![]()
Masjid E Nabvi | Prophet Muhammad History in Hindi Part 31
┈┉┅❀🍃🌸🍃❀┅┉┈
Seerat e Mustafa Qist 31
┈┉┅❀🍃🌸🍃❀┅┉┈
Table of Contents
Masjid E Nabvi बनाने का इरादा

आप ﷺ जब क़ुबा से मदीना मुनव्वरा तशरीफ़ लाए तो साथ अकसर मुहाजिरीन भी मदीना मुनव्वरा आ गए थे। उस वक़्त अंसारी मुसलमानों का जज़्बा क़ाबिले दीद था। इन सब की ख़्वाहिश थी कि मुहाजिरीन उनके यहाँ ठहरें। इस तरह उनके दरमियान बहस हुई। आख़िर अंसारी हज़रात ने मुहाजिरीन के लिए क़ुरआ अंदाज़ी की। इस तरह जो मुहाजिर जिस अंसारी के हिस्से में आया, वह उन्हीं के यहाँ ठहरा। अंसारी मुसलमानों ने उन्हें न सिर्फ़ अपने घरों में ठहराया बल्कि उन पर अपना माल और दौलत भी ख़र्च किया।
मुहाजिरीन की आमद से पहले अंसारी मुसलमान एक जगह ब-ज़माअत नमाज़ अदा करते थे। हज़रत असअद बिन ज़रारा रज़ियल्लाहु अन्हु उन्हें नमाज़ पढ़ाते थे। जब आप ﷺ तशरीफ़ लाए तो सबसे पहले मस्जिद बनाने की फ़िक्र हुई। आप ﷺ अपनी ऊँटनी पर सवार हुए और उसकी लगाम ढीली छोड़ दी। ऊँटनी चल पड़ी, वह उस जगह जाकर बैठ गई जहाँ आज मस्जिद-ए-नबवी है। जिस जगह मुसलमान नमाज़ अदा करते रहते थे, वह जगह भी इसके आस-पास ही थी। उस वक़्त वहाँ सिर्फ़ दीवारें खड़ी की गई थीं… उन पर छत नहीं थी। ऊँटनी के बैठने पर आप ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:
“बस! मस्जिद इस जगह बनेगी।”
इसके बाद आप ﷺ ने असअद बिन ज़रारा रज़ियल्लाहु अन्हु से फ़रमाया:
“तुम यह जगह मस्जिद के लिए फ़रोख़्त कर दो।”
वह जगह दरअस्ल दो यतीम बच्चों सहल और सुहैल की थी और असअद बिन ज़रारा रज़ियल्लाहु अन्हु उनके सरपरस्त थे। यह रिवायत भी आई है कि उनके सरपरस्त मुआज़ बिन अफ़राअ रज़ियल्लाहु अन्हु थे। आप ﷺ की बात सुनकर हज़रत अबू अय्यूब अंसारी रज़ियल्लाहु अन्हु ने अर्ज़ किया:
“आप यह ज़मीन ले लें, मैं इसकी क़ीमत इन दोनों को अदा कर देता हूँ।”
आप ﷺ ने इससे इनकार फ़रमाया और दस दीनार में ज़मीन का वह टुकड़ा ख़रीद लिया। यह क़ीमत हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु के माल से अदा की गई। (वाह! क्या क़िस्मत पाई अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु ने कि क़यामत तक मस्जिद-ए-नबवी के नमाज़ियों का सवाब उनके नामे-आमाल में लिखा जा रहा है।)
यह रिवायत भी है कि आप ﷺ ने उन दोनों यतीम लड़कों को बुलवाया। ज़मीन के सिलसिले में उनसे बात की। उन दोनों ने अर्ज़ किया:
“ऐ अल्लाह के रसूल! हम यह ज़मीन हदिया करते हैं।”
आप ﷺ ने उन यतीमों का हदिया क़ुबूल करने से इनकार फ़रमा दिया और दस दीनार में ज़मीन का वह टुकड़ा उनसे ख़रीद लिया। हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु को हुक्म दिया कि वह उन्हें दस दीनार अदा कर दें, चुनांचे उन्होंने वह रक़म अदा कर दी।
तामीर की शुरुआत
