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Mushrikon ke Sawalat

Prophet Muhammad History in Hindi Part 20

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Seerat e Mustafa Qist 20
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अजीब ग़रीब सवालात

एक मुशरिक कहने लगा:
“आप उसी तरह खाना खाते हैं जिस तरह हम खाते हैं, उसी तरह बाजारों में चलते हैं जिस तरह हम चलते हैं, हमारी तरह ही ज़िंदगी की ज़रूरतें पूरी करते हैं, इसलिए आपको क्या हक़ है कि नबी कहकर खुद को नुमायां करें और यह कि आपके साथ कोई फरिश्ता क्यों नहीं उतरा जो आपकी तस्दीक़ करता?”

इस पर अल्लाह तआला ने सूरह फुरकान की आयत 7 नाज़िल फरमाई:
“और ये काफिर लोग रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के बारे में यूं कहते हैं कि इस रसूल को क्या हो गया है कि वह हमारी तरह खाना खाता है और बाजारों में चलता-फिरता है? इसके साथ कोई फरिश्ता क्यों नहीं भेजा गया कि वह इसके साथ रहकर डराया करता? इसके पास ग़ैब से कोई ख़ज़ाना क्यों नहीं आ पड़ा या इसके पास कोई (ग़ैबी) बाग़ होता जिससे यह खाया करता? और ईमान लाने वालों से ये ज़ालिम लोग ये भी कहते हैं कि तुम तो एक बेअक़्ल आदमी की राह पर चल रहे हो।”

फिर जब उन्होंने यह कहा कि अल्लाह तआला की ज़ात इस से बहुत बुलंद है कि वह हम ही में से एक बंदे को रसूल बनाकर भेजे, तो इस पर अल्लाह तआला ने सूरह यूनुस की आयत नाज़िल फरमाई:
“क्या इन मक्का के लोगों को इस बात से तअज्जुब हुआ कि हमने उनमें से एक शख़्स के पास वह़ी भेज दी कि सब आदमियों को अल्लाह के अहकामात के ख़िलाफ़ चलने पर डराएं और जो ईमान ले आए, उन्हें खुशखबरी सुना दें कि उन्हें अपने रब के पास पहुंचकर पूरा रुतबा मिलेगा?”

इसके बाद इन लोगों ने आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से कहा:
“हम पर आसमान के टुकड़े-टुकड़े करके गिरा दो, जैसा कि तुम्हारा दावा है कि तुम्हारा रब जो चाहे कर सकता है। हमें मालूम हुआ है कि तुम जिस रहमान का ज़िक्र करते हो, वह रहमान यमामा का एक शख्स है, वह तुम्हें यह बातें सिखाता है, हम लोग अल्लाह की कसम! कभी रहमान पर ईमान नहीं लाएंगे।”

यहां रहमान से इन लोगों की मुराद यमामा के एक यहूदी काहिन से थी। इस बात के जवाब में अल्लाह तआला ने सूरह रअद की आयत 30 नाज़िल फरमाई:
“आप फरमा दीजिए कि वही मेरा मुर्ब्बी और निगहबान है। उसके सिवा कोई इबादत के काबिल नहीं, मैंने उसी पर भरोसा कर लिया और उसी के पास मुझे जाना है।”

इस वक्त आप पर रंज और ग़म की कैफियत तारी थी। आपकी यही ख्वाहिश थी कि वे लोग ईमान क़बूल कर लें, लेकिन ऐसा न हो सका, इस लिए ग़मगीन थे, और इसी हाल में आप वहां से उठ गए।

मुशरिकीन ने इस क़िस्म की और भी फ़रमाइशें कीं। कभी वे कहते सफा पहाड़ को सोने का बनाकर दिखाओ, कभी कहते सीढ़ी के ज़रिए आसमान पर चढ़कर दिखाओ और फरिश्तों के साथ वापस आओ। इनकी तमाम बातों के जवाब में अल्लाह तआला ने हज़रत जिब्रईल अलैहिस्सलाम को आपकी ख़िदमत में भेजा। उन्होंने आकर कहा:

