने अल्लाह तआला की दी हुई इन तमाम नेमतों और क़ुव्वतों को सलीबियों के मुक़ाबले में आज़माना चाहा, ताकि उन्हें बुरी तरह से पराजित किया जा सके।
प्यास की शिद्दत का अज़ाब और मुजाहिदीन के हमले
सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी रहमतुल्लाह अ़लैह को यह खबर मिली कि “सफ़ूरिया” की चरागाह में सलीब के पुजारी अपने लश्कर के साथ इकट्ठा हो रहे हैं। सुल्तान अपने लश्कर के साथ हत्तीन के इलाक़े में बहर-ए-तबरिया के पश्चिमी पहाड़ पर उनके क़रीब ही पड़ाव डाल दिया। उस लश्कर ने सलीबियों को उकसाया और उन्हें वहाँ से निकालकर एक ऐसे इलाके में लाने में कामयाब हो गया जहाँ पानी नहीं था। रास्ते में जो कुछ चश्मे (झरने) और तालाब थे, उन्हें भी मुसलमान मुजाहिदीन ने नाकाबिले-इस्तेमाल बना दिया था।
जब मुसलमान और सलीबी एक-दूसरे के क़रीब आए, तो सलीबी प्यास की शिद्दत से बेहद परेशान हुए। इसके बावजूद वे और मुसलमान डटकर लड़ते रहे, बहादुरी और सब्र से लड़ाई में अपनी शुजाअत (साहस) का सबूत देते रहे। मुसलमानों का अगला दस्ता ऊँचाई पर चढ़ने में कामयाब हो गया, जिसके बाद उन्होंने अल्लाह के दुश्मनों पर तीरों की बारिश की, जिससे दुश्मन के अनगिनत घुड़सवार मारे गए। इस दौरान सलीबियों ने बार-बार पानी वाली जगह की तरफ़ बढ़ने की कोशिश की, क्योंकि उन्हें लगा कि प्यास की शिद्दत से ही वे बड़ी संख्या में मर रहे हैं। इस होशियार क़ाइद (नेता) और सिपहसालार ने उनके इरादों को भांप लिया और उनके और उनकी मक़सूद (लक्ष्य) चीज़ यानी पानी के बीच हाइल (अवरोध) रहे और उनकी प्यास को बरक़रार रखा।
जोश-ए-जिहाद और शहादत की तमन्ना का उफनता हुआ समुंदर
फिर ख़ुद सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी रहमतुल्लाह अ़लैह ने, तूफ़ानी लहरों की तरह मुसलमानों के पास जाकर उन्हें उकसाया, जो इस शहादत के बदले अल्लाह के पास मिलने वाला इनाम पाने की रग़बत (इच्छा) दिलातते रहे। उन्होंने शौक़-ए-जिहाद पैदा किया और उन सब्र करने वाले और सच्चे मुजाहिदीन के लिए अल्लाह तआला की तैयार की हुई नेमतों को याद दिलाते रहे।
मुसलमानों की हालत ऐसी हो गई कि वे शहादत के मक़ाम को हासिल करने के लिए दीवाने हो गए। जैसे-जैसे वे अपने क़ाइद की हालत को देखते और उसकी ईमान अफ़रोज़ बातों को सुनते, तो ज़ाहिरी ज़िंदगी को छोड़कर जन्नत की तरफ़ भागने लगे। ऐसा लगता था कि वे अपनी ज़बान-ए-हाल से यूँ पुकार रहे हों: “हमें इन सलीबियों की सफों के पीछे जन्नत मिल रही है।”
अचानक एक नौजवान बिजली की तरह तलवार लिए निकलता है
पल भर में एक नौजवान मुसलमानों की सफों से बिजली की तरह निकला और सलीबियों की सफों के सामने सीना तानकर खड़ा हो गया। जैसे मौत पर बैअत (प्रतिज्ञा) करने वाले लड़ते हैं, वैसी ही बे-जिगरी (निर्भीकता) से लड़ा कि दुश्मन हैरान और शशदर (अवाक) रह गया। फिर दुश्मन उस पर टूट पड़ा और उसे शहीद कर दिया। उसका शहीद होना मानो पेट्रोल के ख़ज़ानों में आग लगा देना था। मुसलमान ग़ुस्से में आ गए, उनके सीने में बदले का तूफ़ान उफ़नने लगा।
इसलिए उन्होंने ऐसा नारा-ए-तकबीर (अल्लाहु अकबर) बुलंद किया कि जिसे कायनात के किनारों ने सुना होगा और आसमान ने उसका जवाब दिया होगा। फिर मुसलमानों ने सलीबियों पर वह जानदार और फ़िदाई (आत्मोत्सर्गी) हमले किए कि सलीबियों की सफों को बिखेर कर रख दिया। सलीबी फौज के सरबराह “अलकोंसार रेमंड” का दिल मायूसी और नाउम्मीदी से भर गया। उसने जंग के मैदान से भागने की कोशिश की, लेकिन यह कैसे हो सकता था? उसने अपने एक घुड़सवार दस्ते को इकट्ठा किया और क़रीबी मुसलमानों पर हमला किया ताकि भागने का कोई रास्ता बना सके।
लेकिन उस तरफ़ सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी का भतीजा तकीउद्दीन उमर तैनात था। जब उसने देखा कि वे मुसीबत में फंसे और मायूस आदमी की तरह हमला कर रहे हैं, कोई राह-ए-फ़रार (भागने का रास्ता) चाहते हैं, तो उसने उन्हें भागने का रास्ता दे दिया। उन्होंने अपनी जान बचाने में ही राहत समझी और भाग खड़े हुए। वे ऐसे भाग रहे थे कि मुड़कर भी नहीं देख रहे थे, क्योंकि उनकी एक ही मंशा थी कि भागो और जान बचाओ।
हत्तीन के युद्ध में आग का युद्धक हथियार के रूप में प्रयोग
यह भी एक संयोग की बात थी कि वह क्षेत्र ऐसा था जहाँ सूखी घास और सूखे पेड़ बहुतायत में थे, और उस दिन अत्यधिक गर्मी और तेज़ हवाओं का मौसम था। मुसलमानों ने वहाँ आग लगा दी। आग फैल गई, लपटें उठीं, और हवा का रुख भी सलीबियों की ओर था। इस तरह सलीबियों पर कई तरह की गर्मी का हमला हुआ—आग की गर्मी, धुएं की गर्मी, प्यास की गर्मी, युद्ध की गर्मी, और मौसम की गर्मी—ये सब मिलकर उन पर हावी हो गईं। इससे पहले उन्होंने कभी ऐसा हाल नहीं देखा था, क्योंकि अधिकांश सलीबी ठंडे और बर्फीले इलाकों के रहने वाले थे।
इबरतनाक और हसरतनाक मौत का यकीन
उन्हें इस बात का यकीन हो गया था कि कोई भी रास्ता उन्हें मौत से बचा नहीं सकेगा, सिवाय इसके कि अपने “अक़ीदे” (धार्मिक विश्वास) की, चाहे वह जैसा भी हो, रक्षा करते हुए बहादुरी से मौत की ओर बढ़ा जाए। उधर मुसलमानों का जोश और वलवला क्या होगा, जो अपने सच्चे अक़ीदे के साथ लड़ रहे थे, जिनके घर बार लूट लिए गए थे, जिनके इलाक़े छीन लिए गए थे।
सलीबी एक बार फिर इकट्ठे हुए और मुसलमानों पर कई हमले किए। करीब था कि वे मुसलमानों को उनकी जगहों से हटा देते, अगर उन पर अल्लाह तआला की ख़ास इनायत (कृपा) न होती। हर बार जब सलीबी हमला करके वापस लौटते, तो मारे गए और घायल हुए लोगों की तादाद बढ़ जाती, जिससे वे और भी कमज़ोर होते गए।
इमाम इब्न अल-असीर के मुताबिक, मुसलमानों ने उन्हें घेरे में ले लिया, जैसे कोई दायरे के इर्द-गिर्द हो। कुछ लोग बाहर निकलने में कामयाब हुए और हत्तीन के एक तरफ़ एक पहाड़ी पर चढ़ गए। वहाँ उन्होंने अपने खेमे लगाने की कोशिश की, लेकिन मुसलमानों ने उन पर चारों तरफ़ से हमला कर दिया और अधिकांश को मार डाला। फिर भी वे एक ख़ेमे को स्थापित करने में कामयाब हो गए, और वह भी उनके बादशाह का ख़ेमे था।
सलीब-ए-आज़म पर मुसलमानों का क़ब्ज़ा
इसी दौरान मुसलमानों ने उनसे उस सलीब-ए-अज़म (बड़ी सलीब) को छीन लिया जिसे “सलीब अस्सल्बूत” कहा जाता था। इस सलीब का मुसलमानों के कब्जे में आ जाना सलीबियों के लिए सबसे बड़ी परेशानी बन गई। अल्लाह का शुक्र कि मुसलमान उन्हें मारते जा रहे थे और बड़ी संख्या में क़ैद भी कर रहे थे। यहाँ तक कि उस पहाड़ी पर बादशाह के ख़ास लोग और लगभग डेढ़ सौ घुड़सवार बचे।
सलीबी बादशाह के ख़ेमे की तबाही और सजदा-ए-शुक्र
यहाँ से हम सलाहुद्दीन के बेटे, सुल्तान अफ़ज़ल की बात सामने रखते हैं, जो इस जंग के इस मरहले से संबंधित अपनी आँखों देखी गवाही के तौर पर बयान करते हैं। वह बताते हैं कि मैं भी इस जंग में अपने अब्बा के साथ था। इन फ़रंगी (यूरोपीय) लोगों ने अपने सामने वाले मुसलमानों पर एक खतरनाक हमला किया, यहाँ तक कि वे उन्हें मेरे अब्बा के क़रीब तक ले आए।
मैंने अपने अब्बा जान की तरफ़ देखा, तो उनके चेहरे पर परेशानी और गुस्से के आसार नज़र आए। उन्होंने अपनी रेश (दाढ़ी) को पकड़ा और नारा-ए-तकबीर (अल्लाहु अकबर) बुलंद करते हुए दुश्मन पर टूट पड़े। मुसलमानों ने भी उनका साथ दिया। फ़रंगी पराजित होकर पीछे हटे और एक पहाड़ी तक पहुँचकर पनाह ली। उस वक़्त मैं ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा था: ”हमने उन्हें हरा दिया, हमने उन्हें शिकस्त दे दी।”
फ़रंगी फिर से पलटे और दूसरी बार हमला किया। उन्होंने अपने सामने वाले मुसलमानों को फिर मेरे अब्बा तक पहुँचा दिया। मेरे अब्बा जान ने फिर से पहले की तरह किया। मुसलमानों ने भी उनके साथ दुबारा हमला किया और उन्हें उसी पहाड़ी तक पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। वास्तव में, सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी रहमतुल्लाह अ़लैह का यह तरीका उस अंदाज में था जिस अंदाज में रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने बद्र के दिन किया था। जैसा कि हज़रत अली बिन अबी तालिब (रज़ियल्लाहु अ़न्हु) बयान करते हैं: “जब लड़ाई अपने चरम पर होती और आँखें बदले की भावना से लाल हो चुकी होती, तो लोग आपके पास आकर अपने आपको बचाया करते थे। लड़ाई की इस स्थिति में आप दुश्मन के करीबतर होते थे।”
यह कोई हैरत की बात नहीं है, बल्कि ऐसे मरहले में एक सच्चे मोमिन सिपहसालार को, जो सलाहुद्दीन अय्यूबी रहमतुल्लाह अ़लैह जैसा हो, रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की ही पैरवी करनी चाहिए। जब मुसलमान दूसरी बार फ़रंगियों पर झपटे, तो अफ़ज़ल फिर से चिल्लाने लगा: “हमने उन्हें शिकस्त दे दी, हमने उन्हें हरा दिया।” तो उसके पिता (सुल्तान) उसकी ओर मुड़े और कहा: “चुप हो जाओ, जब तक इस ख़ेमे को उखाड़ नहीं लेते, हमने उन्हें शिकस्त नहीं दी है।”
यह उन्होंने सलीबी बादशाह के उस ख़ेमे की ओर इशारा करते हुए कहा जो पहाड़ी पर लगाया गया था। सलाहुद्दीन अय्यूबी रहमतुल्लाह अ़लैह ने अभी यह जुमला पूरा भी नहीं किया था कि मुजाहिदीन की तरफ़ से उस ख़ेमे को ज़मीनबोस कर दिया गया। सुल्तान ने यह देखते ही अपने घोड़े से नीचे उतरकर बारगाहे इलाही में सजदा-ए-शुक्र अदा किया, साथ ही अल्लाह ने जो इनाम मुसलमानों पर दिया, उसका शुक्र अदा किया।
मुसलमानों के सबसे बड़े दुश्मन की गिरफ़्तारी
