नूरुद्दीन ज़ंगी-फिलिस्तीन का इतिहास (किस्त 8)
फिलिस्तीन का इतिहास (किस्त 8)
सुल्तान नूरुद्दीन ज़ंगी
Table of Contents
इस्लामी स्वतंत्रता आंदोलन का पहला प्रयास
505 हिजरी 1112 ई. में उलमा के दबाव और अवाम और शासकों के दिलों में उत्साह जगाने के उनके अथक प्रयासों के परिणामस्वरूप, मुसलमानों द्वारा पहली जवाबी कार्रवाई उलमा के नेतृत्व में आंदोलन के साथ शुरू हुई। और सभी इस्लामिक देशों में से केवल मोसुल के शासक ने जवाबी कार्रवाई की, मोसुल पर अमीर मौदूद नाम के एक तुर्की मुस्लिम व्यक्ति का शासन था,
इस व्यक्ति ने लोगों को जिहाद के लिए बुलाया, लोग उसके पास आने लगे, फिर उसने जल्द ही अपनी सेना का नेतृत्व किया। रूहा,” यानी, एडेसा, और इस पर विजय प्राप्त करने में सफल रहा, कुछ ईसाइयों को कत्ल कर डाला और कुछ को कैद कर लिया, कैदियों में से कुछ को अर्मेनियाई लोग ले गए, जिन्होंने इस विजय में उसका सहयोग किया था। इसजीत से मुसलमानों के बीच कुछ उम्मीदें लौटने लगीं।
मौदूद की हत्या
507 हिजरी, 1113 ईसवी को उम्मीद के आसार देख कर मुसलमानों की कई जमातें अमीर मौदूद की ओर लपके, जिससे एक लश्कर तैयार हुआ, और यह यरुशलम की ओर आगे बढ़ा, ईसाईयों ने अपनी ओर आने वाली इस सेना के खतरे को महसूस किया, लेकिन अमीर मौदूद के पास एक साधा बिखराई फौज के सिवा कुछ नहीं था, जिसका सामना ईसाईयों की एक बड़ी फौज के साथ था, जो कि भारी साज़ व सामान और बड़ी संख्या में जमा थे।
इन दोनों के दरमियान ज़बरदस्त लड़ाई हुई, लेकिन किसी का भी पलड़ा भारी नहीं रहा। मौदूद ने अपनी सफ़ों को दोबारा तरतीब करने का फ़ैसला किया, इस लिए वह दमिश्क की ओर पीछे हट गया, जो अभी तक उसके मातहेत था, दमिश्क में वह जुमे के दिन मस्जिद उमवी आया, गुमराह बातिनिया फिर्के से तालुक़ रखने वाला एक हशीशी उसकी ओर लिपटा और उसको कत्ल कर दिया।
शायद यह गद्दारी की इन्तिहा थी, कि एक ऐसा व्यक्ति जो इस्लाम से वाबस्तगी का दावा करता है वह एक ऐसे मुसलमान मुजाहिद को जानबूझ कर कत्ल कर देता है, जिसमें अल्लाह ने टूटी फूटी उम्मत मुस्लिमा को जमा करने की उम्मीद रखी थी, लेकिन यह गुमराह बातिनिया फिर्के का तरीक़ा ए अमल था और अब भी है वह मुसलमानों से इतनी दुश्मनी करते हैं जितनी काफ़िरों, ईसाईयों और यहूदियों से भी नहीं करते।
कहा जाता है कि यरुशलम में ईसाईयों के बादशाह को जब मौदूद के कत्ल की ख़बर मिली, तो वह हंस पड़ा और कहा कि अगर कोई कौम अपने लीडर को ईद के दिन अपने माबूद के घर में कत्ल कर देता है तो उस कौम को तबाह करना अल्लाह पर वाजिब है।
किस्त्वान का मुआर्का (जंग)
मौदूद की जंगी तहरीक पैदा होते ही दम तोड़ गई, कामयाबी उसकी मुकद्दर नहीं थी, लेकिन 513 हिजरी के मुताबिक 1119 ईसवी में उलमाए किराम ने जल्द ही एक दूसरे शख्स (नारदीन शहर के हुक्मरान) के दिल में अज़्म और जोश पैदा किया, चुनांचे इस हुक्मरान ने एक लश्कर को जमा किया और दोबारा “रुहा” यानी एडीसा की ओर बढ़े।
एक मुख्तसर सी जंग के बाद मुसलमान फौज ईसाईयों पर काबू पाने और उन्हें शिकस्त देने में कामयाब हो गई। इस मुआर्का को मुआर्का ए कुसतुवान कहा जाता है। इस नए क़ाइद से लोगों में एक बार फिर से उम्मीद और नेक शगून पैदा हो गया, और मुसलमानों में फतह की नई जोश की तैयारियाँ दोबारा शुरू हो गईं।
उलमा ए किराम की तहरीक
529 हिजरी के मुताबिक 1135 ईसवी में इस्लामी फौज एडीसा में दाखिल हुई और कई साल तक वहीं रही, लेकिन जल्द ही इस शहर पर उनका कंट्रोल कमज़ोर हो गया, क्योंकि इस बात की ख़बर अब्बासी ख़लीफ़ा अल-राशिद बिल्लाह के कानों तक पहुँची गई थी, वह एक ज़ालिम और बदकर्दार आदमी था जो शराब पीने के लिए मशहूर था,
इसलिए उम्मते मुस्लिमा के उलमा ने मुत्ताफका के तौर पर इस ख़लीफ़ा के फ़स्क़ और बदउनवानी के ख़िलाफ जंग करने पर इतफ़ाक़ किया, और लोगों को उसे बरतरफ करने पर उभारा, अलमा की मेहनत रफ्ता रफ्ता इस क़दर मुस्तहकम हुई थी कि कई सालों के बाद पहली मरतबा लोगों पर उनका कंट्रोल था, ख़लीफ़ा राशिद बिल्लाह की हुकुमत को अभी एक साल गुज़रा था कि अलमा ने हाकिम की बैअत के नाजाइज़ होने और उसे तोड़ने का इलान किया,
उन्होंने हाकिम के चचा से बैअत का इलान किया, इस तरह आवामी दबाव और अलमा के दबाव से अल-राशिद का तख़्ता उलट गया और उनकी जगह उनके चचा मुक्ताफ़ा लिअमराल्लाह ने खिलाफत संभाली, और इस हाकिम ने मुस्लिमों के लिए एक बडी इस्लाही तहरीक शुरू की।
महान ज़ंगी खानदान
539 हिजरी मुताबिक 1145 ईसवी में एक मशहूर शख्सियत वुजुद में आई, जिन्हें ख़लीफ़ा ने मोसुल का हाकिम मुक़र्र किया था, ये मुजाहिद इमादुद्दीन ज़ंगी थे, ये उन लोगों में से थे जिनकी परवरिश उलेमा ने की थी, और उनकी तालीम में जिहाद के अस्बाक शामिल थे, ये इस मज़हबी इस्लाही तहरीक के असरात थे जिसकी कयादत इमाम ग़ज़ाली और इमाम तर्तूशी ने कई दहाईं पहले शुरू की थी।
यहाँ ये बात नोट करने के क़ाबिल है कि दावती और इस्लाही तहरीकें अगर मुखलिस हों तो वो फलदार होती हैं अगरचे लम्बे अरसे बाद क्यों न हो, क्योंकि हमेशा इस्लाह पहले होती है।
इमादुद्दीन ज़ंगी ने ग़ौर-ओ-फ़िक्र किया कि किस तरह सलीबीयों को शिकस्त दी जा सकती है, उसने गहरी सोच के बाद इस बात का इहसास किया कि उम्मत मुस्लिमा की कमज़ोरी और उसका टुकड़ा-टुकड़ा होना उसकी वजह है, उस के लिए उसने दो फ़ैसले किए जिनका इलान उसने खुले आम किया:
एक तो उसने इस्लामी इत्तेहाद का इलान किया और अपने पास की इस्लामी रियासतों को मुत्तहिद होने और इखट्टे होने की दावत दी। दूसरा उसने जिहाद का इलान किया और मुजाहिदीन को मोसुल की ओर जोग दर जोग आने का हुक़्म दिया। इमादुद्दीन ज़ंगी के उन दोनों इलानों का लोगों के दिलों में गहरा असर हुआ, चुनांचे वो हर तरफ से जमा होने लगे, लेकिन हुकुमरानों का मोक़फ़ उसके बरअक्स (opposite) था,
किसी ने उसकी पुकार पर लबैक नहीं कहा, उन्होंने उसके साथ किसी भी किस्म के तावन करने से इनकार किया, और उसे हथियार, माल और फ़ौज देने से भी इनकार किया, लेकिन इमादुद्दीन ज़ंगी ने अपनी दावत का सिलसिला जारी रखा, और जब उसे लगा कि उसकी फ़ौज तैयार है तो वो उत्तरी शाम के शहर हलब गया, और उसकी चौकी को कुचल दिया, उसने अपनी हुक़्मरानी की बुनियादों को मज़बूत करना शुरू किया,
