Sultan Salahuddin Ayyubi History in Hindi
फिलिस्तीन का इतिहास क़िस्त 9
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सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी की मुख्तसर हालात ए जिंदगी
Sultan Salahuddin ayyubi इराक़ के क़िले तकरीत में 530 हिजरी, 1137ईसवी में पैदा हुए। उनके वालिद तकरीत क़िले के गवर्नर थे। नौजवानी में मिस्र में वज़ारत संभाली, वह उसी तरबियती मदरसे के फ़ारिग ए तहसील थे जिसमें नूरउल्लाह ज़ंगी और इमादुल्लाह ज़ंगी की भी तरबियत हुई थी। आप अल्हमदुलिल्लाह अच्छे आक़िदे वाले थे, फ़सीह ओ बलीग़ थे, नमाज़ बाजमाअत के पाबंद थे, सुन्नत और नवाफिल के शौक़ीन थे, रात इबादत में गुज़ारते थे, क़ुरआन सुनने का शौक़ रखते थे, वह इमामत के मनसब के लिए इमाम को ख़ुद मुन्ताखिब करते थे और जिसकी तिलावत ख़ूबसूरत होती औरवो अच्छे किरदार का होता उसे मुकर्रर करते थे।
वह नरम दिल, रोने वाले और रहम व क़रम की सिफ़ात से मआमूर थे, यह बातें उनकी जंगों में बहुत वाजिह तौर पर नज़र आती थीं, जब क़ुरआन सुनते थे तो आँखें भीग जाती थीं, हदीस सुनने की शदीद ख़्वाहिश थी, शआ’इरुल्लाह की बहुत ताज़ीम करते थे, अल्लाह त’आला पर हुस्न ज़न और भरोसा करते थे, अच्छी मुआशिरत वाले, इंसाफ़ वाले, मज़लूमों और कमज़ोरों की मदद करने वाले, पाक़ीज़ा मजलिस वाले, और अच्छी गुफ्तगू वाले थे। मजाल है कि कोई उनकी मौजूदगी में किसी की गिबत या चुगल खोरी करे, सुनने में पाक़ीज़ा, ज़बान में पाक़ीज़ा और क़लम में पाक़ीज़ा थे।
मर्दाना हिम्मत और बहादुरी
इन ओसाफा (खुसूसियत) के साथ-साथ वह बहुत बहादुर इंसान थे, जिहाद में साबित क़दम रहने वाले और बुलंद हिम्मत वाले थे, एक दिन जब वह अक्का के क़रीब थे तो कहा कि मेरे दिल में ये बात आई है कि अगर अल्लाह त’आला हमें तमाम साहिलों की फ़तेह नसीब करे तो मैं तमाम शहरों को पाक करूँगा, फिर वहाँ गवर्नर मुक़र्र करूँगा और समुंदर के ज़रिए यूरप के जज़ीरों तक जाऊँगा उनको भी फ़तेह करूँगा, फिर पुरी ज़मीन को पाक करूँगा, या मैं मर जाऊँगा।
इस तरह वह बुलंद उद्देश्य और बुलंद मक़्सद वाले थे, इसी मक़्सद के लिए उन्होंने अपना ख़ानदान, घर और वतन छोड़ दिया था, उन्होंने सारी ज़िंदगी जिहाद में गुज़ार दी, उन्होंने अपनी ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा खेमों में गुज़ारा। वह हर कमज़ोर आदमी ख़ासकर औरतों, बच्चों और बुढ़ों के साथ हमदर्दी के लिए जाने जाते थे, वह जब भी किसी शहर को फ़तेह करते तो उस शहर के दरवाज़े पर खड़े हो कर हारे हुए लोगों और बाक़ी रहने वाले दुश्मनों का मुआयना करते, अगर कोई फ़क़ीर वहाँ से गुज़रता तो उसकी मदद करते, या औरत और बच्चा गुज़रता तो उस पर शफ़क़त करते, माफ़ करते और उनकी मदद करते थे।
फ़क़ीर सिफत बादशाह
सलाह उद्दीन अय्यूबी ने ऐश ओ इशरत और इसराफ़ से भरे दौर में शाहाना शान और शोक़त और मक़ाम व मुरतबा से कोसों दूर तकलिफ़ और सादगी की ज़िंदगी बसर की, वह बहुत बुर्दबार थे, वह किसी भी आक़िदे वाले को नुक़सान नहीं पहुंचाते थे मगर जो उस के साथ जंग करता तब वह जंग करते, वह लोगों पर किसी इबादत में दबाव नहीं डालते थे, लोगों पर ज़बरदस्ती नहीं करते थे, उन्हे गद्दारों और दुश्मनों के अलावा क़त्ल और लूट गरी और खूंरेजी पसंद नहीं थी, जब फ़तेह हासिल करते तो रहम और नरमी का मामला करते और क़ैदियों को रिहा करते थे, यह उन की फ़ितरत थी, उस के विपरीत जो यूरप वाले बयान करते हैं कि वह इंतिहाई ज़ालिम और ख़ून के शौक़ीन थे ये झूठ एक दम झूठ है हां जो जो गद्दार होता उस पर कोई रहम नहीं करते।
