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Taif Ka Waqia in Hindi| Prophet Muhammad History in Hindi Part 26

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Seerat e Mustafa Qist 26
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Taif Ka Safar

शव्वाल 10 नबवी में हज़ूर अकर्म सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ताइफ़ तशरीफ़ ले गए। इस सफर में सिर्फ आपके ग़ुलाम हज़रत ज़ैद बिन हारिसा रज़ियल्लाहु अन्हु साथ थे। ताइफ़ में सकीफ़ का क़बीला आबाद था। आप यह अंदाज़ा करने के लिए ताइफ़ तशरीफ़ ले गए कि क़बीला सकीफ़ के दिलों में भी इस्लाम के लिए कुछ गुंजाइश है या नहीं। आप यह उम्मीद भी ले कर गए थे कि मुमकिन है, ये लोग मुसलमान हो जाएँ और आपकी हिमायत में उठ खड़े हों।

ताइफ़ पहुँच कर आपने सबसे पहले इस क़बीले के सरदारों के पास जाने का इरादा किया। ये तीन भाई थे।

एक का नाम अब्दियालील था,

दूसरे का नाम मसऊद था,

और तीसरे का नाम हबीब था।

इन तीनों के बारे में पूरी तरह वज़ाहत नहीं मिलती कि ये बाद में मुसलमान हुए थे या नहीं।

बहरहाल! आपने इन तीनों से मुलाक़ात की। अपने आने का मक़सद बताया, इस्लाम के बारे में बताया, उन्हें इस्लाम की दावत देने के साथ मुख़ालिफ़ों के मुक़ाबले में साथ देने की दावत दी।

इनमें से एक ने कहा:
“क्या वो तुम ही हो जिसे ख़ुदा ने भेजा है?”
साथ ही दूसरे ने कहा:
“तुम्हारे अलावा ख़ुदा को रसूल बनाने के लिए कोई और नहीं मिला था?”
इसके साथ ही तीसरा बोल उठा:
“ख़ुदा की क़सम! मैं तुमसे कोई बात नहीं करूँगा, क्योंकि अगर तुम वाक़ई अल्लाह के रसूल हो तो तुम्हारे साथ बात करना बहुत ख़तरनाक है (ये उसने इस लिए कहा था कि वे लोग जानते थे, किसी नबी के साथ बहस करना बहुत ख़तरनाक है) और अगर तुम नबी नहीं हो तो तुम जैसे आदमी से बात करना ज़ेब नहीं देता।”

आपको पत्थरों से लहूलुहान करना

आप इनसे मायूस होकर उठ खड़े हुए। इन तीनों ने अपने यहाँ के मक्कार लोगों को और अपने ग़ुलामों को आपके पीछे लगा दिया। वे आपके गिर्द जमा हो गए। रास्ते में भी दोनों तरफ़ लोगों का हुजूम हो गया। जब आप उनके दरमियान से गुज़रे तो वे बदबख़्त तरीन लोग आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर पत्थर बरसाने लगे।

यहाँ तक कि आप जो क़दम उठाते, वो उस पर पत्थर मारते। आपके दोनों पाँव लहूलुहान हो गए। आपके जूते ख़ून से भर गए। जब चारों तरफ़ पत्थर मारे गए तो तकलीफ़ की शिद्दत से आप बैठ गए… उन बदबख़्त मक्कारों ने आपकी बग़लों में बाज़ू डाल कर आपको खड़े होने पर मजबूर कर दिया… जूँही आपने चलने के लिए क़दम उठाए, वे फिर पत्थर बरसाने लगे।

साथ में वे हंस रहे थे और क़हक़हे लगा रहे थे।

ज़ैद बिन हारिसा रज़ियल्लाहु अन्हु का ये हाल था कि वे आपको पत्थरों से बचाने के लिए ख़ुद को उनके सामने कर रहे थे, इस तरह वे भी लहूलुहान हो गए, लेकिन इस हालत में भी उन्हें आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की फ़िक्र थी, अपनी कोई परवाह नहीं थी। उनके इतने ज़ख़्म आए कि सर फट गया।

आख़िर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इस बस्ती से निकल कर एक बाग़ में दाख़िल हो गए। इस तरह उन बदबख़्त तरीन लोगों से छुटकारा मिला। आप और ज़ैद बिन हारिसा रज़ियल्लाहु अन्हु इस वक़्त तक ज़ख़्मों से बिलकुल चूर हो चुके थे और बदन लहूलुहान था। आप एक दरख़्त के साए में बैठ गए। आपने अल्लाह से दुआ की:

