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Shuruati Gazwaat | Prophet Muhammad History in Hindi Part 33
Table of Contents
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Seerat e Mustafa Qist 33
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मुनाफ़िक़ कौन लोग थे
इन यहूदियों ही में से एक समूह मुनाफ़िक़ों का था। यह बात ज़रा स्पष्ट रूप से समझ लें। मदीना मुनव्वरा में जब इस्लाम को उरूज हासिल हुआ तो यहूदियों का इक़्तिदार खत्म हो गया। बहुत से यहूदी इस ख़याल से मुसलमान हो गए कि अब उनकी जानें ख़तरे में हैं। सो अपनी जानें बचाने के लिए वे झूठ मूठ के मुसलमान हो गए। अब हालांकि कहने को वे मुसलमान थे, लेकिन उनकी हमदर्दियां और मोहब्बतें अब भी यहूदियों के साथ थीं। ज़ाहिर में वे मुसलमान थे, अंदर से वही यहूदी थे। इन लोगों को अल्लाह और उसके रसूल ने मुनाफ़िक़ क़रार दिया है। इनकी तादाद तीन सौ के क़रीब थी।
इन्हीं मुनाफ़िक़ों में अब्दुल्लाह इब्न उबय्य भी था… यह मुनाफ़िक़ों का सरदार था।
ये मुनाफ़िक़ीन हमेशा इस ताक में रहते थे कि कब और किस तरह मुसलमानों को नुक़सान पहुंचा सकें… मुसलमानों को परेशान करने और नुक़सान पहुंचाने का कोई मौका ये हाथ से जाने नहीं देते थे, जैसा कि आगे चलकर आप पढ़ेंगे।
हिजरत के पहले साल हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा की रुख़्सती हुई… यानी वे नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के घर आ गईं। कुछ रिवायतों के मुताबिक़ रुख़्सती हिजरत के दूसरे साल हुई।
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जंग करने का हुक्म कब मिला?
आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को जब नबूवत अता की गई थी तो उस वक़्त जंग के बिना तबलीग़ का हुक्म हुआ था… अल्लाह तआला ने फ़रमाया था कि इन काफ़िरों से उलझिए मत बल्कि दामन बचाए रखिए और सब्र कीजिए। यह हुक्म मक्के की ज़िंदगी तक रहा।
फिर हिजरत के बाद इस तरह जंग करने की इजाज़त मिली कि अगर मुशरिक जंग की इब्तिदा करें तो मुसलमान उनसे दिफ़ाई जंग कर सकते हैं, अलबत्ता हराम (काबिले एहतराम) महीनों में जंग न करें यानी रजब, ज़ुलक़अदा, ज़ुलहिज्जा और मुहर्रम में… कुछ मुद्दत बाद जंग की आम इजाज़त हो गई यानी काफ़िरों के हमला न करने की सूरत में भी मुसलमान उनसे इक़दामी जंग करें… और किसी भी महीने में जंग कर सकते हैं।
जब आपको सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को अल्लाह तआला की तरफ़ से जिहाद की इजाज़त मिल गई तो 12 रबीउल अव्वल 2 हिजरी में पहली बार हज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम जिहाद की ग़रज़ से मदीना से रवाना हुए। मदीना से निकल कर हज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम वद्दान के मुक़ाम पर पहुंचे। यह एक बड़ी बस्ती थी और अबवा के मुक़ाम से छह या आठ मील के फ़ासले पर थी। अबवा मक्का और मदीना के दरमियान एक गांव था। इस ग़ज़वा में आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ सिर्फ़ मुहाजिरीन थे।
हज़ूर के शुरुआती ग़ज़वात (यानी हुज़ूर की क़यादत में शुरुआती जंगें)
ग़ज़वा ए बनी ज़ुमरह
हज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम क़बीला बनी ज़ुमरह पर हमला करने के लिए तशरीफ़ ले गए थे। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ 70 सहाबा थे। बनी ज़ुमरह के सरदार ने जंग के बग़ैर सुलह कर ली। सुलह का मुआहदा लिखा गया और आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम वापस तशरीफ़ ले आए। इस तरह यह हज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का पहला ग़ज़वा था। इसे ग़ज़वा बनी ज़ुमरह कहा जाता है। इस ग़ज़वा में मुसलमानों का झंडा सफेद था और यह हज़रत हमज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु के हाथ में दिया गया था।