हित्तीन की जंग के मुआमलात
हित्तीन के मामले में 578 हिजरी, 1182 ईसवी में, Sultan Salahuddin Ayyubi ने शाम के अकसर हिस्से पर कंट्रोल हासिल कर लिया, लेकिन उनके एक बड़ा हिस्सा उनके कंट्रोल से बाहर था, लेकिन मिस्र, हिजाज और यमन में उनकी हुकूमत मज़बूत थी। इसलिए, उन्होंने तुरंत उस युद्ध की तैयारी शुरू की जिसकी योजना नुरुद्दिन जंगी ने बनाई थी, कि उत्तर और दक्षिण दोनों ओर से एक साथ ईसाई हुकूमत पर हमला किया जाए, लेकिन उन्होंने इस योजना में संशोधन करने का फैसला किया, क्योंकि अब के परिस्थितियाँ नुरुद्दीन जंगी जैसी नहीं थीं, विशेष रूप से उनके बाद शाम में विवाद उत्पन्न हो रहे थे।
Sultan Salahuddin Ayyubi ने ये तय किया कि शाम और मिस्र की सेनाओं को एकत्र किया जाए ताकि ईसाई सलीबियों के खिलाफ एक बड़ी ताकत बनाकर हमला किया जा सके, यह मशहूर जंग हतीन का आयोजन था।
अर्नात और कर्क का क़िला
ईसाई फ़िलिस्तीन और लगभग सभी फ़िलिस्तीनी तटों पर नियंत्रण था, क्योंकि तट उनके लिए यूरोप से जहाजों के माध्यम से सामान पहुंचाने का सबसे अच्छा तरीका था। ईसाई लोगों का सबसे बड़ा क़िला कर्क था, जो शाम और मिस्र के बीच एक अत्यंत महत्वपूर्ण रणनीतिक स्थल पर स्थित था। यह शाम और मिस्र के बीच आरबी सेनाओं की नक़ल वा हरकत की राह में एक वास्तविक रोकटोक भी था।
Sultan Salahuddin Ayyubi ने देखा कि इस क़िले के ईसाईयों के हाथों में होने से मुसलमान सेनाओं को एकत्र करना मुश्किल है, इस क़िले का मालिक अर्नात नामक एक ईसाई था। इस कमांडर को महसूस हुआ कि Salahuddin Ayyubi कर्क क़िले को निशाना बनाना शुरू कर देगा, इसलिए उसने एक ऐसी योजना सोचना शुरू कि जिससे Salahuddin Ayyubi का ध्यान हट जाए, आखिर उस व्यक्ति की ख़तरनाक सोच इस पर ख़त्म हुई कि यह मक्का और मदीना पर हमला करे, उसने कर्क क़िले में इसके लिए लश्कर तैयार करना शुरू किया,
इसी दौरान यह ख़तरनाक योजना दमिश्क के गवर्नर अज़्ज़उद्दीन के कानों तक पहुँची, उसने अर्नात के ख़याल को आमली जामा पहनाने से रोकने के लिए जल्दी से एक फ़ौज तैयार की और कर्क पर हमला की तरफ़ मुतवज्जह हुआ, दमिश्क के गवर्नर का क़दम उस शहर को फ़त्तह करने के लिए नहीं था क्योंकि वह बहुत महफ़ूज़ था, एक छोटी सी फ़ौज से उसे फ़त्तह नहीं किया जा सकता था, लेकिन दमिश्क के गवर्नर का मक़सद अर्नात के इस ख़तरनाक ख़याल को आमली जामा पहनाने से हटाना था।
उसने कर्क क़िले को और उसके आस-पास के क्षेत्र को बहुत नुक़सान पहुँचाना शुरू किया, आस पास जो कुछ था उसे ध्वस्त कर दिया, खेतों को जला दिया, वह थोड़ी देर के लिए पीछे हटा और फिर से शुरू हुआ, जिसने अर्नात को पीछे हटने पर मजबूर किया, और उसने अपना ख़याल त्याग दिया या कम अज़ कम अभी के लिए छोड़ दिया।
अर्ज़ ए मुकद्दस पर हमले को असफल बनाना