फिर उसने एक मज़बूत फ़ौज कायम की, और उसे एडीसा भेजा ताकि उसको आज़ाद करें और इस्लामी हुक़ुमत में उस को दोबारा शामिल करें। सलीबी यहां चालीस साल तक रहे थे इतने अर्सा बाद मुस्लिमों ने उस को फ़तेह किया, इस फ़तेह ने आलम ए इस्लाम और यूरपी ममालिक दोनों में हलचल पैदा की, यूरप और ईसाई पोप ने इस मुजाहिद का ख़तरा महसूस किया जो इस्लामी रूह और इस्लामी ताक़त के साथ आगे बढ़ रहा था।
संगीन गद्दारी
पोप ने इमादुद्दीन ज़ंगी को रोकने के लिए एक नई सलीबी युद्ध की तैयारी शुरू की, और अफ़सोस कि इस बार भी मुसलमानों ने उसकी मदद की, ऐसे में इमादुद्दीन ज़ंगी के ख़िलाफ़ यरूशलम के ईसाई हुक़मरान के साथ दमश्क के मुस्लिम हुक़मरानों की तरफ़ से इत्तिहाद की दरख़्वास्त हुई, इमादुद्दीन ज़ंगी अल्लाह ताआला की राह में जिहाद के लिए बदस्तूर मशगूल थे।
जैसा कि पहले उल्लेख किया गया, बातिनी फिरके वाले मुसलमानों के दुश्मन थे, उन्होंने मुसलमानों के साथ बार-बार धोखा दिया था, और इस्लामी उम्मत की पीठ में बार-बार छुरा घोंपा है, ऐसे में उन्होंने 541 हिजरी, 1146 ईसवी को इमादुद्दीन ज़ंगी को भी कत्ल किया,
जिसके बाद इक़्तदार की बाग़दौर उनके बेटे उज्ज्वल और अज़ीम बहादुर नूरुद्दीन ज़ंगी ने संभाली, उनकी तरबियत उनके वालिद इमादुद्दीन ज़ंगी की मुबारक जिहाद के तर्ज पर हुई थी, जिसकी वजह से उनका शुमार अज़ीम तरीन लोगों में होता था, लेकिन हैरत की बात है कि बहुत से नौजवान इस महान हीरो की जिंदगी के हालात को नहीं जानते।
नूरुद्दीन ज़ंगी ने अपने वालिद से जो तरबियत हासिल की थी, उन्होंने हुक्मरान बनकर सामाजिक इस्लाह पर कोशिश शुरू की, ऐसे में उन्होंने लोगों में मुबल्लिग़ीन को फैलाना शुरू किया, फ़साद और बदउनवानी का ख़ात्मा किया और माइशत को भी फ़रोग़ दिया, उन्होंने व्यापारिक तहरीकों और आर्थिक सुधार की हौसला अफ़ज़ाई की, अदालतों में सुधार किए और नेक जजों को मुक़र्र किया, इस से लोगों को नई ज़िंदगी मिली, उन्होंने इस नए हुक्मरान के साथ खड़े होने की अहमियत महसूस की।
इस दौरान नूरुद्दीन ज़ंगी के दिमाग़ से उम्मत-ए-मुस्लिमा के दिफ़ा’ का मंसूबा ओझल नहीं हुआ था, लेकिन उन्होंने इसके लिए सुकून के साथ, तैयारी के साथ और समझदारी के साथ काम किया। उन्होंने लश्कर तैयार किया और फिर जिहाद का ऐलान किया, जिसके बाद बहुत सारे लोग उनके पास जमा होने लगे, क्योंकि लोगों ने देख लिया था कि वह इंसाफ़ और हिकमत वाले हैं।
उन्होंने फौज पर बहादुर सिपाह सालार मुक़र्र किए जिनमें से एक असदुद्दीन शेरकोह बिन शादी बिन अय्यूब थे, जिन्हें शेरकोह अय्यूबी भी कहा जाता था। उनके भाई नजमुद्दीन अय्यूब बिन शादी बिन अय्यूब थे, और यह बाद वाले सलाहुद्दीन अय्यूबी के वालिद थे। इस दौरान सलाहुद्दीन अय्यूबी पैदा हो गए थे, उन्होंने इल्म की तहसील की, दीनी और जिहादी तरबीयत भी हासिल की, उनकी परवरिश नबी करीम ﷺ की अहादीस और सीरत पर हुई थी, उनके उस्तादों में से एक मुहद्दिस अस्बहानी भी थे, जिन्होंने उनकी परवरिश और तालीम का काम किया।
दमिश्क में घेराबंदी खत्म करना
दमिश्क क्रैस्टियन यूनियन(ईसाई इत्तिहाद) में शामिल था, जैसा कि हमने पहले कहा कि यूरोप इस इस्लामी बेदारी और निशात ए सानिया(पुनः उत्थान) के प्रयासों के मुक़ाबले की तैयारी कर रहा था, यूरोप ने सामने आकर लड़ने की बजाय अपने मुस्लिम साथी दमिश्क के हाकिम के साथ धोखा किया, और उसके शहर पर हमला कर दिया।
दमिश्क के हाकिम ने नूरुद्दीन ज़ंगी से मदद तालब की, नूरुद्दीन ज़ंगी उस वक़्त के दूसरे हाकीमों की तरह ख़ामोश खड़े नहीं रहे, उसने यह उज़र पेश नहीं किया कि दमिश्क का हाकिम धोखादार है और वह उस आज़ाब का मुस्तहिक़ है।
बल्कि इस्लामी हिमायत और ग़ैरत ने नूरुद्दीन ज़ंगी को दमिश्क की मुस्लिम सरज़मीन के दिफ़ा’ के लिए आमादा किया, चूनांचह वह ताक़त और समझदारी से उस काबिल हुआ था कि उसने दमिश्क पर ईसाइयों का हमला पस्पा किया, लेकिन नूरुद्दीन ज़ंगी ने इस के बावजूद दमिश्क के हाकिम को वापस दमिश्क पर बहाल किया, और ईसाइयों के ख़िलाफ़ उसके साथ इत्तेहाद क़ाएम किया।
बअलबक्क और तराबुलस की आज़ादी
इसके बाद नूरुद्दीन ज़ंगी ने बालाबक और तराबुलस की ओर मुड़ा, और उन्हें क्रैस्टियनों(ईसाइयों) के हाथों से छुड़ा लिया। यह ख़बर मशरिक और मग़रिब तक पहुँची, जिससे इस नए हाकिम के बारे में ख़ुशी मनाई जानी लगी, और तमाम आतराफ़ में उनकी शोहरत फैल गई। यहाँ तक कि अब्बासी ख़लीफ़ा ने भी नूरुद्दीन ज़ंगी को ‘आदिल बादशाह’ का लक़ब दिया, लेकिन इस के बावजूद उसने नूरुद्दीन ज़ंगी की कोई मदद नहीं की, क्योंकि ख़लीफ़ा बेबस था, अमली काम के बजाय सिर्फ़ बातों पर इकतिफा किया, हालांकि लोगों ने उसका साथ दिया था और उसकी मदद की थी, लेकिन ख़लीफ़ा डर रहा था, वह अपनी कुर्सी से चिपटा रहा।
यूरपी बादशाह महमात की क़ायदत
543 हिजरी मुआफ़िक 1148 ईसवी में सलीबी शहज़ादों की क़ायदत में यूरप से सलीबी जंगें चलीं, और वह सब दमिश्क का मुहासिरा करने के लिए आगे बढ़े, दमिश्क के मुजाहिदीनों ने बहादुरी से इस का दिफ़ा किया, और महान जंग लड़ी, दमिश्क के हाकिम ने नूरुद्दीन ज़ंगी से सलीबी लश्करों के ख़िलाफ़ मदद माँगी, नूरुद्दीन ज़ंगी ने अपने वायदे को पूरा किया और ऐसा महान लश्कर भेजा जिससे सलीबीयों का हौसला उखाड़ दिया और मुहासरा(घराव) ख़त्म कराया,
नूरुद्दीन ज़ंगी ने सलीबीयों पर दबाव डाला, उनका पानी बंद किया, इस दबाव और पानी की कमी की वजह से वह मुहासरा तोड़ने पर मजबूर हुए, वह जल्द ही शिकस्त खाकर यूरोप वापस आये, यूरपी बादशाह अपने मुल्क छोड़ नहीं सकते थे, उन्होंने समझ लिया था कि मुस्लिमों के साथ जंग तूल (लंबाई)पकड़ेगी, चूंकि वह यूरप की तरफ़ पीछे हट गए और उनकी मुहिम नाकाम हो गई।
दमिश्क के हाकिम की धोखाधड़ी
ईसाई फ़ौजों के इन्ख़िला(खाली) के बाद नूर नूरुद्दीन जंगी ने अपने आप को क़ुदस (यरूशलम) की दोबारा हासिल की फ़िक्र के लिए वक्फ कर दिया, उसने दमिश्क के हाकिम से कहा कि मुझे जनूबी फिलस्तीन में अस्कलान के मुहासरे के लिए एक मुआविन फ़ौज प्रदान करे, लेकिन उसने इनकार किया, उसने यह बहाना बनाया कि मुझे दमिश्क के लिए मुहाफ़िज़ीन की ज़रूरत है,