ज़मीन की ख़रीद के बाद आप ﷺ ने मस्जिद की तामीर शुरू करने का इरादा फ़रमाया। ईंटें बनाने का हुक्म दिया। फिर गारा तैयार किया गया। आप ﷺ ने अपने दस्ते मुबारक से पहली ईंट रखी। फिर हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु को हुक्म दिया कि दूसरी ईंट वह रखें। उन्होंने आप ﷺ की लगाई हुई ईंट के बराबर दूसरी ईंट रख दी। अब हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु को बुलाया गया। उन्होंने सिद्दीक़े अकबर रज़ियल्लाहु अन्हु की ईंट के बराबर तीसरी ईंट रखी। अब आप ﷺ ने हज़रत उस्मान रज़ियल्लाहु अन्हु को बुलाया। उन्होंने हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु की ईंट के बराबर चौथी ईंट रखी। साथ ही आप ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:
“मेरे बाद यही ख़लीफ़ा होंगे।” (मुस्तदरक हाकिम ने इस हदीस को सही कहा है)
फिर हुज़ूर अक़दस ﷺ ने आम मुसलमानों को हुक्म फ़रमाया:
“अब पत्थर लगाना शुरू कर दो।”
मुसलमान पत्थरों से बुनियादें भरने लगे। बुनियादें तक़रीबन तीन हाथ (साढ़े 4 फ़ुट) गहरी थीं। इसके लिए ईंटों की तामीर उठाई गई। दोनों जानिब पत्थरों की दीवारें बनाकर खजूर की टहनियों की छत बनाई गई और खजूर के तनों के स्तंभ बनाए गए। दीवारों की ऊँचाई इंसानी क़द के बराबर थी।

इन हालात में कुछ अंसारी मुसलमानों ने कुछ माल जमा किया। वह माल आप ﷺ के पास लाए और अर्ज़ किया:
“अल्लाह के रसूल! इस माल से मस्जिद बनाइए और इसको आरास्ता कीजिए, हम कब तक छप्पर के नीचे नमाज़ पढ़ेंगे?”
इस पर हुज़ूर अक़दस ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:
“मुझे मस्जिदों को सजाने का हुक्म नहीं दिया गया।”
इसी सिलसिले में एक और हदीस के अल्फ़ाज़ यह हैं:
“क़यामत क़ायम होने की एक निशानी यह है कि लोग मस्जिदों में आराइश और ज़ेबाइश करने लगेंगे जैसे यहूद और नसारा अपने कलीसाओं और गिरजों में ज़ीनत करते हैं।”
मस्जिद-ए-नबवी की छत खजूर की छाल और पत्तों की थी और इस पर थोड़ी सी मिट्टी थी। जब बारिश होती तो पानी अंदर टपकता… यह पानी मिट्टी मिला होता… इस से मस्जिद के अंदर कीचड़ हो जाता। यह बात महसूस करके सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम ने अर्ज़ किया:
“या रसूलल्लाह! अगर आप हुक्म दें तो छत पर ज़्यादा मिट्टी बिछा दी जाए ताकि इसमें से पानी न रिसे, मस्जिद में न टपके।”
आप ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:
“नहीं! यूंही रहने दो।”
मस्जिद के तामीर के काम में तमाम मुहाजिरीन और अंसार सहाबा ने हिस्सा लिया। यहाँ तक कि ख़ुद हुज़ूर नबी करीम ﷺ ने भी अपने हाथों से काम किया। आप ﷺ अपनी चादर में ईंटें भर-भर कर लाते यहाँ तक कि सीना मुबारक ग़ुबार आलूद हो जाता। सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम ने अनहज़रत ﷺ को ईंटें उठाते देखा तो वे और ज़्यादा जानफ़िशानी से ईंटें ढोने लगे। (यहाँ ईंटों से मुराद पत्थर हैं।) एक मौक़े पर आप ﷺ ने देखा कि बाक़ी सहाबा तो एक-एक पत्थर उठा कर ला रहे हैं और हज़रत अम्मार बिन यासिर रज़ियल्लाहु अन्हु दो पत्थर उठा कर ला रहे थे तो उनसे पूछा:
“अम्मार! तुम भी अपने साथियों की तरह एक-एक पत्थर क्यों नहीं लाते?”