मुसलमान पहाड़ी पर चढ़ गए और सभी फ़रंगियों को क़ैदी बना लिया। इनमें बैतुल मुक़द्दस का बादशाह “जॉन नूरजीयन” और “क़लक” क़िले का मालिक “अलबरेंस अरनाट” भी शामिल थे। इन सब में मुसलमानों का सबसे बड़ा दुश्मन यही था। मुसलमानों ने इनके सबसे प्रतिष्ठित ज़मीनी सेना के कमांडर इन चीफ़ “जेरार्डी रेड फोर्ट” को भी गिरफ्तार कर लिया। मुसलमानों ने उनके कई प्रमुख नेताओं को भी पकड़ लिया था। इसके अलावा ज़मीनी सेना और रेगिस्तानी व बियाबान में लड़ने वाली सेना के दस्तों को भी गिरफ्तार कर लिया गया था। कुल मिलाकर, उनमें से बहुत से मारे गए और बहुत से क़ैद हुए।
जो कोई उनके मारे गए लोगों को देखता, तो यह ख़्याल करता कि शायद ही कोई क़ैद हुआ होगा, और जो कोई उनके क़ैदियों को देखता, तो यह समझता कि शायद ही कोई मारा गया होगा। लेकिन वे इतनी अधिक संख्या में मारे गए और क़ैद हुए थे कि इससे पहले (491 हिजरी / 1097 ईस्वी से) जब से ये इस्लामी देशों में घुसे थे, उन्हें इतना बड़ा नुक़सान नहीं हुआ था। इस लड़ाई में ईसाई इतिहासकार मचाड इस युद्ध में ईसाइयों के नुक़सान की ओर इशारा करते हुए विस्तार से लिखता है
“जीत मुसलमानों की ओर झुक चुकी थी, लेकिन रात ने दोनों सेनाओं को अपने अंधेरे पर्दे में छिपा लिया और सेनाएं वहीं हथियार पहन कर सुबह का इंतजार करती रहीं। ऐसी रात में आराम किसे नसीब हो सकता था? सुल्तान सारी रात सेनाओं को युद्ध के लिए उकसाता रहा और बहुत ही जोशीले शब्दों में उनकी हिम्मत और हौसले बढ़ाने की कोशिश करता रहा। तीरंदाजों में चार-चार सौ तीर बांटकर उन्हें ऐसे स्थानों पर तैनात कर दिया गया कि ईसाई सेना उनके घेरे से बाहर न निकल सके।”
तीस हजार सलीबी सैनिक मुसलमानों के हाथों कटते हैं
ईसाइयों ने अंधेरे का फ़ायदा उठाते हुए अपनी पंक्तियों को क़रीब-क़रीब एकजुट कर लिया, लेकिन उनकी ताक़त ख़त्म हो चुकी थी। युद्ध के दौरान कभी-कभी वे एक-दूसरे को मौत की परवाह न करने की शिक्षा देते थे, और कभी-कभी आसमान की तरफ़ हाथ उठाकर अल्लाह से अपनी सलामती की दुआएं मांगते थे। कभी-कभी वे पास के मुसलमानों को धमकियां देते थे और अपने डर को छिपाने के लिए सारी रात सेना में ढोल और नफ़ीरी बजाते रहे।
आख़िरकार सुबह की रोशनी प्रकट हुई, जो पूरी ईसाई सेना की तबाही का संकेत थी। जब ईसाइयों ने सलाहुद्दीन की पूरी सेना को देखा और अपने आप को चारों तरफ़ से घिरा हुआ पाया, तो वे डर गए और हैरान हो गए। दोनों सेनाएं कुछ देर तक एक-दूसरे के सामने अपनी-अपनी पंक्तियों में खड़ी रहीं। सलाहुद्दीन हमले का आदेश देने के लिए अच्छे से उजाले का इंतजार कर रहा था।
जब सलाहुद्दीन ने वह घातक शब्द बोल दिया, तो मुसलमान चारों ओर से एक साथ हमला करके भयानक आवाज़ें निकालते हुए (इस आवाज़ से अंग्रेज़ इतिहासकार का मतलब नारा-ए-तकबीर ‘अल्लाहु अकबर’ है) टूट पड़े। ईसाई सेना कुछ देर तक तो जान लगाकर लड़ी, लेकिन उनके क़िस्मत के दिन ख़त्म हो चुके थे। उनकी बाईं तरफ़ हत्तीन का पहाड़ था। तलवारों और भालों की छाया में कोई पनाह न देखकर वे हत्तीन की तरफ़ बढ़े, ताकि उसे अपनी पनाहगाह बना सकें।
लेकिन पीछा करने वाले मुसलमान उनसे पहले वहां पहुंच चुके थे। यही स्थान उस महान और भयावह ख़ून-ख़राबे की यादगार बनने वाला था। “सलीब की लकड़ी”, जो ‘अक्का’ के पादरी के हाथ में थी, उसके कटकर गिर जाने पर ‘लजा’ के पादरी ने उसे संभाला, लेकिन वह भी सलीब के साथ मुसलमानों के हाथों क़ैद हो गया। सलीब को छुड़ाने की कोशिश बाकी ईसाई सेना की मौत का कारण बन गई।
हत्तीन की ज़मीन लाशों से भर गई, ख़ून की नदी बह निकली। एक रिवायत के मुताबिक तीस हजार ईसाई सेना ख़ून से लाल हो गई और तीस हजार ही मुसलमानों की क़ैद में आ गए। मुसलमानों की सेना के नुक़सान का कोई सही अंदाज़ा बयान नहीं किया गया, लेकिन ऐसी जीत आसानी से नहीं हो सकती थी। ईसाई नाइट और सवार सिर से पांव तक लोहे की ज़िरहों में इस तरह ढके हुए थे कि आंखों के अलावा उनके शरीर का कोई हिस्सा खुला नहीं होता था, और कोई हथियार आसानी से उन पर कारगर नहीं हो सकता था।
जब चालीस-चालीस सलीबी क़ैदी एक खेमे की रस्सी से बांधे गए
एक मुसलमान इतिहासकार इस घटना को एक अजीबो-ग़रीब घटना के रूप में बयान करते हुए मुसलमानों की महानता के हक़ीक़तों का खुलासा करता है
कि ईसाई सवार सिर से पांव तक लोहे में ढके हुए थे, और उनके शरीर पर भाले और तलवार से घाव करना मुश्किल था। इसलिए पहले घोड़े को मारकर सवार को ज़मीन पर गिराना पड़ता था, फिर उसे मारा जाता था।
इसी वजह से बेशुमार माल-ए-ग़नीमत में कोई घोड़ा मुसलमानों के हाथ नहीं लगा। ईसाई मारे गए लोगों के भयावह दृश्य इतिहासकारों ने बयान किए हैं।
उनकी सफों की सफें कटी हुई पड़ी थीं, और जिधर नज़र जाती थी, वहीं वही दृश्य था। ईसाईयों की संख्या भी बहुत बड़ी थी। एक-एक रस्सी में तीस-तीस, चालीस-चालीस ईसाई बांध दिए गए थे, और सौ-सौ और दो-दो सौ क़ैदियों को एक ही स्थान पर बंद किया गया, जिन पर केवल एक ही मुसलमान पहरेदार था। एक शख्स अपना आंखों देखा हाल बयान करता है कि एक मुसलमान सिपाही अकेले ही 40 ईसाई क़ैदियों को खेमे की रस्सी से बांधकर हांकता हुआ ले जा रहा था। दमिश्क में तीन दीनार में एक-एक ईसाई क़ैदी को बेचा गया और एक सिपाही, जिसके पास जूते नहीं थे, ने अपने हिस्से के एक ईसाई क़ैदी को जूते के बदले में एक मोची के हाथ बेच दिया। माल-ए-ग़नीमत की तक़्सीम से हर ग़रीब सिपाही भी मालदार हो गया।
ग़रज़, इस क़िस्म के हालात बयान किए गए हैं, जिनसे ज़ाहिर होता है कि हत्तीन की हार ने ईसाइयों की ताक़त को जड़ से उखाड़ दिया था। और इससे ज़्यादा बर्बादी और तबाही क्या हो सकती है कि ईसाइयों की सलीब, ईसाइयों का बादशाह, हर एक ईसाई अमीर और नामवर शख्स मुसलमानों के हाथ में क़ैद हो गया था। उमराओं और नामवर वालियान-ए-मुल्क ईसाइयों में सिर्फ़ एक शख्स, रेमंड साहिब-ए-त्रिपोली, जो सेना के पिछले हिस्से पर नियुक्त था, मैदान-ए-जंग से जान बचाकर भाग सका, लेकिन मौत ने वहां भी उसका पीछा न छोड़ा और त्रिपोली पहुंचकर दिलशिकनी से या ज़ात-उल-जंब के मरज़ से मर गया।
सलीबी सुल्तान के ख़ेमे में
सुल्तान सलादीन अय्यूबी रहमतुल्लाह अलैह अपने ख़ेमे में बैठे हुए थे। वह अल्लाह तआला की इन नेमतों पर शाकिर थे और लोग क़ैदियों और उनके बड़े-बड़े अधिकारी जिन्हें क़ैद किया गया था, को एक-एक करके सुल्तान के सामने पेश कर रहे थे। इस फातह ए सुल्तान ने क्रूसेडर्स के राजा और यरूशलेम के राजा गाई और ब्रिन्स अर्नात (रिनाल्ड) को अपने ख़ेमे में बुलाया।
राजा को एक तरफ बैठा दिया गया। उसकी हालत यह थी कि प्यास से उसकी जान निकल रही थी, वह मरने ही वाला था। उसे थोड़ा ठंडा गुलाब का शर्बत पेश किया गया, जिसे उसने पिया और फिर ब्रिन्स अर्नात को भी पिलाया। सुल्तान ने दुभाषिये से कहा कि इसे बता दो कि तूने पानी पी लिया है जबकि मैंने अभी तक मुंह से भी नहीं लगाया है, क्योंकि यह मुस्लिम जनरलों की शुरू से आदत रही है कि जब उनके क़ैदी उनके सामने कुछ खा-पी लेते हैं तो उन्हें दिली सुकून मिलता है।
हिसाब की घड़ी आ पहुंची थी। लेकिन किसका हिसाब? उस अर्नात (रिनाल्ड) का, जिसने मुसलमानों को ज़ुल्म और तकलीफें पहुंचाने और उन्हें बुरी तरह से तड़पाकर मारने में, और उनकी दुश्मनी में सबसे आगे रहा था। वह मुसलमानों के साथ धोखा करने, उन्हें फरेब देने और वादे तोड़ने में माहिर था।
सलाहुद्दीन और अर्नात (रिनाल्ड) के बीच एक समझौता हुआ था, जिसके अनुसार हाजियों और व्यापारियों के काफ़िले आराम से और बेख़ौफ़ होकर जॉर्डन के रेगिस्तान से अर्नात के किले “करक” के पास से गुज़रते थे। मिस्र और शाम के बीच एक रास्ता बन चुका था, ये दोनों शहर इस उभरते हुए इस्लामी ब्लॉक के दो अहम हिस्से थे, जिसे नूर-उद-दीन ने संगठित किया था और जिसके बाद में सलाहुद्दीन वारिस बने थे।
लेकिन एक बार ऐसा हुआ कि एक बहुत बड़ा काफ़िला कीमती सामान के साथ मिस्र से शाम की तरफ़ जा रहा था। उन कीमती और बेहतरीन चीज़ों को देखकर अर्नात की लालच बढ़ गई। उसने सारे वादों को तोड़कर काफ़िले को लूट लिया और सभी लोगों को क़ैद कर लिया। फिर उनसे कहा:
”कहो अपने नबी मोहम्मद (ﷺ) से कि वे आएं और तुम्हें छुड़ाकर ले जाएं।”
577 हिजरी के मुताबिक 1181 ईस्वी में गर्मियों के मौसम में अर्नात अपनी फ़ौज के साथ अरब के इलाकों में बढ़ते हुए शेमां तक पहुंचा। उसकी मंशा मदीना और फिर मक्का पर चढ़ाई करने की थी। लेकिन सुल्तान के भतीजे ‘फरोग शाह’, जो दमिश्क में उसका प्रतिनिधि था, ने तेजी से जॉर्डन पर हमला किया, जिससे अर्नात को अपने किले करक को बचाने के लिए वापस लौटना पड़ा। अर्नात के इन ज़ुल्मों और वादे तोड़ने की वजह से सुल्तान सलाहुद्दीन ने कसम खाई थी कि अगर अल्लाह ने उसे अर्नात पर जीत दी, तो वह उसे अपने हाथ से वासिल-ए-जहन्नुम करेगा।
अब जबकि हिसाब का वक्त करीब आ पहुंचा था, अल्लाह ने अर्नात को एक जंगी क़ैदी की सूरत में सुल्तान के सामने ला दिया था, तो सुल्तान सलादीन उसे उसकी एक-एक हरकत याद दिलाने लगा। उसने कहा: तूने कितनी बार कसम खाई और कितनी ही बार उन्हें तोड़ा। मैंने भी तुम्हारे बारे में दो बार कसम खाई थी, एक बार जब तुमने मक्का और मदीना पर कब्जा करने की कोशिश की थी, और दूसरी बार जब तुमने धोखे से हाजियों के काफ़िले पर हमला किया था। और क्या तुमने यह बेहयाई नहीं की थी कि अपने नबी मोहम्मद (ﷺ) से कहो कि तुम्हें छुड़ाकर ले जाएं?
