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Roza e Rasool ke Chaaro taraf Diwaaren kyu hain
इतिहास का एक उज्जवल अध्याय
अंधेरी रात है। विदेशी सभा में लोगों की भीड़ लगी हुई है। बहुत महत्वपूर्ण मुद्दे पर चर्चा हो रही है। सभी गैर-मुस्लिम हैं। बड़े-बड़े राजा, मंत्री, दार्शनिक, हकीम और बुद्धिजीवी इकट्ठे हुए हैं। जो रौज़ा-ए-अथहर के खिलाफ अत्यंत भयानक और डरावनी योजना बना रहे हैं।
यह 557 हिजरी का समय है। सर्दियों की कड़ाके की रात है। इस्लामी दुनिया के शासक अमीरुल मोमिनीन सारा दिन राज्य के कार्यों में व्यस्त रहने के कारण शाम ढलते-ढलते थक चुके हैं। प्रजा भी मीठी नींद के आगोश में जा चुकी है। लेकिन अमीरुल मोमिनीन, भारी थकान और श्रम के बावजूद, अपने पालनहार की प्रसन्नता के लिए और उसे दिनभर की दास्तान सुनाने के लिए नमाज़ के मसनद पर सजदे में झुके हुए हैं।
इबादत और दुआओं से निवृत्त होने के बाद कुछ समय सुन्नत के अनुसरण में आराम करने के लिए लेटे ही हैं कि अचानक रहमत-ए-दो-आलम ﷺ का दीदार नसीब होता है, जो किसी मुसलमान के लिए सातों राज्यों की सल्तनत से भी अधिक महत्व रखता है। अल्लाह ताला हर मुसलमान को मौत से पहले यह दौलत जरूर नसीब करे। आमीन।
अमीरुल मोमिनीन प्यारे नबी ﷺ के दीदार से लाभान्वित हो ही रहे थे कि इसी दौरान प्यारे नबी ﷺ के साथ दो और चेहरे नज़र आने लगे। लेकिन यह क्या, उन पर तो अशुभता की परछाईयाँ साफ-साफ दिखाई दे रही थीं। अमीरुल मोमिनीन हैरानी में डूब गए कि इतने कुरूप और अप्रिय चेहरे आखिर किसके हैं?
रहमत-ए-दो-आलम ﷺ ने अमीरुल मोमिनीन को ध्यान आकर्षित करते हुए फरमाया:
“मुझे इन दो व्यक्तियों ने बहुत परेशान कर रखा है। जल्दी मुझे इन शैतानों से निजात दिलाओ!”
अमीरुल मोमिनीन घबराते हुए जाग उठते हैं। नया वुज़ू करके और दो रक़अत नमाज़ अदा करके फिर से नींद की वादियों में उतर जाते हैं। कुछ ही समय बीतता है कि वही दृश्य फिर से आँखों के सामने घूमने लगता है। फिर घबराए हुए जाग उठते हैं, नमाज़ पढ़ते हैं और फिर आराम के लिए लेट जाते हैं। लेकिन अब भी वही दृश्य आँखों के सामने मंडराने लगता है।
तीसरी बार यह अद्भुत घटना हुई तो अमीरुल मोमिनीन की चिंता और भी बढ़ गई। अब अमीरुल मोमिनीन अल्लाह के सामने गिड़गिड़ाने लगे और अत्यंत भावुक स्वर में बारगाह-ए-इलाही में अर्ज़ करने लगे:
“ऐ अल्लाह! यह कौन लोग हैं जिन्होंने मेरे प्यारे नबी ﷺ को कष्ट पहुँचाया है? और इस ख्वाब का क्या मतलब है? आखिर यह क्या मामला है? ऐ अल्लाह! मैं कमजोर और बेबस हूँ। मेरी पूरी मदद फरमा क्योंकि इस्लामी दुनिया का बोझ मेरे कंधों पर है। बेशक इस ख्वाब ने मुझे एक कठिन परीक्षा में डाल दिया है। लेकिन ऐ अल्लाह! तू मेरी रहनुमाई करे तो इंशा अल्लाह मैं इस परीक्षा में कामयाब हो जाऊँगा। ऐ अल्लाह! मुझे इस मामले में सफलता प्रदान कर!”