नूरुद्दीन ज़ंगी ने हाकिम दमिश्क को माअज़ूल करने की धमकी दी, हाकिम दमिश्क ने ख़ुफ़िया तौर पर क़ुदस (यरूशलम) के ईसाई हाकिम के पास नूरुद्दीन ज़ंगी के ख़िलाफ़ मदद माँगने के लिए आदमी भेजा। यरूशलम के ईसाई ने महसूस किया कि मुसलमानों का यह झगड़ा उनके हक़ में मुफ़ीद है, उन्होंने जल्दी से दमिश्क के हाकिम की मदद के लिए एक लश्कर रवाना कर दिया,
यह ख़बर नूरुद्दीन ज़ंगी को पहुँची और जैसे ही ख़बर पहुँची उसने ईसाईयों से मुक़ाबले के लिए एक लश्कर तैयार किया और तुरंत मुक़ाबले के लिए पहुँच गया, अभी ईसाईयों की फ़ौज पहुँची नहीं थी कि वह दमिश्क पहुँच गया, और रास्ते में उनको शिकस्त से दो चार किया, इससे आलम ए इस्लाम में ख़ुशी की लहर दौड़ गई, मुसलमानों के हौसले बुलंद हो गए, दमिश्क के बच्चे नूरुद्दीन ज़ंगी के नाम के अशआर गुंजने लगे, नूरुद्दीन के नाम से हिकायतें, क़िस्से और नॉवेल तयार किए जाने लगे।
दमिश्क की फ़तह
546 हिजरी, 1152 ईसवी को दमिश्क के हुक्मरान ने नूरुद्दीन ज़ंगी की वफादारी का ऐलान किया, जब उसने महसूस किया कि उसके लिए उसे कबूल करने के सिवा कोई चारा नहीं है, और उसका कोई और सहारा और संधि नहीं रहा, इस तरह दमिश्क को नूरुद्दीन ज़ंगी के लिए खोल दिया गया, नूरुद्दीन ज़ंगी वहां फातिहीन की तरह प्रवेश किया, लोगों ने उनका स्वागत तकबीर और तहलील से किया,
यहाँ नूरुद्दीन ज़ंगी ने अदल और इमानदारी के साथ हुकूमत की, दमिश्क में उनकी बनी हुई इमारतें और आवकाफ आज तक मौजूद हैं, इस तरह नूरुद्दीन ज़ंगी की हुकूमत दमिश्क, हलब और मोसुल पर बनी, बावजूद इसके कि नूरुद्दीन ज़ंगी की यह हुकूमत फ़िलिस्तीन और यरूशलम में जमा होने वाले लश्कर के सामने एक छोटी सी ताकत थी
लेकिन नूरुद्दीन ज़ंगी उनके साथ झड़पों और वक्त वक्त पर उनकी नींदें खराब करने से बाज नहीं आते थे। और यह बात तय है कि जंगों की मिसाल डोल की सी है, इसमें किसी एक को दाइमी जीत नहीं मिलती, नूरुद्दीन ज़ंगी को अपनी रियासत के इलाक़े को बढ़ाना था और बड़ी संख्या में फ़ौज और सामान को इकट्ठा करना था।
नूरुद्दीन ज़ंगी की फ़ौज को शिकस्त
नूरुद्दीन ज़ंगी और ईसाईयों के दरमियां लड़ाईयाँ चलती रहती थीं, 558 हिजरी, 1162 ईसवी में नूरुद्दीन ज़ंगी को शिकस्त का सामना करना पड़ा, लेकिन वह खुद उस से से बच निकले, वह दूसरे मुल्क मुंतक़िल हुए, उसने अल्लाह ताला की कसम खाई कि वह अपना और अपने सिपाहियों का बदला लेंगे। वह पूरे दो साल जंग की तैयारी करते रहे, ईसाई नूरुद्दीन ज़ंगी के इस जोश और जज़्बा से ख़ौफ़ज़दा थे,
इसलिए उन्होंने नूरुद्दीन ज़ंगी को सुलह की पेशकश की, नूरुद्दीन ज़ंगी ने इसे ठुकरा दिया, और उन के मुक़ाबले के लिए लश्कर को जमा करने लगा, उसने मुस्लिम बादशाहों की तरफ़ भी मदद के लिए वफूद और ख़तूत भेजे लेकिन उनमें से कुछ लोगों ने इसे कबूल किया, नूरुद्दीन ज़ंगी ने एक छोटी सी फ़ौज बना ली, उनकी तरबीयत की और उनमें ईसाईयों के ख़िलाफ़ जेहाद का जज़्बा पैदा किया।
हारिम की अज़ीम जंग
560 हिजरी 1164ई में, जब नूरुद्दीन ज़ंगी ने अपनी सेना की तैयारियों को पूरा किया, तो वे हारिम के क्षेत्र में ईसाईयों से एक महान युद्ध लड़ने के लिए रवाना हुए, उस रात नूरुद्दीन ज़ंगी ने अल्लाह से खूब गिड़गिड़ा कर दुआ की कि अल्लाह उन्हें फ़तह अता फरमाए, अपने दीन की मदद फरमाए और मुसलमानों को नाकाम होने से बचाए, ईसाईयों को हार दे। जो लोग ने यह बात नकल की है उनके अनुसार यह दुआ बहुत ही प्रभावी थी।
अगले दिन सुबह हारिम का महान संघर्ष हुआ, इस संघर्ष को बहुत से इतिहासकारों ने जिक्र करने में कमी की है, हालांकि यह महान संघर्ष था जो 1164 में लड़ा गया था, इसके महत्व का अंदाजा इससे लगाएं कि कई सलीबी राज्यों ने अपने राजाओं के साथ इस लड़ाई में हिस्सा लिया, तराबिलस और यरुशलम की अमीरों ने और यहाँ तक कि अंटाकिया के हक़ीम ने ख़ुद इसमें शिरकत की, अल्लाह ने मुजाहिद नूरुद्दीन ज़ंगी की दुआ को कबूल किया, और उसे एक फ़ैसला कुन फ़तह दी,
दस हज़ार ईसाई मारे गए और उतनी ही संख्या क़ैद की गई, अंटाकिया और तराबिलस के बादशाह को भी क़ैद किया गया, यह एक इबरतनाक हार थी, जब से ईसाई अरब देशों में दाख़िल हुए थे तब से अब तक उन्होंने इससे बड़ी हार नहीं देखी थी, इसके परिणामस्वरूप ईसाई राज्यों की बुनियादों में दरारें पड़ गईं और पूरा यूरोप इस ख़बर से हिल गया, इसके बाद नूरुद्दीन ज़ंगी ईसाईयों के दिलों में एक ख़तरनाक व्यक्ति बन गए, उन्होंने नूर उल्दीन ज़ंगी की ताक़त और जंगी क्षमता की गणना और अंदाज़ों पर विचार किया।
ममलूकों का दौर
उन दिनों जब शाम में हालात हंगामा खेज थे, मिस्र अब भी फ़ातिमीयों के अधीन था, जो गुमराह इस्माईली अकीदे के पैरोकार थे, लेकिन मिस्र के लोग ख़ुद सुन्नी मुस्लिम थे, वे उन बातों के पीछे पड़ कर गुमराह नहीं हुए थे, लेकिन क्योंकि फ़ातिमी शासकों को एक नए सेना को तैयार करने की आवश्यकता पड़ी थी ताकि वे फ़ातिमी साम्राज्य की रक्षा कर सकें, जिसकी मूल नींवें धीरे-धीरे कमजोर होती जा रही थीं, इसके लिए उन्होंने दूर-दूर के देशों से ग़ुलाम ख़रीद कर उन्हें जंग करने और हथियार इस्तेमाल करने की तरबीयत दी, जिसमें तुर्क, सराकसी और अन्य शामिल थे। उन्हें मम्लुक कहा जाने लगा, जिनका बाद के ज़माने में बड़ा महत्व था।
फ़ातिमी वजीरों का विवाद
फ़ातिमी ख़लीफ़ा के दस्तूर के मुताबिक़ हुक्मरानी हमेशा उसके मातहत वजीरों के हाथों में रहती थी, मिस्र में फ़ातिमी ख़लीफ़ा अलआबिद ने तीन मंत्री मुक़र्रर किए थे, जिनमें से वज़ीर अव्वल के पद के लिए इख्तिलाफ़ पैदा हुआ, ये तीन मंत्रि शावर, आज़िद और दरगाम थे, शावर ने लड़ाई शुरू की वह आज़िद को कत्ल करने में कामयाब हुआ, लेकिन वह दरगाम के लश्कर के सामने हार गया।
शावर इस के बाद मुल्के शाम की तरफ़ भाग गया, जब मिस्र में उन्हें ढूंढा जाने लगा। शावर ने नूरुद्दीन ज़ंगी के पास पनाह ली, और उनसे अनुरोध किया कि वह दरघाम को मिस्र की ख़ुद मुख्तारी से निकालने के लिए उनकी मदद करें, इस तरह नूरुद्दीन ज़ंगी ने मिस्र में अपने आज़ाइम को बढ़ाना शुरू किया, क्योंकि यह सलीबीयों के खिलाफ दक्षिणी सीमा थी, नूरुद्दीन ने यह सोचा कि अगर वह मिस्र पर काबू पाता है तो सलीबी इस तरह उसके दोनों तरफ़ के दरमियान आ जाएंगे और फिर उन्हें हराना और उन्हें ख़त्म करना आसान होगा।