“ऐ मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम! अल्लाह तआला आपको सलाम फरमाते हैं और फरमाते हैं कि अगर आप चाहें तो सफा पहाड़ को सोने का बना दिया जाए। इसी तरह इनके जो मुतालिबात हैं, उन्हें भी पूरा कर दिया जाए, लेकिन इसके बाद भी अगर ये लोग ईमान न लाए तो फिर साबिक़ा क़ौमों की तरह इन पर हौलनाक अज़ाब नाज़िल होगा, ऐसा अज़ाब कि आज तक किसी क़ौम पर नाज़िल नहीं हुआ होगा और अगर आप ऐसा नहीं चाहते तो मैं इन पर रहमत और तौबा का दरवाजा खुला रखूंगा।”

यह सुनकर आपने अर्ज़ किया:
“बारी तआला! आप अपनी रहमत और तौबा का दरवाजा खुला रखें।”

दरअसल आप जानते थे कि क़ुरैश के ये मुतालिबात जहालत की बुनियाद पर हैं, क्योंकि ये लोग रसूलों को भेजने की हिकमत को नहीं जानते थे… रसूलों का भेजा जाना तो दरअसल मख़लूक का इम्तेहान होता है ताकि वे रसूलों की तस्दीक करें और रब तआला की इबादत करें। अगर अल्लाह तआला दरमियान से सारे पर्दे हटा दे और सब लोग आंखों से सब कुछ देख लें तो फिर तो अंबिया और रसूलों को भेजने की ज़रूरत ही बाकी नहीं रहती और ग़ैब पर ईमान लाने का कोई मअनी ही नहीं रहता।

मक्का के मुशरिकीन ने दो यहूदी आलिमों के पास अपने आदमी भेजे। ये यहूदी आलिम मदीना में रहते थे। दोनों क़ासिदों ने यहूदी आलिमों से मुलाक़ात की और उनसे कहा:
“हम आपके पास अपना एक मामला लेकर आए हैं, हम लोगों में एक यतीम लड़का है, उसका दावा है कि वह अल्लाह का रसूल है।”

यह सुनकर यहूदी आलिम बोले:
“हमें उसका हुलिया बताओ।”

क़ासिदों ने नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का हुलिया बता दिया। तब उन्होंने पूछा:
“तुम लोगों में से किन लोगों ने उनकी पैरवी की है?”

उन्होंने जवाब दिया:
“कम दर्जे के लोगों ने।”

अब उन्होंने कहा:
“तुम जाकर उनसे तीन सवाल करो, अगर उन्होंने इन तीन सवालों के जवाब दे दिए तो वह अल्लाह के नबी हैं और अगर जवाब न दे सके तो फिर समझ लेना कि वह कोई झूठा शख्स है।”

हुज़ूर से तीन सवाल

यह लोग यह तीन सवालात लेकर वापस मक्का आए और क़ुरैश से कहा:
“हम ऐसी चीज़ लेकर आए हैं कि इससे हमारे और मुहम्मद के दरमियान फैसला हो जाएगा।”

पहला सवाल असहाबे कहफ़ कौन थे?

इसके बाद उन्होंने सबको तफ़सील सुनाई। अब यह मुशरिकीन हज़रत नबी करीम ﷺ के पास आए। उन्होंने आप से कहा:
“ऐ मुहम्मद! अगर आप अल्लाह के सच्चे रसूल हैं तो हमारे तीन सवालात के जवाब बता दें। हमारा पहला सवाल यह है कि असहाबे कहफ़ कौन थे? दूसरा सवाल यह है कि ज़ुलक़रनैन कौन थे? और तीसरा सवाल यह है कि रूह क्या चीज़ है?”