इन दर्द भरी दुआओं के बाद अमीरुल मोमिनीन ने अपने अत्यंत बुद्धिमान और समझदार वज़ीर जमालुद्दीन मौसली को तुरंत दरबार-ए-खिलाफ़त में बुलवा लिया।
अमीर-उल-मोमिनीन के इस मशवरे के साथ ही, अमीरुल मोमिनीन ने हंगामी बुनियादों पर मदीना मुनव्वरा रवाना होने की मनादी करवा दी, और दमिश्क के 30 नामवर और जहाँ-दीदा क़िस्म के अफ़राद पर मुश्तमिल एक क़ाफ़िले की हमराही में, इंतिहाई सबक़-रफ़्तार सवारियों पर मदीना मुनव्वरा की जानिब चल पड़े।
और तक़रीबन 16 रोज़ की मुसाफ़त के बाद आप मदीना मुनव्वरा की पुर-नूर फ़ज़ाओं में पहुँच गए। मदीना तय्यिबा में रौज़ा-ए-अक़दस के क़रीब एक हुजरे में, मगरिबी मुल्क से आए हुए 2 मेहमानों की रहाइश है। लोगों में उनकी बड़ी शोहरत है और नेक-नामी से लोग उनका ज़िक्र करते हैं,
क्योंकि उन्होंने मदीना मुनव्वरा हाज़िर होने के बाद उसी हुजरे को अपना मस्कन बनाया हुआ है। उनकी इबादत और ज़ोहद-ओ-वरा के सारे मदीने में खूब चर्चे हैं। छोटा-बड़ा, मर्द-ओ-औरत, जवान-ओ-बूढ़ा, हर कोई उन मगरिबी मेहमानों की तारीफ़ में रातिब-उल-लिसान है।
सिवाए नमाज़ और रौज़ा-ए-अक़दस और जन्नतुल बक़ी की ज़ियारत के, और किसी भी काम के लिए ये अपने हुजरे से बाहर नहीं निकलते। इसके अलावा, उनकी सख़ावत और सदक़ा-ओ-ख़ैरात से न सिर्फ़ मदीना मुनव्वरा के लोग फैज़ उठा रहे हैं, बल्कि अताराफ़ के दूर-दराज़ इलाकों में भी उनकी सख़ावत से लोग फ़ायदा उठा रहे हैं।
लोग उन मगरिबी मेहमानों की इबादतों, रियाज़तों और सख़ावतों से बेहद मुतास्सिर हैं, कि हम नबी-ए-पाक ﷺ के पड़ोस में रहकर भी इतनी इबादत न कर सके, और मगरिब के इन मेहमानों ने ऐसी मिसाल क़ायम कर दी, जिसका हम तसव्वुर भी नहीं कर सकते थे।
मदीना मुनव्वरा के गवर्नर ने, एक बड़े लाव-लश्कर और इस्तक़बाली हुजूम के हमराह, अमीर-उल-मोमिनीन की मदीना मुनव्वरा आमद पर, शहर से बाहर निकलकर, इंतिहाई शानदार और वालिहाना अकीदत के साथ इस्तक़बाल किया। अमीर-उल-मोमिनीन ने रस्मी गुफ़्तगू के बाद, गवर्नर को अपनी आमद और हाज़िरी के मक़सद से आगाह किया।
अमीर-उल-मोमिनीन ने अपने 30-रुकनी वफ़्द के हमराह, गवर्नर और मदीना मुनव्वरा के मोअज्ज़िज़ अफ़राद से बाहमी मुशावरत के बाद, ये फ़ैसला किया कि ख्वाब में जिन 2 अफ़राद को दिखाया गया है, उन तक रसाई का तरीका यह है कि मदीना के हर-हर फ़र्द को, ख़्वाह छोटा हो या बड़ा, बूढ़ा हो या जवान, मर्द हो या औरत, हर किसी को शाही दावतनामा दिया जाए। कि अमीर-उल-मोमिनीन दारुल-ख़िलाफ़ा से, रौज़ा-ए-रसूल पाक ﷺ की ज़ियारत के लिए तशरीफ़ लाए हैं।
ज़ियारत के बाद, तमाम अहल-ए-मदीना के लिए अमीर-उल-मोमिनीन की तरफ़ से एक पुरतकल्लुफ़ ज़ियाफ़त का एहतिमाम किया गया है। जिसमें बाद-अज़ां, अमीर-उल-मोमिनीन खुद अपने हाथ से हर एक को हदाया और तहाइफ तक़सीम करेंगे।
