0%
Loading ...

Loading

💚 इस्लाम की बेटियों

मोहब्बत सिर्फ निकाह है, और अगर निकाह नहीं है तो गुनाह है।

अच्छी लड़कियों को पसंद करके, उनका ईमान खराब करके, उनसे इनबॉक्स में वादे करके, उनके पर्दे की धज्जियाँ उड़ाकर, उन्हें बुरी लड़की का लेबल लगाकर छोड़ने वालों, एक रब भी है उसका खौफ करो। लानत है ऐसी तालीम, गैरत और शराफत पर, जो तुम लोगों से शुरू होकर तुम लोगों पर ही खत्म हो जाती है।

ये कैसी तालीम है जिसमें सब लज्ज़त के मरहले हल कर लिए, तो उसके बाद लड़की के ऐब दिखने लगे, और अपने सब मसाइल और मजबूरियाँ मुंह खोले नजर आने लगीं? कुछ शर्म होती है, कुछ हया होती है। यही वह लड़की और औरत थी जिससे बात करने के लिए कुछ दिन पहले मर रहे थे, और अब उससे बात करते हुए मौत पड़ती है।

यही वह लड़की और औरत है जिसने किसी कमजोर लम्हे में एक अहद बांध लिया तुमसे मोहब्बत का, मगर वह निकाह के दिलासे और आस पे था, ज़िना पे नहीं। अगर एक लड़की को तुम लोग निकाह की उम्मीद पे बेपर्दा करते हो तो इसका मतलब यह नहीं कि वह लड़की बुरी है बल्कि तुम बुरे हो जिसने हलाल काम की तसल्ली देकर हराम काम किया।

वह लड़की और औरत मासूम थी, शरीफ थी जिसकी शरीफी का तुमने ऐसा मजाक उड़ाया कि उसे खुद से नफरत हो गई। अब वह सारी उम्र सजदों में तुम्हारे लिए बददुआ करेगी और अपने लिए तौबा।

क्या पता कि उसकी तौबा रब को कितनी पसंद आए और उस ठोकर के बाद उसका शुमार पारसाओं में और जिक्र रब की महफिलों में होने लगे और तुम पर सख्त पकड़ आए और जहन्नम को तुम्हारा ठिकाना बना दिया जाए।

उस लड़की का तुमसे निकाह की जिद करना, लड़ना और झगड़ना ही उसकी शरीफी की दलील है, कि वह तुमसे खेली नहीं बल्कि खेली गई। उसने जी नहीं बहलाया बल्कि उससे जी बहलाया गया। वरना तुम्हारे इनकार पे वह यूँ ना टूटती, यूँ ना बिखरती, यूँ रब के आगे ना गिड़गिड़ाती, यूँ तौबा ना करती।

तुम कैसे बगैरत मर्द थे कि यह सब करके भी
तुमने शरीफी का लेबल, नेक पारसाई का लेबल
लगाया हुआ है। और यह जो मजबूरियाँ थीं क्या यह उससे बात
करने से पहले नहीं थीं? उसे ख्वाब क्यों दिखाए? मोहब्बत के रास्ते पे लाने से पहले अपनी उम्र, अपना कारोबार, अपना खानदान, फिरका, रस्मों रिवाज, जवान बहनें,
बीवी बच्चे और अन्य मसाइल नजर क्यों नहीं आए? शैतान हो, क्योंकि शैतान ने ही ठेका लिया था इंसान को वरगलाने का, भटकाने का और बुराई पे माइल करके
उसे धुतकारा हुआ छोड़ देने का।

मैं जानता हूँ मेरे अल्फाज तल्ख हैं और भाइयों की शरीफी व गैरत पे एक ताज़ियाना हैं क्योंकि मैंने लड़कियों को ही रोते, इज्ज़त बचाते, अपने गुनाहों पे आँसू बहाते देखा है और ब्लैकमेल होते हुए भी। कभी किसी मर्द को ब्लैकमेल होते नहीं देखा। क्या इज्ज़त सिर्फ मर्द की होती है? क्या औरत ही अपने गुनाहों पे सारी उम्र एक खौफ में जिंदगी गुज़ारे?