हाँ! अब वह वक्त आ पहुंचा है कि मैं मोहम्मद (ﷺ) के लिए बदला ले रहा हूं।
इसके बाद उसने उसे इस्लाम कुबूल करने का निमंत्रण दिया जिसे उसने ठुकरा दिया। फिर सुल्तान ने एक तलवार नुमा खंजर उठाया और उसे मारा। इसके बाद सुल्तान के एक साथी ने उस पर हमला करके उसे खत्म कर दिया। फिर उसे घसीटा गया और मशहूर क़ैदियों को दमिश्क की तरफ़ ले जाया गया और एक किले में बंद कर दिया गया। इब्न शद्दाद के मुताबिक, मुसलमानों ने वह रात बेपनाह खुशियों के साथ गुजारी, अल्लाह की तारीफ और शुक़्राने की आवाज़ों से माहौल गूंज उठा। अल्लाहु अकबर और ला इलाहा इल्लल्लाह की सदाओं के साथ इतवार की सुबह उग आई।
Sultan Salahuddin Ayyubi की सलीबियों पर मेहरबानियाँ
आखिरकार, रबी-उल-अखिर 583 हिजरी के बुधवार के दिन, सुल्तान ने “अक्का” की तरफ़ कूच किया, जो एक मशहूर बंदरगाह थी, जिसमें व्यापारी और सौदागर भरे हुए थे। इसने इतिहासकार मचाड के अनुसार, “पिछले समय में पश्चिम की सबसे ताकतवर सेनाओं के हमलों का तीन साल तक मुकाबला किया था।” लेकिन यह दो दिन भी सुल्तान के सामने न टिक सकी।
सुल्तान ने शहर के लोगों को अमन और आज़ादी दी कि वे अपने सबसे कीमती सामान लेकर वहां से चले जाएं। जुम्मे के दिन, सुल्तान शहर में दाखिल हुआ। काज़ी फाज़िल भी इस मौके पर मिस्र से आ गए और सबसे पहले जुम्मे की नमाज़ “अक्का” के साहिल में अदा की गई। इसके बाद, नाबलुस, हाइफा, कैसारिया, सफ़ूरिया, नासिरा एक के बाद एक, बिना किसी विरोध के फतह हो गए और इसी फतह के सिलसिले में सुल्तान की सेना ने चंद महीनों में पूरे साहिल पर कब्ज़ा कर लिया।
एक इतिहासकार ने इनमें से कुछ मशहूर स्थानों के नाम इस तरह से लिखे हैं: तबरिया, अक्का, ज़ेब, मालीया, इस्कंदरुना, तत्तीन, नासिरा, ऊर, सफ़ूरिया, फूला, जिनीस, अरईन, दीवरिया, असरबला, बियान, मब्सतिया, नाबलुस, लाजून, एरिहा, सनजिल, बीरा, याफा, अर्सूफ़, कैसारिया, हाइफा, सरफद, सैदा, बेरुत किला, अबुल हसन, जुबैल, माजदाल या बामजदाल, हबाब, दरूम, ग़ज़ा, अस्कलान, तल साफिया, तल अहमर, अतरू, बेत ज्रेल, जिबलुल ख़लील, बेतुल लहम, लाब, रेईला, कुरैता, क़ुद्स, सोबा, हर्मज़, सलह अज़वा, शकीफ़।
इनमें से ज्यादातर जगहें सुल्तान ने अमन और सुलह के साथ फतह कीं, और वहाँ के निवासियों को अपना माल और सामान लेकर सुरक्षित निकल जाने की इजाजत दी। मुल्क के मसलहत के लिहाज से सुल्तान अपनी नरमी और मेहरबानी में गलती कर रहे थे, क्योंकि वह बिखरे हुए लोगों और उनकी कमजोर ताकतों को एकजुट होने का मौका दे रहे थे और इससे एक मजबूत ताकत बन सकती थी। इस खतरनाक गलती का उन्हें आखिरकार खामियाज़ा भुगतना पड़ा, मगर इस किस्म का कोई भी ख्याल उन्हें इस रहमदिली और इंसानियत से रोक न सका। वह हमेशा सभी ईसाइयों को अमन देने और सुलह के साथ अपनी इताअत में लाने के लिए तैयार रहते थे।
कुछ जगहों के लोग उनके साथ मुकाबला करने के लिए तैयार हुए, मगर जब उन्होंने अमन की मांग की, तो वह हमेशा तैयार थे, जैसे अस्कलान के लोगों ने, जो एक बहुत ही मजबूत और साथ ही बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान था क्योंकि यह मिस्र के साथ सीधे संपर्क का एक सुरक्षित और कारगर साधन था, मुकाबला किया और जब सुल्तानी फौज ने किले को तोड़कर उसमें दरार डाल दी, और सुल्तान ने निवासियों से उस समय भी अमन कुबूल करने के लिए कहा, तो उन्होंने इनकार किया और मुकाबला जारी रखा।
लेकिन यरूशलेम के राजा गाई, जो सुल्तान की कैद में था, उसने अस्कलान के निवासियों को समझाया कि वे अपनी जान बचाने के लिए बेकार की कोशिश में अपने परिवार को खतरे में न डालें। इस पर उन्होंने सुल्तान के पास आकर सुलह और अमन की दरख्वास्त की, और सुल्तान ने, मचाड के अनुसार, “उनकी बहादुरी की तारीफ करते हुए जो शर्तें उन्होंने रखीं, उन्हें मान लिया और उनके राजा के प्रति उनकी मोहब्बत से प्रभावित होकर, राजा को एक साल के अंत में आजाद करने के लिए राजी हो गए।”
दस हजार मुस्लिम कैदियों की क्रूसेडरों के जुल्म से रिहाई
सुल्तान को उन तमाम मुस्लिम कैदियों को रिहा करने का मौका मिला। एक शहर फतह करने के बाद जो काम सबसे पहले सुल्तान करते थे, वह था कैदियों की जंजीरें तोड़ना, उन्हें आजाद करना, और कुछ माल और सामान देकर रुखसत करना। इस साल सुल्तान ने दस (10) हजार से ज्यादा मुस्लिम कैदियों को रिहा किया, जो अलग-अलग जगहों पर ईसाइयों की क़ैद में थे।
साहिल के सभी इलाकों के फतह हो जाने के बाद केवल “सूर” और “बैतुल मुक़द्दस” ही ईसाइयों के हाथों में रह गए थे। ये वही सबकुछ था जो बैतुल मुक़द्दस के लिए किया गया था। ये सुल्तान नूर-उद-दीन रहमतुल्लाह अलैह की आजीवन आरज़ू थी, जिसे पूरा न कर पाने पर सुल्तान सलाहुद्दीन ने इसे अपनी ज़िंदगी का मक़सद और तमन्ना बना लिया था। इसी बड़े मक़सद को ध्यान में रखते हुए सुल्तान ने अपने सभी कामों की बुनियाद तय की थी।
इसी मकसद से मुस्लिम हुकूमतों की बिखरी हुई ताकतों और टूटे हुए हिस्सों को एकजुट करके एक मज़बूत ताकत बनाने में लंबा वक्त लगा, और सुल्तान ने इस मकसद को हासिल करने के लिए जी-जान से कोशिश की। ये वही दिन थे जिनका उन्होंने बड़े सब्र और हिम्मत के साथ इंतज़ार किया था, और जिनके वह अब बेहद करीब पहुंच चुके थे ।
जज्बों में आग लगाने वाला जोशीला भाषण
अश्कलान विजय के बाद सुल्तान ने सभी सैनिकों को, जो इधर-उधर बिखरे हुए थे, इकट्ठा किया और अल्लाह से फतह की दुआएं करते हुए, बैतुल मुकद्दस की ओर कूच करने का आदेश दिया। इस सफर में, वे सभी विद्वान और विशेषज्ञ जो उनकी जीत की खबर सुनकर विभिन्न स्थानों से उनके पास आ गए थे, उनके साथ चल पड़े। बैतुल मुकद्दस के करीब पहुंचने पर, मुस्लिम सेना की एक टुकड़ी का ईसाई सेना के एक दस्ते से सामना हो गया। इस पर सुल्तान ने सभी अधिकारियों, बहादुर योद्धाओं, राजकुमारों, उच्च-आत्मा वाले भाइयों और सभी अमीरों और सलाहकारों का एक दरबार बुलाया और सभी से सलाह-मशविरा लिया। अंत में, उन्होंने सबको संबोधित करते हुए एक प्रभावशाली भाषण दिया और कहा:
“अगर अल्लाह की मदद से हम दुश्मनों को बैतुल मुकद्दस से निकालने में सफल होते हैं, तो हम कितने भाग्यशाली होंगे और जब वह हमें यह तौफीक देगा, तो हम कितनी बड़ी नेमत के मालिक हो जाएंगे। बैतुल मुकद्दस 91 वर्षों से काफिरों के कब्जे में है और इस पूरे समय में इस पवित्र स्थान पर कुफ्र और शिर्क होता रहा है। एक दिन, बल्कि एक पल भी अल्लाह की इबादत नहीं हुई। इतने समय तक मुस्लिम बादशाह इसकी फतह में असफल रहे, और यह लंबा समय काफिरों के कब्जे में बीत गया है। लेकिन अल्लाह ने इस फतह का सम्मान अय्यूब के परिवार के लिए रखा था, ताकि मुसलमान उनके साथ इकट्ठे हो सकें और हमारे दिलों को इस जीत से संतुष्ट कर सकें।
बैतुल मुकद्दस की फतह के लिए हमें दिल और जान से कोशिश करनी चाहिए और अत्यधिक परिश्रम और उत्साह दिखाना चाहिए। बैतुल मुकद्दस और मस्जिद अल-अक्सा, जिसकी नींव तकवा पर है, जो नबियों और अल्लाह के वलियों का स्थान है, जो परहेजगारों और नेक लोगों का इबादतगाह है और आसमान के फरिश्तों की जियारतगाह है। यह कितनी दुखद बात है कि यहाँ काफिरों का कब्जा है, उन्होंने इसे अपना तीर्थ बना लिया है। अफसोस! अल्लाह के प्यारे बंदे झुंडों में इसकी जियारत को आते हैं। इसमें वह पवित्र पत्थर है जिस पर हमारे प्यारे नबी मुहम्मद (स.अ.व.) के मेअराज पर जाने का निशान बना हुआ है, जिसके ऊपर एक ऊंचा गुंबद ताज की तरह बना हुआ है, जहाँ से वह बिजली से भी तेज़ गति से बुराक पर सवार होकर आसमान पर गए और इस रात ने सिराज अल-औलिया से वह रोशनी हासिल की जिससे सारी दुनिया रोशन हो गई। इसमें हज़रत सुलैमान (अ.स.) का सिंहासन और हज़रत दाऊद (अ.स.) की मेहराब है। इसमें सिलवान का चश्मा है, जिसे देखकर हौज़-ए-कौसर याद आता है। यह बैतुल मुकद्दस मुसलमानों का पहला क़िबला है और यह मुबारक घरों में से दूसरा है और दो हरम शरीफ के बाद तीसरा है। यह उन तीन मस्जिदों में से एक मस्जिद है जिनके बारे में हमारे प्यारे नबी मुहम्मद (स.अ.व.) ने फरमाया कि उनके लिए यात्रा की जाए और लोग आदर से वहां जाएं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि अल्लाह तआला यह पवित्र स्थान मुसलमानों को दे दे, क्योंकि इसका उल्लेख उसने कुरान पाक में पैगंबरों के साथ किया है:
सुब्हानललज़ी असरा बीअब्दीही लैलं मीनल मस्जिदिल हरामी इलल मस्जिदिल अक्सा।
इसके फजीलत और विशेषताएँ बहुत अधिक हैं। इसी से पैगंबर मुहम्मद (स.अ.व.) को मेअराज हुई, इसकी जमीन पाक और पवित्र कही जाती है। कितने ही पैगंबरों ने यहाँ अपनी ज़िंदगियां गुजारीं। वलियों, शहीदों, विद्वानों और नेक लोगों का तो कोई हिसाब ही नहीं, यह बरकतों का स्रोत और खुशियों का पालना है। यह वही पवित्र सखरा शरीफ और पुराना क़िबला है, जहां ख़ातम अन-नबीं मुहम्मद (स.अ.व.) आए और आसमानी बरकतें लगातार इस स्थान पर उतरती रहीं। इसके पास पैगंबर मुहम्मद (स.अ.व.) ने सभी पैगंबरों की इमामत की और जिब्राईल (अ.स.) उनके साथ थे जब उन्होंने यहां से उच्चतम स्वर्ग की यात्रा की। यही वह मस्जिद है जिसकी नींव हज़रत दाऊद (अ.स.) ने रखी और हज़रत सुलैमान (अ.स.) ने इसकी हिफाज़त की। इस मस्जिद की महानता का इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है कि अल्लाह तआला ने इसकी प्रशंसा (सुब्हानललज़ी) से शुरू की और सैयदना उमर (र.अ.) ने पूरी कोशिश से इसे फतह किया था, क्योंकि इसकी प्रशंसा में अल्लाह तआला ने एक महत्वपूर्ण सूरत को शुरू किया और क़ुरान का आधा भी वहीं से शुरू होता है। यह स्थान कितना महान और सम्मानित है और यह मस्जिद कितनी ऊँची और सम्मानित है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
अल्लाह तआला इसकी उच्चता को इस प्रकार बयान करता है: (अललज़ी बारकना हौलहू) अर्थात यह वह स्थान है जिसके चारों ओर हमने बरकत दी और अपनी क़ुदरत की निशानियाँ अपने नबी (स.अ.व.) को इस स्थान पर दिखाई। इसके फजाइल हमने अपने नबी (स.अ.व.) से सुने हैं, जो हम तक रिवायत के माध्यम से पहुंचे हैं।”
सुल्तान ने एक ऐसी प्रभावशाली और दिल को छू लेने वाली तकरीर की कि सभी श्रोता संतुष्ट हो गए और तकरीर के अंत में सुल्तान ने अल्लाह की क़सम खाई कि जब तक वह बैतुल मुकद्दस पर इस्लाम का झंडा नहीं लगा देंगे और हमारे प्यारे नबी मुहम्मद (स.अ.व.) के कदमों की पैरवी नहीं करेंगे और सखरा मुबारक पर काबिज नहीं हो जाएंगे, तब तक वह अपनी कोशिश नहीं छोड़ेंगे और इस कसम को पूरा करने के लिए लड़ेंगे।
मुस्लिम और ईसाई इतिहासकार इस बात पर सहमत हैं कि उस समय यरूशलम में एक लाख से अधिक लोग मौजूद थे, जिनमें से एक मुस्लिम इतिहासकार के अनुसार 60 हजार ईसाई लड़ाई के काबिल थे। हित्तीन की हार के बाद कोई भी ईसाई अमीर या सरदार वहां नहीं था, सिवाय यरूशलम के बिशप के। एक ईसाई सरदार बैलियन भी हत्तीन की हार के बाद वहां से भागकर सौर में पनाह ले चुका था।