सुलह के मुआहदे में तय पाया कि ये लोग मुसलमानों के मुक़ाबले पर नहीं आएंगे और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम जब भी उन्हें बुलाएंगे, उन्हें मदद के लिए आना होगा। इस ग़ज़वे में मुसलमानों को पंद्रह दिन लगे।
ग़ज़वा ए बवात
इसके बाद ग़ज़वा बवात हुआ। इस में इस्लामी लश्कर में दो सौ मुहाजिरीन थे। झंडा सफ़ेद रंग का था। यह रबीउस्सानी 2 हिजरी में पेश आया। हज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम एक तिजारती क़ाफ़िले को रोकने के लिए रवाना हुए थे। इस क़ाफ़िले का सरदार क़ुरैश का सरदार उमय्या बिन खलफ़ था। उसके साथ क़ुरैश के सौ आदमी थे। क़ाफ़िले में ढाई हज़ार ऊंट थे, जिन पर तिजारती सामान लदा हुआ था।
जब हज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम इस ग़ज़वे के लिए मदीना से रवाना हुए तो अपना क़ायम मक़ाम हज़रत साद बिन मुआज़ रज़ियल्लाहु अन्हु को बनाया। मदीना मुनव्वरा से रवाना होकर आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम बवात के मुक़ाम पर पहुंचे। यह एक पहाड़ का नाम है, इसी मुनासिबत से इस ग़ज़वे का नाम ग़ज़वा बवात पड़ा। लेकिन बवात पहुंचने पर दुश्मनों से सामना न हो सका, क्योंकि क़ुरैशी क़ाफ़िला मुसलमानों के पहुंचने से पहले ही वहां से रुख़्सत हो चुका था… इस लिए हज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम जंग के बग़ैर ही तशरीफ़ ले आए।
ग़ज़वा ए उशैरा
जमादीउल ऊला के महीने में ग़ज़वा उशैरा पेश आया। इस मर्तबा भी हज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम एक क़ुरैशी क़ाफ़िले को रोकने के लिए तशरीफ़ ले गए। वह क़ाफ़िला मुल्के शाम की तरफ़ जा रहा था। क़ुरैश ने इस क़ाफ़िले में अपना बहुत सा माल व असबाब शामिल कर रखा था… ग़रज़ मक्का के सभी लोगों ने इसमें माल शामिल किया था। इस क़ाफ़िले के साथ पचास हज़ार दीनार थे, एक हज़ार ऊंट थे। क़ाफ़िले के सरदार अबू सुफ़ियान रज़ियल्लाहु अन्हु थे (जो कि अभी मुसलमान नहीं हुए थे)। सत्ताईस आदमी भी हमराह थे।
हज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मदीना मुनव्वरा में अबू सलमा बिन अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हु को अपना क़ायम मक़ाम बनाया। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ डेढ़ सौ के क़रीब सहाबा किराम थे। मदीना मुनव्वरा से रवाना होकर हज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उशैरा के मुक़ाम तक पहुंचे। इस ग़ज़वे में भी इस्लामी झंडे का रंग सफेद था, झंडा हज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के चाचा हज़रत हमज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु के हाथ में था।
इस्लामी लश्कर बीस ऊंटों पर सवार हुआ। सब लोग बारी-बारी सवार होते रहे। उशैरा के मुक़ाम पर हज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को मालूम हुआ कि क़ाफ़िला वहां से गुज़र कर शाम की तरफ़ जा चुका है, लिहाज़ा हज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फिर जंग के बग़ैर वापस तशरीफ़ ले आए… ताहम इस दौरान बनी मुदलिज से अमन और सलामती का मुआहदा तय पाया।
हज़रत अली को अबू तुराब का लक़ब मिला
इसी सफ़र में हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु को अबू तुराब का लक़ब मिला। यह वाक़िआ इस तरह पेश आया कि हज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एक मौके पर हज़रत अली और हज़रत अम्मार बिन यासिर रज़ियल्लाहु अन्हुमा को ज़मीन पर इस तरह सोते पाया कि उनके ऊपर मिट्टी लग गई।
आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु को पांव से हिलाया और फ़रमाया:
“अए अबू तुराब (यानी अए मिट्टी वाले) उठो!”