उन्होंने अर्ज़ किया:
“इसलिए कि मैं अल्लाह तआला से ज़्यादा से ज़्यादा अज्र व सवाब चाहता हूँ।”
हज़रत उस्मान बिन मज़ऊन रज़ियल्लाहु अन्हु बहुत नफ़ीस और सफ़ाई पसंद थे। वह भी मस्जिद की तामीर के लिए पत्थर ढो रहे थे। पत्थर उठा कर चलते तो उसको अपने कपड़ों से दूर रखते ताकि कपड़े ख़राब न हों। अगर मिट्टी लग जाती तो फ़ौरन चुटकी से उसको झाड़ने लग जाते। दूसरे सहाबा देख कर मुस्कुरा देते।

मस्जिद की तामीर के बाद हुज़ूर अक़दस ﷺ इसमें पाँच माह तक बैतुल मुक़द्दस की तरफ़ मुँह करके नमाज़ें पढ़ते रहे। इसके बाद अल्लाह तआला के हुक्म से क़िबले का रुख़ बैतुल्लाह की तरफ़ हो गया। मस्जिद का पहले फ़र्श कच्चा था, फिर इस पर कंकरियां बिछा दी गईं। यह इस लिए बिछाई गईं कि एक रोज़ बारिश हुई, फ़र्श गीला हो गया। अब जो भी आता, अपनी झोली में कंकरियां भर कर लाता और अपनी जगह पर उनको बिछा कर नमाज़ पढ़ता। तब नबी करीम ﷺ ने हुक्म दिया कि सारा फ़र्श ही कंकरियों का बिछा दो।
फिर जब मुसलमान ज़्यादा हो गए तो नबी करीम ﷺ ने मस्जिद को वसीअ करने का इरादा फ़रमाया। मस्जिद के साथ ज़मीन का एक टुकड़ा हज़रत उस्मान ग़नी रज़ियल्लाहु अन्हु का था, यह टुकड़ा उन्होंने एक यहूदी से ख़रीदा था। जब हज़रत उस्मान रज़ियल्लाहु अन्हु को मालूम हुआ कि हुज़ूर ﷺ मस्जिद को वसीअ करना चाहते हैं तो उन्होंने अर्ज़ किया:
“ऐ अल्लाह के रसूल! आप मुझ से ज़मीन का यह टुकड़ा जन्नत के एक मकान के बदले में ख़रीद लें।”
चुनांचे नबी करीम ﷺ ने ज़मीन का वह टुकड़ा उनसे ले लिया। मस्जिद-ए-नबवी के बारे में आप ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:
“अगर मेरी यह मस्जिद सनआ के मुक़ाम तक भी बन जाए (यानी इतनी वसीअ हो जाए) तो भी यह मेरी मस्जिद ही रहेगी, यानी मस्जिद-ए-नबवी ही रहेगी।”
इस से ज़ाहिर हो रहा है कि, आप ﷺ ने मस्जिद-ए-नबवी के वसीअ होने की इत्तिला पहले ही दे दी थी और हुआ भी यही। बाद के अदवार में इसकी तौसीअ होती रही है और इसका सिलसिला जारी है और आगे भी जारी रहेगा।
मस्जिद-ए-नबवी के साथ ही सैय्यदा आयशा सिद्दीक़ा रज़ियल्लाहु अन्हा और सैय्यदा सौदा रज़ियल्लाहु अन्हा के लिए दो हुजरे बनाए गए। यह हुजरे मस्जिद-ए-नबवी से बिल्कुल मिले हुए थे। इन हुजरों की छतें भी मस्जिद की तरह खजूरों की छाल से बनाई गई थीं। मस्जिद-ए-नबवी की तामीर तक आप ﷺ हज़रत अबू अय्यूब अंसारी रज़ियल्लाहु अन्हु के घर में क़याम पज़ीर रहे। आप ﷺ ने उनके मकान में निचली मंज़िल में क़याम फ़रमाया था। हज़रत अबू अय्यूब अंसारी रज़ियल्लाहु अन्हु और उनकी बीवी ने आप ﷺ से दरख़्वास्त की थी:
“हुज़ूर! आप ऊपर वाली मंज़िल में क़याम फ़रमाएं।”
इस पर आप ﷺ ने जवाब में फ़रमाया:
“मुझे नीचे ही रहने दो… क्योंकि लोग मुझ से मिलने के लिए आएंगे, इसी में सहूलत रहेगी।”
हज़रत अबू अय्यूब अंसारी रज़ियल्लाहु अन्हु फ़रमाते हैं:
“एक रात हमारी पानी की घड़ियां टूट गईं। हम घबरा गए कि पानी नीचे न टपकने लगे और आप ﷺ को परेशानी न हो… तो हम ने फ़ौरन इस पानी को अपने लिहाफ़ में जज़्ब करना शुरू कर दिया… और हमारे पास वह एक ही लिहाफ़ था और दिन सर्दी के थे।”
इसके बाद हज़रत अबू अय्यूब अंसारी रज़ियल्लाहु अन्हु ने फिर आप ﷺ से ऊपर वाली मंज़िल पर क़याम करने की दरख़्वास्त की… आख़िर आप ﷺ ने उनकी बात मान ली।
उनके घर के क़याम के दौरान आप ﷺ के लिए खाना हज़रत असअद बिन ज़रारा और हज़रत सअद बिन उबादा रज़ियल्लाहु अन्हुमा के यहाँ से भी आता था।

हुज़ूर के और सहाबा के घर वाले
मस्जिद-ए-नबवी की तामीर के साथ आप ﷺ ने दो हुजरे अपनी बीवियों के लिए बनवाए थे। (बाक़ी हुजरे ज़रूरत के मुताबिक़ बाद में बनाए गए)। इन दो में से एक सैयदा आयशा सिद्दीक़ा रज़ियल्लाहु अन्हा का था और दूसरा सैयदा सौदा रज़ियल्लाहु अन्हा का।
इस तामीर से फ़ारिग होने के बाद हुज़ूर अक़दस ﷺ ने हज़रत ज़ैद बिन हारिसा और हज़रत ज़ैद बिन राफ़े रज़ियल्लाहु अन्हुमा को मक्का भेजा ताकि हुज़ूर अक़दस ﷺ के घर वालों को ले आएं। हुज़ूर अक़दस ﷺ ने उन्हें सफ़र में ख़र्च करने के लिए 500 दिरहम और दो ऊंट दिए। रहबर के तौर पर उनके साथ अब्दुल्लाह बिन उरीक़त को भी भेजा। सैयदुना अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु ने यह अख़राजात बर्दाश्त किए। उनके घर वालों को लाने की ज़िम्मेदारी भी उन्हें ही सौंपी गई।
इस तरह यह हज़रात मक्का मुअज़्ज़मा से आप ﷺ की साहबज़ादियों हज़रत फ़ातिमा रज़ियल्लाहु अन्हा, हज़रत उम्मे कुलसूम रज़ियल्लाहु अन्हा को, हुज़ूर ﷺ की अहलिया मोहतरमा हज़रत सौदा बिन्ते ज़मआ रज़ियल्लाहु अन्हा, और दाया उम्मे अयमन रज़ियल्लाहु अन्हा (जो ज़ैद बिन हारिसा रज़ियल्लाहु अन्हु की अहलिया थीं) और उनके बेटे हज़रत उसामा बिन ज़ैद रज़ियल्लाहु अन्हु को लेकर मदीना मुनव्वरा आ गए। हज़रत उसामा बिन ज़ैद रज़ियल्लाहु अन्हु आप ﷺ की दाया के बेटे थे और आप ﷺ को हद दर्जे अज़ीज़ थे।
आप ﷺ की बेटी हज़रत ज़ैनब रज़ियल्लाहु अन्हा चूँकि शादीशुदा थीं और उनके शौहर उस वक़्त तक मुसलमान नहीं हुए थे, इसलिए उन्हें हिजरत करने से रोक दिया गया। हज़रत ज़ैनब रज़ियल्लाहु अन्हा ने बाद में हिजरत की थी और अपने शौहर को कुफ्र की हालत में मक्का ही छोड़ आई थीं। उनके शौहर अबुल आस बिन रबी रज़ियल्लाहु अन्हु थे। यह ग़ज़वा-ए-बद्र के मौक़े पर काफ़िरों के लश्कर में शामिल हुए, गिरफ़्तार हुए, लेकिन उन्हें छोड़ दिया गया, फिर यह मुसलमान हो गए थे।
आप ﷺ की चौथी बेटी हज़रत रुक़य्या रज़ियल्लाहु अन्हा अपने शौहर हज़रत उस्मान रज़ियल्लाहु अन्हु के साथ पहले ही हब्शा हिजरत कर गई थीं। यह बाद में हब्शा से मदीना पहुँचे थे।