Sultan Salahuddin Ayyubi यह ख़बरें मिल रही थीं कि जिसकीवजह से उन्हें मिस्र, मक्का और मदीना की सुरक्षा की चिंता हुई, तो उन्होंने हिजाज की ज़मीन की सुरक्षा के लिए बहर ए अहमर (लाल समंद्र) में बेहरी बेड़ों (बेहरी बेड़े) की व्यवस्था करने का आदेश दिया ताकि अगर अर्नात फिर से इस तरह की हरकत करे तो इस का मुकाबला हो सके, अर्नात ने इसके बाद एक और ख़तरनाक हरकत की, उसने क़िले के अंदर ऐसे ख़ुफ़िया तरीके से बहरी बेड़े बनाए जिन के बारे में लोगों को इल्म नहीं था, फिर उसने उन्हें अलग-अलग करके बड़े हिस्सों में तकसीम कर दिया, और बहुत जल्द उन टूटे हुए जहाजों को उकबा पहुँचाया गया और वहाँ उसने उन्हें पुनः स्थापित कर दिया और उसकी फ़ौज उन जहाजों पर सवार हो गई जो तुरंत जज़ीरे की ओर रवाना हुए।
अर्नात ने मुल्के शाम में मौजूद इस्लामी सेना का ध्यान इस ख़तरनाक योजना से हटाने के लिए इसने मुल्के शाम में मौजूद काफिलों पर भी हमला करना शुरू किया, ताकि sultan Salahuddin Ayyubi को भी मशगूल रखे, लेकिन यह ख़बरें ज़्यादा देर तक छुपी नहीं रहीं, Salahuddin Ayyubi को बहुत जल्द जज़ीरे पर हमले का इल्म हुआ, वह उस दौरान फ़िलिस्तीन के एक क़िले का मुहासिरा कर रहे थे, उन्होंने तुरंत अपने भाई अल आदिल को अर्नात की फ़ौज के मुकाबले के लिए भेजा ताकि वह मक्का या मदीना पहुँचने से पहले उसके मुकाबले के लिए पहुँच जाए। इसका कारण यह था कि Salahuddin Ayyubi अपनी जगह से उनके मुकाबले के लिए पहुँचने के लायक नहीं थे,
आदिल तुरंत ही मक्का और मदीना की सुरक्षा के लिए मिस्री बहरी बेड़े को मुंतकिल करने के लिए दौड़ पड़े, मुसलमानों और ईसाईयों के बीच बहरी बेड़ों का मुकाबला शुरू हुआ, ईसाई समंदरी बेड़ा आगे बढ़ कर रबीग के क्षेत्र तक पहुँचने में कामयाब हुआ और उनके सिपाही जहाजों से उतर गए, फिर थोड़ी देर बाद मिस्री बहरी जहाज पहुँच गया, उसने शहर पर क़ब्ज़ा करने से पहले ईसाई फ़ौज का पीछा किया, मुसलमान हौरा के साहिल पर ईसाईयों पर क़ाबू पाने में कामयाब हो गये, और यहाँ आदिल की फ़ौज और अर्नात की फ़ौज के बीच ज़बरदस्त जंग हुई और अल्लाह ताला के फ़ज़ल से यह छोटी इस्लामी फ़ौज बड़ी ईसाई फ़ौज को हराने में कामयाब हुई।
करक का मुहासरा
अर्नात की इस हरकत के बाद, Sultan Salahuddin Ayyubi गुस्सा बहुत बढ़ गया। उन्होंने अगले साल 579 हिजरी, 1183 ईसवी में एक लश्कर तैयार करके करक का घेराव कर लिया। उन्होंने मिस्री सेना को अपने साथ शामिल करने का हुक्म दिया, इस्लामी फ़ौज ने करक को घेरा में ले लिया। सलाह उद्दीन ऐय्यूबी ने मिंजनीक मंगवाईं और करक की दीवारों पर हमला करना शुरू किया, जब ईसाई को यह खबर पहुँची तो वे करक का मुहासरा तोड़ने के लिए आगे बढ़ने लगे, यरुशलम(फिसलिस्तीन) के गवर्नर आमोरी ने भी अपनी सेना को हुक्म दिया और कुछ लड़ाईयां शुरू हुईं।
Sultan Salahuddin Ayyubi ने फ़ैसला कुन जंग की तैयारी नहीं की थी, इसलिए उन्होंने पीछे हटने का फ़ैसला किया, क्योंकि उन्होंने देखा कि वह उन सभी लश्करों के मुकाबले के लिए तैयार नहीं, उनकी फ़िक्र सिर्फ़ करक का क़िला था, इसलिए वे दमिश्क की ओर पीछे हट गए और वहां उन्होंने फिर से तैयारियाँ शुरू कीं, उन्होंने अपनी फ़ौज को फिर से संगठित किया, हलब उस समय तक सलाह उद्दीन के मतहत नहीं था, उसके ग़दार हुकुमरान ने उनका साथ देने से इनकार किया था, सलाह उद्दीन ऐय्यूबी अपनी मंज़िल बदलने पर मजबूर हुए, इसलिए उन्होंने ईसाईयों को छोड़ दिया और हलब पर हमला करके 579 हिजरी में उसे फ़तह कर दिया, उन्होंने शाम के शहरों की फ़ौज को मतहत करने की कोशिश की।