गज़वा ए सफ़वान
जब आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ग़ज़वा उशैरा से वापस आए तो चंद दिनों बाद ही फिर एक मुहिम पेश आ गई। एक शख्स कुरज़ बिन जाबिर फ़िहरी ने मदीना मुनव्वरा की चरागाह पर हमला कर दिया। हज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उसकी तलाश में निकले यहां तक कि सफ़वान की वादी में पहुंचे। यह वादी मैदान-ए-बद्र के क़रीब है। इसी मुनासिबत से इस ग़ज़वे को ग़ज़वा बद्र ऊला भी कहा जाता है। कुरज़ बिन जाबिर मुसलमानों के वहां पहुंचने से पहले ही जा चुका था…
इस ग़ज़वे के लिए निकलने से पहले हज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मदीना मुनव्वरा में अपना क़ायम मक़ाम हज़रत ज़ैद बिन हारिसा रज़ियल्लाहु अन्हु को बनाया। इस मर्तबा भी झंडा सफ़ेद था जो हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु के हाथ में दिया गया था।
क़िब्ले का रुख़ बदलना
इसी साल 2 हिजरी के दौरान क़िब्ले का रुख़ तब्दील हुआ और उस वक़्त तक मुसलमान बैतुल मक़दिस की तरफ़ मुंह करके नमाज़ अदा करते रहे थे।
क़िब्ले की तब्दीली का हुक्म ज़ुहर की नमाज़ के वक़्त आया। एक रिवायत में यह है कि असर की नमाज़ में हुक्म आया था।
क़िब्ले की तब्दीली इसलिए हुई कि हज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने यह आरज़ू की थी कि क़िब्ला बैतुल्लाह हो। खास तौर पर यह आरज़ू इसलिए थी कि यहूदी कहते थे:
“मुहम्मद हमारी मुख़ालिफ़त भी करते हैं और हमारे क़िब्ले की तरफ़ मुंह करके नमाज़ भी पढ़ते हैं। अगर हम सीधे रास्ते पर न होते तो तुम हमारे क़िब्ले की तरफ़ रुख़ करके नमाज़ें न पढ़ा करते।”
उनकी इस बात पर हज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने दुआ की कि हमारा क़िब्ला बैतुल्लाह हो जाए और अल्लाह तआला ने यह दुआ मंज़ूर फ़रमा ली।
क़िब्ले की तब्दीली का हुक्म नमाज़ की हालत में आया, चुनांचे आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने नमाज़ के दौरान ही अपना रुख़ बैतुल्लाह की तरफ़ कर लिया और आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ ही तमाम सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम ने भी रुख़ तब्दील कर लिया।
यह नमाज़ “मस्जिद क़िब्लतैन” में हो रही थी।
हज़रत अबाद बिन बिश्र रज़ियल्लाहु अन्हु ने भी यह नमाज़ हज़ूर नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ पढ़ी थी। यह मस्जिद से निकलकर रास्ते में दो अंसारियों के पास से गुज़रे… वे नमाज़ पढ़ रहे थे और उस वक़्त रुकू में थे। उन्हें देखकर अबाद बिन बिश्र रज़ियल्लाहु अन्हु ने कहा:
“मैं अल्लाह की क़सम खाकर कहता हूं कि मैंने अभी हज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ काबा की तरफ़ मुंह करके नमाज़ पढ़ी है।”
क़ुबा वालों को यह ख़बर अगले दिन सुबह की नमाज़ के वक़्त पहुंची। वे लोग उस वक़्त दूसरी रकअत में थे कि एक मुनादी ने एलान किया:
“लोगो! ख़बरदार हो जाओ! क़िब्ले का रुख़ काबा की तरफ़ तब्दील हो गया है।”
नमाज़ पढ़ते हुए लोग क़िब्ले की तरफ़ घूम गए। इस तरह मुसलमानों का क़िब्ला बैतुल्लाह बना।
3 हिजरी के अहम वाक़ियात
इसी साल यानी 3 हिजरी में रमज़ान के रोज़े और सदक़ा-ए-फ़ित्र का हुक्म नाज़िल हुआ। फिर मस्जिदे नबवी में मिंबर नस्ब किया गया। जब तक मिंबर नहीं बना था, आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम खजूर के एक तने से टेक लगाकर खड़े होते थे और खुत्बा देते थे।
लेकिन जब मिंबर बन गया और आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने खजूर के उस तने की बजाए मिंबर पर खुत्बा इरशाद फ़रमाया, तो वह तना रोने लगा…
उसके रोने की आवाज़ इतनी बुलंद हुई कि तमाम लोगों ने इस आवाज़ को सुना।
आवाज़ इस क़दर दर्दनाक थी कि सारी मस्जिद हिल गई, वह इस तरह रो रहा था जैसे कोई ऊंटनी अपने बच्चे के गुम हो जाने पर रोती है।
इसके रोने की आवाज़ सुनकर हज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मिंबर से उतरकर उसके पास पहुंचे और उसे अपने सीने से लगा लिया।
इसके बाद उसमें से एक बच्चे के सिसकने की आवाज़ें आने लगीं।
हज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इस पर प्यार से हाथ फेरा और फ़रमाया:
“पुरसुकून और ख़ामोश हो जा।”
तब कहीं जाकर उसका रोना बंद हुआ।
इसके बाद आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उस तने को मिंबर के नीचे दफ़न करने का हुक्म दिया।
रियाज़ुल जन्ना (जन्नत का बाग़)
आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एक बार इरशाद फ़रमाया:
“मेरे घर और मेरे मिंबर के दरमियान की जगह जन्नत के बाग़ों में से एक बाग़ है।”
यानी यह मुक़ाम जन्नत ही का एक मुक़ाम है।
अल्लाह तआला ने इस मुक़ाम को जन्नत में शामिल कर दिया है।