नूरुद्दीन जंगी का मिस्र की तरफ़ मुतावाज्जा होना
नूरुद्दीन ज़ंगी ने इस अनुरोध को एक अच्छा मौक़ा माना, मिस्र वास्तव में एक मजबूत मुकाबला था जिसे फ़िलस्तीन और यरूशलम के ईसाई उसे हराने के लिए उपयोग किया जा सकता था, शावर ने नूर उल्दीन ज़ंगी से वादा किया कि अगर वह इसे मिस्र में अपने शासन को बहाल करने और दरगाम को हराने में मदद करेगा तो वह इसे सेना और जंगी साज़ व सामान फ़राहम करेगा।
नूर उल्दीन ज़ंगी ने महसूस किया कि मिस्र दौलत और ताकत के लेहाज़ से एक ऐसी ताकत है जिससे वह अपनी बादशाहत को ताकत दे सकता है और अपने सैनिकों को बढ़ा सकता है और यरूशलम में मौजूद हमलावरों को हरा सकता है।
इसके बाद नूर उल्दीन ज़ंगी ने अस्दुद्दीन शिरकोह के नेतृत्व में एक लश्कर मिस्र की ओर रवाना किया, फ़ातिमियों ने महसूस किया कि जंग उनकी तरफ़ बढ़ रही है, इसलिए मंत्री दरगाम एक लश्कर के साथ अस्दुद्दीन की सेना के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए रवाना हुआ। मिस्र में बिलबीस स्थान पर ये दोनों सेनाएं आमने-सामने हुईं, अस्दुद्दीन शिरकोह यह जंग जीतने में कामयाब हुआ, और काहिरा की ओर अपनी पेशकश जारी रखी,
दरगाम ने काहिरा की रक्षा के लिए एक और सेना तैयार की, लेकिन यह दूसरी सेना शामी लश्कर के सामने हार गई, शावर काहिरा में प्रवेश किया, और अपने पद पर बहाल हो गया, और वह मंत्री अव्वल बन गया। इस विजय के बाद वज़ीर शावर को सलीबीयों से लड़ने के लिए नूरुद्दीन ज़ंगी को पैसे और सैन्य सहायता देने का अपना वादा पूरा करना था
लेकिन उसने टाल मटोल शुरू की, और वादे को आमली जमा पहनाने से पहले रीआयती मुद्दत की मांग किया, जब शिरकोह ने महसूस किया कि वह संजीदा नहीं है और वह अपना वादा तोड़ रहा है, तो उसने मिस्र में रह कर मशरिकी इलाकों को कंट्रोल करना शुरू किया, शावर को उन हरकतों से ख़ौफ़ महसूस हुआ, उसके पास शिरकोह के ख़िलाफ़ ईसाई से मदद मांगने के अलावा कोई चारा कार नहीं था।
एक और धोखा
कुछ भी हो, लेकिन शावर फिर भी बातिनी इस्माईली समुदाय से तालुक़ रखता था, वह अपने अंदर यह हक़ीक़त छुपा रहा था, और बातिनी समुदाय की निशानी धोखा देना होती थी, इसके अलावा मज़हबी और अखलाकी ख़राबियाँ भी उनमें थीं, ईसाई ने शावर की मदद की दरख़ास्त को एक नादिर मौक़ा समझा, क्योंकि उन्हें शामी सेना से अपनी हार का बदला लेना था, इसलिए यरूशलम से एक लश्कर मिस्र की तरफ़ रवाना हुआ
ताकि शिरकोह का घेराबंदी कर सके, और फ़ातिमियों ने भी काहिरा से एक लश्कर भेजा ताकि शामी सेना पर दोतरफ़ा घेराव क़ायम कर सके, नूरुद्दीन ज़ंगी के लिए हालात बिल्कुल उल्ट हो गए क्योंकि उन्हें मिस्र के हक़ीमों से यह आशा थी कि ईसाई के खिलाफ़ जंग में वह इसके शाने बशाने खड़े होंगे, और अब उसने अपनी महत्त्वपूर्ण सेना को मिस्र में फंसा हुआ पाया, और फ़ातिमियों और ईसाईयों ने उसके खिलाफ़ इत्तिहाद कर लिया, नूरुद्दीन ज़ंगी ने तुरंत अस्दुद्दीन शिरकोह की मदद के लिए एक और लश्कर भेजने का फ़ैसला किया।
ईसाईयों के साथ सुलह और जंगबंदी
नूर उल्दीन ज़ंगी की ओर से शेरकोह को आने वाले लश्कर और उसकी फ़तूहात का इल्म नहीं था, इसलिए उसने महसूस किया कि ईसाईयों के साथ सुलह उसके लिए मुनाफ़े बख़्श है ताकि वह अपने आप को ईसाई और फ़ाटिमी फ़ौजों के घेराओ से बचाए, उन्होंने इस पर इत्तिफ़ाक़ किया कि हर दोनों फ़र्क बिना जंग के मिस्र से निकल कर अपने मुल्क चले जाएँगे, इस तरह यह सब मिस्र से निकलना शुरू हो गया।
जब नूरुद्दीन ज़ंगी को जंग बंदी की ख़बर मिली, और मिस्र से ईसाई फ़ौजों के इन्खला की ख़बर मिली तो वह शाम की तरफ लौट आए क्योंकि उन्होंने देखा कि वह मिस्र की तरफ़ फ़िलस्तीन में काफ़ी हद तक घुस चुके हैं और दमिश्क में उनकी एक छोटी छावनी बाक़ी रह गई है, दमिश्क को यह भी ख़द्दशा था कि ईसाई उनके क्षेत्र में रहते हुए उसे धोखा देंगे,
इसलिए उसने महफ़ूज़ रहने और दोबारा तैयारी करने को तर्जीह दी, ताहम मिस्र पर क़ाबू पाने का ख़याल उनके ज़हन से नहीं निकला, यह मज़बूत महाज़ अब भी उन्हे सताता रहा, और वह हमेशा ग़दार शावर को ख़त्म करने और उसे मिस्र से निकालने के बारे में सोचते थे।
फिर से तैयारी
नूर उल्दीन ज़ंगी ने वक़्त ज़ाया नहीं किया बल्कि जैसे ही असद उल्दीन शीर कोह दमिश्क से वापस आया, उसने उसे फिर से मिस्र की ओर बढ़ने के लिए एक नई फ़ौज तैयार करने का हुक्म दिया, उसने असद उल्दीन की नेतृत्व में फिर से मिस्र की ओर बढ़ने की तैयारी शुरू की, असद उल्दीन शीर कोह ने मिस्र की ज़मीन का और वहाँ की जंग की नौईयत के बारे में बहुत ज़्यादा ज्ञान हासिल कर लिया था,
ताहम फ़ौज तैयार होकर जीज़ा की ओर चली और वहाँ अपना पड़ाव डाला, यह ख़बर तेज़ी से फैली यहाँ तक कि शारू के कानों तक पहुँच गई, उसने जल्दी से फिर से ईसाईयों से मदद की दरख़ास्त की, ईसाईयों ने कोई वक़्त ज़ाया किए बिना अपनी फ़ौजें वहाँ भेज दीं जो शाम की फ़ौज से मिल गईं।
इस्कंदरिया का कन्ट्रोल
असद उल्दीन शीरकोह नहीं चाहता था कि उसके साथ पिछली बार की तरह हालात पेश आए, वह अपनी फ़ौज ले कर मिस्र के ऊपरी हिस्से की ओर चला, ताकि फिर से फातिमी और ईसाई फ़ौजों के घेरे में न आए, उसने उस जगह का चयन किया जहाँ उसे केवल ईसाईयों के साथ जंग करनी थी, और ऐसा ही हुआ, इस तरह उसने ईसाईयों को शिकस्त दी और फिर वह फ़तह के बाद इस्कंदरिया की ओर मुड़ा, और वहाँ का कंट्रोल संभाल लिया, वहाँ अपने भतीजे सलाह उल्दीन अय्यूबी को गवर्नर नियुक्त किया जो कि एक नौजवान था, उसकी उम्र पच्चीस साल से ज़्यादा नहीं थी, उस उम्र में वह पहली बार इस्कंदरिया का गवर्नर बना।
असद उल्दीन शीरकोह फातिमी और ईसाई फ़ौजों को काहिरा से बाहर मुस्तैद रखना चाहते थे ताकि उनके साथ एकबारगी जंग की नोबत न आए, लेकिन शावर और ईसाई इस्कंदरिया की ओर अचानक मुतावज्जाह हो गए और सलाह उल्दीन अय्यूबी का घेराबंद कर लिया। जिससे शीरकोह अपने भतीजे की मदद के लिए और उसे घेराबंद करने के लिए इस्कंदरिया वापस आने पर मजबूर हुए, मामला पेचीदा हो गया,