आप ने उनके सवालात सुनकर फ़रमाया:
“मैं इन सवालों के जवाब तुम्हें कल दूँगा।”

नबी अकरम ﷺ ने इस जुमले में “इंशा अल्लाह” न फ़रमाया, यानी यह न कहा कि “इंशा अल्लाह, मैं तुम्हें कल जवाब दूँगा।”

क़ुरैश आपका जवाब सुनकर वापस चले गए। आप वह़ी (अल्लाह की तरफ़ से भेजी गई हिदायत) का इंतज़ार करने लगे, लेकिन वह़ी न आई। दूसरे दिन वह लोग आ गए, आप उन्हें कोई जवाब न दे सके, वह लोग बातें करने लगे। उन्होंने यह तक कह दिया:

“मुहम्मद के रब ने उन्हें छोड़ दिया।”

उन लोगों में अबू लहब की बीवी उम्मे जमील भी थी। उसने भी यह अल्फ़ाज़ कहे:
“मैं देखती हूँ कि तुम्हारे मालिक ने तुम्हें छोड़ दिया है और तुम से नाराज़ हो गया है।”

नबी अकरम ﷺ को क़ुरैश की यह बातें बहुत शाक गुज़रीं। आप बहुत परेशान और ग़मगीन हो गए। आख़िर जिब्रील अलैहिस्सलाम सूरह कहफ़ लेकर नाज़िल हुए। अल्लाह तआला की तरफ़ से आपको हिदायत दी गई:

“और आप किसी काम की निस्बत यूं न कहा कीजिए कि इसको कल कर दूँगा मगर अल्लाह के चाहने को मिला लिया कीजिए (यानी इंशा अल्लाह कहा कीजिए)। आप भूल जाएं तो अपने रब का ज़िक्र किया कीजिए और कह दीजिए कि मुझे उम्मीद है मेरा रब मुझे (नबूवत की दलील बनने के ऐतबार से) इससे भी क़रीबतर बात बता देगा।” (सूरह कहफ़)

मतलब यह था कि जब आप यह कहें कि आइंदा फलां वक़्त पर मैं यह काम करूंगा तो इसके साथ “इंशा अल्लाह” ज़रूर कहा करें। अगर आप उस वक़्त अपनी बात के साथ “इंशा अल्लाह” मिलाना भूल जाएं और बाद में याद आ जाए तो उस वक़्त “इंशा अल्लाह” कह दिया करें।

इस मौक़े पर वह़ी में देर इसी बुनियाद पर हुई थी कि आपने “इंशा अल्लाह” नहीं कहा था। जब जिब्रील अलैहिस्सलाम सूरह कहफ़ लेकर आए तो आपने उनसे पूछा था:
“जिब्रील! तुम इतनी मुद्दत मेरे पास आने से रुके रहे, इससे तशवीश पैदा होने लगी थी।”

जवाब में हज़रत जिब्रील अलैहिस्सलाम ने अर्जी की:
“हम आपके रब के हुक्म के बग़ैर न एक ज़माने से दूसरे ज़माने में दाख़िल हो सकते हैं, न एक जगह से दूसरी जगह जा सकते हैं। हम तो सिर्फ़ उसके हुक्म पर अमल करते हैं, और यह जो कुफ़्फ़ार कह रहे हैं कि आपके रब ने आपको छोड़ दिया है, तो आपके रब ने आपको हरगिज़ नहीं छोड़ा बल्कि यह सब उसकी हिकमत के मुताबिक़ हुआ है।”

फिर हज़रत जिब्रील अलैहिस्सलाम ने आपको असहाबे कहफ़ के बारे में बताया, ज़ुलक़रनैन के बारे में बताया और फिर रूह के बारे में वज़ाहत की।

असहाब ए कहफ का वाक्य

असहाबे कहफ़ की तफ़सील तफ्सीर इब्ने कसीर के मुताबिक़ यूं है:

“वह चंद नौजवान थे, दीन-ए-हक़ की तरफ़ माइल हो गए थे और राहे हिदायत पर आ गए थे। यह नौजवान परहेज़गार थे। अपने रब को माबूद मानते थे यानी तौहीद के क़ाइल थे। ईमान में रोज़-ब-रोज़ बढ़ रहे थे और यह लोग हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के दीन पर थे। लेकिन कुछ रिवायतों से यह भी मालूम होता है कि यह वाक़िआ हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम से पहले का है।”

क़ौम ने उनकी मुख़ालिफ़त की। उन्होंने सब्र किया। उस ज़माने के बादशाह का नाम दकियानूस था। वह मुशरिक था, उसने सबको शिर्क पर लगा रखा था। वह बहुत ज़ालिम था, बुतपरस्ती कराता था। वहां सालाना मेला लगता था। यह नौजवान अपने मां-बाप के साथ इस मेले में गए। वहां उन्होंने बुतपरस्ती होते देखी। यह वहां से बेज़ार होकर निकल आए और सब एक दरख़्त के नीचे जमा हो गए। पहले यह लोग अलग-अलग थे, एक-दूसरे को जानते नहीं थे।