हज़रत अबू बक्र रज़ियल्लाहु अन्हु के घर वाले भी साथ ही मदीना मुनव्वरा आ गए। इनमें उनकी ज़ौजा मोहतरमा हज़रत उम्मे रुमान, हज़रत आयशा सिद्दीक़ा और उनकी बहन हज़रत अस्मा रज़ियल्लाहु अन्हा शामिल थीं। हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु के बेटे हज़रत अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हु भी साथ आए। हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु की ज़ौजा हज़रत उम्मे रुमान रज़ियल्लाहु अन्हा के बारे में नबी अकरम ﷺ ने फ़रमाया था:
“जिस शख़्स को जन्नत की हूरों में से कोई हूर देखने की ख़्वाहिश हो, वह उम्मे रुमान को देख ले।”
ये भी पढ़ें 👇
हिजरत के इस सफ़र में हज़रत अस्मा रज़ियल्लाहु अन्हा को मदीना मुनव्वरा पहुँचने से पहले क़ुबा में ठहरना पड़ा। उनके यहाँ हज़रत अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर रज़ियल्लाहु अन्हु पैदा हुए। बच्चे की पैदाइश के बाद मदीना पहुँचीं और अपना बच्चा आप ﷺ की गोद में बरकत हासिल करने के लिए पेश किया। यह हिजरत के बाद मुहाजिरीन के यहाँ पहला बच्चा था।
इनकी पैदाइश पर मुसलमानों को बेइंतहा ख़ुशी हुई, क्योंकि काफ़िरों ने मशहूर कर दिया था कि जब से रसूलुल्लाह ﷺ और मुहाजिरीन मदीना आए हैं, उनके यहाँ कोई नरीना नहीं हुआ, क्योंकि हमने उन पर जादू कर दिया है। हज़रत अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर रज़ियल्लाहु अन्हु की पैदाइश पर उन लोगों की यह बात ग़लत साबित हो गई, इस लिए मुसलमानों को बहुत ख़ुशी हुई।
मस्जिद-ए-नबवी की तामीर मुकम्मल हो गई तो रात के वक़्त इसमें रौशनी का मसला सामने आया। इस ग़रज़ के लिए पहले पहल खजूर की शाखें जलाई गईं। फिर हज़रत तमीम दारी रज़ियल्लाहु अन्हु मदीना मुनव्वरा आए तो वह अपने साथ क़ंदीलें, रस्सियां और ज़ैतून का तेल लाए।
हज़रत तमीम दारी रज़ियल्लाहु अन्हु ने ये क़ंदीलें मस्जिद में लटका दीं, फिर रात के वक़्त उन्हें जला दिया। ये देखकर हुज़ूर नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया:
“हमारी मस्जिद रौशन हो गई, अल्लाह तआला तुम्हारे लिए भी रौशनी का सामान फ़रमाए। अल्लाह की क़सम! अगर मेरी कोई और बेटी होती तो मैं उसकी शादी तुमसे कर देता।”
कुछ रिवायतों में है कि सबसे पहले हज़रत उमर फ़ारूक़ रज़ियल्लाहु अन्हु ने मस्जिद में क़ंदील जलाई थी

मदीना मुनव्वरा में जो ज़मीनें किसी की मिल्कियत नहीं थीं, उन पर आप ﷺ ने मुहाजिरीन के लिए निशान लगा दिए, यानी ये ज़मीनें उनमें तक़सीम कर दीं। कुछ ज़मीनें आपको अंसारी हज़रात ने हदिया की थीं, आप ﷺ ने उन्हें भी तक़सीम फ़रमाया और उन जगहों पर उन मुसलमानों को बसाया जो पहले क़ुबा में ठहर गए थे, लेकिन बाद में जब उन्होंने देखा कि क़ुबा में जगह नहीं है तो वे भी मदीना चले आए।
आप ﷺ ने अपनी बीवियों के लिए जो हुजरे बनवाए, वे कच्चे थे। खजूर की शाखों, पत्तों और छाल से बनाए गए थे। उन पर मिट्टी लीपी गई थी।