फौजें मुसलसल हरकत में आईं, ताश के पत्ते आपस में खलतमलत हो गए। शीरकोह, फातिमी और ईसाई फ़ौज का एक साथ मुकाबला नहीं करना चाहते थे, क्योंकि उन दोनों की एक बड़ी और मुत्ताहिद फ़ौज थी, दूसरी तरफ़ फातिमी और ईसाई इत्तिहादी फ़ौज भी नहीं चाहती थी कि वह शीरकोह और सलाह उल्दीन दोनों के लश्कर में फंस जाए, इस तरह यह मामला मुजाकरात पर तमाम हुआ,
इस बात पर इत्तिफ़ाक़ हुआ कि शीरकोह और सलाह उल्दीन इस्कंदरिया से पीछे हट जाएंगे और शाम वापस चले जाएंगे, और इस हमले के खर्च का मुआवज़ा भी अदा करेंगे, जिसकी मिकदार एक लाख पचास हजार दीनार थी, और अंग्रेज़ भी मिस्र से निकलेंगे। एक बार फिर शावर ने मिस्र पर पूरा नियंत्रण स्थापित किया, दूसरी ताक़तों में से कोई इस पर काबू नहीं पा सका,
लेकिन शावर ने इसके बाद भी अपने धोखाधड़ी का सिलसिला जारी रखा, उसने ईसाईयों को खत लिखे ताक़ि वह काहिरा के सीमाओं की सुरक्षा के लिए आए जिसके बदले में वह उन्हें टैक्स देंगे, जिसकी मिकदार एक लाख सोने के दीनार थी, फ़रंगियों को इससे ज़्यादा कीमती मौका नहीं मिला था, इस लिए उन्होंने जल्दी से सुरक्षा दल भेज दिया।
मुसलमानों को सबसे ज़्यादा नुक़सान मुसलमान हाकिमों की धोखाधड़ी ने दिया है, उन्होंने इक़्तिदार में रहने के लिए सब कुछ बेच डाला।
मिस्र की तरफ़ पेश क़दमी
नूरुद्दीन जंगी के कानों तक मिस्र के बारे में ये ख़बरें पहुँचती थीं, उन्होंने मिस्र में ईसाईयों के रहने और वहाँ महाज बनाने के खतरे को महसूस किया। 564 हिजरी, 1169 ईसवी को फ़िलिस्तीन के ईसाई सैनिक फ़ौजें मिस्र पर कब्ज़े के लिए रवाना हुईं, वह काहिरा में मौजूद अपनी फ़ौजी छावनी का फ़ायदा उठाना चाहते थे, यह चल पड़े यहाँ तक कि बुल्बेस स्थान पर पहुँचे और उस पर कब्ज़ा कर लिया,
यह ख़बर फ़ातिमी ख़लीफ़ा अल आज़िद के कानों तक पहुँची, जिन्होंने ईसाईयों की इस ताज़ा सरगर्मी से अंदाज़ा लगाया कि वह मिस्र पर कब्ज़ा करना चाहते हैं और उसे अपने कंट्रोल में लेना चाहते हैं, फ़ातिमी ख़लीफ़ा को अपने वज़ीर शावर की ख़ियानत का भी इल्म हुआ, उसने देखा कि मामले कंट्रोल से बाहर हो जाएंगे, और शावर मुस्तक़िल हुक्मरान बन जाएगा, या हुकूमत उस के हामी ईसाईयों के पास चली जाएगी, इस लिए उस के पास उस के अलावा कोई चारा कार नहीं था कि उसने चुपके से नूरुद्दीन जंगी के पास संदेश भेजा कि वह खाइन (धोखेबाज) शावर को ख़त्म करने में उस की मदद करे,
जिस के नतीजे में वह काहिरा के दरवाजे उस के लिए खोल देगानूरुद्दीन ज़ंगी को यह एक नया मौक़ा मिला कि वह ईसाईयों को मिस्र पर कब्ज़ा करने और वहाँ अपना असर वर्चस्व बढ़ाने से रोके, उसने जल्दी से अपनी फ़ौज तैयार की और ख़ुद भी तेज़ी से मिस्र की दिशा में रवाना हुआ, और ये दोनों फ़ौजें तीसरी मर्तबा मिस्र की दिशा में दौड़ीं।
ईसाईयों के लिए एक मिलीयन दीनार
धोखेबाज अपनी फितरत नहीं बदलता, हमारी मुराद वज़ीर शावर है, उस के पास उस के सिवा कोई चारा कार नहीं था कि वह ईसाईयों के सामने सुलह का हाथ दराज़ करे कि वह मिस्र में दाख़िल न हों बल्कि नूरुद्दीन ज़ंगी की फ़ौज को वहाँ से धकेल दें, उस के बदले में उन्हें दस लाख सोना दीनार देंगे, ये रक़म बहुत बड़ी थी जो ईसाईयों की उम्मीद से भी ज़्यादा थीं,
ईसाईयों ने देखा कि इतनी ज़्यादा रक़म उनके लिए मिस्र पर कब्ज़े की मुसीबत और मुश्किल से निजात दे गी, उन्हें मिस्र पर कब्ज़े के बारे में इस वक़्त तक यक़ीन भी नहीं था, लेहज़ा ईसाईयों ने इस मुआहिदे पर रज़ामंदी ज़ाहिर की, उन्होंने शावर से कहा कि उन्हें कुछ रक़म पेशगी दें, तो शावर ने एक लाख सोने के दीनार भेजे।
काहिरा की ओर रवानगी
ईसाई ने तय किए गए मुआहिदे को लागू कर दिया, जिसके बाद उन्होंने नूरुद्दीन जंगी को मिस्र में पहुंचने से रोकने के लिए रास्तों पर डेरे डाल दिए, शावर ने अपनी ओर से मिस्रियों से रकम वसूल करना शुरू किया, लेकिन इस भारी रकम से लोग असहाय हो गए, वह शावर से नाराज़ और तंग होने लगे, इस बारे में उन्होंने ख़लीफ़ा अल-आज़िजद के पास शिकायत के लिए वुफूद भेजे, ख़लीफ़ा ने दोबारा नूर उल्दीन ज़ांगी को पेगाम भेजा ताकि वह तेज़ी से अपनी मुहिम पर पहुंचे, इसने हमला और सिपाहियों के इख्रजात (खर्चा)को पूरा करने का भी कहा,
जिससे नूर उल्दीन ज़ांगी का जोश और बढ़ गया, इसे महसूस हुआ कि मिस्र अब उसके लिए बतौर फ़ातेह दाखिल होने के लिए तैयार है, इसने शीरकोह को पेगाम भेजा ताकि वह इस हमले में उसकी मदद करे, जो इस वक्त हमश में था। सलाह उल्दीन आयूबी, असद उल्दीन शीरकोह के साथ एक बड़ी फ़ौज के साथ निकले, नूर उल्दीन ज़ांगी ने शाम में उनका इंतजार किया
उन्होंने मिस्र में क़ाबिज़ ईसाईयों के लिए फ़ौज की सप्लाई का रास्ता काट किया, इस वक्त ईसाईयों ने बड़ा ख़तरा महसूस किया, क्यूंकि फ़िलिस्तीन से उनके रास्ते कट हो गए थे, नूर उल्दीन ज़ांगी ने उनके मुकाबिले के लिए एक बड़ी फ़ौज तैयार की, लेकिन ईसाई मुक़बले से पीछे हट गए और नूर उल्दीन की फ़ौज से लड़ने से बचने के लिए मुनतशिर हो गए। शीरकोह की फ़ौज पहुंची और तेज़ी से आगे बढ़ी, बगैर मुकाबले के वह काहिरा में पहुंचा।
अब शावर को लगा कि उसकी हुकूमत के दिन ख़त्म हो रहे हैं, उसने काहिरा को शाम के हुक़मरानों के हवाले करने में ताखीर करना शुरू किया, और नूर उल्दीन की इस नई फ़तह को ख़त्म करने का कोई हल तलाश करना शुरू किया,
सलाह उल्दीन आयूबी शावर की इस संदिग्ध हरकतों को देख रहे थे, उसने अपने चचा नूर उल्दीन ज़ांगी से उसके क़त्ल के बारे में मशविरा किया, नूर उल्दीन ने कहा कि ऐसा न करो मुझे डर है कि इस से हालात हमारे ख़िलाफ़ हो जाएंगे और हमें मिस्र में सिर्फ़ कुछ दिन ही हुए हैं, और फ़ातिमीयों में शावर की एक बड़ी ताक़त है जो अब भी उसकी हिमायत करती है।
शावर का कत्ल
जब सलाह उद्दीन को पता चला कि उनके चाचा नूर उल्दीन ज़ांगी में उनके मंसूबे को आमली जमा पहनाने का उद्देश्य नहीं है, तो वह ख़लीफ़ा अल-आज़िद के पास गए और उसे शावर के क़त्ल के बारे में अपने इरादे से आगाह किया, इस शर्त पर कि ख़लीफ़ा आज़िद सलाह उल्दीन के साथ खड़ा होगा, और फ़ातिमीयों को उस से रोकेगा,
