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Victory of Samarkand – A Memorable Event in Islamic History

समरकंद की जीत – इस्लामी इतिहास की एक यादगार घटना, जिसे पढ़कर आपके रोंगटे खड़े हो जाएंगे

हजरत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (रहमतुल्लाह अलैह) और समरकंद का ऐतिहासिक फैसला

एक दूत लंबी यात्रा करके समरकंद से इस्लामी खलीफा उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ से मिलने आया।

वह एक पत्र लेकर आया था, जिसमें समरकंद के एक गैर-मुस्लिम पादरी ने मुस्लिम सेनापति क़ुतैबा बिन मुस्लिम की शिकायत दर्ज कराई थी।

पादरी की शिकायत

पादरी ने लिखा:

“हमने सुना था कि मुसलमान युद्ध करने से पहले इस्लाम स्वीकार करने का निमंत्रण देते हैं। यदि हम इस्लाम नहीं अपनाते, तो जज़िया देने का विकल्प दिया जाता है, और यदि इन दोनों को अस्वीकार कर दिया जाए, तो युद्ध होता है। लेकिन हमारे साथ ऐसा नहीं हुआ। हम पर अचानक हमला किया गया और हमें बिना किसी चेतावनी के पराजित कर दिया गया।”

यह पत्र समरकंद के प्रमुख पादरी ने खलीफा उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ को संबोधित करके लिखा था।

खलीफा का साधारण जीवन

दमिश्क में खलीफा की रहने की जगह पूछते-पूछते दूत एक साधारण से घर पहुँचा, जहाँ एक व्यक्ति अपनी छत की मरम्मत कर रहा था और उसकी पत्नी उसे मिट्टी पकड़ा रही थी।

दूत यह सोचकर वापस लौट आया कि उसे गलत पता मिला है। लेकिन जब उसने फिर से पूछा, तो लोगों ने बताया कि यही घर उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ का है।

दूत आश्चर्यचकित हुआ और अनमने मन से घर पर दस्तक दी। वही व्यक्ति, जो छत सुधार रहा था, दरवाजे पर आया। दूत ने अपना परिचय दिया और पत्र सौंप दिया।

उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ ने पत्र पढ़कर उसके पीछे संक्षिप्त आदेश लिखा:

“समरकंद के गवर्नर के नाम – एक क़ाज़ी नियुक्त करो, जो पादरी की शिकायत सुने।”

फिर पत्र पर मुहर लगाकर वापस दूत को दे दिया।

समरकंद में न्याय की अनोखी मिसाल

जब समरकंद में यह पत्र पहुँचा, तो पादरी को उम्मीद नहीं थी कि इससे कुछ बदलेगा। लेकिन फिर भी पत्र लेकर गवर्नर और सेनापति क़ुतैबा बिन मुस्लिम के पास गया।

क़ुतैबा ने पत्र पढ़ते ही तुरंत एक न्यायाधीश (क़ाज़ी) की नियुक्ति कर दी, जो उनके खिलाफ समरकंद के नागरिकों की शिकायत की सुनवाई कर सके।

अदालत में सुनवाई

क़ाज़ी ने पादरी से पूछा “तुम्हारी क्या शिकायत है?”

पादरी ने कहा:

“हम पर बिना किसी सूचना के हमला किया गया। हमें न तो इस्लाम अपनाने का निमंत्रण दिया गया और न ही कोई निर्णय लेने का अवसर मिला।”

क़ाज़ी ने क़ुतैबा से पूछा: “तुम इसका क्या जवाब देते हो?”

क़ुतैबा ने उत्तर दिया:

“युद्ध में रणनीति और अवसर का लाभ उठाना आम बात है। समरकंद एक समृद्ध राज्य था। इसके आस-पास के अन्य राज्यों ने इस्लाम अपनाने से इनकार किया और जज़िया देने को भी अस्वीकार कर दिया। उन्होंने हमसे युद्ध करना ही उचित समझा। हमें लगा कि समरकंद भी यही करेगा, इसलिए हमने पहले ही आक्रमण कर दिया।”

क़ाज़ी ने कहा:

“तुम यह स्वीकार कर रहे हो कि तुमने उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया। इस्लाम में न्याय सर्वोपरि है, न कि अवसरवाद। मेरा फैसला यह है कि सभी मुस्लिम सैनिक, उनके परिवार, और अधिकारी अपनी संपत्ति व युद्ध में प्राप्त माल छोड़कर समरकंद से बाहर चले जाएँ। और यदि वे दोबारा आना चाहें, तो उचित निमंत्रण और समय देकर ही आएँ।”

समरकंद के लोगों की प्रतिक्रिया

पादरी और समरकंद के नागरिकों के लिए यह फैसला अविश्वसनीय था। कुछ ही घंटों में, मुस्लिम सेना पूरी तरह समरकंद से बाहर निकल गई।

शहरवासियों ने कभी ऐसा नहीं देखा था कि कोई विजेता खुद अपने खिलाफ फैसला मानकर पीछे हट जाए।

डूबते सूरज के बीच लोग आपस में चर्चा करने लगे

“यह कौन सा धर्म है, जो अपने ही लोगों के खिलाफ न्याय करता है? और सेनापति भी बिना किसी विरोध के इसे स्वीकार कर लेता है?”

इतिहास बताता है कि समरकंद के नागरिकों ने इस न्याय से प्रभावित होकर खुद इस्लाम स्वीकार कर लिया और मुस्लिम सेना को वापस बुला लिया।

इस्लाम की इस मिसाल ने समरकंद पर गहरा प्रभाव छोड़ा। यही कारण था कि समरकंद लंबे समय तक इस्लामी संस्कृति और सत्ता का केंद्र बना रहा।

कभी इस्लामी उम्मत ऐसी हुआ करती थी। आज, न्याय और इंसाफ़ दुर्लभ होते जा रहे हैं।

“वल्लाहु आलम” (अल्लाह बेहतर जानता है)।

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