इसके साथ ही वह करक पर छापे के लिए भी लश्कर भेजते थे, जिससे उनका उद्देश्य उसे फ़तह नहीं करना था बल्कि उनका उद्देश्य करक के हुक्मरान को मशगूल रखना था ताकि वह फिर से मदीना पर हमला करने के बारे में ना सोचे। थोड़े अरसे बाद सलाह उद्दीन ने छोटी फ़ौजें करक क़िले की ओर भेजीं जिन्होंने उसका मुहासरा किया, और उसकी दीवारें तोड़ने में कामयाब हो गईं, हालांकि यह एक छोटी सी फ़ौज थी, ताहम दीवारों के बाद बहुत बड़ी खंदक़ों(चारो तरफ़ बड़े बड़े गड्डे) की मौजूदगी से फौज हैरान रह गई जो इस बदनीयत अर्नात ने बनाए थे,
चुनांचे मुस्लिम फौजें खंदक़ों के सामने खड़े होकर उन्हें भरने की कोशिश कर रहे थे, और खंदक पार उनकी और ईसाईयों में जंग हुई, यह ख़बर ईसाईयों तक पहुँची, तो ईसाई फ़ौजें घेराव को तोड़ने के लिए आगे बढ़ीं, करक का दोबारा मुहासरा कर लिया, Sultan Salahuddin Ayyubi ने फ़ौरन अपनी फ़ौजों को दोबारा दमिश्क की ओर पीछे हटने का हुक्म भेजा।
सलाह उद्दीन ऐय्यूबी ने ईसाईयों के साथ फ़ैसला कुन जंग के लिए दोबारा इस्लामी मुल्कों से ख़त ओ किताबात करने की कोशिश की जो उनके साथ शामिल नहीं थे, ताकि वह इस फ़ैसला कुन जंग में उनकी मदद करें, Sultan Salahuddin Ayyubi मौसल में उलमा के ज़रिए से मौसल के हाकिमों को तरगीब देने में कामयाब हुए, उलमा की तरगीब और आवाम के दबाव के कारण मौसल का हाकिम Sultan Salahuddin Ayyubi के सामने सर तसल्लीम ख़म करने पर राज़ी हुआ, जिसके बाद सलाह उद्दीन, ईसाईयों और करक के हुक्मरान के दर्मियान लड़ाईयां शुरू हो गईं, जो मज़ीद तीन साल तक जारी रहीं।
हाजियों का बदला
582 हिजरी के, 1186 ईसवी में, अर्नात ने एक बहुत बड़ी ग़लती की, उसने मुसलमान हज़ियों के क़ाफ़िले पर हमला किया, जो कुछ उन के पास था उसने ले लिया, और मुसलमानों को पकड़ लिया, हाजियों ने अर्नात के सामने चीख चीख के बताया कि वे सिर्फ़ हाजी हैं जंगजू नहीं हैं, अर्नात ने उनका मज़ाक उड़ाते हुए कहा कि अपने मुहम्मद से कहो कि वह तुम्हें बचाए। यह ख़बर Sultan Salahuddin Ayyubi तक पहुँची तो उन्होंने कसम खाई और नज़र मानी कि वह अपने हाथों से अर्नात को क़त्ल करेंगे, फिर उन्होंने अपने और यरुशलम के दरमियान होने वाली जंगओं की बंदी को ख़त्म किया और लोगों में हाजियों के बदले के लिए जिहाद का इलान किया, उन्होंने तुरंत हाजियों के रास्ते को महफ़ूज़ बनाने के लिए फ़ौजें भेजीं, बाक़ी हाजि लोग बाहिफ़ाज़त गुज़र गए, और करक के क़िले पर हमला करके उसके इर्दगिर्द को तबाह कर दिया, साथ ही उन्होंने फ़िलिस्तीन में अलग-अलग जंगों में उनको मसरूफ रखने की कोशिश की, इसके अलावा उन्होंने मिस्र में एक बड़ी फ़ौज को तैयार रहने का हुक्म दिया था, जिसके सरबराह उनके भाई अलआदिल थे।
सलाह उद्दीन अय्युबी ने होशियारी से हलब से शाम के उत्तर में अंताकिया के ईसाईयों की तरफ़ भी फ़ौजें भेजीं, और अंताकिया पर हमला करने को कहा, जब वह वहाँ ईसाईयों से मुतसादिम होने वाले थे सलाह उद्दीन ने उन्हें जंग बंदी की दरख़ास्त भेजी, अंताकिया जंग बंदी पर राज़ी हो गया और हथियार फेंक दिए, हलब के लोगों ने भी हथियार फेंक दिए, इस तरह सलाह उद्दीन ने इस बात को यक़ीनी बनाया कि अगर वह ईसाईयों के साथ जंग में दाख़िल हो जाए तो अंताकिया उनके साथ जंग करने या ग़दारी करने की हिम्मत न करे।