जो मर्द बराबर के इस गुनाह में शरीक हैं, उनको क्या खौफ है? इतनी सी शर्म भी नहीं है कि लड़कियाँ किस तरह माशरती दबाव में आकर नादानी में अपनी जान ले लेती हैं क्योंकि बदनामी का खौफ उसके बाद उनके दिल से जीने की तमाम ख्वाहिशें छीन लेता है। अपने माँ-बाप की बेइज़्जती का गम उन्हें मार देता है। नादानी का एक गुनाह, एक गलती उनसे सारी उम्र छीन लेता है।

काश कि तुम लोगों को एहसास हो कि जिस बेटी से तुमने खेला है, कैसी लाडों में माँ ने उसे पाला था, कैसे सीने से लगाकर उसे रातों को सुलाया, खिलाया-पिलाया, पढ़ाया। उसकी शरीफी की धज्जियाँ उड़ाकर कम से कम उसकी तश्हीर तो ना करो। कैसे बेटे हो और कैसे भाई हो तुम। चलो मैं मानता हूँ कि भाई नहीं हो, तुम्हारी कोई बहन नहीं। मगर कोई भी इंसान माँ की कोख के बगैर तो जन्म नहीं लेता।

तो एक माँ तो है तुम्हारी, एक बेटी तो हो सकती है तुम्हारी और एक अदद बीवी भी तो बनेगी। अगर उससे किसी ने ऐसे ही खेला? तुम कैसे उसे अपने जैसे नेक दरिंदे से बचाओगे?

यहाँ मैं माँ-बाप के आगे भी हाथ जोड़ूँगा कि अपनी बेटियों से प्यार करें, उन्हें समझाएँ सही गलत और उसके बाद उन्हें भरोसा दें कि अगर कोई गलती या गुनाह हो जाता है तो उसकी तौबा है, उसकी माफी है, कोई भी जुर्म ना काबिले माफी नहीं है।खुदकुशी की राह ना अपनाएँ, क्योंकि गुनाह की तौबा के लिए जिंदगी है मगर हराम मौत की तौबा के लिए कुछ भी नहीं। उनको तहफ्फुज़ और एतमाद दें।

और मैं भाभियों से हाथ जोड़कर कहता हूँ कि अपने शौहर की बहनों को अपनी बहनों की तरह देखो, ना कि शौहर को बहनों के खिलाफ करो। अगर उनसे गलती हो भी जाए तो पर्दा डाल दो, कल अल्लाह तुम्हारी बेटी का पर्दा डालेगा।**मोहब्बत करें और भाई भी एकतरफा सुनकर बहन से
नफरत न करें। आपकी मोहब्बत ही उन्हें बचा सकती है, नफरत नहीं।

मैं मर्दों के खिलाफ नहीं।

अगर कोई लड़की भी ऐसा खेल खेलती है तो उस पर भी उतनी ही शरीअत और अखलाकीयत की हदें हैं।

मगर मसला यह है कि %80 लड़कियाँ शादी के नाम पर अपना ईमान बेच देती हैं।

उन बहनों के लिए भी हाथ जोड़कर इल्तिज़ा है कि प्यारी बहनों, गलती हो गई है, अगर इस्लाम की हदों को किसी हलाल रिश्ते में बँधने के लिए पामाल कर ही दिया है तो इसमें जल्दी करो, अपना ईमान मत बेचो। पर्दा मत उतारो, उसे सीधे तरीके से घर बुलाओ और यकीन करो जिसे तुमसे मोहब्बत है, वह तुम्हारा ईमान खराब नहीं करेगा। जो कर रहा है उसे मोहब्बत नहीं है, बस एक लज्ज़त है, हवस है, और जिज्ञासा है तुम्हें खोजने का। उससे दूर रहो और उसे दूर कर दो।