अब यह आपस में घुल-मिल गए। उन्होंने अल्लाह की इबादत के लिए एक जगह मुक़र्रर कर ली। धीरे-धीरे मुशरिक क़ौम को इनके बारे में पता चल गया। वह इन्हें पकड़कर बादशाह के पास ले गए। बादशाह ने उनसे सवाल किए तो उन्होंने बहुत दिलेरी से शिर्क से बरी होने का एलान किया।

बादशाह ने उन्हें धमकाया और कहा:
“अगर यह बाज़ न आए तो मैं इन्हें सख़्त सज़ा दूँगा।”

उन्होंने कहा:
“हमारा रब वही है जो आसमान और ज़मीन का ख़ालिक़ है और यह नामुमकिन है कि हम उसके सिवा किसी और की इबादत करें।”

बादशाह का हुक्म सुनकर उनके दिल और मजबूत हो गए। मगर उन्होंने महसूस कर लिया कि यहां रहकर वह अपने दीन पर क़ायम नहीं रह सकेंगे। इसलिए उन्होंने वहां से निकलने का इरादा कर लिया। जब यह लोग अपने दीन को बचाने के लिए क़ुर्बानी देने पर तैयार हो गए तो उन पर अल्लाह तआला की रहमत नाज़िल हुई।

फिर अल्लाह तआला ने इनसे फ़रमा दिया:
“जाओ, तुम किसी ग़ार में पनाह हासिल करो, तुम पर तुम्हारे रब की रहमत होगी और वह तुम्हारे काम में आसानी और राहत मुहैया फरमाएगा।”

फिर यह लोग मौक़ा पाकर वहां से भाग निकले और एक पहाड़ की ग़ार में छुप गए।

अल्लाह तआला ने उन्हें तीन सौ नौ साल तक सुलाए रखा।

फिर जब वह जागे तो बिलकुल ऐसे थे जैसे अभी कल ही सोए थे…

सिरत उन-नबी ﷺ

शीर्षक: लोहे की दीवार

उनके बदन, खाल, बाल, ग़रज़ हर चीज़ बिल्कुल सही सलामत थी। यानी जैसे सोते वक़्त थे, बिल्कुल वैसे ही थे। किसी क़िस्म की कोई तब्दीली वाक़े नहीं हुई थी। वो आपस में कहने लगे:
“क्यों भई! भला हम कितनी देर तक सोते रहे हैं?”

एक ने जवाब दिया:
“एक दिन या इस से भी कम”

यह बात उसने इस लिए कही थी कि वो सुबह के वक़्त सोए थे और जब जागे तो शाम का वक़्त था। इस लिए उन्होंने यही ख़याल किया कि वो एक दिन या उस से कम सोए हैं। फिर एक ने यह कहकर बात ख़त्म कर दी:
“इसका दुरुस्त इल्म तो अल्लाह को है।”

अब उन्हें शदीद भूख प्यास का एहसास हुआ। उन्होंने सोचा, बाज़ार से खाना मंगवाना चाहिए। पैसे उनके पास थे। उनमें से कुछ वो अल्लाह के रास्ते में ख़र्च कर चुके थे, कुछ उनके पास बाक़ी थे। एक ने कहा:
“हम में से कोई पैसे लेकर बाज़ार चला जाए और खाने की कोई पाकीज़ा और उम्दा चीज़ ले आए और जाते हुए और आते हुए इस बात का ख़याल रखे कि कहीं लोगों की नज़र इस पर न पड़ जाए। सौदा ख़रीदते वक़्त भी होशियारी से काम ले। किसी की नज़रों में न आए। अगर उन्हें हमारे बारे में मालूम हो गया तो हमारी ख़ैर नहीं। दकियानूस के आदमी अभी तक हमें तलाश करते फिर रहे होंगे।”

चुनांचे उनमें से एक ग़ार से बाहर निकला। उसे सारा नक़्शा ही बदला नज़र आया। अब उसे क्या मालूम था कि वो तीन सौ नौ साल तक सोते रहे हैं। उसने देखा कोई चीज़ अपने पहले हाल पर नहीं थी। शहर में कोई भी उसे जाना-पहचाना नज़र न आया। यह हैरान था, परेशान था और डरे-डरे अंदाज़ में आगे बढ़ रहा था। उसका दिमाग़ चकरा रहा था, सोच रहा था, “कल शाम तो हम इस शहर को छोड़कर गए हैं फिर यह अचानक क्या हो गया है?”

