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Jung e Uhud | Prophet Muhammad History in Hindi Part 35

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Seerat e Mustafa Qist 35
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यहूदियों से पहली लड़ाई

ग़ज़वा बद्र के बाद ग़ज़वा बनी क़ैनुक़ाअ पेश आया। क़ैनुक़ाअ यहूदियों के एक क़बीले का नाम था। यहूदियों में ये लोग सबसे ज़्यादा जंगजू शुमार होते थे। मदीना मुनव्वरा में आमद के बाद नबी अकर्म ﷺ ने यहूदियों से सुलह का मुआहदा फ़रमाया था। मुआहदे में तय हुआ था कि ये लोग कभी आप ﷺ के मुक़ाबले पर नहीं आएंगे और न ही आप ﷺ के दुश्मनों को कोई मदद देंगे। जिन लोगों से मुआहदा हुआ, उनमें ये तीन क़बीले शामिल थे – बनी क़ैनुक़ाअ, बनी क़ुरैज़ा और बनी नज़ीर।

मुआहदे की एक शर्त ये थी कि अगर कोई दुश्मन मुसलमानों पर हमला करेगा तो ये तीनों क़बीले मुसलमानों की पूरी-पूरी मदद करेंगे, उनका हर तरह साथ देंगे, लेकिन इन लोगों ने मुआहदे की ख़िलाफ़वरज़ी की। इन्होंने एक मुसलमान औरत से बदतमीज़ी की। उनकी बदतमीज़ी को पास से गुज़रते हुए एक सहाबी ने देख लिया। उन्होंने उस यहूदी को क़त्ल कर दिया। ये देखकर मोहल्ले के यहूदियों ने मिलकर उस सहाबी को शहीद कर दिया। इस ख़बर के फैलने पर वहां और मुसलमान जमा हो गए।

हज़ूर नबी करीम ﷺ को इस वाक़े की इत्तिला हुई तो आपने यहूदियों को जमा करके उनसे फ़रमाया।

“ऐ यहूदियो! तुम अल्लाह तआला की तरफ़ से ऐसी तबाही से बचने की कोशिश करो जैसी बद्र के मौक़े पर क़ुरैश पर नाज़िल हुई थी। इसलिए तुम मुसलमान हो जाओ। तुम जानते हो कि मैं अल्लाह की तरफ़ से भेजा हुआ रसूल हूँ और इस हक़ीक़त को तुम अपनी किताब में दर्ज पाते हो।”

इस पर यहूदियों ने कहा:

“ऐ मुहम्मद! आप शायद ये समझते हैं कि हम भी आपकी क़ौम की तरह हैं। इस धोके में न रहिएगा, क्योंकि अब तक आपने ऐसी क़ौमों से सामना किया है जो जंग और उसके तरीक़े नहीं जानते थे। लिहाज़ा आपने उन्हें आसानी से ज़ेर कर लिया। लेकिन अगर आपने हमसे जंग की तो ख़ुदा की क़सम! आपको पता चल जाएगा कि कैसे बहादुरों से पाला पड़ा है।”

इनके ये अल्फ़ाज़ कहने की दरअसल वजह ये थी कि ये लोग जंगजू और अस्करी फ़नून के बहुत माहिर थे। फिर ये यहूदियों में सबसे ज़्यादा दौलतमंद थे। हर क़िस्म का बेहतरीन असलहा इनके पास था। इनके क़िले भी बहुत मज़बूत थे। इनके अल्फ़ाज़ पर अल्लाह तआला की तरफ़ से सूरह आले इमरान की आयत नाज़िल हुई:

“ऐ नबी! आप इनसे कह दीजिए कि बहुत जल्द तुम (मुसलमानों के हाथों) शिकस्त खाओगे और आख़िरत में जहन्नम की तरफ़ जमा करके ले जाए जाओगे और वह जहन्नम बहुत बुरा ठिकाना है।”

इस धमकी के बाद बनी क़ैनुक़ाअ क़िला बंद हो गए।

आनहज़रत ﷺ अपने सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम के साथ उनके क़िलों की तरफ़ रवाना हुए। आपका परचम इस ग़ज़वा में सफ़ेद रंग का था और हज़रत हम्ज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु के हाथ में था। उनके क़िलों की तरफ़ रवाना होने से पहले आपने हज़रत अबू लुबाबा रज़ियल्लाहु अन्हु को मदीना मुनव्वरा में अपना क़ायम मक़ाम मुक़र्रर फ़रमाया। आपने यहूदी बस्तियों का मुहासिरा कर लिया। ये मुहासिरा बहुत सख़्त था। पंद्रह दिन तक जारी रहा।