ख़ुदारा! अपनी इज्ज़त को, ईमान को कम दामों में मत बेचो। ये वो मोती हैं जो अनमोल हैं, इन्हें पत्थर मत बनाओ। किसी के लिए रब को नाराज़ करोगे तो रब की पकड़ और आज़माइश बहुत सख्त है। लोगों को बहुत ऐतराज़ होता है कि लड़कियाँ ना करें ऐसे, ना शिकार हों। वह कोई मासूम तो नहीं। तो जनाब वह मासूम ही थीं जो आपका शिकार हो गईं, वरना दो लफ्ज़ भेज कर लानत मलामत करके टाल देतीं , उनको क्या परवाह होती। और शैतान का काम क्या है। दो नामहरमों के बीच जब तीसरा शैतान है तो गुनाह होने का अंदेशा रहता है।

इसलिए मैं तरग़ीब से बचने पर यकीन रखती हूँ। ना आप फितने की जगह पर जाएँ। मगर गुनाहगार तो हर इंसान है। फर्क तो सिर्फ नीयत का है। हम और तरह के गुनाह कर रहे हैं। किसी पर उंगली उठाने से पहले अपने गुनाहों का हिसाब ज़रूर करें। **प्यारी बहनों! मोहब्बत सिर्फ निकाह है और अगर निकाह नहीं है तो गुनाह है।**बहनों, बेटियों और माँओं की इज्ज़तें तो साझा होती हैं।

यह वह रिश्ते हैं जो सबके पास हैं, इन्हें उधार में ना बरतें, इन्हें सम्मान के साथ अपनाएँ। और किसी के साथ इबलीस वाला मामला ना करें कि उसे बहका कर छोड़ दें। इस दुनिया में तो आपकी चालाकी आपको बेगुनाह साबित भी कर देगी मगर अल्लाह के यहाँ कौन सा झूठ, फलसफा या मजबूरी और दिलासा काम आएगा।

अभी तो साँस बाकी है। अगर किसी के साथ ऐसा कर चुके हैं तो उसका मुआवजा करें, तौबा करें, माफी माँगें और रब के यहाँ वापस लौट आएँ। इससे पहले कि उसकी तरफ लौटाए जाएँ। बहनों के कमजोर किरदार पर उंगली उठाने के बजाय अपना किरदार मजबूत करें….!!

क्योंकी

“वुजूद-ए-ज़न🧕 से है तस्वीर-ए-कायनात का रंग”

Mohabbat Sirf Nikaah hai, Aut Agar Nikaah Nahi to Gunaah hai

औरत तो एक शब्द है लेकिन यह ख़ालिक-ए-कायनात का हसीन तरीन शाहकार है, औरत के वजूद से इस जहां-ए-रंग की सरशब्ज़-ओ-शादाबी क़ायम है।

औरत वफ़ा शआरी, ईसार, क़ुर्बानी, फ़रमाबर्दारी, तहम्मुल मिज़ाजी, सलीक़ा शआरी का दूसरा रूप है।

औरत तहज़ीब-ओ-तमद्दुन शाइस्तगी-ओ-शगुफ्तगी की हसीन पैकर है, औरत ज़िंदगी के हसीन तरीन राज़ की दूसरी सूरत है।

औरत तमाम तर सिफ़तों का आला नमूना है, औरत के खमीर को समाज की तमाम तर रानाइयों से गूंथा गया है, औरत बनी नोए इंसान का लाज़मी अनसर है।

औरत के रूप को रहमत भी क़रार दिया गया चूंकि ये सिफ़त-ए-नाज़ुक है, ये शगुफ़्ता कली और शफ़्फ़ाक़ पानी के चश्मे की मानिंद है।

ये कभी भाई जैसे पाकीज़ा रिश्ते के लिए बहन की शक्ल में ख़ुलूस-ओ-वफ़ा के मफ़हूम बन जाती है। फिर राहत-ओ-सुकून बहम पहुंचाने का ख़ूबसूरत रास्ता भी।

ये कभी बेटी बनकर बाप के सरों का ताज बन जाती है।

कभी बाप के ग़मों के हलकान के लिए मुतहमिल पहाड़ की शक्ल इख़्तियार कर लेती है।

कभी बाप को समाजी, माशरती, और तालीमी सतह पर आला मक़ाम दिलाने का सबब भी बनती है।

अगर कभी यही बेटी तीन हो जाए तो फिर ख़ालिक-ए-कायनात की ख़ुश्नूदी और तक़र्रुब तक पहुंचाने का हसीन रास्ता बन जाती हैं।