“ऐ अल्लाह! मैं अपनी कमज़ोरी, लाचारी और बेबसी की तुझसे फ़रियाद करता हूँ। या अरहम अर-राहिमीन! तू कमज़ोरों का साथी है और तू ही मेरा रब है और मैं तुझ ही पर भरोसा करता हूँ… अगर मुझ पर तेरा ग़ज़ब और ग़ुस्सा नहीं है तो मुझे किसी की परवाह नहीं।”

उसी वक़्त अचानक आपने देखा कि वहाँ बाग़ के मालिक उतबा और शैबा भी मौजूद हैं। वे भी देख चुके थे कि ताइफ़ के बदमाशों ने आपके साथ क्या सुलूक किया है। उन्हें देखते ही आप उठ खड़े हुए, क्योंकि आपको मालूम था कि वे दोनों अल्लाह के दीन के दुश्मन हैं।

इधर इन दोनों को आपकी हालत पर रहम आ गया। उन्होंने फ़ौरन अपने नसरानी ग़ुलाम को पुकारा। उसका नाम अद्दास था। अद्दास हाज़िर हुआ तो उन्होंने उसे हुक्म दिया:
“इस बेल से अंगूर का गुच्छा तोड़ो और इनके सामने रख दो।”

अद्दास ने हुक्म की तामील की। अंगूर आपको पेश किए। आपने जब अंगूर खाने के लिए हाथ बढ़ाया तो फ़रमाया:
“बिस्मिल्लाह!”

अद्दास ने आपके मुँह से “बिस्मिल्लाह” सुना तो उसने अपने आप से कहा: “इस इलाक़े के लोग तो ऐसा नहीं कहते।”

आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उससे पूछा:
“तुम किस इलाक़े के रहने वाले हो, तुम्हारा दीन क्या है?”

अद्दास ने बताया कि वह नसरानी है और नीनवा का रहने वाला है। उसके मुँह से नीनवा का नाम सुनकर आपने फ़रमाया:
“तुम तो यूनुस (अलैहिस्सलाम) के हमवतन हो जो मत्ता के बेटे थे।”

अद्दास बहुत हैरान हुआ, बोला:
“आपको यूनुस बिन मत्ता के बारे में कैसे मालूम हुआ? ख़ुदा की क़सम जब मैं नीनवा से निकला था तो वहाँ दस आदमी भी ऐसे नहीं थे जो ये जानते हों कि यूनुस बिन मत्ता कौन थे। इस लिए आपको यूनुस बिन मत्ता के बारे में कैसे मालूम हो गया?”

इस पर नबी अक़रम ने फ़रमाया:
“वे मेरे भाई थे, अल्लाह के नबी थे, और मैं भी अल्लाह का रसूल हूँ। अल्लाह तआला ही ने मुझे उनके बारे में बताया है और यह भी बताया है कि उनकी क़ौम ने उनके साथ क्या सुलूक किया था।”

आपकी ज़बान-ए-मुबारक से यह अल्फ़ाज़ सुनते ही अदास फ़ौरन आपके क़रीब आ गया और आपके हाथों और पैरों को चूमने लगा।

बाग़ के मालिक, अुत्बा और शैबा, दूर खड़े यह सब देख रहे थे। जब उन्होंने अदास को आपके क़दम चूमते देखा तो उनमें से एक ने दूसरे से कहा:
“तुम्हारे इस ग़ुलाम को तो इस शख़्स ने गुमराह कर दिया।”

जब अदास उनके पास पहुँचा तो एक ने उससे कहा:
“तेरा नाश हो! तुझे क्या हो गया था कि तू इसके हाथ और पैर चूमने लगा?”