जब ज़्यादा परेशान हुआ तो उसने अपने दिल में फ़ैसला किया, “मुझे जल्द-अज-जल्द सौदा लेकर अपने साथियों के पास पहुंच जाना चाहिए।” आख़िर वह एक दुकान पर पहुंचा, दुकानदार को पैसे दिए और खाने-पीने का सामान तलब किया। दुकानदार इस सिक्के को देखकर हैरत ज़दा रह गया। उसने वह सिक्का साथ वाले दुकानदार को दिखाया और बोला:
“भाई ज़रा देखना! यह सिक्का किस ज़माने का है?”

उसने दूसरे को दिया। इस तरह सिक्का कई हाथों में घूम गया। कई आदमी वहां जमा हो गए। आख़िर उन्होंने उस से पूछा:
“तुम यह सिक्का कहां से लाए हो? तुम किस मुल्क के रहने वाले हो?”

जवाब में उसने कहा:
“मैं तो इसी शहर का रहने वाला हूं, कल शाम ही को तो यहां से गया हूं, यहां का बादशाह दकियानूस है।”

वे सब उसकी बात सुनकर हंस पड़े और बोले:
“यह तो कोई पागल है, इसे पकड़ कर बादशाह के पास ले चलो।”

आख़िर उसे बादशाह के सामने पेश किया गया। वहां उस से सवालात हुए। उसने तमाम हाल कह सुनाया।
बादशाह और सब लोग उसकी कहानी सुनकर हैरत ज़दा रह गए। आख़िर उन्होंने कहा:
“अच्छा ठीक है। तुम हमें अपने साथियों के पास ले चलो…. वह ग़ार हमें भी दिखाओ।”

चुनांचे सब लोग उसके साथ ग़ार की तरफ़ रवाना हुए। उन नौजवानों से मिले और उन्हें बताया कि दकियानूस की बादशाहत ख़त्म हुए तीन सदियां बीत चुकी हैं और अब यहां अल्लाह के नेक बंदों की हुकूमत है। बहरहाल उन नौजवानों ने अपनी बाक़ी ज़िंदगी उसी ग़ार में गुज़ारी और वहीं वफ़ात पाई। बाद में लोगों ने उनके इज़्ज़त-ओ-अहतराम के तौर पर पहाड़ की बुलंदी पर एक मस्जिद तामीर की थी।

एक रिवायत यह भी है कि जब शहर जाने वाला पहला नौजवान लोगों को लेकर ग़ार के क़रीब पहुंचा तो उसने कहा:
“तुम लोग यहीं ठहरो, मैं जाकर उन्हें ख़बर कर दूं।”

अब यह उन से अलग होकर ग़ार में दाख़िल हो गया। साथ ही अल्लाह तआला ने उन पर फिर नींद तारी कर दी… बादशाह और उसके साथी उसे तलाश करते रह गए… न वह मिला और न ही वह ग़ार उन्हें नज़र आया, अल्लाह तआला ने उनकी नज़रों से ग़ार को और उन सब को छुपा दिया।

उनके बारे में लोग ख़याल ज़ाहिर करते रहे कि वह सात थे, आठवां उनका कुत्ता था, या वह नौ थे, दसवां उनका कुत्ता था। बहरहाल उनकी गिनती का सही इल्म अल्लाह ही को है।

अल्लाह तआला ने अपने नबी ﷺ से इरशाद फ़रमाया:
“इनके बारे में ज़्यादा बहस न करें और न उनके बारे में किसी से दरियाफ़्त करें (क्योंकि उनके बारे में लोग अपनी तरफ़ से बातें करते हैं। कोई सही दलील उनके पास नहीं)।”

दूसरा सवाल, ज़ुल-क़रनैन कौन था?