आख़िर अल्लाह तआला ने इन यहूदियों के दिलों में मुसलमानों का रोब तारी कर दिया। वो इस मुहासिरे से तंग आ गए, हालाँकि इन यहूदियों में उस वक़्त तक़रीबन 700 जंगजू थे। अब उन्होंने दरख़्वास्त की कि “हम यहाँ से निकलकर जाने के लिए तैयार हैं, शर्त ये है कि हमें निकल जाने का रास्ता दे दिया जाए। इस सूरत में हम यहाँ से हमेशा के लिए चले जाएँगे। हमारे साथ हमारी औरतें और बच्चों को भी जाने दिया जाए। माल-दौलत और हथियार वग़ैरह हम यहीं छोड़ जाएँगे।”

हज़ूर अकरम ﷺ ने इनकी ये बात मंज़ूर फ़रमा ली और उन्हें निकल जाने का रास्ता दे दिया। इस तरह मुसलमानों के हाथ बेतहाशा माल-ए-ग़नीमत आया। यहूदियों को मदीना मुनव्वरा से निकल जाने के लिए तीन दिन की मोहलत दी गई। ये लोग वहाँ से निकलकर शाम की एक बस्ती में जा बसे। एक रिवायत के मुताबिक़ एक साल भी नहीं गुज़रा था कि वो सबके सब हलाक हो गए। ये हज़ूर नबी करीम ﷺ की बद-दुआ का असर था।

ग़ज़वा क़ैनुक़ाअ के बाद कुछ छोटे-छोटे ग़ज़वात और हुए

ग़ज़वा-ए-उहुद/Jung e Uhud

3 हिजरी में ग़ज़वा-ए-उहुद पेश आया। उहुद पहाड़ मदीना मुनव्वरा से दो मील के फ़ासले पर है। इस पहाड़ के बारे में आंहज़रत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का इरशाद है:

“यह उहुद हमसे मोहब्बत करता है और हम इससे मोहब्बत करते हैं। जब तुम इसके पास से गुज़रो तो इसके दरख़्तों का फल तबर्रुक के तौर पर खा लिया करो, चाहे थोड़ा सा ही क्यों न हो।”

ग़ज़वा-ए-उहुद क्यों हुआ? इसका जवाब यह है कि ग़ज़वा-ए-बद्र में काफ़िरों को बदतरीन शिकस्त हुई थी। काफ़िर जमा होकर अपने सरदार हज़रत अबू सुफ़ियान रज़ियल्लाहु अन्हु के पास आए और उनसे कहा:

“बद्र की लड़ाई में हमारे बेशुमार आदमी क़त्ल हुए हैं। हम उनके ख़ून का बदला लेंगे… आप तिजारत से जो माल कमा कर लाते हैं, उस माल के नफ़े से जंग की तैयारी की जाए।”

हज़रत अबू सुफ़ियान रज़ियल्लाहु अन्हु ने उनकी बात मंज़ूर कर ली और जंग की तैयारियाँ ज़ोर-शोर से शुरू हो गईं। कहा जाता है कि सामान-ए-तिजारत से जो नफ़ा हुआ था, वह पचास हज़ार दीनार था। ग़ज़वा-ए-बद्र में हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अबू हम्ज़ा शायर को फ़िद्या लिए बग़ैर रिहा कर दिया था, और उससे इकरार लिया था कि वह मुसलमानों के ख़िलाफ़ शेर नहीं कहेगा…

अब जब जंग की तैयारियाँ शुरू हुईं तो लोगों ने उससे कहा:

“तुम अपने अशआर से जोश पैदा करो।”

पहले तो अबू हम्ज़ा ने इनकार किया, क्योंकि वह हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सामने वादा कर आया था, लेकिन फिर वादा ख़िलाफ़ी पर उतर आया और अशआर पढ़ने लगा।