इसी दौरान यरुशलम में ईसाई रहनुमाओं के दरमियान झगड़ा हुआ, तो सलाह उद्दीन ने ख़ुफ़िया तौर पर एक ईसाई रहनुमा जिस का नाम रिमेन्ड था के पास पेगाम भेजा और उस से कहा कि मैं तुम्हारा साथ देने के लिए तैयार हूँ, रिमेन्ड ने सलाह उद्दीन की पेशक़श पर रज़ामंदी ज़ाहिर की, इस के बाद सलाह उद्दीन ने सफ़ूरिया पर अचानक हमला किया, यह वह इलाक़ा था जहाँ ईसाई फ़ौजें जमा हुई थीं, इस्लामी फ़ौज ने रात के वक़्त हमला करके उन्हें हैरान कर दिया, यहाँ ज़्यादतर ईसाई मारे गए और पकड़े गए।
बाक़ी ईसाईयों ने जब यह ख़बर सुनी तो उन्हें शदीद ख़तरा महसूस हुआ, तो 63 हज़ार जंगजू जमा कर लिए, और अपनी तैयारी शुरू की। और अपने ऊपर एक बादशाह गायलोज़ीनयान को हकीम मुक़र्र किया, उन्होंने अपने आप को मुत्तहिद किया, और Salahuddin Ayyubi के मुकाबले के लिए अपने विवादों को समाप्त किया, और सफूरीया में फिर से इकट्ठा हो गए सलाह उद्दीन के जाने के बाद।
Sultan Salahuddin Ayyubi नहीं चाहते थे कि सफूरिया में जाकर एकबार फिर हमला हो जाए, क्योंकि यह चरागाहों और पानी से घिरा हुआ एक जरखेज़ क्षेत्र था अगर वह उनके पास जाते तो उनकी सेना थक जाती जबकि ईसाई आराम से उनका मुकाबला करते, सलाह उद्दीन जंग की जगह का चयन खुद करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने अपनी सेना एकत्र की और सफूरिया पर छोटी-छोटी सेनाओं से हमला करना शुरू कर दिया, ताकि वह इस क्षेत्र से निकल जाएं, लेकिन वह इस जगह से पीछे हटने वाले नहीं थे, उन्होंने फिर से हमला किया लेकिन उन्होंने यह क्षेत्र नहीं छोड़ा।
तिबरियाह की जीत
Sultan Salahuddin Ayyubi ने अपनी योजना बदलने का निर्णय लिया और तिबरिया पर हमला किया, तिबरिया ईसाई लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण और मौलिक क्षेत्र था, तिबरिया और सफूरिया के बीच का रास्ता बहुत ही बेकार और कठिन था, इसलिए Salahuddin Ayyubi चाहते थे कि ईसाई लोगों को यहाँ धीरे-धीरे ले जाएं, 2 जुलाई 1187 में सलाह उद्दीन अय्यूबी ने तिबरिया किले पर हमला बोल दिया, जब ईसाई लोगों ने यह देखा तो उनके बीच इल्तिलाफ़ पैदा हो गया, वे आपस में तकसीम हो गए, एक दल का मानना था कि सलाह उद्दीन अय्यूबी को इस प्रकार छोड़ना सही नहीं कि वह लगातार जीत करता रहे और हम अपनी जगह पर बैठे रहें, दूसरे दल का मानना था कि सलाह उद्दीन अय्यूबी को अपनी पसंद की जगह में घुसना चाहिए, इसलिए उन्होंने उसी जगह पर रहने का चयन किया जहां वे मौजूद थे, लेकिन अंत में ज़्यादा लोगों की राय मानी गई और वे सलाह उद्दीन अय्यूबी के सामने तिबरिया की ओर बढ़ गए।
ईसाई सेना कठिन गर्मी में बहुत ही कठिन रास्ते से तिबेरिया की ओर रवाना हुई, वहां पानी के झरने भी नहीं थे जो ईसाई बड़ी सेना को संभाल सके, सलाह उद्दीन अय्यूबी ने समय बर्बाद नहीं किया, उन्होंने घात लगाने के लिए टीमें तैयार की, जो रास्ते में ईसाई सेना पर हमला करती थी, जिससे उनकेआने में देर हुई और उनकी मुश्किलें बढ़ गईं, क्योंकि जो पानी उनके पास था वह ख़त्म होने लगा और गर्मी और प्यास तेज़ हो गई, और सलाह उद्दीन उनके खिलाफ़ छापेमारी करते रहे और घात लगाते रहे।