वहां से (इतिहासकार आर्चर के अनुसार) उसने सुल्तान से अनुमति मांगी कि उसे अपने परिवार और बच्चों को यरूशलम पहुंचाने के लिए वहां से एक दिन के लिए जाने दिया जाए और उसने वादा किया कि यदि अनुमति मिल गई तो वह एक रात से अधिक वहां नहीं रुकेगा। सुल्तान ने सद्भावना और नैतिकता के तहत उसे अनुमति दे दी। लेकिन जब वह यरूशलम पहुंचा, तो वहां के लोगों ने उसे वहीं रुकने के लिए प्रोत्साहित किया और बिशप हेरक्लीज ने भी फतवा दिया कि उस वादे को पूरा करना, उसकी तुलना में तोड़ने का बड़ा गुनाह होगा।
इस प्रकार, वह वादा तोड़कर वहां रहने को तैयार हो गया और इस तरह एक ईसाई सरदार यरूशलम में मौजूद हो गया। बिशप और अन्य प्रमुख ईसाइयों ने वहां मौजूद ईसाइयों के बीच जोश और उत्साह पैदा करने के लिए हर संभव उपाय किए, उनके बीच जोरदार भाषण दिए, उनकी हिम्मत और बहादुरी को बढ़ाया और शहर की रक्षा करने के लिए तैयार किया।
बैतुल मुकद्दस की फतह
हित्तीन में सफलता प्राप्त करने के बाद “कुद्स” (बैतुल मुकद्दस) की ओर रास्ता पूरी तरह स्पष्ट हो चुका था। अब यह संभव था कि सुल्तान सलाहुद्दीन इसका इरादा करते और कुछ प्रयास करके इसे अपने कब्जे में ले लेते। लेकिन उसने इसे सैन्य दृष्टिकोण से देखा, और यही उनकी उच्च व्यक्तित्व और बुद्धिमत्ता की विशेषता को उजागर करता है।
उन्होंने सोचा कि बैतुल मुकद्दस कई शहरों के बीच स्थित है, और समुद्र तट पर क्रूसेडर्स के कई केंद्र स्थापित हो चुके हैं, जहाँ से वे बाहरी दुनिया के साथ संबंध आसानी से स्थापित कर सकते हैं, खासकर उन ईसाई देशों के साथ जिन्होंने फ़िलिस्तीन में क्रूसेडर्स के अपवित्र अस्तित्व को समर्थन दिया था। इसलिए उसने पहले समुद्र तटीय क्रूसेडर केंद्रों से मुक्ति पाने और अन्य क्रूसेडर किलों और आश्रयों पर कब्जा करने का एक मजबूत कार्यक्रम बनाया।
उसके बाद वह बैतुल मुकद्दस की ओर अग्रसर होंगे और इसे फतह करेंगे, तो वह पहले से ही क्रूसेडर के अस्तित्व की जीवन रेखाओं को काट चूके होंगे
इसके अलावा, “अक्का” और अन्य तटीय क्रूसेडर किलों पर कब्जा करना भी मिस्र और शाम के बीच रास्ता बना देगा, जो उसके राज्य के दोनों बाजू माने जाते थे। उन्होंने अपने कार्यक्रम को पूरा करने के लिए सैनिकों के साथ पूरी सैन्य तैयारी की और अपने दिमाग में खींचे गए नक्शे को जमीन पर उतारने के लिए चल पड़े। हित्तीन की सफलता के कुछ ही महीनों के भीतर, अल्लाह तआला ने उन्हें निम्नलिखित शहरों और किलों पर विजय दिलाई:
अक्का, कैसारिया, हैफा, सुफूरिया, मलिया, शकीफ, अल-घूला, अल-तूर, सिब्तिया, नाब्लुस, मजीदलिया, याफा, तबनिन, सैदा, जाबील, बेरूत, हरफन्द, असकलान, अल-रमला, अल-दारूम, (वेर अल-बालाह), गाज़ा, यबनी, बैतुल लहम, बैत जिब्रीन, और उनके अलावा और भी बहुत कुछ जो उन क्रूसेडर बलों के पास था।
जैसा कि पहले बताया गया है, ये सभी महान सफलताएँ और बड़ी-बड़ी फतहें हित्तीन की लड़ाई के बाद 583 हिजरी में केवल कुछ महीनों के दौरान पूरी हुई थीं। इस तरह बैतुल मुकद्दस को फतह करने के लिए माहौल पूरी तरह से अनुकूल था। काम को मजबूत आधार पर स्थापित करने के लिए सुल्तान ने मिस्र से इस्लामी नौसेना भी बुला ली, जो हुसामुद्दीन लुलू अल-हाजिब की नेतृत्व में आई। उन्होंने अपनी बुद्धिमत्ता और साहस के साथ भूमध्य सागर में गश्त शुरू कर दी, खासकर इस बात का ध्यान रखते हुए कि कहीं यूरोपीय ईसाई फिलिस्तीन के तट तक पहुँचने में सफल न हो जाएँ।
583 हिजरी / 15 रजब को रविवार के दिन, सुल्तान “कुद्स” के पास पहुंचे और वहां घेरे में बसे ईसाइयों से कहा कि बिना खून-खराबे के, जिसे वह ऐसे पवित्र स्थान में पसंद नहीं करता, आत्मसमर्पण कर लें। लेकिन जब उन्होंने घमंडी तरीके से इनकार किया, तो सुल्तान ने हमले की तैयारी शुरू कर दी। इस उद्देश्य के लिए, पांच दिन केवल इसी काम में गुजार दिए। वह खुद शहर की दीवारों के चारों ओर घूमता रहा, ताकि कोई कमजोर जगह ढूंढ सके और वहीं से हमला कर सके। अंत में निर्णय लिया गया कि उत्तर दिशा से हमला किया जाए।
20 रजब को, उन्होंने अपनी सेना को इस दिशा में स्थानांतरित किया और उसी रात, सैनिकों ने मंझनीक (प्राचीन यंत्र जो पत्थर फेंकने के लिए इस्तेमाल होता था) स्थापित करना शुरू कर दिया। सुबह होने से पहले मंझनीकें तैयार हो चुकी थीं और अपना काम शुरू कर दिया। दूसरी ओर, ईसाइयों ने अपनी मंझनीकें भी फसील (किले की दीवार) पर स्थापित कर लीं और दोनों पक्षों से पत्थरबाजी शुरू हो गई। लड़ाई बहुत ही भीषण हो रही थी। इमाम इब्न अल-असीर के अनुसार, “एक देखने वाले ने देखा कि दोनों पक्ष इस लड़ाई को ‘धर्म’ समझकर लड़ रहे हैं।”
“धर्म ही वह चीज़ है जो इंसान के भीतर की शक्ति को जगाता है, उसे मृत्यु को प्रिय बना देता है, और अपना सब कुछ त्याग देना उसके लिए आसान बना देता है। लोगों को लड़ने-मरने के लिए उकसाने की जरूरत नहीं थी, बल्कि शायद उन्हें रोकने के लिए जोर लगाना पड़ता।”
एक ही बार में जबरदस्त हमला हुआ। उन जंगी दिनों में से एक अमीर इज़्ज़ुद्दीन ईसा बिन मालिक, जो मुस्लिम नेताओं और नेक लोगों में से एक थे, शहीद हो गए। उनकी शहादत के बाद मुसलमानों का जोश और जुनून और भी बढ़ गया और उन्होंने एक जोरदार हमला किया जिससे ईसाइयों के कदम उखड़ गए। कुछ मुसलमान खाई पार करके फसील तक पहुँचने में सफल हो गए। दीवार तोड़ने वालों ने किले की दीवार को तोड़ना शुरू कर दिया। इस दौरान, दुश्मन को दूर रखने के लिए मंझनीकें लगातार पत्थर फेंकती रहीं और तीरंदाज तीरों की बरसात करते रहे, ताकि दीवार तोड़ने वाले अपने उद्देश्य को पूरा कर सकें।
जान की बख्शिश की गुहार
जब ईसाइयों के रक्षकों ने मुस्लिमों के हमले की तीव्रता, उनके इरादों की सच्चाई, और “कुद्स”, जो कि रसूल-ए-मुअज्जम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की शब-ए-मेराज की अस्थायी ठहरने की जगह थी, को छुड़ाने के लिए मौत को गले लगाने की भावना को देखा, तो उन्हें अपनी बर्बादी का यकीन हो गया। और उनके पास सिवाय आत्मसमर्पण करने के कोई रास्ता नहीं बचा। इसीलिए वे समझौता करने के लिए तैयार हो गए।
“दुनिया में दुश्मनों से बातचीत का तरीका यही है कि जंग जारी रखा जाए और अल्लाह के दुश्मनों को घेरा जाए, ताकि वे बातचीत की अपील करें। यह न हो कि मुसलमान कमजोरी दिखाते हुए खुद बातचीत की पेशकश करें और वह भी पराजित और कमजोर स्थिति में, जैसे आजकल होता है। पहले मुसलमानों पर जुल्म किया जाता है, उन्हें अपमानित किया जाता है, और फिर बातचीत की साजिश कर उन्हें नकली समझौतों के जाल में फंसा दिया जाता है।”
इस प्रकार पराजित ईसाइयों के प्रतिष्ठित लोग एकत्र होकर सुलतान के पास सुरक्षा की गुहार लगाने के लिए आए। उन्होंने सुलतान सलाहुद्दीन अय्युबी (रहमतुल्लाह अलैहि) से यह शर्त रखी कि अगर वह बैतुल मुकद्दस उन्हें सौंप देंगे, तो वे सुरक्षा की मांग करेंगे। अंततः सुलतान ने उनकी मांग मान ली और बैतुल मुकद्दस को लेकर उन्हें सुरक्षा का वादा देने पर राजी हो गए।
माफियाँ, दया और उत्साह की थैलियाँ
सुलतान ने इस शर्त पर सुरक्षा दी कि ईसाई निवासियों में से सभी पुरुष प्रति व्यक्ति दस दीनार, महिलाएँ प्रति व्यक्ति पाँच दीनार और बच्चे प्रति व्यक्ति दो दीनार जज़िया दे सकें, और अपनी ज़रूरी वस्तुएँ और जानें लेकर चले जाएँ। जो इस दया की राशि का भुगतान नहीं कर सकें, वे मुस्लिमों के कब्जे में गुलाम के रूप में रहेंगे। ईसाई इस शर्त पर सहमत हो गए और बालयान बिन बारज़ान, बैट्रीक एज़ेम और दावियाह (टेम्पलर) और इस्तिबारिया (हास्पिटलर) के नेताओं ने इस राशि के भुगतान की गारंटी दी।
बालयान ने 30 हजार दीनार गरीब लोगों के लिए अदा किए और जज़िया चुकाने वाले सभी लोग शहर से बाहर चले गए। एक बहुत बड़ी संख्या में लोगों ने बिना जज़िया अदा किए हर संभव तरीके से, जैसे कि दीवारों से लटककर और अन्य तरीकों से, बाहर निकलने का प्रयास किया। और जिन लोगों ने जज़िया नहीं चुकाया, उनके साथ सुलतान ने ऐसी उदारता दिखाई जिसकी दुनिया में बहुत कम मिसाल मिलती है।
मलिक आदिल की और अपने बेटों और रिश्तेदारों की दया की अपील पर, अनगिनत लोगों को जिन्होंने जज़िया नहीं चुकाया था, मुक्त कर दिया गया। फिर बालयान और बैट्रीक एज़ेम की अपील पर भी एक बड़ी संख्या को स्वतंत्रता दी गई। और अंत में, एक बड़ी संख्या को उनके नाम पर छोड़ दिया गया। ईसाई रानी को उसकी सारी संपत्ति और ढेर सारा धन और सामग्री के साथ, अपने सेवकों और संबंधितों के साथ अपने पति के पास जाने की अनुमति दी गई। और किसी व्यक्ति ने, चाहे उसने कितना भी धन और संपत्ति ले कर क्यों न निकला हो, जज़िया की निर्धारित राशि के अतिरिक्त कुछ भी मांगने या प्राप्त करने की किसी मुस्लिम ने परवाह नहीं की
जब ईसाईयों के घोड़े मुसलमानों के खून में घुटनों तक चल रहे थे, सुलतान का यह व्यवहार जो उसने ईसाईयों के साथ किया, इस्लामी उदारता और कर्म और भलाई और व्यवहार की एक ऐसी मिसाल है जिस पर क्रूर और दरिंदा ईसाई दुनिया को इस्लाम और मुसलमानों पर खून-खराबे का आरोप लगाने और इस्लाम को खून-खराबे के पर्याय के रूप में मानने के बजाय शर्मिंदा होना चाहिए।
यही शाम की धरती और एक सदी से अधिक की घटनाएँ जो दोनों कोमों की दुनिया ने देखी हैं, यह निर्णय लेने के लिए पर्याप्त हैं। ईसाईयों ने येरूशलेम विजय पर जो खूंरेजी रवा रखी उन्होंने जो रक्तपात किया जी ज़ुल्म ओ सितम उन्होंने किया, वह इतिहास के पन्नों से मिटाया नहीं जा सकता। गॉडफ्रे और रेयमंड आदि येरूशलेम के विजेताओं ने जिस समय पोप को येरूशलेम की विजय की रिपोर्ट लिखी, उसमें मौत की खबर देने के बाद लिखा:
”यदि तुम जानना चाहते हो कि हमने उन दुश्मनों (मुसलमानों) के साथ, जिन्हें हमने शहर में पाया, क्या किया? तो तुम्हें बताया जाता है कि हमारे घोड़े रेवाक सुलैमान और गिरजाघर में मुसलमानों के अपवित्र खून में चल रहे थे।” (इतिहास मचाड: खंड तीसरा, परिशिष्ट पृष्ठ 362)
सलीबियों को येरूशलम से निकालने के मनाजिर
अमन नामा पर दस्तखत होने के बाद, येरूशलम में मौजूद सभी लड़ाकू लोगों को सौर या त्रिपोली (तिराबीलस) जाने की अनुमति मिल गई। विजेता ने निवासियों की जानें बख्श दीं और उन्हें कुछ दीनारों के मामूली पैसे के बदले अपनी स्वतंत्रता खरीदने की इजाजत दी। सभी ईसाइयों को, यूनानियों और शामी ईसाइयों को छोड़कर, येरूशलम से चार दिन के अंदर चले जाने का आदेश दिया गया। (शामी और यूनानी ईसाइयों को पूरी छूट दी गई और उन्हें पूरी स्वतंत्रता दी गई, यह सुलतान की एक और कृपा थी।) ज़र ख़लासी (जज़िया) की दर दस दीनार हर पुरुष के लिए, पाँच दीनार हर महिला और दो दीनार हर बच्चे के लिए तय की गई, और जो अपनी स्वतंत्रता नहीं खरीद सके वे दास बने रहने के लिए मजबूर थे।
इन शर्तों पर ईसाइयों ने पहले बहुत खुशी मनाई, लेकिन जब तयशुदा दिन करीब आया जब उन्हें येरूशलम छोड़ना था, तो उन्हें केवल येरूशलम छोड़ने का गहरा दुख और शोक ही दिखा। उन्होंने मसीह की कब्र को अपने आंसुओं से भिगो दिया और दुखी हुए कि वे उसकी रक्षा करते हुए क्यों नहीं मरे। उन्होंने कैलवरी और चर्चों को, जिन्हें वे फिर कभी नहीं देख पाएंगे, रोते और चिल्लाते हुए देखा। उन्होंने एक-दूसरे को गले लगाया और अपने घातक विवादों पर आंसू बहाए और दुख किया।