आज़िद ने इस पर संतुष्टि ज़ाहर की, क्यूंकि वह किसी भी कीमत पर शावर से जान छुड़ाना चाहता था, बिना किसी देरी के सलाह उल्दीन ने शावर को गिरफ़्तार कर लिया, उसका सिर काट कर आज़िद के सामने पेश किया, ख़लीफ़ा ने अपना वादा पूरा किया और फ़ातिमीयों को सलाह उद्दीन पर हमले से रोका। इस तरह यह गद्दार शावर अपनी अंजाम को पहुंचा, इसके बाद मिस्र पर नूर उल्दीन ज़ांगी की हुकूमत क़ायम हुई।
शीरकोह मिस्र के वजीर
क्योंकि वजीर शावर मिस्र के मामलों का इंतजाम कर रहा था, ख़लीफ़ा आज़िद को इसके बाद इस ओहदे पर अपने वारिस की ज़रूरत महसूस हुई, उसे इस से बेहतर कोई सूरत नज़र नहीं आई कि वह कमांडर असद उद्दीन शीरकोह को मिस्र का वजीर बना ले, ख़लीफ़ा ने महसूस किया कि अगरचे शामी फ़ौज मिस्र पर हमला करने आए थे लेकिन वह उन ईसाईयों से बेहतर हैं जिन से शावर मुसलमानों के ख़िलाफ़ और नूर उल्दीन ज़ांगी की फ़ौज के ख़िलाफ़ मदद लेता था, ख़लीफ़ा ने उन दोनों में से मुसलमानों को तरजीह दी।
फिर शीरकोह ने मिस्र में अपनी हिकमते आमली के मुताबिक मामलों चलाने शुरू किए, उसने अदल व इन्साफ को फ़ैलाया, हुकूमती उमूर को कायम किया, उलमा को इज़्ज़त दी और लोगों के साथ इहसान का सलूक किया, जिसकी वजह से आवाम इससे मोहब्बत करते थी जिनकी अधिकता ग़ैर-फ़ातिमी थी और आक़ीदा और मज़्हब में सुन्नी थे।
इस तरह मिस्र में हालात मुस्तहक़म हो गए और यहां अमन व अमान कायम हुआ, लेकिन शीरकोह ने सिर्फ़ दो महीने इकतीदार में गुज़ारे और जब मिस्र के लोगों का इसके साथ दिल लग गया उसी वक़्त उनका इंतक़ाल हुआ, शीरकोह की जगह वजीर के चयन का मसला दोबारा ख़लीफ़ा आज़िद के पास आया, उसने सलाह उद्दीन आयूबी को नया वजीर और फ़ौजी सरबराह मुक़रर किया, और उसको अल मालिक उन नासिर सलाह उल्दीन का ख़ुतबा दिया, ख़लीफ़ा ने उनका चयन इस लिए किया था कि यह नौजवान है और वह मामले को अच्छी तरह संभाल सकता है।
मिस्र पर तीन ताकतों का सलीबी हमला
567 हिजरी में मुसलमानी नया साल 1171 ईसवी में, यूरोप से भी ईसाई फौजें निकले, शाम के समुद्री बेड़े भी रवाना हुए, और ईसाई सलीबी फौजें भी हरकत में आईं, और मिस्र पर तीनों ओर से हमला शुरू हुआ, यूरोपी लोग समुद्री रास्ते से, फ़िलिस्तीनी लोग भी फ़िलिस्तीन की ओर से और समुद्री रास्ते से और सीनाई की दिशा से सूखी रास्ते से। सलीबीयों की पहली फ़ौजो दुम्यात पहुँची और उसकी घेराबंदी कि, सलाह उल्दीन आयूबी ने महसूस किया कि इस समय उन आने वाली फ़ौजों का मुकाबला करने के लिए उनके पास कोई सूरत नहीं है,
क्योंकि मिस्र अभी भी उसके कब्जे में पूरी तरह से नहीं आया था, इसमें आंतरिक रूप से फ़ातिमी ताकत अब भी मौजूद थी जो उसकी राज्य के लिए ख़तरे का कारण बनी हुई थी। फ़ातिमी, मिस्र पर फिर से नियंत्रण की तैयारी के लिए दक्षिण मिस्र (सूडान) में इकट्ठा होना शुरू हो गए थे। सलाह उल्दीन आयूबी के पास इसके अलावा कोई चारा नहीं था कि वह नूर उल्दीन जंगी के पास मदद के लिए खत भेजे
नूर उल्दीन ज़ांगी ने तुरंत इसकी मदद पर लब्बैक कहा और सलाह उल्दीन की मदद के लिए पहुँचे, और उनकी ओर दस लाख दीनार सोना, हथियार और साज़ सामान भी भेजा, उसके बाद नूर उल्दीन ज़ांगी ने फ़िलिस्तीन और शाम में मौजूद सलीबी किलों पर हमला करना शुरू किया ताकि मिस्र की ओर उनके मिशन से उनकी तवज्जो हटा दें, नूर उल्दीन ज़ांगी ने मिस्र की ओर जाने वाले सभी साज़ और सामग्री का रास्ता भी काट दिया, और फ़िलिस्तीन से मिस्र की ओर जाने वाली हर फ़ौजी सेना से निपटनाभी शुरू किया
करक का क़िला
नुरुद्दीन जंगी की इन कोशिशों ने ईसाई अपनी ज़मीनी फ़ौजियों को वापस बुलाने और मिस्र पर हमला करने का ख़याल आरज़ी तौर पर त्यागने पर मजबूर कर दिया, लेकिन नूर उल्दीन ज़ांगी ने इस के बावजूद उन पर हमले जारी रखे और वह करक के क़िले की तरफ़ बढ़े जो फ़िलिस्तीन में सलीबीयों के महत्वपूर्ण क़िलों में से एक था। ईसाईयों ने स्थिति की संगीनी को महसूस किया, और इस क़िले को नूर उल्दीन ज़ांगी के हाथों में जाने से बचाने के लिए दूर जाकर पड़े,
नूर उल्दीन ज़ांगी ने उनकी मसरूफ़ीयात और उलझन का फ़ायदा उठाते हुए एक बर्क़ रफ़्तार लश्कर सलाह उल्दीन की तरफ़ भेजा जो दुम्यात में जाकर उन से मिल गए, उन दोनों लश्करों ने एकजुट होकर दुम्यात को फिर से सलीबीयों से हासिल किया, दुम्यात सिर्फ़ पचास दिन सलीबीयों के क़ब्ज़े में रहा, इस के बाद ईसाईयों ने महसूस किया कि वह मिस्र पर हमला करने से क़ासिर हैं, उन्होंने अपनी सभी फ़ौजी सेनाएँ वापस बुलाईं और पस्पा होने पर मजबूर हुए।
इस अरसा के बाद सलाह उल्दीन आयूबी ने मिस्र पर अपना कंट्रोल मज़ीद मज़बूत कर लिया, और वहाँ के हालात मुकम्मल तौर पर मज़बूत हो गए, जिस की वजह से वह इस काबिल हुआ कि नूर उल्दीन ज़ांगी के साथ मिल कर एकट्ठे फिलिस्तीन पर हमला कर सकें, वह जनूब की तरफ़ हमला करें और नूर उल्दीन ज़ांगी उत्तर की तरफ़।
सलाह उल्दीन आयूबी ने ग़ज़ा और आसक़लान की तरफ़ बढ़ कर उस को फ़तह किया और जनूब में पे दर पे फुतुहात हासिल कीं, लेकिन वह उन शहरों में आबाद नहीं हुआ बल्कि तेज़ी से वापस हुआ, झड़पों का यह सिलसिला लम्बे अरसे तक जारी रहा, जिस ने ईसाईयों को ख़ूब दिक किया और थका दिया।
ख़लीफ़ा आज़िद की वफ़ात
567 हिज्री, 1171 ईसवी को ख़लीफ़ा उस्मान का इंतिक़ाल हो गया जिससे असली हुक्मरानी सलाह उल्दीन आयूबी के हाथों में आ गई, उन्होंने इस मौके से फ़ायदा उठाते हुए बड़ा दिलेराना फ़ैसला किया, सलाह उल्दीन आयूबी ने नूरुद्दीन जंगी से मशवरत के बाद फ़ातिमी ख़िलाफ़त के ख़ात्मे का ऐलान किया, मराकश और मिस्र पर दो सौ साल से फ़ातिमी हुकूमत चली आ रही थी, सलाह उल्दीन आयूबी ने पूरी ताक़त और दिलेरी के साथ इस मुल्क पर कायम इस्माईली फ़िरके की हुकूमत का ख़ात्मा किया,
और इराक़ में मौजूद अब्बासी ख़लीफ़ा के नाम से लोगों को दावत देनी शुरू की, नूर उल्दीन ज़ांगी भी ख़लीफ़ा अब्बासी के नाम से ख़ुतबा देते थे, सदियों के बाद एक ख़लीफ़ा के नाम पर तबलीग़ शुरू हुई, इस के बाद सलाह उल्दीन आयूबी ने तमाम फातिमी अदालतों को ख़त्म कर दिया, तमाम फातिमी क़ाजियों को बर्खास्त करके उनकी जगह शाफ़ीय क़ाजियों को मुक़रर कर दिया, इस तरह मिस्र में उमूर ए सल्तनत और अदालत दोनों सलाह उल्दीन आयूबी के नियंत्रण में आ गए।
