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Treaty Of Hudaibiya | Prophet Muhammad History in Hindi Part 39

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Seerat e Mustafa Qist 39
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गड्ढे से पानी उबलने की ख़बरें क़ुरैश तक भी पहुँच गईं। अबू सुफ़ियान ने लोगों से कहा:
“हमने सुना है, हुदैबिया के मक़ाम पर कोई गड्ढा ज़ाहिर हुआ है, जिसमें से पानी का चश्मा फूट पड़ा है। ज़रा हमें भी तो दिखाओ, मुहम्मद (ﷺ) ने ये क्या करिश्मा दिखाया है?”

चुनांचे उन्होंने वहाँ जाकर उस गड्ढे को देखा… गड्ढे में लगे तीर की जड़ से पानी निकल रहा था। ये देखकर अबू सुफ़ियान और उसके साथी कहने लगे:
“इस जैसा वाक़िआ तो हमने कभी नहीं देखा! ये मुहम्मद (ﷺ) का छोटा सा जादू है!”

सुलह हुदैबिया

हुदैबिया पहुँचकर नबी करीम ने क़ुरैश की तरफ क़ासिद भेजने का इरादा फ़रमाया ताकि बात-चीत हो सके… काफ़िरों पर यह बात वाज़ेह हो जाए कि मुसलमान लड़ाई के इरादे से नहीं आए… बल्कि उमरा करने की नीयत से आए हैं… इस ग़रज़ के लिए दो या तीन क़ासिद भेजे गए, लेकिन बात नहीं बन सकी… आखिर हज़रत मुहम्मद ने सैयदना उस्मान बिन अफ़्फ़ान को भेजा और उन्हें यह हुक्म दिया कि वे मक्का में उन मुसलमान मर्दों और औरतों के पास जाएँ जो वहाँ फँसे हुए हैं… उन्हें फतह की खुशख़बरी सुनाएँ और यह ख़बर दें कि बहुत जल्द अल्लाह तआला मक्का में अपने दीन को सरबुलंद फ़रमाएँगे, यहाँ तक कि वहाँ किसी को अपना ईमान छुपाने की ज़रूरत नहीं रहेगी।

ग़रज़, आँहज़रत के हुक्म पर हज़रत उस्मान मक्का की तरफ़ रवाना हुए। मक्का में दाख़िल होने से पहले सैयदना उस्मान ने अबान बिन सईद की पनाह ली, जो उस वक़्त तक मुसलमान नहीं हुए थे, बाद में मुसलमान हुए। अबान बिन सईद ने हज़रत उस्मान की पनाह मंज़ूर कर ली। उन्होंने हज़रत उस्मान को अपने आगे कर लिया… ख़ुद उनके पीछे चले ताकि लोग जान लें कि यह उनकी पनाह में हैं… इस तरह उस्मान क़ुरैश मक्का तक पहुँचे। उन्होंने रहमत-ए-आलम का पैग़ाम पहुँचाया।

जवाब में क़ुरैश ने कहा:
“मुहम्मद हमारी मर्ज़ी के खिलाफ़ कभी मक्का में दाख़िल नहीं हो सकते… हाँ, तुम चाहो तो बैतुल्लाह का तवाफ़ कर लो।”

इस पर हज़रत उस्मान ने जवाब दिया:
“यह कैसे हो सकता है कि मैं रसूलुल्लाह के बिना तवाफ़ कर लूँ?”