लिहाज़ा इस दावत में मदीना मुनव्वरा का हर फ़र्द अपनी हाज़िरी को यक़ीनी बनाए। अमीर-उल-मोमिनीन, ज़ियारत-ए-रौज़ा-ए-रसूल पाक ﷺ से फ़ारिग़ होने के बाद, शाही मेहमानख़ाने में तशरीफ़ लाए, जहां पहले से सब अहल-ए-मदीना बा-अदब तशरीफ़ रखते थे। तआम का सिलसिला शुरू हुआ, फिर हदाया और तहाइफ की तक़सीम का मरहला आया।
हर-हर शख़्स को अमीर-उल-मोमिनीन ने खुद अपने दस्त-ए-मुबारक से हदिये दिए और हर एक को खूब ग़ौर से देखने लगे। तमाम बाशिंदगान-ए-मदीना, हदाय़ा लेकर फ़ारिग़ हो गए, मगर वे 2 चेहरे नज़र नहीं आए, जिनके लिए यह सारा इंतज़ाम किया गया था।
अमीर-उल-मोमिनीन बेहद परेशान हो गए, गवर्नर से कहा, क्या और कोई बाकी तो नहीं रह गया? क्या सब ही ने शिरकत की है? गवर्नर ने कहा, कि सिवाए 2 आदमियों के, बाक़ी सब ने शिरकत की है। 2 बुज़ुर्ग हैं, जो इबादत गुज़ार होने के साथ-साथ गोशा-नशीन भी हैं, मालदार भी हैं, इसलिए आम तौर पर न किसी से मिलते-जुलते हैं और न ही किसी की दावत पर जाते हैं।
इसी वजह से, हमने भी उन्हें इस शाही दावत में मदऊ नहीं किया, कि कहीं उनकी इबादत में ख़लल वाक़े न हो जाए। अमीर-उल-मोमिनीन का पारा चढ़ गया, कि जब कहा गया था कि कोई बाशिंदा बाकी न छोड़ा जाए, तो उन्हें क्यों यहां मदऊ नहीं किया गया। गवर्नर ने हुक्म की तामील में फौरन उन्हें भी एवान में बुलवाया, और अमीर-उल-मोमिनीन से उनकी मुलाक़ात करवाई।
अमीर-उल-मोमिनीन की हैरत की कोई इंतिहा न रही, कि ख्वाब में उन्होंने जिन 2 चेहरों को देखा था, वे मनहूस और मक्रूह चेहरे इन्हीं 2 आदमियों के थे।
अमीर-उल-मोमिनीन ने उनसे दरयाफ़्त किया, कि तुम कौन लोग हो और यहां क्या कर रहे हो? उन्होंने कहा, कि हम दीयार-ए-मग़रिब के बाशिंदे हैं, और हज की सआदत हासिल करने के बाद, यहां मदीना तय्यिबा में हाज़िर हुए। बस, तब से यहां की पुरनूर फ़ज़ाओं को छोड़ना हमारे लिए मुश्किल हो गया है। अमीर-उल-मोमिनीन ने सख़्ती से कहा, कि यह सफ़ेद झूठ है।
जो असल हक़ीक़त है, उससे आगाह करो, वरना संगीन नतीजों के लिए तैयार हो जाओ। ये दोनों घबरा गए, और इसी घबराहट में अपने दिल की असल हक़ीक़त से मुत्तला कर दिया।
कि दरअसल, हम दोनों यहूदी हैं और हमें एक अहम मिशन के लिए यहां भेजा गया है। और वह साज़िश इंतिहाई भयानक है, कि किसी तरह हम तुम्हारे रसूल (हज़रत मोहम्मद ﷺ) का जिस्म-ए-अतहर उनके रौज़े से निकालकर, मिशन पर रवाना करने वाली इस्लाम-मुखालिफ़ कुफ़्र की ताक़तों तक पहुंचा दें। जब मुसलमानों की अक़ीदतों और मोहब्बतों के मरकज़ में उनके नबी ही नहीं होंगे, तो मुसलमानों की हिम्मतें और हौसले पस्त हो जाएंगे।