आखिरकार वह घातक दिन आ गया जब ईसाइयों को येरूशलम छोड़ना था। दाऊद के दरवाजे को छोड़कर, जिससे लोग बाहर जा सकते थे, सभी दरवाजे बंद कर दिए गए। सुलतान सलाहुद्दीन अय्युबी एक सिंहासन पर बैठे हुए ईसाइयों को बाहर जाते हुए देख रहे थे। सबसे पहले बिशप अपनी पादरियों की टोली के साथ आया, जिन्होंने मसीह की पवित्र कब्र के चर्च के आभूषण और चीजों को, और उन खजानों को उठाया जिनकी कीमत एक अरब इतिहासकार के अनुसार इतनी अधिक थी “कि उसकी कीमत केवल अल्लाह जानता था।”
इसके बाद येरूशलम की रानी, नवाब और सवारों (नाइट्स) के साथ बहुत बड़ी संख्या में महिलाएं थीं, जिन्होंने अपने बच्चों को गोदी में उठाया हुआ था और बहुत दर्दनाक चीखें मार रही थीं। इनमें से बहुत सी महिलाओं ने सलाहुद्दीन के सिंहासन के पास जाकर उनसे इस तरह विनती की:
“ऐ सुलतान! क्या आप अपने पैरों में इन युद्धकारियों की महिलाओं, लड़कियों और बच्चों को देख रहे हैं जिन्हें आपने बंदी बना रखा है? हम हमेशा के लिए अपने देश को छोड़ रही हैं, जिसे उन्होंने बहादुरी से बचाया है, और वे हमारे जीवन की आशा थे। उन्हें खो देने में हम अपनी अंतिम आशाएं खो चुके हैं। अगर आप इन्हें हमें दे देंगे (यानी आजाद कर देंगे), तो हमारी निर्वासन की मुश्किलें कम हो जाएंगी और हम धरती पर बे-सहारे नहीं होंगे।”
सुलतान उनकी इस विनती से प्रभावित हुआ और इन दुखी परिवारों की कठिनाइयों को दूर करने का वादा किया। उसने बच्चों को उनकी माताओं के पास वापस पहुंचा दिया और पतियों को उनकी पत्नियों के पास भेज दिया, जो उन बंदियों में शामिल थे। ज़र ख़लासी (फिदिया या जज़िया) का भुगतान नहीं किया गया था। बहुत से ईसाइयों ने अपने बहुत मूल्यवान माल और सामान छोड़ दिया था और कुछ ने कमजोर और बीमार दोस्तों को उठाया था। इस दृश्य को देखकर सुलतान का दिल भर आया। इसलिए उसने अपने दुश्मनों की प्रशंसा की और उन्हें बहुमूल्य उपहार और इनाम दिए।
उसने सभी पीड़ितों पर दया की और हॉस्पिटलर (नवचारी संघ के लोगों) को अनुमति दी कि वे शहर में रहकर ईसाई तीर्थयात्रियों की देखभाल और सेवा करें और उन लोगों की मदद करें जो गंभीर बीमारी के कारण येरूशलम नहीं जा सकते।
कैदियों की रिहाई और दयालुता
जब मुसलमानों ने शहर की घेराबंदी शुरू की, उस समय यरूशलेम में एक लाख से अधिक ईसाई थे। उनके बहुत बड़े हिस्से के पास अपनी स्वतंत्रता खरीदने की क्षमता थी। बलिस्टो, जिसके पास शहर की सुरक्षा के लिए धन था, ने शहरवासियों की स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए इस धन का इस्तेमाल किया। मलिक आदिल के भाई ने 2 हजार कैदियों का फिदिया (जन्माशक्ति या जिज़िया अपने खाता से) अदा किया।
सलाहुद्दीन ने इस उदाहरण का अनुसरण किया और गरीबों और अनाथों की बड़ी संख्या को बेड़ियों से मुक्त कर दिया। वहां कैद में केवल चौदह हजार के करीब ईसाई पादरी बचे रहे, जिनमें चार या पांच हजार कम उम्र के बच्चे थे, जो अपनी पीड़ा से अनजान थे, लेकिन जिनकी किस्मत को लेकर ईसाई और भी अधिक दुखी थे कि ये युद्ध के निर्दोष शिकार (मआज़ अल्लाह) मुहम्मद (सल्ल.) की पूजा में पाले जाएंगे।
एक आधुनिक अंग्रेजी इतिहासकार अपनी संक्षिप्त इतिहास में सलाहुद्दीन के इन उपकारों को अधिक न्याय से मानता है। वह लिखता है:
“गरीब ईसाईयों की स्वतंत्रता प्राप्त करने की हर संभव कोशिश की गई और प्रत्येक बाजार में कर लगाया गया, और इंग्लैंड के राजा का खजाना भी इस साझा फंड में डाल दिया गया। फिर भी एक बड़ी संख्या उन लोगों की रह गई, जो कोई फिदिया (जिज़िया) अदा नहीं कर सकते थे। उनकी दर्दनाक स्थिति पर दया करके, सलाहुद्दीन का बहादुर और उदार दिल भाई आदिल, सुलतान के पास गया और शहर को जीतने में अपनी सेवाओं का हवाला देते हुए कहा:
‘मेरे हिस्से में एक हजार गुलाम दे दिए जाएं।’ सलाहुद्दीन ने पूछा: ‘वह इन्हें किस उद्देश्य के लिए चाहता है?’ आदिल ने उत्तर दिया: ‘जो भी व्यवहार वह चाहे, उनके साथ करेगा।’ फिर बिशप ने जाकर ऐसी ही याचना की और सात सौ लोग पाए, और फिर बलियन को 500 और मिले। तब सलाहुद्दीन ने कहा: ‘मेरे भाई ने अपनी खैरात की है, बिशप और बलियन ने अपनी-अपनी की है, अब मैं अपनी भी करूंगा।’ और उसने आदेश दिया कि शहर में जितने भी बूढ़े लोग थे, उन्हें स्वतंत्र कर दिया जाए।” (इतिहास आर्चर, पृष्ठ 280)
इतिहासकार लेन पोल लिखते हैं
“जब हम सुलतान के इन उपकारों पर विचार करते हैं, तो हमें उन क्रूर हरकतों की याद आती है जो क्रूसेडरों ने यरूशलेम पर कब्जा करते समय की थीं। जब गॉडफ्री और टेंकर्ड यरूशलेम की गलियों से गुजर रहे थे, तो वे मुसलमानों की लाशों से भरी हुई थीं और घायल लोग तड़प रहे थे। जब क्रूसेडरों ने निर्दोष और असहाय मुसलमानों को क्रूर यातनाएं देकर हत्या की, जीवित लोगों को जलाया, और यरूशलेम की छत पर शरण लेने वाले मुसलमानों को तीरों से छलनी करके नीचे गिरा दिया। ईसाइयों की सौभाग्य थी कि सुलतान सलाहुद्दीन के हाथों उन पर दया और कृपा की जा रही थी।”
सुलतान का यरूशलम में प्रवेश
अब उन लोगों का मामला भी देखिए, जो “अहले कुद्स” में से थे और इसके खिलाफ संघर्ष किया था। लगभग सत्तर हजार की संख्या में वे मस्जिद अल-अक्सा में प्रवेश कर गए, जिनकी शान, सभ्यता, और उदारता की यादें मिसाल बन चुकी हैं। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि यह सुलतान अय्युबी जैसे मुस्लिम जनरल की एक “विशेषता” के रूप में मात्र एक “जगमगाहट” है।
सुलतान ने यरूशलम की विजय के बाद ईसाइयों के निशानों को मिटाना शुरू कर दिया और इसमें इस्लामी तरीके को बहाल करना शुरू किया। इमाम इबन अल-असीर के अनुसार:
“यहाँ इस्लाम ऐसा लौटा जैसे वसंत में एक सूखी शाखा में ताजगी लौट आती है। और यह “ऊँचा चिह्न” यानी यरूशलम की विजय, सय्यदुना उमर बिन खत्ताब के बाद सुलतान सलाहुद्दीन अय्यूबी के सिवा किसी को नसीब नहीं हुई। और उनकी अज़मत व रिफअत और सर बलंदी के लिए यही कारनामा ही काफी है। मस्जिद अल-अक्सा की स्थिति को ईसाइयों ने इतना बिगाड़ दिया था कि बिना बड़े बदलाव और सुधार के वहाँ नमाज नहीं पढ़ी जा सकती थी। सुलतान ने सबसे पहले इसकी सुधार का आदेश दिया।”
टेपलर (टेम्पलर) के ईसाइयों ने मस्जिद की पुरानी महराब को पूरी तरह से छुपा दिया था। इसके पश्चिम की ओर एक नया चर्च बनाकर महराब को उसमें डाल दिया था और महराब की दीवार में गायब हो गई थी। महराब के आधे हिस्से पर एक दीवार बनाकर उन्होंने टॉयलेट बना दिया था और आधे को अलग कर के वहाँ अनाज भरने की जगह बना दी थी। सुलतान के आदेश से ये नई दीवारें और पश्चिम की ओर का चर्च गिरा दिए गए और महराब की असली स्थिति को पुनः प्राप्त कर लिया गया, जहाँ इसकी मरम्मत और सुधार की आवश्यकता थी।
मस्जिद को उसकी असली स्थिति में लाकर गुलाब के पानी से, जो दमिश्क से लाया गया था, धोया गया और साफ करके नमाज के लिए तैयार किया गया। मिम्बर रखा गया और महराब की लताओं को लटका दिया गया। कुरआन की तिलावत शुरू की गई और वहीं नमाज पढ़ी जाने लगी। घंटी की आवाज के बजाए अल्लाह की अज़ानें गूंजने लगीं।
4 शाबान को, दूसरे शुक्रवार के दिन, जो नमाज के लिए पहला शुक्रवार था, एक अजीब और शानदार दिन था। खतीबों ने भाषण तैयार किए थे और हर किसी की यही इच्छा थी कि उसे भाषण पढ़ने की अनुमति दी जाए। अनगिनत लोग, हर वर्ग और रैंक के, हर देश और क्षेत्र के, जो सुलतान के साथ थे और हर विज्ञान और कला के प्रसिद्ध व्यक्ति यरूशलम में पहली जुमे की नमाज पढ़ने के लिए एकत्र हुए। सभी के चेहरों पर अत्यधिक उत्साह और दिलों में भावुकता थी।
अज़ान के बाद सुलतान ने काज़ी मुहिउद्दीन अबिल मआली मोहम्मद बिन ज़की उद्दीन क़ुरैशी को मिम्बर पर चढ़ने का इशारा किया। खतीब ने मिम्बर पर चढ़कर इस शैली में भाषण देना शुरू किया कि लोग दीवार की तरह स्थिर और चुप हो गए। श्रोताओं के दिल दहल गए और उनकी आँखों में आँसू आ गए। यरूशलम की पवित्रता और मस्जिद अल-अक्सा के निर्माण से लेकर इसकी विजय तक की घटनाओं को अद्भुत सुंदरता और संक्षेप के साथ प्रस्तुत किया और अल्लाह की कृपा और उपकार का वर्णन करते हुए बगदाद के बादशाह और सुलतान के लिए दुआ की। (إِنَّ اللَّهَ يَأْمُرُ بِالْعَدْلِ وَالإِحْسَانِ) पर समाप्त किया।
पिछले 88 वर्षों के खुतबे और जुमे इस मस्जिद से गायब हो चुके थे। इन क्रूसेडर्स ने अपमानित और शर्मिंदा होकर इसे छोड़ दिया और इंशा अल्लाह हर ज़ालिम, ग़ासिब और पापी का यही अंजाम होगा, जो मुसलमानों को दुख देकर अपनी रातें बिताता है। जब ये मुसलमान सही मार्ग पर चलेंगे और अल्लाह के सामने, अपने इरादों और अपनी नीयत में सच्चे होंगे।
खुतबा समाप्त करने के बाद मिम्बर से उतरकर इमामत की और नमाज अदा करने के बाद सुलतान के इशारे से ज़ीन ज़ैनुल आबिदीन अबू अल-हसन अली बिन नजाह ने उपदेश देने के लिए खड़े हुए और अत्यंत मधुर और प्रभावशाली भाषण दिया जिसमें भय और आशा, खुशी और दुख, विनाश और उद्धार के विषय पर ऐसा अच्छा और प्रभावी उपदेश दिया कि श्रोता फटी-फटी आवाज में रोने लगे और सभी पर एक अजीब स्थिति छा गई। और बाद में सभी ने सुलतान की स्थायी सहायता के लिए दुआ की।
सुलतान नूरुद्दीन जंगी द्वारा बनाया गया मिम्बर
उस दिन जिस मिम्बर पर खुतबा पढ़ा गया था, वह एक साधारण मिम्बर था। सुलतान नूरुद्दीन का मिम्बर उसके बाद वहाँ लाकर रखा गया। सुलतान नूरुद्दीन महमूद बिन जंगी ने इस घटना से तीस वर्ष पहले यरूशलम की इस शानदार मस्जिद में रखने और विजय के बाद उस पर खुतबा पढ़े जाने के लिए एक भव्य मिम्बर तैयार कराया था, जिसे बड़े शिल्पकारों और शिल्पकर्मियों की लंबे समय की मेहनत और बहुत सारा धन खर्च करके बनाया गया था और इसे अपने खजाने में सुरक्षित रखा गया था (यह सोचकर कि जब मैं यरूशलम विजय करूंगा तो इसे इस महराब की सजावट बना दूंगा)
लेकिन सुलतान की यह इच्छा यरूशलम की विजय के बिना पूरी नहीं हुई और मिम्बर वैसे ही पड़ा रहा। सुलतान सलाहुद्दीन ने इसे मंगवाया और मस्जिद अल-अक्सा के महराब में रखवा दिया, और नूरुद्दीन की इच्छा को पूरा किया जो एक हसरत के रूप में दिल में रखकर दुनिया से चल बसे। यरूशलम की इमारतों और अन्य वस्तुओं में परिवर्तन और सुधार किए गए।
क्रूसेडर्स की दिल दहला देने वाली हरकतें
इस्लामी प्रतीकों को समाप्त करके क्रूसेडर सभ्यता और रंग को प्रमुखता देने की बात करते हुए इमाद लिखते हैं कि: पवित्र सखरा पर फ्रेंकियों ने एक चर्च निर्माण कर लिया था। जो उसकी मुस्लिम काल की स्थिति थी, उसे पूरी तरह से बदल डाला और नए निर्माणों में उसे पूरी तरह से छिपा दिया था। इसके ऊपर बड़ी-बड़ी चित्रें लटका दी थीं और चट्टान को खोदकर उसमें भी सूअर आदि की चित्रें बनाई गई थीं। बलिदान की जगह को पूरी तरह से बर्बाद कर दिया था। इसमें गलत वस्त्र भर दी गई थीं और वहाँ भी चित्रें लगाई गई थीं और पादरियों के रहने के स्थान और बाइबिलों का पुस्तकालय बनाया गया था। (इन क्रूसेडर की हरकतों का निराकरण करते हुए) सुलतान ने इन सभी को उनकी असली स्थिति में वापस लाकर ठीक कर दिया।
मकाम ए क़दम ए मसीह