फिर सलाह उद्दीन अय्यूबी ने कुछ इस्लामी सेनाओं को हुक्म दिया कि वे ईसाई सेना के पीछे से हमला करें, और उन्होंने ऐसा ही किया, जिससे सेना का पिछला हिस्सा हमलावर इस्लामी सेनाओं से लड़ाई में व्यस्त हो गया, और बाकी सेना आगे की ओर बढ़ती रही, इस प्रकार ईसाईयों का लश्कर अगले और पीछले हिस्से में विभाजित हो गया, जिससे सेना का अगला हिस्सा पिछले के इंतज़ार में मजबूर हो गया ताकि ऐसा न हो कि आगे से भी युद्ध शुरू हो जाए और अभी पिछला हिस्सा पहुंचा न हो, इसलिए उन्होंने तिबरिया के पहाड़ के पास पड़ाओ डाला जिससे हित्तीन मैदान की निगरानी हो सकती थी और सेना के पिछले हिस्से का इंतज़ार करने लगे।
सलाह उद्दीन ने इस क्षेत्र के सभी कुएं मिट्टी से भर दिए जिनसे ईसाई सेना गुज़र रही थी और पानी के सभी कुएं और झीलों को अपने पीछे रखा था, जब ईसाई सेना वहाँ पहुँची तो सलाह उद्दीन अय्यूबी ने अपना मशहूर क़ौला कहा था: “यह हमारे पास ऐसे समय में आए हैं जब हम ताक़त से लेस हैं और हम सख़्त क़ुव्वत वाले हैं।” दोनों सेनाओं ने निर्णयक युद्ध की तैयारी की और यहाँ वह महान युद्ध लड़ा गया जिसे इस्लाम की महान युद्धों में शामिल किया जाता है। इसे हित्तीन का युद्ध कहा जाता है।
हित्तीन की अज़ीम जंग
583 हिजरी, 1187ई को हित्तीन की बडी जंग हुई जिसमे Sultan Salahuddin Ahmed के फौजियों की संख्या बारह हज़ार से अधिक नहीं थी, जबकि ईसाई सेनाओं की संख्या तीस हज़ार योद्धाओं तक पहुंच चुकी थी, लेकिन इसके बावजूद सलाह उद्दीन उनके मुकाबले करने से बाज नहीं आए, हित्तीन की बड़ी जंग शुरू हो गई, ये दोनों फौजें हित्तीन से पहले तिबरिया के पहाड़ पर आमने-सामने हुईं, लेकिन रात ने दोनों लश्करों को आपस में लड़ने से रोक दिया, 24 रबी उल आखिर 583 हिजरी जुमा के दिन जो ईसवी सन् के अनुसार जुलाई 1187 था दोनों फौजों में झड़प हुई और तीव्र लड़ाई शुरू हुई जो सुबह से रात तक जारी रही,
कोई भी एक फिरका दूसरे को हराने में कामयाब नहीं हो सका, लेकिन ईसाई सेना कठिन पहाड़ी रास्तों, थकान और प्यास के कारण हित्तीन के मैदान की ओर पीछे हट गई, Sultan Salahuddin Ayyubi ने रात के समय अपनी फौज को हरकत में लाते हुए सलीबियों के लश्कर का हर तरफ़ से घेराबंद कर लिया, उन्होंने उन्हें एक गोल घेरे की तरह घेर लिया और बाहर निकलने का रास्ता न छोड़ा, और 25 रबी उल आखिर की सुबह को फिर से लड़ाई शुरू हुई, ईसाई सलाह उद्दीन के लश्कर में घुसने की कोशिश कर रहे थे ताकि वे पानी की ओर पहुंच सकें, Sultan Salahuddin Ahmed अपने बहादुर मुस्लिम मुजाहिदों की फौज के साथ साथ रहे।
मुसलमानों की फौज में घुसने के लिए सबसे मजबूत कमांडरों का एक ग्रुप ले जाने का निर्णय किया, उसने बड़ी ताक़त से हमला किया, सलाह उद्दीन ने अपने साथियों को हुक्म दिया कि वे रेमंड के लिए रास्ता खोल दें, रेमंड घुड़सवार दस्ते के साथ आगे बढ़ता रहा यहाँ तक कि वह दूसरी तरफ़ पहुँच गया, लेकिन वह इस तरह एक खतरनाक जाल में फंस गया, क्योंकि सलाह उद्दीन अय्युबि ने एक फौजी बटालियन को बंद करने का हुक्म दिया, जिस की वजह से रेमंड ने खुद को बाकी फौज से अलग थलग पाया। इसके अंदर ख़ौफ़ पैदा हुआ, वह तराबलस की ओर भागा और जब तक तराबलस नहीं पहुंचा रुका नहीं, इस तरह सलाह उद्दीन ने ईसाई सेना के सब से मजबूत शेरदिलों से छुटकारा हासिल किया।