इस पर अदास बोला:
“मेरे आक़ा! इस शख़्स से बेहतर इंसान पूरी ज़मीन पर नहीं हो सकता। इसने मुझे ऐसी बात बताई है जो सिर्फ़ कोई नबी ही बता सकता है।”

यह सुनकर अुत्बा ने फ़ौरन कहा:
“तेरा बुरा हो! अपने दीन से हरगिज़ मत फिरना।”

अदास के बारे में आता है कि वे मुसलमान हो गए थे।

हुज़ूर ने अज़ाब आने से रोका

अुत्बा और शैबा के बाग़ से निकलकर आप क़रन-ए-सआलिब के मक़ाम पर पहुँचे। यहाँ पहुँचकर आपने सर उठाया तो एक बदली आपको साया करती नज़र आई। उस बदली में आपने जबریل अलैहिस्सलाम को देखा। उन्होंने आपसे कहा:

“आपने अपनी क़ौम यानी बनी सक़ीफ़ को जो कहा और उन्होंने जो जवाब दिया, उसे अल्लाह तआला ने सुन लिया है। और मुझे पहाड़ों के निगरान के साथ भेजा है, इसलिए बनी सक़ीफ़ के बारे में जो चाहें, इस फ़रिश्ते को हुक्म दें।”

इसके बाद पहाड़ों के फ़रिश्ते ने हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को पुकारा और अर्ज़ किया:
“ऐ अल्लाह के रसूल! अगर आप चाहें तो मैं इन पहाड़ों के दरमियान इस क़ौम को कुचल कर इन्हें ज़मीन में धँसा दूँ और उनके ऊपर पहाड़ गिरा दूँ।”

पहाड़ों के फ़रिश्ते की पेशकश के जवाब में आपﷺ ने फ़रमाया:
“नहीं! मुझे उम्मीद है कि अल्लाह तआला उनकी औलाद में ज़रूर ऐसे लोग पैदा फ़रमाएगा जो अल्लाह तआला की इबादत करेंगे और उसके साथ किसी को शरीक नहीं ठहराएँगे।”

इस पर पहाड़ों के फ़रिश्ते ने जवाब दिया:
“अल्लाह तआला ने जैसा आपको नाम दिया है, आपﷺ हक़ीक़त में रऊफ़ व रहीम हैं, यानी बहुत माफ़ करने वाले और बहुत रहम करने वाले हैं।”

जिन्नात का ईमान लाना

ताइफ़ से वापसी के सफ़र में नौ जिन्नात का आपﷺ के पास से गुज़र हुआ। ये नस्सीबीन के रहने वाले थे, जो شام के एक शहर का नाम है। उस वक़्त आपﷺ नमाज़ पढ़ रहे थे। जिन्नात ने आपकी क़िराअत की आवाज़ सुनी तो उसी वक़्त मुसलमान हो गए। पहले वे यहूदी थे।

जब ये नौ जिन्नात अपनी क़ौम में पहुँचे तो उन्होंने बाक़ी जिन्नों को आपﷺ के बारे में बताया। नतीजे में वे सब के सब मक्का पहुँचे और हजून के मक़ाम पर क़याम किया। उन्होंने अपने क़बीले के एक जिन्न को आपﷺ की ख़िदमत में भेजा।

उसने अर्ज़ किया:
“मेरी क़ौम हजून के मक़ाम पर ठहरी हुई है, आपﷺ वहाँ तशरीफ़ ले चलिए।”

आपﷺ ने उससे वादा फ़रमाया कि रात के किसी वक़्त हजून आएँगे। हजून, मक्का के एक क़ब्रिस्तान का नाम था।

रात के वक़्त आपﷺ वहाँ पहुँचे। हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद ؓ आपके साथ थे। हजून पहुँचकर आपने उनके चारों तरफ़ एक दायरा खींच दिया और फ़रमाया:

“इससे बाहर मत निकलना। अगर तुमने इस दायरे से बाहर क़दम रख दिया, तो क़यामत के दिन तक तुम मुझे नहीं देख पाओगे और न मैं तुम्हें देख सकूँगा।”

एक रिवायत के मुताबिक़, आपने उनसे यह भी फ़रमाया:

“मेरे आने तक तुम इसी जगह रहो। तुम्हें किसी चीज़ से डर नहीं लगेगा, न किसी चीज़ को देखकर कोई ख़ौफ़ महसूस होगा।”

इसके बाद आपﷺ कुछ फ़ासले पर जाकर बैठ गए।

अचानक आपके पास बिलकुल सियाह (काले) रंग के लोग आए। इनकी तादाद काफ़ी थी और वे आपﷺ पर हجوم कर रहे थे, यानी क़ुरआन सुनने की शिद्दत में एक-दूसरे पर गिर रहे थे।