क़ुरैश ने बात-चीत के सिलसिले में हज़रत उस्मान को तीन दिन तक रोके रखा। ऐसे में किसी ने यह ख़बर उड़ा दी कि क़ुरैश ने हज़रत उस्मान को शहीद कर दिया है… इस पर नबी करीम ने ग़मज़दा होकर इरशाद फ़रमाया:
“अब हम इस वक़्त तक नहीं जाएँगे जब तक दुश्मन से जंग नहीं कर लेंगे।”

इसके बाद आप ने फ़रमाया:
“अल्लाह तआला ने मुझे मुसलमानों से बैअत लेने का हुक्म फ़रमाया है।”

हज़रत उमर ने पुकार-पुकार कर बैअत का ऐलान किया। इस ऐलान पर सब लोग बैअत के लिए जमा हो गए। आप उस वक़्त एक दरख़्त के नीचे तशरीफ़ फ़रमा थे। सहाबा-ए-कराम ने हज़रत मुहम्मद से इन बातों पर बैअत की:
“किसी हाल में आपका साथ छोड़कर नहीं भागेंगे। फतह हासिल करेंगे या शहीद हो जाएँगे।”

मतलब यह कि यह बैअत मौत पर बैअत थी। इस बैअत की ख़ास बात यह थी कि आप ने हज़रत उस्मान की तरफ़ से ख़ुद बैअत की… और अपना दायाँ हाथ अपने बाएँ हाथ पर रखकर फ़रमाया:
“ऐ अल्लाह! यह बैअत उस्मान की तरफ़ से है, क्योंकि वह तेरे और तेरे रसूल के काम से गए हुए हैं, इसीलिए उनकी तरफ़ से मैं ख़ुद बैअत करता हूँ।”

फिर चौदह सौ सहाबा-ए-कराम ने हज़रत मुहम्मद से बारी-बारी बैअत की। बाद में हज़रत मुहम्मद को अल्लाह तआला की तरफ़ से यह इतला मिल गई कि हज़रत उस्मान को शहीद नहीं किया गया… वे ज़िंदा-सलामत हैं। आप ने इस मौके पर एलान फ़रमाया:
“अल्लाह तआला ने उन लोगों की मग़फ़िरत कर दी, जो ग़ज़वा-ए-बद्र और हुदैबिया में शरीक थे।”

इस बैअत का ज़िक्र अल्लाह तआला ने क़ुरआन करीम में इन अल्फ़ाज़ में किया:
“ऐ पैग़ंबर! जब मोमिन आप से दरख़्त के नीचे बैअत कर रहे थे, तो अल्लाह तआला उनसे राज़ी हुआ और जो सच्चाई और ख़ुलूस उनके दिलों में था, उसने वह मालूम कर लिया, तो उन पर तसल्ली नाज़िल फ़रमाई और उन्हें जल्द फ़तह अता की।”

इधर क़ुरैश को जब मौत की इस बैअत का पता चला तो वे ख़ौफ़ज़दा हो गए। उनके समझदार लोगों ने मशवरा दिया कि सुलह कर लेना मुनासिब होगा… और सुलह इस शर्त पर कर ली जाए कि मुसलमान इस साल वापस लौट जाएँ, आइंदा साल आ जाएँ और तीन दिन तक मक्का में ठहरकर उमरा कर लें। जब यह मशवरा तय पा गया तो उन्होंने बातचीत के लिए सुहैल बिन अम्र को भेजा, उसके साथ दो आदमी और थे। सुहैल आप के सामने पहुँचकर घुटनों के बल बैठ गया, बातचीत शुरू हुई। सुहैल ने बहुत लंबी बात की, आख़िर सुलह की बातचीत तय हो गई। दोनों फ़रीक इस बात पर राज़ी थे कि ख़ूनरेज़ी नहीं होनी चाहिए, बल्कि सुलह कर ली जाए। सुलह की कुछ शराइत बज़ाहिर बहुत सख़्त थीं।