यहाँ पर तराबलस के ईसाई शासक रेमंड ने इसके बाद जब ईसाई सेना की तरफ हवा चली तो सलाह उद्दीन ने सूखी घास में आग जलाने का हुक्म दिया तो मुस्लिमानों ने आग लगाई और हवा ने शोले और धुआं उठाया जो ईसाईयों के चेहरों को घेर लिया, उनकी प्यास, गरमी और आग और धुआं ज्यादा हो गया, जिसकी वजह से वह मजबूरन पीछे हट गए, और पहाड़ों की ओर चले गए। वह आराम के लिए अपने खेमे वहाँ लगाना चाहते थे, लेकिन सलाह उद्दीन ने उन्हें इसकी मोहलत नहीं दी और उन पर दबाव जारी रखा, वह खेमे लगाने में नाकाम रहे सिर्फ़ बादशाह का खेमा लगा लिया था
और मुस्लिमानों का हमला शुरू हुआ, ईसाई अपने साथ वह असली सलीब लेकर गए थे जिस पर उनका ख्याल था कि मसीह अलैहिस्सलाम को इस सलीब पर चढ़ा दिया गया था, यह उनकी सबसे बड़ी मुकद्दासात में से एक थी, इसलिए वह यह अपने साथ लेकर गए थे ताकि उन में लड़ाई का जोश बढ़े, लेकिन सलाह उद्दीन की उन पर इस क़दर शदीद दबाव था जिसकी वजह से वह सलाबूत की क्रूस (सलीब) पीछे छोड़ कर पहाड़ की ओर भागने पर मजबूर हुए, इस तरह मुस्लिमानों ने उसे उठा लिया, यह बात ईसाईों के लिए बहुत मुसीबत की थी जिसकी वजह से वे अपने जोश और जज्बे से भी महरूम हो गए और उनके हौसले पस्त हो गए।
अजीमुस्शान फतह (जीत)
मुस्लिमों की तरफ से ईसाइयों के घेराबंदी का दबाव जारी रहा, जिसकी वजह से वे हजारों की संख्या में मारे गए और उनमें से बहुत से मुसलमानों के सामने हथियार डालने लगे, इस दिन 30 हजार मारे गए और कैदियों की संख्या भी 30 हजार थी, ईसाई सेना की केवल एक छोटी संख्या बची थी जिसका अनुमान केवल 150 घोड़सवारों का था, जो ईसाई बादशाह की सुरक्षा कर रहे थे और पूरी जान सेउसे बचा रहे थे, ये घोड़सवार पहाड़ की चोटी पर बादशाह के खेमों के आसपास इकट्ठा हो गए, इन घोड़सवारों की संख्या सबसे मजबूत ईसाई सैनिकों में से होती थी, उन्होंने मुसलमानों के तीन अलग-अलग हमलों को पसपा दिया, उनकी बाणसेना मुसलमान फ़ौज के लिए मुश्किल हो गई, तब सलाह उद्दीन आयूबी ने कहा कि अल्लाह की कसम यह तब तक हथियार नहीं डालेंगे जब तक कि खेमा गिर न जाए,
इसलिए उन्होंने उन्हें बादशाह के खेमे की ओर मुतावज्जे होने का हुक्म दिया, मुसलमानों ने खेमे को गिराने के लिए घोड़सवारों के पीछे से घुसना शुरू किया, वह वाकई उस तक पहुंच गए और उसकी रसियों को मारा तो वह बादशाह पर गिर पड़ा, इसके बाद ईसाई सैनिकों की हिम्मत टूट गई, और उन्होंने हथियार डाल दिए, जब सलाह उद्दीन आयूबी ने खेमे को गिरते हुए देखा तो वह अल्लाह रब अलामीन के सामने खुशी से रोते हुए सजदे में गिर पड़े।
मुसलमानों ने ईसाई फौज का माल, घोड़े और हथियार ले लिए, लोगों ने ऊंची आवाज़ से अल्लाह अकबर का नारा लगाया और वह रात अल्लाह के जिक्र, दुआओं और हम्द व सना में गुजारी, उन्होंने गौर किया कि अल्लाह ने किस तरह मुसलमानों की छोटी सी फ़ौज को जिसकी संख्या 12 हजार से अधिक नहीं थी ईसाई सैन्य की 30 हजार की बड़ी सेना पर फ़तह दी थी।
इतिहासकार जिन्होंने यह दृश्य देखा था कहते हैं: जिसने उस दिन मारे गए को देखा वह कहता है कि उनमें से कोई भी जिंदा नहीं रहा है, सभी मारे गए हैं, और जिसने कैदियों को देखा तो वह कहता है कि उनमें से कोई भी मारा नहीं गया, सभी ज़िंदा हैं।