एक जगह जिसे मकाम ए क़दम ए मसीह का स्थान कहते हैं, एक छोटा सा गुंबद बनाकर उस पर सोना चढ़ाया हुआ था। क्रूसेडर्स ने इसके चारों ओर स्तंभ खड़े कर दिए और एक ऊँचा चर्च बना दिया था, जिससे वह गुंबद छिप गया था और कोई इसे देख नहीं सकता था। सुलतान ने इस आच्छादन को हटवाकर इसके चारों ओर एक लोहे की तारों की जाली बनवाकर, उसके चारों ओर दीयों को लगाया जिससे वह स्थान रात को चमकने लगा। वहाँ सुरक्षा के लिए पहरा भी निर्धारित किया गया था।
मरमर की बहुत सारी मूर्तियाँ जो वहाँ से निकल आई थीं, तोड़कर फेंक दी गईं। मुसलमानों को यह देखकर बहुत दुख हुआ कि ईसाई चट्टान के टुकड़े काटकर कस्टेंटिनोपल ले गए थे, जिन्हें वे वहाँ सोने के बराबर बेचते थे और इससे मूर्तियाँ बनवाते थे। सुलतान ने चट्टान की सुरक्षा का प्रबंध किया और उस पर इमाम नियुक्त किया और बहुत सारी भूमि, बाग और मकान इस के लिए वक्फ कर दिए। और हस्तलिखित कुरआन को मोटे अक्षरों में लिखवाकर लोगों के पढ़ने के लिए वहाँ रख दिया।
मस्जिदों और स्कूलों की स्थापना
महराब दाऊद अलैहि सलाम मस्जिद अल-अक्सा से बाहर एक किले में शहर के दरवाजे के पास एक अत्यंत शानदार भवन था और इस किले में यरूशलम का वाली रहता था। सुलतान ने इसकी भी मरम्मत करवाई, दीवारें साफ और सफेद करवाईं और दरवाजों को ठीक करवाया और वहाँ इमाम और मुअज़्ज़िन को रहने के लिए नियुक्त किया। मस्जिदों का निर्माण करवाया और जो भी आवश्यकताएँ लोगों की थीं, उन्हें पूरा किया। इस किले में जो सय्यदुना दाऊद और सय्यदुना सुलैमान के घर थे और तीर्थ स्थल थे, उन्हें ठीक कर दिया।
फकीहों के लिए एक मदरसा स्थापित किया और सुलहा ए किराम के लिए एक अतिथि गृह बनवाया। शिक्षा और अध्यापन के लिए बहुत सारे अन्य स्कूल स्थापित किए और शिक्षकों और छात्रों की सभी आवश्यकताओं का प्रबंध किया। संक्षेप में, यरूशलम की महानता की जितनी भी उम्मीद की जा सकती थी, सुलतान ने उससे भी अधिक ध्यान दिया।
और यरूशलम के साथ सुलतान की यह उदारता और इस्लामी रुचि केवल उनकी व्यक्तिगत उपाधि तक ही सीमित नहीं रही। इसके बाद, उनके भाई आदिल और उसके बेटे और उत्तराधिकारी ने यरूशलम की महानता और सम्मान को बढ़ाने के लिए और भी बड़े कार्य किए और इस पवित्र स्थल के साथ अपने सम्मानित संबंध को अंत तक निभाए रखा।
इस शुभ विजय के लिए सुलतान के पास सभी मुस्लिम शासकों से और हर ओर से संदेश और बधाई पत्र आए। कवियों ने उसकी प्रशंसा में अनगिनत कविताएँ लिखीं जो अपने आप में एक विशाल पुस्तक है।
जंगी मैदानों में फतह दर फतह
सुल्तान एक लंबी अवधि तक बैतुल मुकद्दस में रहकर राज्य के मामलों की देखरेख करते रहे और इस पवित्र व विजय के फल का आनंद उठाते रहे। प्रमुख और मज़बूत किलों में से ‘सूर’ का किला ईसाइयों के कब्जे में रह गया था, और सुल्तान इसे जीतने की योजना बना रहे थे। सैफुद्दीन अली बिन अहमद शफूब, जो ‘सूर’ के पास सैदा और बेरूत में सुल्तान के प्रतिनिधि थे, ने सुल्तान को पत्र लिखकर सूर का घेराव करने के लिए प्रोत्साहित किया। सुल्तान 2 शाबान को शुक्रवार के दिन वहां पहुंचे और सूर का घेराव शुरू कर दिया।
सूर के किले को पानी ने घेरने वालों के हमलों से बहुत कुछ बचा लिया था, फिर भी सुल्तान तेरह दिनों तक घेराव किए रहे। इन दिनों में समुद्र में ईसाइयों और मुसलमानों के जहाजों के बीच मुकाबला चलता रहा और एक दूसरे की हार-जीत होती रही। जब घेराव लंबा खिंच गया, तो लोग राशन की कमी और कड़ाके की ठंड से परेशान हो गए और सुल्तान से घेराव उठाने की गुहार लगाने लगे।
सुल्तान और कुछ अमीरों, जैसे कि फकीह ईसा और हुसामुद्दीन और इज्जुद्दीन जर्दिक की राय थी कि जब किले की दीवार टूट चुकी है और बहुत मेहनत और धन खर्च हो चुका है, तो बिना किला जीते इसे छोड़ना नहीं चाहिए। लेकिन अधिकांश लोग निराश हो गए थे, और अंततः सुल्तान ने घेराव उठाने का निर्णय लिया। आखिरकार, शवाल के महीने में कड़ाके की ठंड के बीच वहां से प्रस्थान किया। सूर के घेराव के दौरान हूनैन को फतह कर लिया गया था, और सुल्तान ने बदरुद्दीन बलारम को वहां का हाकिम बना कर भेज दिया और खुद अक्का में कुछ समय तक व्यवस्था और जनकल्याण के कार्यों में व्यस्त रहे।
सुल्तान की आगमन की खबर सुनकर आक्रमणकारी फ्रैंक्स भाग निकले
584 हिजरी की शुरुआत में, यानी मध्य मुहर्रम में, सुल्तान अक्का से ‘हिस्न कोकब’ की तरफ रवाना हुए और वहां पहुंचकर उसका घेराव शुरू किया, लेकिन कठिनाईयों की वजह से इसे स्थगित करना पड़ा। वहीं कुछ प्रांतों के शासकों के दूतों ने उनसे मुलाकात की और इसके बाद वह दमिश्क की ओर रवाना हो गए, जहां वह 6 रबीअल अव्वल को पहुंचे। सुल्तान चौदह महीने बाद दमिश्क लौटे और कुछ दिनों तक रुकने की योजना बनाई, लेकिन पांचवें दिन अचानक खबर मिली कि फ्रैंक्स ने ‘जुबैल’ पर हमला किया है और उसका घेराव कर लिया है। यह खबर सुनते ही आपने अपनी सेनाओं को बुलाया और सीधा जुबैल की तरफ चल दिये, लेकिन अभी रास्ते में ही थे कि फ्रैंक्स ने उसकी आने की खबर सुनते ही वहां से भाग खड़े हुए और लौट गए।
सुल्तान को इमादुद्दीन और मोसुल की सेना और मोजफरुद्दीन की हलब से उसकी सेवा में, जिहाद के लिए आने की खबर मिली। इसलिए वह ऊपरी तट की ओर ‘हिस्न अल-अकराद’ की ओर बढ़े और उसके सामने एक ऊंचे टीले पर ठहर गए और राजकुमार मलिक जहीर और मलिक मुजफ्फर को संदेश भेजा कि वे दोनों तिज़ीन पर इकठ्ठा हों और ‘अंताकिया’ के सामने जाकर रुकें और उस दिशा से दुश्मन के हमले का ध्यान रखें।
सुल्तान हिस्न अल-अकराद को फतह करने की योजनाएं बनाता रहे, लेकिन कोई उपाय सफल नहीं हुआ। दो बार ‘त्रिपोली’ पर आक्रमण किया और फिर अपनी सेना के छुट्टी पर जाने के बाद उनके फिर से एकत्र होने का इंतजार करने के लिए दमिश्क चले आए, और वहां कुछ समय तक रहकर न्याय और राज्य के प्रबंधन और जंग की तैयारी में व्यस्त रहे।
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जब फ़ौजों के जमा होने का वक़्त आ गया, तो वह बलाद-ए-बालाई साहिल (ऊपरी तटीय क्षेत्रों) को फतह करने के इरादे से उस तरफ़ रवाना हुए। रास्ते में उन्हे ख़बर मिली कि इमादुद्दीन से बड़े तपाक से मुलाकात कर के उसके लश्करों को अपने लश्कर में शामिल कर के हसन अल-अकराद के क़रीब जा उतरे। अरब के क़बीलों ने भी साथ दे दिया। इस तरह, वह हसन अल-अकराद के आस-पास के किलों को फतह करते चले गए। 6 जमादी अल-अव्वल को अल-तरतूस को घेर लिया और उसे फतह कर के जबला की तरफ़ बढ़े।
वहां पहुंचते ही शहर पर क़ब्ज़ा हो गया, मगर अहल-ए-किला (किला में रहने वाले लोग) मुकाबला करने के लिए तैयार रहे। 19 तारीख़ को जब अहल-ए-किला थक गए, तो उन्होंने अमान (सुरक्षा) मांगी, जिसे सुल्तान ने दे दी, और किले पर कब्जा कर लिया। 23 जमादी अल-अव्वल तक वहां ठहर कर, सुल्तान ने लाज़क़िया का रुख़ किया और रात तक उसके करीब पहुंच गए। फ़रंगी (यूरोपीय) सुबह ख़बर पाकर किलों में पनाह ले गए। ये तीन किले एक ऊंचाई पर थे। मुसलमानों की फ़ौज ने सुरंग लगाना शुरू किया और किले की जड़ों को उखाड़ डाला। तीसरे ही दिन, अहल-ए-किला ने अमान मांगी और शहर छोड़ देने या जज़िया (टैक्स) अदा करने की शर्त पर अमान दी गई।
लाज़क़िया की फतह
लाज़क़िया एक बहुत ही खूबसूरत और आबाद शहर था। इमारतें पक्की और आलीशान थीं। आस-पास के बाग़ात बहुत ही दिलकश और हरे-भरे थे। चारों तरफ़ नहरें बह रही थीं। बड़े-बड़े आलीशान गिरजे (चर्च) जिनकी दीवारों पर संग-ए-मरमर (मार्बल) जड़े हुए थे और उन पर तस्वीरें नक्काशी की गई थीं। मुसलमानों ने उन तस्वीरों को मिटा दिया और कुछ मकानात (इमारतों) को भी गिरा दिया, जिसका बाद में उन्हें बहुत अफ़सोस हुआ।
लाज़क़िया के ईसाइयों ने वतन की मुहब्बत के कारण इसे छोड़ कर जाना गवारा नहीं किया और जज़िया देना क़बूल कर वहीं रहना पसंद किया। सुल्तान जब शहर में दाख़िल हुआ, तो उनसे मुहब्बत और दिलासा देने की बातें कीं और उनकी तसल्ली और तशफ्फि की। शहरों और बाज़ारों की सैर कर के, लाज़क़िया की बंदरगाह को देखने के लिए गया और ऐसे खूबसूरत शहर के फतह होने पर अल्लाह का शुक्र अदा किया। सैफ़-उल-इस्लाम को एक ख़त में लिखते हैं
“लाज़क़िया एक बहुत ही दिलकश और वसी (फैलाव वाला) शहर है। इसकी इमारतें खूबसूरत और आकर्षक हैं और इसके आसपास के बाग़ात और नहरें बहुत ही दिलफरेब हैं। यह शहर साहिल के तमाम शहरों में सबसे खूबसूरत और पक्की इमारतों वाला है, और समुंदर के इस साहिल की बंदरगाहों में कोई भी इतनी खूबसूरत नहीं है। जहाज़ों के ठहरने की जगह बहुत ही मुनासिब और मोजूं है।”
हैबतनाक खंदक वाले किले की फतह (जीत)
27 जमादी अल-अव्वल को सुल्तान ने लाज़क़िया से सियहून की तरफ़ रुख किया और 29 को वहां पहुंच कर घेराव डाल दिया। सियहून का किला बहुत ही पक्का और ऊंचा था, मानो आसमान से बातें कर रहा हो। इसके चारों तरफ़ बहुत ही गहरी और हैबतनाक (भयानक) खंदक थी, जिसका चौड़ाई 120 गज़ थी और ऐसा लगता था कि किला मुश्किल से फतह होगा। तीन दीवारों से शहर घिरा हुआ था, मगर जब मुनाजिक (सुरंग खोदने वाले) ने काम शुरू किया, तो दीवार का एक बड़ा हिस्सा गिर पड़ा और अंदर जाने का रास्ता बन गया।
सुल्तान ने खुद पेशकदमी की और फ़ौज ने अल्लाहु अकबर के नारे बुलंद कर के दीवार पर चढ़ना और जंग शुरू कर दी, और इतनी जान लगाकर लड़े कि ईसाइयों की हिम्मत टूट गई और वे अमान मांगने लगे। सुल्तान ने अहल-ए-शहर को उन्हीं शर्तों पर, जो अहल-ए-यरुशलम (यरुशलम के लोग) के लिए तय हुई थीं, अमान दे दी और किले पर कब्जा कर के वहां इंतज़ाम और व्यवस्था के लिए हुक्काम का तैनाती कर दी। वहां से सुल्तान बकास की तरफ़ रवाना हुए और बकास, अशफ़र और सरमानिया को भी इसी तरह फतह कर लिया।
मुस्लिम माज़लूम क़ैदियों पर आज़ादी और राहत के दरवाज़े खुलते हैं
एक इतिहासकार कहता है कि:
”सुल्तान की फतहें जबला से लेकर सरमानिया तक तमाम एक ही हफ्ते में, शुक्रवार के दिन, हुईं। और यह शायद उस वक्त (ख़तीबों की दुआओं की क़ुबूलियत थी, जो वह मिम्बरों पर सुल्तान के लिए मांगा करते थे। इन फतह किए गए इलाक़ों में हर जगह पर, मुसलमान क़ैदी मिलते थे, जिन्हें सलीबियों ने ज़ुल्म और सितम का शिकार बना कर क़ैदखानों में डाल दिया था। फतह के बाद, सुल्तान की तरफ से ये मुसलमान क़ैदी सबसे पहले आज़ाद कर दिए जाते थे।”
पहाड़ की चोटी पर स्थित मज़बूत क़िला की फतह
सुल्तान वहां से फारिग होकर हसन बजरिया की तरफ़ चले, जो एक ऊँचे पहाड़ की चोटी पर एक बहुत ही मजबूत और मज़बूत क़िला था। इसकी कठिन राहों और मजबूती के कारण लोगों में मशहूर हो चुका था कि इस क़िला को कोई फतह नहीं कर सकता। सुल्तान को इन मुश्किलों ने इसे फतह करने के लिए और ज़्यादा उत्साहित किया, और 25 जमादी-उल-आखिर को वहां पहुंच कर मनाजीक (पत्थर फेंकने वाली मशीन) से हमला शुरू कर दिया। दो दिन तक कोई लाभदायक परिणाम नहीं निकला, तो सुल्तान ने फौज को तीन हिस्सों में बांटकर हर एक को बारी-बारी से हमला करने का काम सौंप दिया।
पहले दिन इमादुद्दीन वाले लश्कर की बारी थी। उसने बहुत बहादुरी से हमला किया और लड़ाई की, लेकिन कोई खास सफलता नहीं मिली। दूसरे दिन सुल्तान की खुद की बारी थी। सुल्तान ने फौज के बीच खड़े होकर नारा-ए-तकबीर बुलंद किया और फौज ने एकजुट होकर अचानक हमला किया और दीवार पर चढ़ गए और फिरंगियों से सख्त लड़ाई लड़ी। आखिरकार, ईसाई हार गए और मजबूर होकर अमान मांगने लगे। इस क़िला की फतह के बाद, बहुत सारे लोग जिज़िया देकर निकले।