आख़िर क़ुरैशी लश्कर मक्का मुअज़्ज़मा से निकला और मदीना मुनव्वरा की तरफ़ रवाना हुआ। क़ुरैश के लश्कर में औरतें भी थीं। औरतें बद्र में मारे जाने वालों का नौहा करती जाती थीं। इस तरह यह अपने मर्दों में जोश पैदा कर रही थीं, उन्हें शिकस्त खाने या मैदान-ए-जंग से भाग जाने पर शर्म दिला रही थीं।

क़ुरैश की जंगी तैयारियों की इत्तिला हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के चचा हज़रत अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु ने भेजी। उन्होंने यह इत्तिला एक ख़त के ज़रिए भेजी। ख़त ले जाने वाले ने तीन दिन रात मुसल्सल सफ़र किया और यह ख़त आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम तक पहुँचाया। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम उस वक़्त क़ुबा में थे।

ग़ज़वा-ए-उहुद की तैयारी

हुज़ूर अकदस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम क़ुबा से मदीना मुनव्वरा पहुंचे और सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम से क़ुरैशी लश्कर से मुक़ाबले के सिलसिले में मशवरा किया। हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की राय यह थी कि क़ुरैश पर शहर से बाहर हमला करने के बजाय शहर में रहकर अपना दिफ़ा किया जाए, चنان्चे आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया:

“अगर तुम्हारी राय हो तो तुम मदीना मुनव्वरा में रहकर ही मुक़ाबला करो, इन लोगों को वहीं रहने दो, जहां वे हैं। अगर वे वहां पड़े रहते हैं तो वह जगह उनके लिए बदतरीन साबित होगी और अगर इन लोगों ने शहर में आकर हम पर हमला किया तो हम शहर में उनसे जंग करेंगे और शहर के पेच-ओ-ख़म को हम उनसे ज़्यादा जानते हैं।”

आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने जो राय दी थी, तमाम बड़े सहाबा किराम की भी वही राय थी। मुनाफ़िक़ों के सरदार अब्दुल्लाह इब्न उबई ने भी यही मशवरा दिया। यह शख़्स ज़ाहिर में मुसलमान था और अपने लोगों का सरदार था।

दूसरी तरफ़ कुछ परजोश नौजवान सहाबा और पुख़्ता उम्र के सहाबा यह चाहते थे कि शहर से निकलकर दुश्मन का मुक़ाबला किया जाए। यह मशवरा देने वालों में ज़्यादा वे लोग थे जो ग़ज़वा-ए-बद्र में शरीक नहीं हो सके थे और उन्हें इसका बहुत अफ़सोस था। वे अपने दिलों के अरमान निकालना चाहते थे, चनांचे इन लोगों ने कहा:

“हमें साथ लेकर दुश्मनों के मुक़ाबले के लिए बाहर चलें ताकि वे हमें कमज़ोर और बुज़दिल न समझें, वरना उनके हौसले बहुत बढ़ जाएंगे और हम तो यह सोच भी नहीं सकते कि वे हमें धकेलते हुए हमारे घरों में घुस आएं और ऐ अल्लाह के रसूल! जो शख़्स भी हमारे इलाक़े में आया, वह हमसे शिकस्त खाकर गया है। अब तो आप हमारे दरमियान मौजूद हैं, अब दुश्मन कैसे हम पर ग़ालिब आ सकता है?”

हज़रत हमज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु ने भी उनकी ताईद की। आख़िरकार, आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उनकी बात मान ली। फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने जुमा की नमाज़ पढ़ाई और लोगों के सामने वाज़ फ़रमाया। उन्हें हुक्म दिया:

“मुसलमानो! पूरी तनदेही और हिम्मत के साथ जंग करना, अगर तुम लोगों ने सब्र से काम लिया तो अल्लाह तआला तुम्हें फ़तह और कामरानी अता फ़रमाएंगे। अब दुश्मन के सामने जाकर लड़ने की तैयारी करो।”

लोग यह हुक्म सुनकर ख़ुश हो गए। इसके बाद आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने सबके साथ असर की नमाज़ पढ़ी। उस वक़्त तक इर्द-गिर्द से भी लोग आ गए थे। फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ और हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा के साथ घर में तशरीफ़ ले गए। इन दोनों ने आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सर पर इमामा बांधा और जंगी लिबास पहनाया। बाहर लोग आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का इंतज़ार कर रहे थे और सफ़ें बांधे खड़े थे।