यही बेटी कभी फ़ातिमा रज़ियल्लाहु अन्हा की शक्ल में मुहसिन इंसानियत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की आंखों की ठंडक बन गई।

कभी आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा अबू बक्र सिद्दीक रज़ियल्लाहु अन्हु की अज़मत को आसमानों तक पहुंचा देती हैं।

फिर यही बेटी बूढ़े बाप के लिए शिद्दत की धूप में मज़बूत और घना सायबान बनकर सामने आती है।

फिर यही औरत जब सबसे मुकद्दस और मुअतबर रिश्ता मां के दर्जे पर फ़ाइज़ हुई तो उसकी वसीअ कायनात औलाद तक ही महदूद हो जाती है।

जब इस औरत की तमाम ख्वाहिशों और तमन्नाओं का महवर-ओ-मरकज़ औलाद हो जाती है।

अपने दामन के साए आतिफ़त में इस तरह से ढांक लेती है कि ग़म को आने में झिझक महसूस होती होगी।

इस तरह से दिल के जज़्बात को समेटती है कि खुद ब खुद ख़ुलूस का मफ़हूम ज़ेहन-नशीन हो जाता है।

यही औरत जब मां के बे-लौस रिश्ते में समाती है तो रहमत, शफ़क़त, आतिफ़त, दरगुज़र, तहम्मुल के तमाम दरियाओं और सहराओं को लेकर समाती है।

फिर क्या बस दिल में इंतिक़ाम की बू तक का वजूद नहीं।

रहमत का एक ज़िंदा-ओ-जायद नमूना।

ये मां कभी कड़ी की सर्दी में अपनी औलाद की खातिर भूख से सूखा हुआ जिस्म को रेशम का लिबास बना देती है।

कभी धूप की तपिश में ख़ूबसूरत सायबान बनकर बे-ग़रज़ मुहब्बत की पाठ पढ़ाने लगती है।

कभी बग़ैर छत की छोपड़ी में औलाद के लिए ऐसी छत बन जाती है कि बारिश का एक क़तरा भी न गिर सके।

औलाद की बीमारी का एहसास हुआ तो बस अपनी बीमारी को सेहतयाबी में बदलने का फ़न कोई इनसे सीखे, हालांकि इस मामले में अक्सर मेरी मां झूठी साबित होती है।

मां वह बहर-ए-बेकरां है जिसकी मौज-ए-आतिफ़त से एक आलम को राहत-ओ-सुकून मयस्सर हो रहा है।

मेरे गुनाहों को वो इस तरह से धो देती है…

मां बहुत ग़ुस्से में हो तो रो देती है।

यही औरत जब बीवी जैसे अज़ीम रिश्ते के लिबास ज़ेब तन करती है तो अपने शोहर के आधे ईमान की तकमील का ज़रिया बन जाती है।

फिर अपने शोहर के लिए राहत-ओ-सुकून का वो तनावर दरख़्त बन जाती है जिसकी हर शाख़ से सुबह-ओ-शाम ठंडी-ठंडी हवाएं अपने साथ ख़ुशियों और मसरतों के लम्हे भी लेकर आएं।

कभी यही औरत; हर कामयाब मर्द के पीछे एक औरत का हाथ होता जैसे समाजी कौल को सही साबित करती नज़र आई।

यही औरत हज़रत ख़दीजा रज़ियल्लाहु अन्हा बनकर अपने अज़्म-ओ-हिम्मत से रसूल की रिसालत को संभाला। फिर एक नबी के बेकरार दिल को क़रार पहुंचाने में मुअविन साबित हुई।

ये औरत कभी आसिया भी थी जो झूठी ख़ुदाई के दस्त-ओ-बाज़ू होकर भी क़ुर्बत-ए-ख़ुदावंद हासिल करके ही दम लिया।

औरत है तो दुनिया के हसीन मंज़र आंखों को हसीन लगेंगे। ज़मीन तंग होने के बावजूद वसीअ महसूस होगी।

आसमान हर रंग में आंखों को भाएगा।

वुजूद-ए-ज़न से है तस्वीर-ए-कायनात का रंग।


Leave a Comment

error: Content is protected !!