क़िले का हाकिम एक ईसाई और अंताक़िया के हाकिम का रिश्तेदार था। सुल्तान ने उससे नर्मी और नरमदिली से पेश आया और उसकी इच्छा के अनुसार उसे उसके सभी रिश्तेदारों के साथ इज़्ज़त के साथ अंताक़िया भेज दिया। एक दूसरी रिवायत यह है कि क़िला की हाकिमा अंताक़िया के हाकिम की पत्नी थी और क़ैदियों में वह और उसकी बेटी भी गिरफ्तार हुई थी। जब सुल्तान को यह पता चला, तो उसने उन्हें उनके खादिमों के साथ आज़ाद कर दिया और तोहफे और इनाम देकर अंताक़िया रवाना कर दिया। इसके बाद, सुल्तान ने इसी तरह हसन, दर बसाक और बगरास के क़िलों को भी फतह किया। यह आखिरी दो क़िले थे जो अंताक़िया के आसपास थे, और इनकी फतह के बाद अंताक़िया अकेला रह गया। इस प्रकार अंताक़िया के हिस्से-किस्से काट दिए गए और वह कमज़ोर और बेबस हो गया।
सुल्तान अब अंताक़िया की दीवारों के नीचे पहुंच गया था और थोड़ी सी कोशिश से अंताक़िया फतह हो सकता था। लेकिन मुस्लिम फौजें लगातार कठिनाइयों और लड़ाइयों से थक गई थीं। वतन की मोहब्बत उन्हें खींच रही थी, केवल गरीबों की हिम्मत ही कमजोर नहीं हो गई थी, बल्कि इमादुद्दीन सिंजर भी बेचैनी से छुट्टी मांग रहे थे।
रमज़ान के महीने में सुल्तान के जंगी अभियान
अंताक़िया के हाकिम के दूत सुल्तान के पास सुलह की दरख्वास्त करने के लिए आए थे। सुल्तान को अपनी फौज के आराम की जरूरत ने सुलह की दरख्वास्त को मंजूर कर लिया, और सर्दियों के मौसम को 8 महीने के लिए अंताक़िया के हाकिम से सुलह कर ली। एक शर्त यह तय हुई कि अंताक़िया में सभी मुस्लिम क़ैदी रिहा कर दिए जाएंगे। दमिश्क पहुंचने पर रमज़ान का महीना आ गया। यह एक प्राकृतिक बात थी कि आराम किया जाए, लेकिन सुल्तान की जबरदस्त हिम्मत और जिहाद का शौक़ उसे आराम करने की तरफ़ माइल नहीं होने देता। आसपास के कुछ और क़िलों में से, हौरान के इलाके में सफ़द और कौकब नाम के दो क़िले अभी भी गैर-मुफ़्तुहा (फतह नहीं हुए) बाकी थे। इन दिनों में उन्हें फतह करने का इरादा कर लिया।
मक्का और मदीना पर हमला करने के खुआइशमंदों को जंगी प्रहार
जिस समय सुल्तान अंतेओकिया (Antioch) के इलाकों में ईसाई शहरों को जीत रहे थे, उसी समय मलिक आदिल करक के आस-पास के इलाकों में ईसाइयों से जंग कर रहे थे। खास तौर पर करक में, उन्होंने अपने ससुर सादउद्दीन क़स्बा के नेतृत्व में एक सेना भेजी, जिसने ईसाइयों को घेर कर तंग कर दिया। अंततः ईसाइयों को सहायता और रसद न मिलने के कारण मजबूर होकर मलिक आदिल से अमान (क्षमा) मांगनी पड़ी, जिसे उन्होंने दे दी। इस तरह से करक का किला मुसलमानों के कब्जे में आ गया। करक की जीत मुसलमानों के लिए एक बड़ी सफलता थी। इमाद ने एक पत्र में लिखा:
“करक पर मुसलमानों का कब्जा हो गया। यह वही किला है, जिसके शासक ने हिजाज़ (मक्का और मदीना) पर हमला करने और इसे जीतने का इरादा किया था। अल्लाह ने उसे नीचा दिखाया और उसे हमारे फंदे में ऐसा फंसा दिया कि वह मुश्किल से अपनी जान बचा सका और मुक्त होने को उसने बड़ी राहत समझी। (करक का शासक हत्तीन की लड़ाई में कैद हो गया था और करक की जीत के बाद सुल्तान ने उसे छोड़ दिया था।) हमने साल की शुरुआत में उसे मौत का स्वाद चखा दिया था। अब हम उस किले के मालिक बन गए हैं, जिसके बारे में उसने उसी साल बड़े दावे किए थे। कुफ्र ने हार मानकर इस्लाम के पैरों पर गिर गया और इस किले की जीत से इस्लाम का परचम बुलंद हो गया।”
बारिश, कीचड़, दलदल और पानी के बीच खाईयों से घिरे किले की ओर बढ़ना
करक की जीत के बाद, सिर्फ दो किले, सफद और करक, बचे थे। सुल्तान ने रमज़ान के महीने में आराम करने के बजाय इनको जीतने के लिए जिहाद करना पसंद किया और रमज़ान की शुरुआत में दमिश्क से सफद के लिए रवाना हो गए। किला ऊँचाई पर स्थित था और गहरी खाईयों से घिरा हुआ था। बारिश के कारण घेराबंदी में ज्यादा प्रगति नहीं हो पा रही थी। चारों ओर पानी भरा हुआ था और कीचड़ में चलना मुश्किल था। लेकिन सुल्तान इस जिहाद में पूरी तत्परता और उत्साह के साथ लगे हुए थे।
उन्होंने इस कठिनाई को राहत और मुसीबत को आनंद समझा। कोई भी कठिनाई उन्हें उनके इरादे से नहीं रोक सकी और कोई भी ताकत उन्हें थका नहीं सकी। दिनभर वह सेना के साथ हमले में शामिल रहते और रात में मंझनीक (catapult) लगाने के काम को अपनी हर समय जागी हुई आँखों से देखते थे।
सफद की मदद के लिए ईसाइयों ने सूर से कुछ सेना भेजी थी, जो घाटियों में छिपी हुई थी। एक मुस्लिम अमीर शिकार खेलने गया और उसने इनका पता लगा लिया। मुस्लिम सेना के सैनिकों ने इन क्रूसेडरों का शिकार कर डाला, और उनमें से एक भी बचकर भाग नहीं सका। हालांकि, सुल्तान ने उनके साथ नरमी का व्यवहार किया और उन्हें छोड़ दिया।
सफद का किला जीत लिया गया और सुल्तान क़िलात-उल-क़ौक़ब की ओर बढ़े। यह किला ऊँचाई पर स्थित था और वास्तव में एक सितारे के समान था, जिसे अरबी इतिहासकार चाँद की मंजिल से तुलना करते हैं। लेकिन सुल्तान की हिम्मत के चलते, बारिश और अन्य कठिनाइयों के बावजूद, इसे भी जीत लिया गया।
कोकब की जीत ने मुस्लिम विजयों की पूरी श्रृंखला को एक साथ जोड़ दिया। इमाद ने बगदाद सुल्तान के नाम एक पत्र में लिखा
“अब हमारे लिए पूरे ममलकत-ए-क़ुद्स (बैत-उल-मक़दिस) की सीमा में मिस्र, अरीश से लेकर हिजाज़ के देशों तक का रास्ता खुल गया है, जिसमें समुद्री किनारे का इलाका, आमलिया और बेरूत तक शामिल है। इस ममलकत में अब सिवाय सूर के कोई जगह बिना फतेह नहीं बची है। और अनातोलिया (Anatolia) के सभी किले हमारे कब्जे में आ गए हैं। अब सिर्फ अंतेओकिया और कुछ छोटे किले बचे हैं। कोई ऐसा क्षेत्र नहीं बचा है जिसके आसपास के इलाके में से सिर्फ जबील को ही फतेह करना बाकी है। कुछ समय बाद इसे भी फतेह कर लिया जाएगा। इसे अल्लाह के अज़ाब से बचाने वाला कोई नहीं है। मेरा इरादा इस पर हमला करने का पक्का हो गया है और इसकी हदों में बैत-उल-मक़दिस की ओर जबील से लेकर अस्कलान तक फौजें और युद्ध सामग्री जमा कर दी गई हैं। मेरा बड़ा बेटा अफजल इस क्षेत्र की रक्षा और देखरेख के लिए नियुक्त है, और मेरा छोटा बेटा उस्मान मिस्र और उसके आसपास के इलाकों के प्रबंधन के लिए नियुक्त है।”
सुल्तान द्वारा बैत-उल-मक़दिस में ईद-उल-अज़हा की अदायगी
इन विजयों के बाद सुल्तान मलिक आदिल को साथ लेकर बैत-उल-मक़दिस के लिए रवाना हुए और ईद-उल-अज़हा तक वह वहीं पर व्यवस्था और प्रबंधन में व्यस्त रहे। इसके बाद वह असकलान गए और राज्य के प्रबंधन, कानून व्यवस्था, और प्रजा की स्थिति की जांच में व्यस्त रहे, और आवश्यक आदेश जारी किए। सुल्तान ने मलिक आदिल को शाहजादा अजीज उस्मान के साथ मिस्र भेज दिया और खुद अक़्का (Acre) के इलाके की ओर गए।
वहाँ सुल्तान ने सेनाओं का निरीक्षण किया, नई सेनाओं की भर्ती की और सरहदों की हिफाजत के लिए सेनाओं को नियुक्त कर रवाना किया। अक़्का की सुरक्षा और हिफाज़त के लिए निर्माण कार्यों की प्रगति, जो बहाउद्दीन कराकुश की देखरेख में हो रहे थे, का जायजा लिया और खुद दमिश्क के लिए रवाना हुए। वहाँ जाकर अधिकारियों के तबादलों और नियुक्तियों के बारे में आदेश जारी किए और ज़रूरी इंतज़ाम पर ध्यान केंद्रित किया।
बैत-उल-मक़दिस पर स्थापित महान क्रॉस को बगदाद भेजना मध्य माह 585 हिजरी में बगदाद दरबार का एक दूत सुल्तान के पास आया, और उसकी वापसी पर सुल्तान ने अपना दूत उसके साथ भेजा। उसने अद्भुत और दुर्लभ उपहारों के साथ ईसाई कैदियों, लूट के कीमती सामान, ईसाई राजा के ताज और वस्त्र, और सबसे महत्वपूर्ण, वह महान क्रॉस जो सखरा-ए-मुक़द्दस पर स्थापित था, को बैत-उल-मक़दिस की महान विजय के प्रतीक के रूप में राजा की सेवा में भेज दिया।
कुछ और महान जंगी कारनामे
यहां कुछ अन्य महान उपलब्धियां हैं जो सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी ने अपने जीवन के अंतिम वर्षों के दौरान हासिल कीं, जो शायद छह साल से अधिक नहीं रही होंगी, और वे विभिन्न उपलब्धियों से भरी हैं, कुछ इल्मी, कुछ राजनीतिक .और उनके अलावा कुछ और भी. मैं अपने आप को कुछ सैन्य सफलताओं तक ही सीमित रखूंगा जो मैंने बैत अल-मकदीस की विजय के संबंध में पीछे इशारा किया है, और वे हैं:
तिबरियास, अल-नासरा, अर्सुफ, हुनान, जबलाह, अल-टार्टस, अल-लताकिया, नब्लस, अल-बिराह, हसन अल-अंसारी, हसन अल-अराज़िया, अल-बुर्ज अल-अहमर, हसन अल-खिल, ताल अल -सफिया, किला अल-हबीब अल-फकानी, अल-हबिट अल-तहतानी, अल-हसन अल-अहमर, लड्ड, कलनोसा, अल-क़कून, क़ायमुन, अल-करक, किला अशुबक, किला अल-अमीस, अल-। वहीरा, किला अल-जाम, किला अल-तफिलाह, किला अल-हरम्स, सफद, सीन बज़ूर, सीन इस्कंदरुना, टायर और अक्का के बीच किला अबी अल-हसन, अल-मरकिद, ऊपरी तट पर एक शहर, सीन मिहोर (जबला) और (मरक़िब के बीच) बलनियास, सिय्योन, बलाटन, सीन अल-जमाहिर, किला अल-ज़ू, बिकास, अल-शगर, बैक्सरेल, अल-सरमानिया, किला बरज़िया, दरबासाक (एंटिओक के पास), बफ़्रास (बेरूत की भूमि में) , अल-दामुर (सैद आका के पास), अल-सुफंद।
सलाह उद्दीन अय्यूबी और उनके शिक्षक नूर उद्दीन से पहले, क्रूसेडर्स ने जॉर्डन नदी और भूमध्य सागर के बीच के सभी क्षेत्रों को जीत लिया था, यहां तक कि मुसलमानों को भी। एक शोधकर्ता के अनुसार. जॉर्डन नदी के पश्चिमी तट पर एक वर्ग सेंटीमीटर जगह भी नहीं बची थी, बल्कि इसके विपरीत, नदी के पूर्वी तट पर क्रूसेडर किले और गढ़ थे, जैसे किर्कुक और अल शुबक आदि। सुल्तान ने हिम्उमत से काम लिया और अल्लाह के फाजलो करम से और इस्लामी गुणों से उन्होंने सूर (टायर) और “याफ़ा” के बीच तट पर छोटे-छोटे हिस्सों में सीमित कर दिया।
अगर अल्लाह ताला ने उन्हें कुछ और मोहलत दे दी होती और 579 हिजरी में उनकी मौत न हुई होती तो वह और भी हैरतअंगेज कारनामे करते। लेकिन फिर भी उन्होंने जो किया, निश्चित रूप से सुल्तान सलाह उद्दीन, इन आक्रमणकारियों और इस्लामी देशों पर कब्जा करने वाले हड़पने वालों को देश से बाहर निकालने के लिए, उनके समुद्री रास्ते पर और उन्हें उनके देश यूरोप में वापस करने के लिए। वह अक्सर इनजैसे महत्वपूर्ण मुद्दों के बारे में सोचते थे, ताकि वह इन क्षेत्रों को इस्लामी शिक्षाओं से रोशन कर सकें और जाहिलिया के अंधेरों से उन्हें मुक्त कर सकें,
एक बार वो अपने वज़ीर इब्ने शद्दाद से हम कलाम हुए उनकी बातचीत इस तरह हुई
क्या मैं तुम्हें कुछ बताऊं?
इब्न शद्दाद ने कहा: हाँ, बिल्कुल!
सुल्तान सलाहुद्दीन ने कहा:
“मेरे दिल में आता है कि अल्लाह ताअला तट के बचे हुए इलाकों पर कब फतह करवाएगा, जब मैं पूरे देश पर नज़र डालता हूं तो मेरे दिल में आता है कि लोगों को अलविदा कहूं, घने जंगलों में पहुंचूं। समुद्र की पीठ पर सवार होकर प्रत्येक द्वीप पर पहुँचू, मैं धरती का हर कोना छान मारूं, और धरती पर उन लोगों को ज़िंदा ना छोडूं जो अल्लाह के साठ कुफ्र करते हैं, अन्यथा मैं स्वयं शहीद हो जाऊँगा अल्लाहु अकबर!