फिर आलम-ए-इस्लाम को शिकस्त देना कोई मुश्किल काम नहीं रहेगा। चुनांचे, हम जिस्म-ए-अतहर को चोरी करने के लिए आए हैं। एवान में मौजूद तमाम अफ़राद की आंखें फटी की फटी रह गईं, और सब दंग रह गए, कि मदीना मुनव्वरा में इतनी भयानक और खौफ़नाक साज़िश की इतने अरसे से तैयारी हो रही है, और मदीने के लोग इससे बिल्कुल ग़ाफ़िल हैं।
अमीर-उल-मोमिनीन के सामने, गवर्नर-ए-मदीना और मोअज्ज़िज़ शहरियों के सर शर्मिंदगी से झुक गए। अमीर-उल-मोमिनीन समेत हर शख्स की आंखें डबडबा गईं, कि हम ख्वाब-ए-ग़फ़लत में पड़े हुए हैं, और हमारा दुश्मन हमारे दीन की बुनियादों की बीख कनी में इस कदर जरी और बाहिम्मत हो गया, कि आज हमें इस ज़िल्लत का सामना करना पड़ा।
गोया अल्लाह तआला ने बरवक्त हमारी दस्तगीरी फरमाकर बातिल क़ूवतों के मज़मूम मंसूबों को ख़ाकसतर कर दिया। लेकिन इससे हमें एक बहुत बड़ा सबक़ भी मिल गया, कि काफिर और बातिल क़ूवतों से कभी भी किसी भी क़िस्म की ख़ैर की उम्मीद रखना अबस है। और उनसे ग़ाफ़िल रहना मुसलमान को ज़ेब नहीं देता। अमीर-उल-मोमिनीन इन मक्कारों को लेकर, उनके शैतानी हुजरे में दाख़िल हुए, और हर-हर चीज़ का खूब बारीकी से जायज़ा लिया, मगर कोई खास चीज़ नज़र नहीं आई।
बाला-आखिर, हुजरे से निकलते हुए, अपने पांव के नीचे पड़ी हुई चटाई को हटाया, तो सबकी आंखें खुल गईं। नीचे एक बड़ा सुराख नज़र आया, जिसमें एक इंसान आराम से उतर सकता था। अमीर-उल-मोमिनीन अंदर उतरे, तो चौंक गए, कि नीचे तो बहुत बड़ी सुरंग है।
आप अंदर चलते चले गए, और जब सुरंग के किनारे पर पहुंचे, तो अंगुश्त बदंदां देखते ही रह गए, कि उसका आखिरी सिरा रौज़ा-ए-रसूल पाक ﷺ की दीवार तक पहुंच चुका है। एक दिन भी मजीद ताखीर होती, तो दुश्मन अपनी साज़िश में कामयाब हो जाते।
बल्कि, बाज़ रिवायात से मालूम होता है, कि अमीर-उल-मोमिनीन को आक़ा-ए-नामदार के क़दम-ए-मुबारक भी दिखाई दिए।
अमीर-उल-मोमिनीन, अंदर से आबदीदा हालत में वापस हुए,
और रौज़ा-ए-रसूल पाक ﷺ के चारों तरफ़ सीसा पलायी हुई, फौलादी और आहनी दीवारें तामीर करवाईं। ताकि आइंदा कोई ख़बीस-उल-फ़ितरत, इस तरह की ग़लीज़ हरकत करने की कोशिश भी करे, तो उसे कामयाबी हासिल न हो।
बाद अज़ां, उन दोनों नाम-निहाद बुजुर्गों को, जो यहूदी और शैतान थे, ऐसी इबरतनाक सज़ाएं देकर, जहन्नम रसीद करवा दिया, कि आइंदा कोई भी, ऐसे नापाक इक़दाम का तसव्वुर भी न करे।
रौज़ा-ए-रसूल पाक ﷺ और जिस्म-ए-अतहर की हिफ़ाज़त की अज़ीम तरीन सआदत हासिल करने वाले मुसलमानों के यह अमीर-उल-मोमिनीन कौन थे?
यह अमीर-उल-मोमिनीन हज़रत “नूरुद्दीन ज़ंगी” रहमतुल्लाह अलैह थे।
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