इस मौहिदे में ये शराइत लिखी गईं

1- दस साल तक आपस में कोई जंग नहीं की जाएगी।
2- जो मुसलमान अपने वली और सरपरस्त की इजाज़त के बग़ैर मक्का से भाग कर रसूलुल्लाह के पास आएगा, अल्लाह के रसूल उसे वापस भेजने के पाबंद होंगे, चाहे वह मर्द हो या औरत।
(यह शर्त ज़ाहिर में मुसलमानों के लिए बहुत सख़्त थी, लेकिन बाद में साबित हुआ कि यह शर्त भी दरअसल मुसलमानों के हक़ में थी, क्योंकि इस तरह बैतुल्लाह मुसलमानों से आबाद रहा और दीन का काम जारी रहा।)
3- कोई शख़्स जो आँहज़रत का साथी रहा हो और वह भाग कर क़ुरैश के पास आ जाए तो क़ुरैश उसे वापस नहीं करेंगे।
4- कोई शख़्स, कोई ख़ानदान या कोई क़बीला अगर मुसलमानों का हलीफ़ (मुआहिदा बरादर) बनना चाहे तो बन सकता है और जो शख़्स, ख़ानदान या क़बीला क़ुरैश का हलीफ़ बनना चाहे तो वह उनका हलीफ़ बन सकता है।
5- मुसलमानों को इस साल उमरा किए बग़ैर वापस जाना होगा, अलबत्ता आइंदा साल तीन दिन के लिए क़ुरैश मक्का को ख़ाली कर देंगे, लिहाज़ा मुसलमान यहाँ ग़ैर मुसल्लह हालत में आकर ठहर सकते हैं और उमरा कर सकते हैं।

ये शराइत बज़ाहिर क़ुरैश के हक़ में और मुसलमानों के ख़िलाफ़ थीं। इसलिए सहाबा-ए-कराम को नागवार भी गुज़रीं, यहाँ तक कि हज़रत उमर ने भी नागवारी महसूस की। वे सीधे हज़रत अबू बक्र के पास आए और बोले:

“अबू बक्र! क्या हज़रत मुहम्मद अल्लाह के रसूल नहीं हैं?”

हज़रत सिद्दीक़-ए-अकबर ने फ़रमाया:
“बेशक, हज़रत मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं।”

इस पर फ़ारूक़-ए-आज़म बोले:
“क्या हम मुसलमान नहीं हैं?”

अबू बक्र सिद्दीक़ ने फ़रमाया:
“बिलकुल! हम मुसलमान हैं।”

हज़रत उमर ने कहा:
“क्या वे लोग मुशरिक नहीं हैं?”

अबू बक्र सिद्दीक़ बोले:
“हाँ! बेशक वे मुशरिक हैं।”

अब हज़रत उमर ने फ़रमाया:
“तो फिर हम ऐसी शराइत क्यों क़ुबूल करें… जिनसे मुसलमान नीचे होते हैं?”

इस वक़्त हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ ने बहुत ही ख़ूबसूरत जवाब दिया, फ़रमाया:
“ऐ उमर! वे अल्लाह के रसूल हैं… उनके अहकामात और फ़ैसलों पर सर झुकाओ, अल्लाह तआला उनकी मदद करता है।”

यह सुनते ही हज़रत उमर फ़ौरन बोले:
“मैं गवाही देता हूँ कि आँहज़रत अल्लाह के रसूल हैं।”

इसके बाद हज़रत उमर हज़रत मुहम्मद की ख़िदमत में हाज़िर हुए और इसी क़िस्म के सवालात किए। हज़रत मुहम्मद ने उनके सवालों के जवाब में वही अल्फ़ाज़ फ़रमाए जो हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ पहले ही फ़रमा चुके थे। हज़रत मुहम्मद ने फ़रमाया:

“मैं अल्लाह का बंदा और उसका रसूल हूँ। मैं किसी हालत में भी अल्लाह के हुक्म की ख़िलाफ़वरज़ी नहीं कर सकता। वही मेरा मददगार है।”

इसी वक़्त हज़रत अबू उबैदा बोल उठे:
“ऐ उमर! जो कुछ रसूलुल्लाह फ़रमा रहे हैं, क्या तुम उसे सुन नहीं रहे हो? हम शैतान मर्दूद से अल्लाह की पनाह माँगते हैं।”

तब हज़रत उमर भी बोले:
“मैं शैतान मर्दूद से अल्लाह की पनाह माँगता हूँ।”

नबी-ए-अकरम ने यह भी इरशाद फ़रमाया:
“ऐ उमर! मैं तो इन शराइत पर राज़ी हूँ और तुम इनकार कर रहे हो?”