इस मौक़े पर हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद ؓ ने चाहा कि आगे बढ़कर इन लोगों को आपﷺ के पास से हटा दें, लेकिन फिर उन्हें आपका फ़रमान याद आ गया, इसलिए वे अपनी जगह से नहीं हिले।

इधर जिन्नात ने आपﷺ से कहा:
“ऐ अल्लाह के रसूल ﷺ! हम जिस जगह के रहने वाले हैं, यानी जहाँ हमें जाना है, वह जगह बहुत दूर है। इसलिए हमारे और हमारी सवारी के लिए सफ़र के सामान का इंतज़ाम फ़रमा दीजिए।”

इसके जवाब में आपﷺ ने फ़रमाया:
“हर वह हड्डी जिस पर अल्लाह का नाम लिया गया हो, जब तुम्हारे हाथ में पहुँचेगी तो पहले से ज़्यादा गोश्त वाली हो जाएगी। और यह लीद और गोबर तुम्हारे जानवरों का चारा है।”

इस तरह जिन्नात आपﷺ पर ईमान लाए।

तुफैल बिन अम्र दौसी का इस्लाम स्वीकार करना

तुफैल बिन अम्र दौसी एक ऊँचे दर्जे के शायर थे। वे एक बार मक्का आए। उनकी आमद की खबर सुनकर क़ुरैश उनके पास जमा हो गए। उन्होंने तुफैल बिन अम्र दौसी से कहा:
“आप हमारे बीच ऐसे वक़्त में आए हैं जब हमारे दरमियान इस शख्स ने अपना मामला बहुत पेचीदा बना दिया है। इसने हमारा शीराज़ा बिखेर कर रख दिया है, हममें फूट डाल दी है। इसकी बातों में जादू जैसा असर है, इसने दो सगे भाइयों में फूट डाल दी है। अब हमें आपकी और आपकी क़ौम की तरफ़ से भी परेशानी लग गई है। इसलिए आप न तो इससे कोई बात करें और न इसकी कोई बात सुनें।”

उन्होंने उन पर इतना दबाव डाला कि वे यह कहने पर मजबूर हो गए:
“न मैं मुहम्मद की कोई बात सुनूँगा और न उनसे कोई बात करूँगा।”

दूसरे दिन तुफैल बिन अम्र दौसी काबा का तवाफ करने के लिए गए तो उन्होंने अपने कानों में कपड़ा ठूंस लिया कि कहीं उनकी कोई बात उनके कानों में न पहुँच जाए। आप ﷺ उस वक़्त काबा में नमाज़ पढ़ रहे थे। वे आपके क़रीब ही खड़े हो गए। अल्लाह को यह मंज़ूर था कि आपका कुछ कलाम उनके कानों में पड़ जाए। उन्होंने एक निहायत पाकीज़ा और खूबसूरत कलाम सुना। वे अपने दिल में कहने लगे:
“मैं अच्छे और बुरे में तमीज़ कर सकता हूँ। इसलिए इन साहब की बात सुन लेने में हर्ज़ ही क्या है? अगर यह अच्छी बात कहते हैं तो मैं क़बूल कर लूँगा और बुरी बात हुई तो छोड़ दूँगा।”

कुछ देर बाद आप ﷺ नमाज़ से फ़ारिग होकर अपने घर की तरफ़ चले तो उन्होंने कहा:
“ऐ मुहम्मद! आपकी क़ौम ने मुझसे ऐसा-ऐसा कहा है, इसलिए मैं आपकी बातों से बचने के लिए कानों में कपड़ा ठूंस लिया था, मगर आप अपनी बात मेरे सामने पेश करें।”

यह सुनकर आप ﷺ ने उन पर इस्लाम पेश किया और उनके सामने क़ुरआन करीम की तिलावत फ़रमाई। क़ुरआन सुनकर तुफैल बिन अम्रू दौसी बोल उठे:
“अल्लाह की क़सम, मैंने इससे अच्छा कलाम कभी नहीं सुना।”

इसके बाद उन्होंने कलमा पढ़ा और मुसलमान हो गए। फिर उन्होंने अर्ज़ किया:
“ऐ अल्लाह के नबी ﷺ! मैं अपनी क़ौम में ऊँची हैसियत का मालिक हूँ, वे सब मेरी बात सुनते हैं, मानते हैं। मैं वापस जाकर अपनी क़ौम को इस्लाम की दावत दूँगा। इसलिए आप ﷺ मेरे लिए दुआ फ़रमाएँ।”