हज़रत हसन बसरी रहमतुल्लाह अलेह मशहूर ताबिई हैं और ये तो आपको पता ही होगा कि ताबिई उसे कहते हैं जिसने किसी सहाबी को देखा हो। वे कहते हैं कि जब मैं छोटा था तो हज़रत उस्मान ग़नी रज़ियल्लाहु अन्हु की खिलाफ़त के दौर में उम्महातुल मोमिनीन के हुजरों में जाता था। उनकी छतें इस क़दर नीची थीं कि उस वक़्त अगरचे मेरा क़द छोटा था, लेकिन मैं हाथ से छतों को छू लिया करता था।
हज़रत हसन बसरी रहमतुल्लाह अलेह उस वक़्त पैदा हुए थे जब हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु की खिलाफ़त को अभी दो साल बाक़ी थे। वे नबी करीम ﷺ की ज़ौजा हज़रत उम्मे सलमा रज़ियल्लाहु अन्हा की बांदी ख़ैरा के बेटे थे। हज़रत उम्मे सलमा रज़ियल्लाहु अन्हा उन्हें सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम के पास किसी काम से भेजा करती थीं। सहाबा किराम उन्हें बरकत की दुआएं दिया करते थे। हज़रत उम्मे सलमा रज़ियल्लाहु अन्हा उन्हें हज़रत उमर फ़ारूक़ रज़ियल्लाहु अन्हु के पास भी ले गई थीं। हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने उन्हें इन अल्फ़ाज़ में दुआ दी थी:
“ऐ अल्लाह! इन्हें दीन की समझ अता फ़रमा और लोगों के लिए ये पसंदीदा हों।”
मस्जिद-ए-नबवी के चारों तरफ़ हज़रत हारिसा बिन नोमान के मकानात थे। आप ﷺ ने अपनी हयात मुबारका में मुतअद्दिद निकाह फ़रमाए थे, जिनमें दीनी हिकमतें और मसलेहतें थीं। जब भी आप ﷺ निकाह फ़रमाते तो हज़रत हारिसा रज़ियल्लाहु अन्हु अपना एक मकान यानी हुजरा आप ﷺ को हदिया कर देते। इसमें आप ﷺ की ज़ौजा मोहतरमा का क़याम हो जाता। यहां तक कि रफ़्ता-रफ़्ता हज़रत हारिसा रज़ियल्लाहु अन्हु ने अपने सारे मकान इसी तरह हुज़ूर ﷺ को हदिया कर दिए।
इस्लामी भाईचारा
इसी ज़माने में आप ﷺ ने मुहाजिरीन और अंसार मुसलमानों के सामने यहूदियों से सुलह का मुआहदा किया। इस मुआहदे की एक तहरीर भी लिखवाई। मुआहदे में तय पाया कि यहूदी मुसलमानों से कभी जंग नहीं करेंगे, कभी उन्हें तकलीफ़ नहीं पहुंचाएंगे और यह कि आप ﷺ के मुक़ाबले में वे किसी की मदद नहीं करेंगे और अगर कोई अचानक मुसलमानों पर हमला करे तो ये यहूदी मुसलमानों का साथ देंगे। इन शराइत के मुक़ाबले में मुसलमानों की तरफ़ से यहूदियों की जान-माल और उनके मज़हबी मामलात में आज़ादी की ज़मानत दी गई। यह मुआहदा जिन यहूदी क़बीलों से किया गया, उनके नाम बनी क़ैनुक़ा, बनी क़ुरैज़ा और बनी नज़ीर हैं।
इसके साथ ही आप ﷺ ने मुहाजिरीन और अंसार के दरमियान भाईचारा कराया। इस भाईचारे से मुसलमानों के दरमियान मुहब्बत और ख़ुलूस का बेमिसाल रिश्ता क़ायम हुआ। इस भाईचारे को “मुआख़ात” कहते हैं। भाईचारे का ये क़याम हज़रत अनस बिन मालिक रज़ियल्लाहु अन्हु के मकान पर हुआ। ये भाईचारा मस्जिद-ए-नबवी की तामीर के बाद हुआ। इस मौक़े पर आप ﷺ ने इरशाद फ़रमाया था:
“अल्लाह के नाम पर तुम सब आपस में दो-दो भाई बन जाओ।”
इस भाईचारे के बाद अंसारी मुसलमानों ने मुहाजिरीन के साथ जो सुलूक किया, वह रहती दुनिया तक याद रखा जाएगा। खुद मुहाजिरीन पर इस सुलूक का इस क़दर असर हुआ कि वे पुकार उठे:
“ऐ अल्लाह के रसूल! हमने इन जैसे लोग कभी नहीं देखे। उन्होंने हमारे साथ इस क़दर हमदर्दी और ग़मग़ुसारी की है, इस क़दर फ़याज़ी का मामला किया है कि इसकी कोई मिसाल नहीं मिल सकती… यहां तक कि मेहनत और मुशक्कत के वक़्त वे हमें अलग रखते हैं और सिला मिलने का वक़्त आता है तो हमें इसमें बराबर का शरीक कर लेते हैं… हमें तो डर है… बस आख़िरत का सारा सवाब ये तन्हा न समेट लें।”
इनकी ये बात सुनकर हुज़ूर नबी करीम ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:
“नहीं! ऐसा उस वक़्त तक नहीं हो सकता, जब तक तुम इनकी तारीफ़ करते रहोगे और उन्हें दुआएं देते रहोगे।”
कुछ उलमा ने लिखा है कि भाईचारा कराना हुज़ूर नबी करीम ﷺ की ख़ुसूसियत में से है। आप ﷺ से पहले किसी नबी ने अपने उम्मतीयों में इस तरह भाईचारा नहीं कराया।
इस सिलसिले में रिवायत मिलती है कि अंसारी मुसलमानों ने अपने मुहाजिर भाइयों को अपनी हर चीज़ में से आधा हिस्सा दे दिया। किसी के पास दो मकान थे तो एक अपने भाई को दे दिया। इसी तरह हर चीज़ का आधा हिस्सा अपने भाई को दे दिया। यहाँ तक कि एक अंसारी की दो बीवियाँ थीं, उन्होंने अपने मुहाजिर भाई से कहा कि मेरी दो बीवियाँ हैं, मैं उनमें से एक को तलाक़ दे देता हूँ, इद्दत पूरी होने के बाद तुम उससे शादी कर लेना। लेकिन मुहाजिर मुसलमान ने इस बात को पसंद नहीं किया।
अज़ान की शुरुआत

इन कामों से फ़ारिग़ होने के बाद यह मसला सामने आया कि नमाज़ के लिए लोगों को कैसे बुलाया जाए। आप ﷺ ने अपने सहाबा-ए-किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम से मशवरा किया। इस सिलसिले में एक मशवरा यह दिया गया कि नमाज़ का वक़्त होने पर एक झंडा लहरा दिया जाए। लोग इसको देखकर समझ जाएँगे कि नमाज़ का वक़्त हो गया है और एक-दूसरे को बता दिया करेंगे। लेकिन हुज़ूर अकरम ﷺ ने इस तजवीज़ को पसंद न फ़रमाया। फिर किसी ने कहा कि बिगुल बजा दिया जाए। हुज़ूर अकरम ﷺ ने इसको भी नापसंद फ़रमाया क्योंकि यह तरीका यहूदियों का था। अब किसी ने कहा कि नाक़ूस (घंटी) बजाकर ऐलान कर दिया जाए। आप ﷺ ने इसको भी पसंद न फ़रमाया, क्योंकि यह ईसाइयों का तरीका था।
कुछ लोगों ने मशवरा दिया कि आग जला दी जाए। आप ﷺ ने इस तजवीज़ को भी पसंद न फ़रमाया, क्योंकि यह तरीका मजूसियों का था।
एक मशवरा यह दिया गया कि एक शख्स मुक़र्रर कर दिया जाए जो नमाज़ के वक़्त गश्त कर ले। चुनांचे इस राय को क़बूल कर लिया गया और हज़रत बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु को ऐलान करने वाला मुक़र्रर कर दिया गया।
इन्हीं दिनों हज़रत अब्दुल्लाह बिन ज़ैद रज़ियल्लाहु अन्हु ने ख़्वाब देखा। उन्होंने एक शख्स को देखा जिसके जिस्म पर दो हरे कपड़े थे और उसके हाथ में एक नाक़ूस (बिगुल) था। हज़रत अब्दुल्लाह बिन ज़ैद रज़ियल्लाहु अन्हु फ़रमाते हैं कि मैंने उससे पूछा, “क्या तुम यह नाक़ूस फ़रोख्त करते हो?”