चुनांचे हज़रत उमर फ़रमाया करते थे:
“मैंने उस वक़्त जो बातें की थीं, हालाँकि वह इस तमन्ना में थीं कि इस मामले में भलाई और बेहतरी ज़ाहिर हो, मगर अपनी उस वक़्त की गुफ़्तगू के ख़ौफ़ से मैं उसके बाद हमेशा रोज़े रखता रहा, सदक़ात देता रहा, नमाज़ें पढ़ता रहा और ग़ुलाम आज़ाद करता रहा।”

फिर इस सुलह की तहरीर लिखी गई। हज़रत मुहम्मद ने हज़रत अउस बिन ख़ौला को हुक्म दिया कि वे यह मुआहिदा लिखें। इस पर सुहैल बिन अम्र ने कहा:
“यह मुआहिदा अली लिखेंगे या फिर उस्मान?”

हज़रत मुहम्मद ने हज़रत अली को मुआहिदा लिखने का हुक्म फ़रमाया और कहा:
“बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम लिखो।”

इस पर सुहैल बिन अम्र ने फिर एतराज़ किया:
“मैं रहमान और रहीम को नहीं मानता… आप यूँ लिखवाइए “बिस्मिका अल्लाहुम्म” (यानि शुरू करता हूँ, ऐ अल्लाह तेरे नाम से)।”

हज़रत मुहम्मद ने हज़रत अली से फ़रमाया:
“इसी तरह लिख दो।”

उन्होंने लिख दिया, फिर हज़रत मुहम्मद ने कहा:
“लिखो! मुहम्मद रसूलुल्लाह ने इन शराइत पर सुहैल बिन अम्र से सुलह की।”

हज़रत अली लिखने लगे, लेकिन सुहैल बिन अम्र ने फिर एतराज़ किया:
“अगर मैं यह गवाही दे चुका होता कि आप अल्लाह के रसूल हैं, तो फिर न तो आपको बैतुल्लाह से रोका जाता और न आपसे जंग होती। इसलिए यूँ लिखिए: “मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह।”

इस वक़्त तक हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु, हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के इरशाद के मुताबिक़ वह इबारत लिख चुके थे, इसलिए आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उनसे फ़रमाया:
“इसे मिटा दो (यानी ‘रसूलुल्लाह’ के लफ़्ज़ को मिटा दो)”

हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु ने अर्ज़ किया:
“मैं तो कभी नहीं मिटा सकता।”

इस पर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उनसे फ़रमाया:
“मुझे दिखाओ, यह लफ़्ज़ किस जगह लिखा है?”

हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु ने वह लफ़्ज़ आपको दिखाया। हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने ख़ुद अपने मुबारक हाथों से उसे मिटा दिया और फिर हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु को लिखने का हुक्म दिया:
“लिखो, यह वह समझौता है जिस पर मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह ने सुहैल बिन अम्र के साथ सुलह की।”

इसके बाद हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया:
“वल्लाही! अना रसूलुल्लाह व इन्नी मुहम्मद इब्न अब्दुल्लाह।” (अल्लाह की क़सम! मैं अल्लाह का रसूल हूँ, चाहे तुम मुझे झुठलाते रहो, और मैं ही मुहम्मद इब्न अब्दुल्लाह हूँ।)

यह मुआहिदा अभी लिखा ही जा रहा था कि अचानक एक मुसलमान, हज़रत अबू जंदल इब्ने सुहैल रज़ियल्लाहु अन्हु अपनी बेड़ियों को खींचते हुए वहाँ आ पहुँचे। उन्हें मुश्रिकों ने क़ैद कर रखा था। उनका ‘गुनाह’ सिर्फ़ यह था कि उन्होंने इस्लाम क़बूल किया था। उन्हें मजबूर किया जा रहा था कि इस्लाम छोड़ दो, वरना क़ैद में रहो।