सलाहुद्दीन अय्यूबी का मुजाहिदाना जीवन
ऐसा लगता है कि जीवन के अंतिम वर्षों में, अल्लाह तआला ने उनके दिल से दुनिया की हर रुचि और पसंदीदा चीज़ को निकाल दिया था और जिहाद उनके लिए इतना प्रिय बना दिया था कि केवल जिहाद का जोश ही उनके दिल और दिमाग पर छा गया था। अल्लाह तआला ने कठिनाइयों और समस्याओं को उनके लिए आसान बना दिया था, जिससे उनके जीवन के ये वर्ष जंगी खेमों में या फिर घोड़ों की पीठ पर ही बीते,
दुश्मनों से लड़ते हुए या उनका घेराव करते हुए, या फिर उनके किलों और आश्रयों को जीतते हुए। जो व्यक्ति शाम (सिरिया) के क्षेत्र और वहाँ की सर्दियों की कठोरता से परिचित है, वह अच्छी तरह समझ सकता है कि कैसे सलाहुद्दीन ने अपने रब की रज़ा और दीन को प्रबल देखने के लिए इन कठिन परिस्थितियों में जीवन व्यतीत किया होगा।
हम इब्न शद्दाद से सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी रहमतुल्लाह की जीवन की एक और स्पष्ट मिसाल भी सुनते हैं। वह कहते हैं:
“584 हिजरी के रमज़ान के पहले ही सुल्तान दमिश्क से सफ़द की ओर चल पड़े। उन्होंने इस पवित्र महीने में अपने बीवी-बच्चों, घर और देश की ओर कोई ध्यान नहीं दिया, बल्कि उनकी ओर मुड़कर भी नहीं देखा, जबकि इस महीने में व्यक्ति जहाँ भी गया हो, अपने परिवार के साथ समय बिताने के लिए लौट आता है। ऐ अल्लाह! उन्होंने ये सब कुछ तेरी रज़ा के लिए सहन किया, उन्हें अजरे अज़ीम आता फरमा (आमीन)
इस पवित्र महीने में अल्लाह का यह शेर सफ़द तक पहुँच गया, जो एक मजबूत और सुरक्षित किला था जिसे हर ओर से घाटियों ने घेर रखा था। इसके बावजूद उन्होंने वहाँ पहुँचकर मंजनीक तयार कर दिए। बारिश अपने शबाब पर थी, घाटियों में मिट्टी बहुत धँसी हुई थी, जिस पर पैर रखने से आदमी धंस जाए बारिशों के साथ ओलावृष्टि भी बेहद तीव्र थी। लेकिन ये सब कुछ उनकी यलगार के सामने और सेना की तैनाती में कोई रुकावट पैदा नहीं कर सका। एक रात, मैं भी उनके साथ था, और उन्होंने स्वयं पाँच मंजनीक स्थापित करने के लिए विभिन्न स्थानों का निरीक्षण किया। उसी रात, उन्होंने फरमाया:
‘इन पाँचों को स्थापित करने से पहले हम नहीं सोएंगे।’ फिर एक-एक दल को एक-एक मंजनीक सौंपा और उनके और मंजनीक स्थापित करने वालों के बीच दूत लगातार आते-जाते रहे। जब तक मंजनीक स्थापित नहीं हो गए और सुबह नहीं हुई, हम उनकी सेवा में लगे रहे।”
और मैंने सुल्तान को एक हदीस सुनाई और उससे उन्हें खुशखबरी दी:
“दो आँखें हैं जिन्हें दोज़ख की आग छू नहीं सकेगी: एक आँख जिसने अल्लाह की राह में पहरा देते हुए जागकर रात बिताई, और दूसरी आँख जिसने अल्लाह के डर से आंसू बहाए।”
फिर सफ़द के उन क्रूसेडरों के खिलाफ लड़ाई जारी रही, यहाँ तक कि वे सुल्तान के हुक्म के सामने आत्मसमर्पण कर गए।
घातक बीमारी भी घोड़े की पीठ से नीचे नहीं उतार सकी
सलाहुद्दीन को “दर्दों” की बीमारी भी हो गई थी, इसके बावजूद वह युद्ध के मैदान में चीख-पुकार और पकड़-धकड़ में लगे रहे। यह केवल अल्लाह की बारगाह से सवाब चाहते हुए था। इब्न शद्दाद से हम उनके धैर्य और स्थिरता के बारे में एक और पहलू भी सुनते हैं जब सलाहुद्दीन रहमतुल्लाह साठ-सत्तर साल की उम्र के बीच थे। वह घटना बताते हुए कहते हैं:
“मैंने खुद ‘अक्का’ की चारागाह में देखा कि सुल्तान की बीमारी की तकलीफ चरम पर पहुंच गई थी। यह बीमारी फोड़ों की वजह से उनके शरीर के मध्य भाग को प्रभावित कर चुकी थी, जिसकी वजह से वे बैठ भी नहीं सकते थे। वह अपने एक पहलू पर टिके हुए खेमे में खाना खा रहे थे, जबकि वह उस समय खेमे में होते हुए भी दुश्मन के बहुत करीब थे। यह बीमारी उन्हें अपने दाहिने, बाएँ और मध्य सेना को संगठित करने से नहीं रोक सकी। इस बीमारी की तीव्रता के बावजूद, वे सुबह की नमाज़ से लेकर ज़ुहर तक और फिर असर से लेकर मगरीब तक घोड़े की पीठ पर बैठते, अपनी सेना के विभिन्न दलों के पास पहुँचते, उन्हें आदेश देते, जिहाद से संबंधित मना चीज़ बयान करते, और उन्हें अल्लाह की राह में शहीद होने की भावना से प्रेरित करते। उनकी अपनी स्थिति यह थी कि वे दर्द और फोड़ों की चुभन को सहन कर रहे थे।”
हमें उनकी हालत पर हैरानी और ताज्जुब हुआ करता था, तो वह कहा करते थे कि घोड़े की पीठ से नीचे उतरने तक यह दर्द महसूस ही नहीं होता। इसमें कोई शक नहीं कि यह अल्लाह तआला की एक खास इनायत थी और उस इस्लामी हुक्म की बरकत थी, जिसके लिए वह जिहाद कर रहे थे। अल्लाह तआला खुद फरमाते हैं जिसे उनके रसूल मुहतरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने रब से हदीस-ए-कुदसी में बयान किया है:
“मेरा बंदा लगातार नफिल नमाज़ों (स्वैच्छिक इबादतों) की अदायगी से मेरा क़रीब आता रहता है, यहाँ तक कि मैं उसे अपना महबूब बना लेता हूँ। फिर जब मैं उससे मोहब्बत करता हूँ तो मैं उसका वह कान बन जाता हूँ जिससे वह सुनता है, उसकी वह आँख बन जाता हूँ जिससे वह देखता है, वह हाथ बन जाता हूँ जिससे वह पकड़ता है, उसकी वह टांग बन जाता हूँ जिससे वह चलता है। अगर वह मुझसे कुछ माँगता है, तो मैं उसे ज़रूर अता करता हूँ, और अगर वह मुझसे पनाह माँगता है, तो मैं उसे ज़रूर पनाह देता हूँ।”
और अल्लाह क़ुरआन में इस तरह भी फरमाता है:
”والذين جاهدوا فينا لتهدينھم سبلنا وإن الله لمع المحسنين۔”
”और जिन्होंने हमारे लिए कोशिश की (या जिहाद किया,), हम उन्हें निश्चित रूप से अपने क़रीब के रास्ते दिखाएंगे। और निःसंदेह, अल्लाह अपनी मदद से भले लोगों के साथ है।””
सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी की वफात
जिहाद के कठिन जीवन और लगातार की तकलीफों ने सुल्तान को स्थायी रोगी बना दिया था। बीमारी की तीव्रता के कारण रमज़ान के कई रोज़े कज़ा हो गए, मगर जिहाद नहीं छूटा। जब मौका मिला, तो कज़ा रोज़े पूरे करने शुरू कर दिए। चिकित्सक ने उनकी तकलीफ का ध्यान रखते हुए उन्हें मना किया, लेकिन सुल्तान ने यह कहते हुए कि “न जाने आगे क्या हालात पेश आएं”, सारे कज़ा रोज़े पूरे किए।
589 हिजरी के मध्य में बीमारी ने तीव्र रूप धारण कर लिया और वफात से तीन दिन पहले बेहोशी की हालत हो गई। ऐसा लग रहा था जैसे बीस साल का थका हुआ मुजाहिद आराम कर रहा है। 27 सफर की सुबह का तारा आकाश पर उभरा, तो सुल्तान की नब्ज़ डूब रही थी। शेख अबू जाफर रहमतुल्लाह ने मौत के आसार देख कर सूरह हश्र की तिलावत शुरू की। जब वे आयत “(هو الذي لا إله الا هو عالم الغيب والشهادة)” तक पहुंचे, तो अचानक सुल्तान ने आंखें खोलीं, मुस्कुराए, और हौले से कहा: “सच है।”
यह कहकर हमेशा के लिए आंखें बंद कर लीं। सुल्तान की मौत पर हर आंख आंसुओं से भरी थी। इस महान योद्धा का निधन इस हालत में हुआ कि उसने अपने पीछे कोई गांव, बाग या मकान नहीं छोड़ा।
शायद यह भी उचित है कि मैं (इब्न शद्दाद) उनकी जोहद और तकवा और दुनियावी माल की कमी का उल्लेख कर दूं, यह कहने के लिए इतना ही काफ़ी है के वह इस राज्य में अपने मोला से इस हाल में मुलाक़ात की के उन्होंने विरासत के रूप में कोई महल या कोई सांसारिक संपत्ति नहीं छोड़ी थी , बल्की उन्होंने इतना धन भी नहीं छोड़ा जिसमें ज़कात अनिवार्य होती,
बल्कि उन्होंने जो सारी संपत्ति छोड़ी वह केवल 47 दिरहम (नासारी) और एक सोने का दीनार (सीरियाई)। ऐसे लोगों के लिए अल्लाह ने आख़िरत में जो नेमतें तैयार की हैं उन्हें अता करने के लिए, उन्होंने सुल्तान को सांसारिक क्षेत्रों, बगीचों, बस्तियों और खेतों, महलों आदि से मुक्त रखा।
Sultan Salahuddin Ayyubi Death
27 सफ़र 589 हिजरी, 3-Mar-1193
अगर आप, सांसारिक धन इकट्ठा करने और मकानों और इमारतों के निर्माण में व्यस्त हो जाते, तो आप कभी भी अपने क्षेत्र को आज़ाद करवाने इतिहास के रुख को बदलने और हमेशा के लिए जीवित रहने की ताक़त नहीं पाते, जैसे कि नक़ित बिन यमर अल-अयादी ने ऐसे ही शख्स को ज़हन में रख कर ये श्लोक कहे हैं
فقلدوا امرکم لله درکم رحب الذراع بامرالحرب مضطلعا
आप अपने सभी मामले उसे सौंप दें, उसी में आपके लिए सबसे भलाई है, वह दोस्ती के लिए खुले बाज़ू वाला है (यानी वह दोस्तों के प्रति दयालु है) और दुश्मनी के संबंध में, वह युद्ध की बातों से दुश्मनों पर बोझ डालने वाला है वह जिसके पास उन पर शक्ति और प्रभुत्व है।
لا مترفا ان رخاء العيش ساعدة ولا اذا عض مکروه به خشعا
“वह सांसारिक सुखों और आशीर्वादों पर घमंड तकब्बुर नहीं करता , बल्कि ये सांसारिक सुख उसके सहायक और मददगार हैं, और जब कोई बड़ी विपत्ति उस पर आती है तो वह तनिक भी नहीं डरता।
“مسهد الليل تعنيه امودكم يروم منها الى الاعداء مطلعا
“जो रात को जागता है वह जागा हुआ मस्तिष्क है, आपके विचार उसे थका देते हैं (वह आपको नष्ट करने के बारे में सोचता रहता है) फिर वह दुश्मनों पर हमला करने के लिए नए तरीके खोजता है। (दुश्मनों को असहाय रखता है)
” لايطعم النوم الاديث يبعثه هم یکاد شباة يفصم الضلعا
“वह थोड़ी देर के लिए नींद का स्वाद चखता है, फिर कोई प्रोग्राम उसे जगा देता है, उसका सतही गुस्सा दुश्मन की पसलियां तोड़ने के करीब होता है। पुरे गुस्से की क्या हालत होगी)”
وليس يشغله مال بثمره عنكم ولا ولد ينغي له الرفعا
“आप उसे उसकी सांसारिक संपत्ति इकट्ठा करने से विचलित नहीं कर पाएंगे, न ही वह नूर चश्म साहिबज़ादा की उपेक्षा कर पाएंगे, जिसकी गरिमा और स्थिति का वह तलबगार है और खुआहिशमंद है।
” اذ عابه عائب يوما فقلت له دمت لجنبك قبل النوم مضطجعا
“अगर कोई ऐसी गलती है जिसके लिए एक दिन उसे (बहादुरी के मामले में) दोषी ठहराया जाना चाहिए, तो मैं उससे केवल यही कहूंगा कि सोने से पहले अपने करवट के लिए एक नरम बिस्तर बना लें।
” فساوروه فالقوه أخا علل في الحرب يحتبل الرتبال والسبعا
“बहुत से प्रसिद्ध व्यक्तियों ने श्रेष्ठता के लिए उसके साथ मुकाबले किए हैं, लेकिन हर बार उन्होंने उसे उनसे दो हाथ आगे बढ़ते हुए पाया है। युद्ध के मैदान में उसकी स्थिति शेरों की तरह खतरनाक है। वह भेड़ियों और जानवरों को अपने जाल में फंसा लेगा।
مستجدا يتخذى الناس كلهم لومارع الناس عن احسابهم قرعا
“वह ऐसा है कि सभी लोगों को चुनौती देता है और “दावत मुबाज़ारत” पेश करता है, (है कोई जो मुझसे मुक़ाबला करे) वह ऐसा है कि यदि वह वंश के मामले में सभी लोगों के साथ लॉटरी निकालता है, तो भी लॉटरी केवल उसी के नाम का निकलेगा.
इस्लाम का इतिहास, सुन्नत ए इलाहिया की रोशनी में
यहाँ मैं एक प्रश्न पूछना चाहूँगा कि इस्लामी जगत, जब ईसाईयों ने इस्लामी क्षेत्रों में कदम रखा, उस समय किस स्थिति में था और हम वर्तमान में जिस स्थिति को देख रहे हैं, उसके विपरीत स्थिति में कैसे परिवर्तित हुआ? उन परिस्थितियों में, जिनके तहत सुलता ने इन ईसाईयों से फिलिस्तीन को मुक्त करने की हिम्मत जुटाई, “सोर और याफा” के बीच छोटे-छोटे क्षेत्रों में उन्हें धकेलने में सफल रहे, उन्हें और दूर-दराज क्षेत्रों में धकेलने के लिए जिसे मृत्यु ने और समय नहीं दिया, यहाँ तक कि यह स्थिति अल्लाह की इच्छा के अनुसार अशरफ खलील बिन कलदून के हिस्से में आ गई, जो 1291 ईस्वी में ईसाईयों के अंतिम किले और आश्रय “आक्का” पर कब्जा कर लिया।
शायद इसका उत्तर यही है कि इतिहास एक तरह से “माँ” है, जिससे कुछ समय बाद जन्म होता रहता है, जिससे सुन्नत ए खुदा मजबूत होती है और यह मानव जन्म की तरह है कि जब इस ऐतिहासिक जन्म का समय करीब आता है तो किसी भी अल्लाह के आदेश और उसकी नियति को रोका नहीं जा सकता। यह भी अल्लाह की परंपराओं में शामिल है, जिनसे कोई भेदभाव नहीं करता, जैसे महिलाओं के गर्भ से नवजात बच्चे दुनिया में आते हैं, वैसे ही इतिहास के गर्भ से बड़े-बड़े घटनाएँ उत्पन्न होती हैं, ये घटनाएँ “ऐतिहासिक गति” के साथ-साथ अन्य घटनाओं से जन्म लेती हैं।
मुसलमानों के लिए यह आवश्यक है कि वे अल्लाह की इन परंपराओं और उनके नियमों से परिचित हों, और अपने हालात को इन परंपराओं के अनुसार ढालें, ताकि अल्लाह की सहायता से दुनिया की बागडोर फिर उनके हाथों में हो सके। यकीनन, ये कमजोर स्थिति, जिसमें इस्लामी दुनिया गुजर रही है, यह दर्शाती है कि “सुन्नत ए इलाहिया” के अनुसार एक ऐतिहासिक जन्म होने वाला है और हम आशा करते हैं कि वह नई पैदाइश” नया सलाहुद्दीन” होगा, फिर उस दिन हत्तीन लौट आएगा और येरूशलम और फिलिस्तीन भी वापस मिलेंगे। इंशाल्लाह
(وَيَوْمَئِذٍ يَفْرَحُ الْمُؤْمِنُونَ بِنَصْرِ اللَّهِ ۗ يَنْصُرُ مَنْ يَشَاءُ وَهُوَ الْعَزِيزُ الرَّحِيمُ ۗ وَلَا يَخْلِفُ اللَّهُ وَعْدَهُ وَلَكِنَّ أَكْثَرَ النَّاسِ لَا يَعْلَمُونَ)
”और उस दिन मुसलमान अल्लाह की मदद से खुश हो जाएंगे। वह जिसको चाहता है मदद करता है और वह मजबूत और दयालु है। यह अल्लाह का वादा है, अल्लाह अपने वादे का उल्लंघन नहीं करता, लेकिन अधिकांश लोग नहीं जानते।”
ऐ मुस्लिम युवाओं!
सुलतान सलाहुद्दीन अयूबी की जीवन के अंतिम वर्षों पर यह हल्की सी लेकिन स्पष्ट झलक है और वास्तव में यही विषय सबसे अधिक पढ़ने और सिखने के योग्य है, जो हर पहलू को शामिल करता है और सबसे पूर्ण है, विशेषकर उन कठिन और दुखद परिस्थितियों के संदर्भ में जिन्हें हम देख रहे हैं। यकीनन, सलाहुद्दीन जैसे “जीवित व्यक्तियों की इतिहास” को पढ़ने से ही जीवन मिल सकता है जो इरादों को जीवित करते हैं और नेमतों को तेज़ कर देते हैं, व्यक्तियों को समकक्ष सितारों के बराबर बना देते हैं और फिर व्यक्तियों को निर्णायक जीवन के लिए तैयार कर देते हैं।
अल्लाह हमें भी कोशिश और संघर्ष की तलवार थमा कर पूरी दुनिया के उत्पीड़ितों की मदद करने की तौफीक दे, ताकि हम एक बार फिर सलाहुद्दीन अयूबी की परंपरा पर चलकर संघर्ष करते हुए दुनिया भर में अल्लाह का नाम ऊँचा कर सकें और ज़ुल्म भरी स्थिति समाप्त कर सकें, उनके आतंकवाद को समाप्त कर सकें और येरूशलम समेत सभी मुस्लिम क्षेत्रों को पवित्र और मुक्त कर सकें।
آمین ثم آمین یارب المجاهدين والمستضعفين، والصلاة والسلام على القدوة المثلى للابطال والقادة محمد و على آله وأصحابه واتباعه۔
ورحم الله صلاح الدين ومكن له في جوارالذين انعم الله عليهم من النبين والصديقين والشهداء والصالحين وحسن اولئك رفيقا۔
Good
👏👏👏♥️♥️♥️
अल्लाह अल्लाह