जंग की तरतीब और तैयारी
नूर उल्दीन ज़ांगी इन कामयाबियों से बहुत ख़ुश थे, वह चाहते थे कि फ़ौरन फ़िलिस्तीन के सलीबियों पर उत्तर और दक्षिण दोनों तरफ़ से जंग का इलान किया जाए, लेकिन सलाह उल्दीन आयूबी ने उन से इस को मुलतवी करने को कहा क्योंकि वह समझ रहे थे कि मिस्र में अभी तक मुकम्मल तौर पर सुकून नहीं आया था, वह अभी तक दक्षिणी मिस्र में फ़ातीमीयों की नक़ल व हरकत के बारे में फिक्र में थे,
उनको डर था कि अगर वह फ़िलिस्तीन की तरफ़ निकल पड़े तो फ़ातीमी पीछे से गदारी करेंगे, मिस्र में दो सौ साला उनकी हुकूमत इतनी जल्दी ख़त्म नहीं हो सकती, इसके अलावा समुंदर के रास्ते से सलीबियों के हमले का भी ख़तरा था, सलाह उल्दीन आयूबी सबसे पहले मिस्र को अपनी नई हुकूमती मंज़िल के मुताबिक़ मज़बूत बनाने और इसका इस्तिहक़ाम को यक़ीनी बनाना चाहते थे।
लेकिन नूर उल्दीन ज़ांगी को इस सूरत से इखतिलाफ था, वह जल्दी से सलीबियों को ख़त्म करने और अक्सा की सरज़मीं को उनसे पाक करने का सोच रहे थे, इस लिए इसने सलाह उल्दीन आयूबी को पेगाम भेजा कि वह मुनासिब वक़्त आने पर एक पूर्ण हमले के लिए लश्कर तैयार कर लें।
जज़ीरा नुमा अरब में नूर उल्दीन ज़ांगी की कमान में 569 हिज्री,1173 ईसवी को नूरुद्दीनजंगी ने एक महिर कारीगर को हुक्म दिया कि वह इन्तेहाई ख़ूबसूरत और शान ओ शोक़त से मुजाइयन और आरास्ता मिम्बर बनाए,
इसके बाद लोगों के सामने अपने इस अहद का ज़िक्र किया कि वह इस मिम्बर को मस्जिद अल-अक्सा में रखेंगे अगर अल्लाह तआला ने चाहा। इस दौरान शाम में लश्कर और साज़-ओ-सामान की तैयारी जारी थी, जहाँ तक मिस्र का तालुक़ था तो सलाह उल्दीन आयूबी ने अपने भाई को हिजाज भेजा और हिजाज को नूर उद्दीन ज़ांगी की हुकुमत में शामिल किया,
वह इस के बाद यमन की तरफ़ चला गए, यमन ने इस के लिए अपने दरवाज़े खोल दिए और वह भी नूर उल्दीन ज़ांगी की सल्तनत में दाख़िल हो गया, इस तरह इस्लामी महाज़ बहुत ज़्यादा वसीय हो गई और ईसाईयों के दिलों पर दहशत छा गई, क्योंकि उन्होंने इस्लामी महाज़ की वुसअत को महसूस किया जिस ने उन्हें हर तरफ़ से घेरे में ले रखा था।
सलाह उद्दीन आयूबी की हत्या की साज़िश
इसी दौरान, फातिमी, सलाह उद्दीन आयूबी को कत्ल करने की साज़िश तैयार कर रहे थे, वह अपने मंसूबे की कामयाबी को यक़ीनी बनाने के लिए सलाह उद्दीन आयूबी के मकान में मौजूद अफ़्राद तक पहुँचने में कामयाब हो गए, ताहम सलाह उद्दीन के एक वफ़ादार पैरोकार को इस बारे में इल्म हुआ, उसने साज़िशियों के साथ दोस्ती बनाई, वह उनके पास आता जाता था और सलाह उद्दीन को उनके मंसूबे से आगाह करता रहा, सलाह उद्दीन ने उनके लिए एक दिन मुक़रर करने की मंसूबा बंदी की, और फिर उनको जाकर कत्ल कर दिया, साज़िशियों में से कुछ भाग गए, इस तरह इस महान इस्लामी रहनुमा के हत्या की पहली साज़िश नाकाम हुई।
नूरुद्दीन जंगी की वफात (मौत)(महान हीरो के जीवन में सीखने लायक बातें)
569हिजरी, 1174ईसवी को नूरुद्दीन जंगी का इंतिक़ाल हुआ,नूरुद्दीन जंगी इतिहास के महान शासकों में से एक थे, ये सलाह उद्दीन आयूबी से भी ज़्यादा महान थे, लेकिन इतिहास ने उन्हें उनका हक़ नहीं दिया। इस बहादुर शासक ने जंग की हक़ीक़त को समझ लिया था कि जंग, अधिकार, शक्तियों और शासन के बलबूते पर नहीं की जाती बल्कि ये एक फिकरी और नज़रयाती जंग है,
उन्होंने अपनी गहरी समझ बूझ के साथ महसूस किया कि ये जंग अहल-ए-शाम, अहल-ए-मिस्र और क़ाबिज़ ईसाईयों के दरमियान नहीं बल्कि ये मुस्लिमों के दरमियान है। नूरुद्दीन जंगी, इमादुद्दीन जंगी और सलाह उद्दीन आयूबी सब कुर्द और तुर्कमान थे, अरब नहीं थे, लेकिन उन्होंने इस्लामी नज़रिये और अक़ीदे में परवरिश पाई थी, इसी में परवान चढ़े थे, इसलिए उन्होंने क़ौमियत वा असीबत को दूर फ़ेंका था, उन्होंने फ़िलिस्तीन की आज़ादी को अपना सब से बड़ा उद्देश्य और मक़सद बनाया था।
नूरुद्दीन जंगी की हिकमत पर मबनी बातों में से एक ये थी जो वह हमेशा कहते थे कि ये जंग फ़िलिस्तीन के किसी हिस्से के लिए नहीं बल्कि पूरे फ़िलिस्तीन के हर इंच को आज़ाद करने के लिए है। और उनका एक मूल सिद्धांत ये था कि क़ौम को दुश्मन के मुक़ाबले के लिए तैयार रहना चाहिए, एक कमज़ोर और टूटी फूटी क़ौम कभी कामयाब नहीं हो सकती, इसलिए क़ौम को ईमानी, फिकरी, सामाजिक, आर्थिक और जंगी हर इतबार से तैयार रहना चाहिए।
ईसाईयों के साथ जंगों में मासरूफियत के दौरान भी नूर नूरुद्दीन जंगी ने इंसाफ़ को फ़ैलाया, और रियासत की तामीर की। उनकी मूल बातों में से एक ये बात थी कि बाहरी महामारियों का मुकाबला करने के लिए क़ौम का आपस में मुत्ताहिद होना ज़रूरी है, इस सिलसिले में नूर नूरुद्दीन जंगी ने सलीबियों के ख़िलाफ़ जंग में दमिश्क के हाकिम की हिमायत के बदले दमिश्क के हाकिम को दमिश्क का शासक रहने की पेशक़श की। वह एक मुत्ताहिद इस्लामी क़ौम बनाने की ख़्वाहिश रखते थे, न कि नज़ी ममलिकत। वह सच्चे थे और अपने कामों से बाख़बर और इस के लिए मंसूबा बंदी से वाक़िफ़ थे।
महान इतिहासकारों की गवाही
इब्न अल असीर अपनी किताब “अल कामिल फी तारीख” (الکامل فی التاریخ) में नूरुद्दीन जंगी के बारे में लिखते हैं: “मैंने इस्लाम से पहले हुकूमत करने वाले अक्सर बादशाहों की तारीख का मुताला किया है और मुसलमान शासकों के हालात का भी मुताला किया है, मैंने खुलफ़ा-ए-राशिदीन और उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ के बाद नूर उल दीन जंगी से ज़्यादा अच्छी सीरत और किरदार वाला नहीं देखा।” इब्न अल असीर यह बात बिलकुल बजा तौर कह सकते हैं, क्योंकि वह नूरुद्दीन जंगी के दौर में थे और उन्होंने उन घटनाओं में खुद जीवन बिताया था, और उन्होंने उन घटनाओं को खुद लिखा है, नूरुद्दीन जंगी की जंगी फ़तूहात का आंखों देखे गवाह हैं।
आबिद और मुजाहि
दइतिहासकार नूरुद्दीन जंगी के बारे में कहते हैं कि वह ज़हीन, समझदार और होशियार थे, पेचीदा हालात में उन्हें इश्तिबाह(शक) नहीं होता था, कोई उनके साम बनावट नहीं कर सकता था, उन्हें कोई धोखा नहीं दे सकता था, उसके अलावा वह तक़वा, पाकीज़गी और सुन्नतों पर अमल में मशहूर थे, वह तहज्जुद का इह्तमाम करते थे, हमेशा रोज़ा रखते थे और दुआओं का इह्तमाम करते थे।