हज़रत अबू जंदल रज़ियल्लाहु अन्हु, उसी सुहैल बिन अम्र के बेटे थे जो यह मुआहिदा तय कर रहे थे। किसी तरह वह क़ैद से निकलकर यहाँ तक आ पहुँचे, ताकि इस ज़ुल्म से निजात पा सकें। उन्हें देखकर सभी मुसलमान बेहद ख़ुश हो गए और उनके बचकर आ जाने पर मुबारकबाद देने लगे।

उधर, जैसे ही सुहैल ने अपने बेटे को देखा, तो वह एकदम खड़ा हुआ और ज़ोरदार तमाचा उनके मुँह पर जड़ दिया। यह भी रिवायत है कि उसने उन्हें छड़ी से पीटा। मुसलमान, उनकी यह हालत देखकर रो पड़े। फिर सुहैल ने उनके गिरेबान से पकड़ लिया और हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से कहा:
“ऐ मुहम्मद! यह पहला मुसलमान है जो हमारी तरफ़ से यहाँ आ गया है। इस मुआहिदे के मुताबिक़, आपको इसे वापस करना होगा, क्योंकि यह मुआहिदा लिखा जा चुका है।”

इस पर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया:
“ठीक है, ले जाओ।”

यह सुनकर हज़रत अबू जंदल रज़ियल्लाहु अन्हु बेचैन होकर बोले:
“क्या आप मुझे फिर से इन मुश्रिकों के साथ वापस भेज देंगे?”

इस्लाम लाने की वजह से हज़रत अबू जंदल रज़ियल्लाहु अन्हु पर बहुत ज़ुल्म किए गए थे। इसलिए यह हालात देखकर सभी मुसलमान बुरी तरह बेचैन हो गए। इस मौके पर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उनसे फ़रमाया:
“अबू जंदल! सब्र और हौसले से काम लो, अल्लाह तआला तुम्हारे लिए और तुम जैसे दूसरे मुसलमानों के लिए राहत और आसानी पैदा करेगा। हम क़ुरैश से एक मुआहिदा कर चुके हैं, और इस मुआहिदे की शर्त के मुताबिक़ हमें तुम्हें वापस करना ही होगा। हमने उनके साथ अल्लाह के नाम पर एक अहद किया है, और हम इसकी खिलाफ़वर्ज़ी नहीं कर सकते।”

मुसलमानों की आँखों में आँसू आ गए… वे बेचैन हो गए… हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु जैसे शख्स भी रो पड़े… लेकिन मुआहिदे की वजह से सब मजबूर थे। इस तरह हज़रत अबू जंदल रज़ियल्लाहु अन्हु को वापस भेज दिया गया।

हज़रत अबू जंदल रज़ियल्लाहु अन्हु का असली नाम ‘आस’ था। अबू जंदल उनकी कुनीयत थी। उनके एक भाई अब्दुल्लाह बिन सुहैल थे, जो उनसे पहले ही मुसलमान हो चुके थे। हज़रत अब्दुल्लाह बिन सुहैल रज़ियल्लाहु अन्हु इस तरह मुसलमान हुए कि वे काफ़िरों के साथ बद्र की लड़ाई में मुसलमानों से लड़ने आए थे, लेकिन बद्र के मैदान में पहुँचते ही उन्होंने काफ़िरों का साथ छोड़ दिया और मुसलमानों की सफ़ में शामिल हो गए।

इस मुआहिदे के बाद बनू ख़ुज़ाआ के लोग हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथी क़बीले के तौर पर शामिल हो गए यानी वे मुसलमानों के हलीफ़ (सहयोगी) बन गए।