हमारे अखलाक और ईसाइयों के अखलाक
मुसलमानों की इस महान जीत के बाद सलाह उद्दीन ने आदेश दिया कि हित्तीन में उनके लिए एक खेमा लगाया जाए, तब उन्होंने रात वहीं गुजारी, इस महान नेमत और इस स्पष्ट विजय पर अल्लाह रब्बुलआलमीन का शुक्र अदा किया, उस दिन उन्होंने आदेश दिया कि कैदि ईसाई बादशाश को लाया जाए, वे जब आए तो Sultan Salahuddin Ayyubi ने उनका स्वागत किया और उनका आदर किया, सलाह उद्दीन की बड़ी चारपाई की तरह एक कुर्सी थी, तब ईसाई बादशाह लूजी़नियान को उस पर बैठाया, कर्क के क़िले का मालिक अरनात उसके पास था, उसने कई बार मुसलमानों को धोखा दिया था और मक्का और मदीना पर चढ़ाई की कोशिश की थी और सलाह उद्दीन ने उसे मारने की कसम खाई थी,
तब अरनात अन्य बादशाहों के साथ सलाह उद्दीन की मजलिस में बैठा, फिर सलाह उद्दीन ने पानी मंगाया, बादशाह को पानी दिया, बादशाह ने आधा पिया और बाकी अरनात को दिया, सलाह उद्दीन ने गुस्से में कहा कि मैंने अरनात को पीने का आदेश नहीं दिया, सिर्फ़ आपको आदेश दिया है, फिर Sultan Salahuddin Ayyubi अरनात की ओर मुतावज्जेह हुए और कहा कि अफ़सोस तुम कब तक वादा ख़िलाफ़ी करते रहोगे, अरनात ने पूरी बदतमीज़ी और तक़बुर के साथ जवाब दिया कि: “यह बादशाहों का रिवाज़ है, धोखा और खयानत एक ऐसी राजनीतिक नीति है जिसके ज़रिए बादशाह आम लोगों को नियंत्रित करते हैं”।
अरनात और उसके सिपाहियों का क़त्ल
अरनात के उस बुरे अख्लाक पर सलाह उद्दीन हैरान हुए, तो उन्होंने मुतर्जम(translator) से कहा कि वह उसे इस्लाम पेश करे, मुतर्जम ने ऐसा किया, लेकिन अरनात ने इस्लाम कबूल करने से इनकार किया, तो सलाह उद्दीन ने अपनी तलवार निकाली और एक ज़ोर से उस पर मारा जिससे उसका कंधा फट गया, गिर गया लेकिन मरा नहीं था, मुसलमान सिपाहियों ने उस पर हमला करके खत्म कर दिया।
इस तरह अरनात को सलाह उद्दीन ने अपने हाथों से क़त्ल करके अपनी कसम पूरी की, ईसाई बादशाह ने यह मंज़र देखा तो वह काँपने लगा, सलाह उद्दीन ने उससे कहा बादशाहों को मारना हमारा तरीक़ा नहीं लेकिन यह शख़्स अपनी हदूद से आगे निकल गया था, इसके साथ यह सब कुछ उस लिए हुआ।
फिर सलाह उद्दीन ने हुक्म दिया कि सलीबी जानबाज दव्वियाह और इस्तोकारिया को लाया जाए, ये दोनों मज़बूत ईसाई गिरोह और सख्त जंगजू थे, जो इस्लाम के सख्त ख़िलाफ़ थे, मुसलमानों के ख़िलाफ़ जंग में बहुत ताक़तवर थे, उनको जमा करके उनके सामने इस्लाम पेश किया गया, लेकिन उन्होंने क़बूल नहीं किया, सलाह उद्दीन ने सभी को क़त्ल करने का हुक्म दिया, उन सभ को क़त्ल किया गया, सलाह उद्दीन ने कहा कि ये दोनों गिरोह हम से दुश्मनी नहीं छोड़ते, ये बहुत ज़्यादा ख़तरनाक कुफ्र वाले हैं।
रेमन्ड की मौत
जहां तक रेमन्ड की बात है जो तराबिलुस फरार हो गया था, जब उसको उस जंग के नतीजे की ख़बर मिली, कि कैसे ईसाईयों को ज़िल्लत के साथ दमिश्क में बेचा गया, तो ग़ुस्सा से उसका कलेजा फट गया, परेशान हुआ और ग़म में मुब्तला हुआ, जिसकी वजह से उसको रोज़ा भी तोड़ना पड़ा और तराबिलुस में उसका इंतिक़ाल हुआ, ये भी हित्तीन की जंग का नतीजा था कि अल्लाह ने इस ख़तरनाक जंगजू से बचाया।
बाक़ी इंशाल्लाह अगली किस्त में
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