उसने पूछा, “तुम इसका क्या करोगे?”
मैंने कहा, “हम इसको बजाकर नमाज़ियों को जमा करेंगे।”
इस पर वह बोला, “क्या मैं तुम्हें इसके लिए इससे बेहतर तरीका न बता दूँ?”
मैंने कहा, “ज़रूर बताइए।”
अब उसने कहा, “तुम यह अल्फ़ाज़ पुकारकर लोगों को जमा किया करो।”
और उसने अज़ान के अल्फ़ाज़ दोहरा दिए, यानी पूरी अज़ान पढ़कर उन्हें सुना दी। फिर तक़बीर कहने का तरीका भी बता दिया।
सुबह हुई तो हज़रत अब्दुल्लाह बिन ज़ैद रज़ियल्लाहु अन्हु हुज़ूर ﷺ की ख़िदमत में हाज़िर हुए और अपना यह ख़्वाब सुनाया। ख़्वाब सुनकर आप ﷺ ने इरशाद फ़रमाया,
“बेशक! यह सच्चा ख़्वाब है, इंशा अल्लाह! तुम जाकर यह कलिमात बिलाल को सिखा दो ताकि वह इनके ज़रिए अज़ान दें। उनकी आवाज़ तुमसे बुलंद है और ज़्यादा दिलकश भी है।”
हज़रत अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हु हज़रत बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु के पास आए। उन्होंने कलिमात सीखने के बाद सुबह की अज़ान दी। इस तरह सबसे पहले अज़ान फ़ज्र की नमाज़ के लिए दी गई।
जैसे ही हज़रत बिलाल (रज़ि.) की अज़ान गूंजी और हज़रत उमर (रज़ि.) के कानों में ये अल्फ़ाज़ पड़े, वो जल्दी से चादर संभालते हुए उठे और तेज़-तेज़ चलते हुए मस्जिदे-नबवी पहुंचे। मस्जिद में पहुंचकर उन्हें हज़रत अब्दुल्लाह बिन ज़ैद (रज़ि.) के ख्वाब के बारे में मालूम हुआ तो उन्होंने अर्ज़ किया:
“ऐ अल्लाह के रसूल, उस ज़ात की कसम जिसने आपको हक़ देकर भेजा है, मैंने भी बिल्कुल यही ख्वाब देखा है।”
हज़रत उमर (रज़ि.) की ज़बानी ख्वाब की तस्दीख़ (पुष्टि) सुनकर आप ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:
“अल्लाह का शुक्र है।”
अब पांचों वक्त की नमाज़ों के लिए हज़रत बिलाल (रज़ि.) अज़ान देते। इन पांच नमाज़ों के अलावा किसी मौके पर लोगों को जमा करना होता, मसलन सूरज या चांद ग्रहण हो जाता या बारिश तलब करने के लिए नमाज़ पढ़नी होती, तो वो “अस्सलातु जामिआह” कहकर ऐलान करते थे।
इस तरह नबी अक़रम ﷺ के ज़माने तक हज़रत बिलाल (रज़ि.) मोअज़्ज़िन रहे। उनकी गैर-मौजूदगी में हज़रत अब्दुल्लाह इब्न मक्तूम (रज़ि.) अज़ान देते थे।