जब मुआहिदा लिख दिया गया तो दोनों तरफ़ से अहम लोगों ने इस पर गवाही दी। इसके बाद हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने साथियों को हुक्म दिया कि वे हलक़ (सिर मुँडवाना) कराएँ और क़ुरबानी करें। पहले आपने ख़ुद हलक़ कराया और क़ुरबानी की, फिर तमाम मुसलमानों ने भी ऐसा ही किया।

फतह मुबीन

फिर जब मुसलमान उस मक़ाम से वापस रवाना हुए तो हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर सूरह फतह नाज़िल हुई। अल्लाह तआला ने इस सूरह में यह खुशख़बरी सुनाई कि बेशक आपको एक खुली फतह दे दी गई और अल्लाह की नेमत आप पर पूरी होने वाली है।

सफ़र के दौरान एक मक़ाम पर खाने-पीने का सामान ख़त्म हो गया। सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम ने यह बात हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को बताई। हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने एक चादर बिछाने का हुक्म दिया और फिर फ़रमाया कि जिसके पास जो भी बचा-कुचा खाना हो, उसे इस चादर पर डाल दे। सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम ने ऐसा ही किया।

फिर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने दुआ फ़रमाई और सबको हुक्म दिया कि इस चादर से अपने-अपने बर्तन भर लें। सब ने अपने बर्तन भर लिए और ख़ूब सैर होकर खाया, लेकिन खाना ज्यों का त्यों बाक़ी रहा। इस मौक़े पर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम हँस पड़े और फ़रमाया:
“अशहदु अल्ला इलाहा इल्लल्लाह वा इन्नी रसूलुल्लाह।”
(अल्लाह की क़सम! जो भी शख़्स इन दो गवाहियों के साथ अल्लाह तआला के सामने हाज़िर होगा, वह जहन्नम से महफूज़ रहेगा।)

जब हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर सूरह फतह नाज़िल हुई तो हज़रत जिब्रील अलैहिस्सलाम ने अर्ज़ किया:
“ऐ अल्लाह के रसूल! आपको यह फतह मुबारक हो।”

इस पर सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम ने भी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को मुबारकबाद दी। हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु फ़रमाते हैं:
“इस्लाम में सुलह हुदैबिया से बड़ी मुसलमानों को कोई फतह नहीं मिली।”

यानी यह इतनी बड़ी फतह थी कि लोग उसकी हक़ीक़त उस वक़्त बिल्कुल नहीं समझ सके जब मुआहिदा लिखा जा रहा था।

सुहैल बिन अम्र, जिन्होंने यह मुआहिदा लिखा था, बाद में मुसलमान हो गए थे। हज्जतुल विदा के मौक़े पर उन्हें उसी जगह खड़े देखा गया था जहाँ क़ुर्बानियाँ की जाती थीं। वे हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को क़ुर्बानी के जानवर पेश कर रहे थे और हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अपने मुबारक हाथों से उन्हें ज़बीह कर रहे थे।

इसके बाद सुहैल बिन अम्र रज़ियल्लाहु अन्हु ने हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का सर मुंडाने के लिए हज्जाम (नाई) बुलवाया। उस वक़्त यह मंज़र देखा गया कि हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का जो भी बाल गिरता था, सुहैल बिन अम्र उसे उठाकर अपनी आँखों से लगाते थे।

अंदाज़ा लगाइए, उनमें कितनी ज़बरदस्त तब्दीली आ चुकी थी… सुलह हुदैबिया के मौक़े पर वे ‘रसूलुल्लाह’ का लफ़्ज़ लिखे जाने पर ग़ुस्से में आ गए थे, लेकिन अब वे हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के बालों को आँखों से लगा रहे थे।

इसी साल, 6 हिजरी में शराब हराम कर दी गई। हुक्म आने पर लोगों ने शराब के मटके तोड़ दिए और शराब, बारिश के पानी की तरह गलियों और नालियों में बहती नज़र आई।

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