मुत्तकी फ़ुक़ीह
नूरुद्दीन जंगी फ़क़ीह, आलिम और मुहद्दिस थे, उन्होंने जिहाद के मवाद पर किताब भी लिखी है, आप से कभी भी फ़हश बात नहीं सुनी गई, न ग़ुस्से में न ख़ुशी में। खामोश रहते थे, वक़ार वाले और अच्छे अखलाक वाले थे, माल और दुनिया में क़नाअत वाले थे, यहाँ तक कि उनकी बीवी ने एक बार ग़ुरबत की शिकायत भी की थी।
वह इस्लाम के अहक़ाम की पूरी तरह पाबंदी करते थे, उलेमा से मोहब्बत करते थे, उनकी हौसला अफ़्ज़ाई और मदद करते थे, चुनांचे उन्होंने मुबल्ग़ीन को सहूलत दी और उन्हें इख्तियारात आता किए, ताकि वेامربالمعروف اور نہی عن المنکر अम्र बिल मारूफ़ और नहीं अनिल मुंकिर करें।
उन्होंने अज़ीम औकाफ की तामीर की, सामाजिक इस्लाहात कीं, और मायशत को फ़रोग़ दी, जिस से ज़कात के फ़ंड में इज़ाफ़ा हुआ, तिजारत में बेहतरी आई, आपने रायाया के सभी टैक्सों को ख़त्म किया सिर्फ़ उन टैक्सों को बरक़रार रखा जो शरीअत के मुताबिक़ थे, जैसे ज़कात वगैरह। उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी जिहाद फ़ि सबीलिल्लाह के ख़ातिर और मुस्लिमानों को मुतहिद करने और उनके इंख़िलाफ़ात को ख़त्म करने में गुज़ार दी।
महान नेता नूर उल दीन जंगी
नूरुद्दीन जंगी ने 28 साल हुकूमत करने के बाद वफात पाई, जिसमें उन्होंने पचास शहरों और क़िलों को आज़ाद कराया जो ईसाईयों के क़ब्ज़े में थे। नूरुद्दीन जंगी मुसलमानों के उन मुमताज़ शख़्सियतों में से एक हैं जिनका नाम सोने की कलमों से लिखने के काबिल है।
नूरुद्दीन जंगी की मौत के बाद
579 हिजरी के मुताबिक 1183 ईसवी में,नूरुद्दीन जंगी की वफात के बाद, मामले उस तरह नहीं रहे जैसे उनके जीवन में थे, क्योंकि जंगी खानदान ने नूरुद्दीन जंगी के पुत्र इस्माइल जंगी के हाथ पर बैत की, जिसकी उम्र मात्र ग्यारह साल थी, जबकि इस्लामी साम्राज्य सलीबियों के खिलाफ युद्ध लड़ रहा था।
यह एक बड़ी असंतुलित स्थिति थी, जल्द ही इसके परिणामस्वरूप अल मलिकुल सालिह का खिताब इस्माइल के लिए भी उपयोग किया जाने लगा, जिससे जंगी खानदान और सेनानियों में विवाद शुरू हो गया, और फिर इसके परिणामस्वरूप पूरा शाम विभाजित हो गया, हर शहर का शासक खुद को उसका गवर्नर मानने लगा।
विवाद और टकराव
मुसलमानों के बीच इस विवाद ने ईसाईयों को बहुत खुश किया, इसलिए उन्होंने हमला करके उन किलों को फिर से हासिल करना शुरू किया, जो नूरुद्दीन जंगी ने उनसे छीन लिए थे, और इस्लामी साम्राज्य फिर से टूट गया। मिस्र में बैठे सलाह उद्दीन आयूबी ने जब यह हालात देखे तो उनकी सब्र कापैमाना लबरेज़ हो गया, उनके पास इसके अलावा कोई चारा नहीं था कि वह मुल्क शाम पर भी शासक होने का ऐलान करें, और अपने आपको उसका वारिस करार दें, हालांकि वह जंगी खानदान में से नहीं थे, आयूबी थे, जब सलाह उद्दीन ने ऐसा किया तो जंगी खानदान ने उसे मुस्तरद(रद्द) कर दिया।
सलाह उद्दीन आयूबी ने अपने भाई अल आदिल को मिस्र में शासन की बाग़ डोर को हवाले किया और अपने सर्वश्रेष्ठ सिपाहसालारों और घुड़सवारों को ले कर मुल्क शाम की ओर रवाना हो गए, उनके साथ सात सौ घुड़सवार थे, जो कमांडरों में सबसे बहादुर थे, उन्होंने फिलिस्तीन की सीमाएँ पार कीं और मुल्क शाम में प्रवेश किया
और नूरुद्दीन जंगी के बाद जो छोटी-छोटी राज्याएँ रियासतें पैदा हुई थीं उन पर हमला शुरू किया, उनमें से कुछ ने उनके लिए दरवाजे खोल दिए और उनके शासन को स्वीकार किया, लेकिन अधिकांश ने मुस्तरद किया, सलाह उद्दीन आयूबी एक तरफ ईसाईयों के खिलाफ और दूसरी तरफ जंगी खानदान के खिलाफ लड़ाई में उतरे थे, यह स्थिति बारह साल तक जारी रही, जिसके बाद सलाह उद्दीन आयूबी मुल्क शाम को एकत्र करने में कामयाब हो गए।
लेकिन शाम को एक हुक्म के तहत लाना इस कदर आसान नहीं था बल्कि यह इस्लामी उम्मत के लिए एक बड़ी मुसीबत थी, सलाह उद्दीन आयूबी फिलिस्तीन में ईसाईयों से लड़ने पर भी मजबूर थे और जंगी खानदान से भी मजबूरन लड़ना पड़ा रहा था जो इत्तेहाद के सामने सिर झुकने का इनकार कर रहा था,
इसके साथ ही ईसाईयों की सरगर्मियाँ अलग, फातिमियों की सरगर्मियाँ अलग, ये सभी आपस में मिलकर मुसलमानों के विवाद से अच्छी तरह से फायदा उठा रहे थे, इसलिए फातिमियों ने सिसली के ईसाइयों को पैग़ाम भेजा कि वह मिस्र में प्रवेश करे, वह मिस्र में प्रवेश कर गए और इस्कंदरिया पर कब्ज़ा कर लिया, जिसकी वजह से सलाह उद्दीन आयूबी को मजबूरन मिस्र वापस आना पड़ा, उन्होंने ईसाईयों को दोबारा शिकस्त दी और मिस्र से उन्हें बाहर कर दिया।
इसी साल 579 हिजरी में फातिमियों ने पचास हजार जंगजूओं को सूडान की ओर एक मंसूबे के तहत इकट्ठा किया, उन्होंने ईसाईयों के साथ मिलकर उत्तर और दक्षिण से हमला करने पर इत्तिफाक किया, लेकिन इस्कंदरिया में सलाह उद्दीन आयूबी की तेजी से फतह से वह हैरान रह गए, इसलिए उन्होंने अपनी योजना बदल दी और काहिरा पर हमला करने का फैसला किया, फातिमियों की फौज कुन्ज़-अल-दोला की कमांड में काहिरा की ओर बढ़ी,
जिस पर सलाह उद्दीन आयूबी ने तुरंत अपने भाई अल आदिल को मुकाबले के लिए निकलने का हुक्म दिया, सलाह उद्दीन इन्तजार नहीं कर सकते थे, अल आदिल बहुत बड़ी फौज के साथ फातिमी फौज से लड़ने के लिए निकले, यहां अहल-सुन्नत और इस्माइलियों में ज़बरदस्त जंग हुई, अल्लाह ताला ने अपने लश्कर को बहुत बड़ी फ़तह दी और उन्हें इज़्ज़त और फ़ख़्र से नवाज़ा, आदिल ने फातिमियों को नीस्त व नाबूद कर दिया, इस जंग में फातिमियों के पचास हजार लोग मारे गए, सिर्फ़ चंद गिने चुने फातिमी बचे थे जो भाग गए, फातिमी इसके बाद किसी शुमार में नहीं रहे।
इस जंग ने गुमराह इस्माइलियों के दिल में सलाह उद्दीन आयूबी की शदीद नफ़रत पैदा की, जिसने दो सौ साल से क़ायम फातिमीयों की हुकूमत को ना सिर्फ़ ख़त्म किया बल्कि उन्हें नीस्त व नाबूद कर दिया, यह कीना आज तक उनके दिलों में दबा हुआ है, इस लिए वे सलाह उद्दीन आयूबी को ख़राब उद्दीन के नाम से याद करते हैं जिसने उनकी हुकूमत व रियासत को बिल्कुल बर्बाद किया था।
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