इस पर आप ﷺ ने उनके लिए दुआ फ़रमाई। फिर वे वापस रवाना हो गए। अपनी बस्ती के क़रीब पहुँचे तो वहाँ उन्हें पानी के पास क़ाफ़िले खड़े नज़र आए। ठीक उसी वक़्त उनकी दोनों आँखों के दरमियान चराग़ की मानिंद एक नूर पैदा हो गया और ऐसा आप ﷺ की दुआ की वजह से हुआ था। रात भी अंधेरी थी। उस वक़्त उन्होंने दुआ की:
“ऐ अल्लाह! इस नूर को मेरे चेहरे के अलावा किसी और चीज़ में पैदा फ़रमा दे। मुझे डर है, मेरी क़ौम के लोग यह न कहने लगें कि दीन बदलने की वजह से इसकी शक्ल बिगड़ गई।”

चुनांचे उसी वक़्त वह नूर उनके चेहरे से उनके कोड़े में आ गया। अब उनका कोड़ा किसी कंदील की तरह रोशन हो गया। इसी बुनियाद पर हज़रत तुफैल बिन अम्र दौसी को “ज़ुन-नूर” यानी “नूर वाले” कहा जाने लगा। वे जब घर पहुँचे तो उनके वालिद उनके पास आए। उन्होंने उनसे कहा:
“आप मेरे पास न आएँ, अब मेरा आपसे कोई ताल्लुक़ नहीं और न आपका मुझसे कोई ताल्लुक़ रह गया है।”

यह सुनकर उनके वालिद ने पूछा:
“क्यों बेटे! यह क्या बात हुई?”

उन्होंने जवाब दिया:
“मैं मुसलमान हो गया हूँ, मैंने मुहम्मद ﷺ का दीन क़बूल कर लिया है।”

यह सुनते ही उनके वालिद बोल उठे:
“बेटे! जो तुम्हारा दीन है, वही मेरा दीन है।”

तब तुफैल बिन अम्र दौसी ने उन्हें ग़ुस्ल करने और पाक कपड़े पहनने के लिए कहा। जब वे ऐसा कर चुके तो उन पर इस्लाम पेश किया। वे उसी वक़्त कलमा पढ़कर मुसलमान हो गए। फिर उनकी बीवी उनके पास आईं, उन्होंने भी इस्लाम क़बूल कर लिया।

अब उन्होंने अपनी क़ौम के लोगों पर इस्लाम पेश किया, लेकिन वे लोग बिगड़ गए।

इनका यह हाल देखकर हज़रत तुफैल बिन अम्र फिर हज़रत नबी करीम ﷺ के पास गए और आप से अर्ज़ किया:
“ऐ अल्लाह के रसूल! क़ौम-ए-दौस मुझ पर ग़ालिब आ गई है, इसलिए आप उनके लिए दुआ फ़रमाइए।”

आप ﷺ ने दुआ फ़रमाई:
“ऐ अल्लाह! क़ौम-ए-दौस को हिदायत अता फ़रमा, उन्हें दीन की तरफ़ ले आ।”

हज़रत तुफैल बिन अम्र दौसी फिर अपने लोगों में गए। उन्होंने फिर दीन-ए-इस्लाम की तबलीग़ शुरू की। वे लगातार उन्हें तबलीग़ करते रहे, यहाँ तक कि हज़रत नबी करीम ﷺ मक्का से हिजरत करके मदीना तशरीफ़ ले गए। आख़िरकार वे लोग ईमान ले आए।

हज़रत तुफैल बिन अम्रू दौसी उन्हें साथ लेकर मदीना आए। उस वक़्त तक ग़ज़वा-ए-बद्र, ग़ज़वा-ए-उहुद और ग़ज़वा-ए-खंदक हो चुके थे और हज़रत नबी करीम ﷺ ख़ैबर के मुक़ाम पर मौजूद थे। हज़रत तुफैल बिन अम्र दौसी के साथ सत्तर-अस्सी घरानों के लोग थे, उनमें हज़रत अबू हुरैरा भी थे।

चूँकि ये लोग वहाँ ग़ज़वा-ए-ख़ैबर के वक़्त पहुँचे थे, इसलिए हज़रत नबी करीम ﷺ ने तमाम मुसलमानों के साथ इनका भी हिस्सा निकाला, हालाँकि वे जंग में शरीक नहीं हुए थे।

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