ज़ुल-क़रनैन एक नेक, ख़ुदा-रसिदा और ज़बरदस्त बादशाह था। उन्होंने तीन बड़ी मोहिमें सर कीं। पहली मोहिम में वह उस मक़ाम तक पहुंचे, जहां सूरज ग़ुरूब होता है। यहां उन्हें एक ऐसी क़ौम मिली जिसके बारे में अल्लाह ने उन्हें इख़्तियार दिया कि चाहें तो इस क़ौम को सज़ा दें, चाहें तो उनके साथ नेक सुलूक करें।

ज़ुल-क़रनैन ने कहा कि
“जो शख़्स ज़ालिम है, हम उसे सज़ा देंगे और मरने के बाद अल्लाह तआला भी उसे सज़ा देगा, अलबत्ता मोमिन बंदों को नेक बदला मिलेगा।”

दूसरी मोहिम में वह उस मक़ाम तक पहुंचे जहां से सूरज तुलू होता है। वहां उन्हें ऐसे लोग मिले, जिनके मकानात की कोई छत वग़ैरा नहीं थी। तीसरी मोहिम में वह दो घाटियों के दरमियान पहुंचे। यहां के लोग उनकी बात नहीं समझते थे। उन्होंने इशारों में या तरजुमान के ज़रिए या’जूज मा’जूज की तबाही का शिकवा करते हुए उनसे दर्ख़्वास्त की कि वह उनके और या’जूज मा’जूज के दरमियान एक बंद बना दें।

ज़ुल-क़रनैन ने लोहे की चादरें मंगवाईं, फिर उनसे एक दीवार बना दी। इस में तांबा पिघला कर डाला गया। इस काम के होने पर ज़ुल-क़रनैन ने कहा:
“यह अल्लाह का फ़ज़्ल है कि मुझ से इतना बड़ा काम हो गया।”

ज़ुलक़रनैन के बारे में मुख्तलिफ़ वज़ाहतें किताबों में मिलती हैं। क़रनैन के मानी दो सिम्तों के हैं। ज़ुलक़रनैन दुनिया के दो किनारों तक पहुँचे थे, इसलिए उन्हें ज़ुलक़रनैन कहा गया।
बाज़ ने क़रन के मानी सिंग के लिए लिए हैं, यानी दो सिंगों वाले। इनका नाम सिकंदर था, लेकिन यह यूनान के सिकंदर नहीं हैं जिसे सिकंदर-ए-आज़म कहा जाता है। यूनानी सिकंदर काफ़िर था, जबकि यह मुस्लिम और वली अल्लाह थे। यह साम बिन नूह अलैहिस्सलाम की औलाद में से थे।
ख़िज़्र अलैहिस्सलाम इनकी फौज का झंडा उठाने वाले थे।

क़यामत के क़रीब या’जूज मा’जूज इस दीवार को तोड़ने में कामयाब हो जाएंगे।

तीसरे सवाल यानी रूह के बारे में अल्लाह तआला ने इरशाद फ़रमाया:
“यह लोग आप से रूह के बारे में पूछते हैं, आप फ़रमा दीजिए कि रूह मेरे रब के हुक्म से क़ायम है, यानी रूह की हक़ीक़त उसी के इल्म में है, उसके सिवा इसके बारे में कोई नहीं जानता।”

तीसरा सवाल रूह केबारे में

रूह के बारे में यहूदियों की किताबों में भी बिल्कुल यही बात दर्ज थी कि रूह अल्लाह के हुक्म से क़ायम है। इसका इल्म अल्लाह ही के पास है और उसने अपने सिवा किसी को नहीं दिया। यहूदियों ने मुशरिकों से पहले ही कह दिया था कि अगर उन्होंने रूह के मुतअल्लिक़ कुछ बताया तो समझ लेना कि वह नबी नहीं हैं। अगर सिर्फ़ यह कहा कि रूह अल्लाह के हुक्म से क़ायम है तो समझ लेना कि वह सच्चे नबी हैं। आप ने बिल्कुल यही जवाब इरशाद फ़रमाया।

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