इस वक़्त हज़रत सअद बिन मुआज़ और हज़रत असईद बिन हुदैर रज़ियल्लाहु अन्हुमा ने मुसलमानों से कहा:

“रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मर्ज़ी शहर में रहकर लड़ने की थी, तुम लोगों ने उन्हें बाहर निकलकर लड़ने पर मजबूर किया… बेहतर होगा, तुम अब भी इस मामले को उन पर छोड़ दो। हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जो भी हुक्म देंगे, उनकी जो भी राय होगी, भलाई उसी में होगी, इसलिए हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की फ़रमाबरदारी करो।”

बाहर यह बात हो रही थी, इतने में हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम बाहर तशरीफ़ ले आए। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने जंगी लिबास पहन रखा था, दोहरी ज़िरह पहन रखी थी। इन ज़िरहों का नाम ज़ातुल फ़ुदूल और फ़िदह था। यह आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को बनी क़ैनुक़ा से माल-ए-ग़नीमत में मिली थीं।

इन में से ज़ातुल फ़ुदूल वह ज़िरह है कि जब हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का इंतिक़ाल हुआ तो यह एक यहूदी के पास रहन रखी हुई थी। हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु ने यहूदी की रक़म अदा करके इसे वापस लिया था। ज़िरहें आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने लिबास के ऊपर पहन रखी थीं। इस वक़्त उन नौजवानों ने अर्ज़ किया:

“अल्लाह के रसूल! हमारा मक़सद यह नहीं था कि आपकी राय की मुख़ालिफ़त करें या आपको मजबूर करें, लिहाज़ा आप जो मुनासिब समझें, वह करें।”

इस पर हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया:

“अब मैं हथियार लगा चुका हूँ और किसी नबी के लिए हथियार लगाने के बाद उनका उतार देना उस वक़्त तक जाइज़ नहीं जब तक कि अल्लाह तआला उसके और दुश्मनों के दरमियान फ़ैसला न फ़रमा दे।”

आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इस मौक़े पर तीन परचम बनवाए। एक परचम क़बीला औस का था, यह हज़रत असईद बिन हुदैर रज़ियल्लाहु अन्हु के हाथ में था। दूसरा परचम मुहाजिरीन का था, यह हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु या हज़रत मुसअब बिन उमैर रज़ियल्लाहु अन्हु के हाथ में था। तीसरा परचम क़बीला ख़ज़रज का था, यह हज़रत हब्बाब बिन मुनज़िर रज़ियल्लाहु अन्हु या हज़रत सअद बिन उबादा रज़ियल्लाहु अन्हु के हाथ में था।

इस तरह आँहज़रत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम एक हज़ार का लश्कर लेकर रवाना हुए। लश्कर में आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के आगे सअद बिन मुआज़ और सअद बिन उबादा रज़ियल्लाहु अन्हुमा चल रहे थे। यह दोनों क़बीला औस और ख़ज़रज के सरदार थे।

आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मदीना मुनव्वरा में एक नाबीना सहाबी हज़रत अब्दुल्लाह बिन उम-ए-मकतूम रज़ियल्लाहु अन्हु को अपना क़ायम मक़ाम मुक़र्रर फ़रमाया। मदीना मुनव्वरा से कूच करके आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम सनियाह के मक़ाम पर पहुंचे। फिर यहां से रवाना होकर शैख़ैन के मक़ाम पर पहुंचे। शैख़ैन दो पहाड़ों का नाम था। यहां आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने लश्कर का मुआइना फ़रमाया और कम उम्र नौजवानों को वापस भेज दिया। यह ऐसे नौजवान थे जो अभी पंद्रह साल के नहीं हुए थे।

इन कम-सिन मुजाहिदों में राफ़े बिन ख़दीज और समरा बिन जुंदुब रज़ियल्लाहु अन्हुमा भी थे, लेकिन फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हज़रत राफ़े रज़ियल्लाहु अन्हु को जंग में हिस्सा लेने की इजाज़त दे दी। यह देखकर हज़रत समरा बिन जुंदुब रज़ियल्लाहु अन्हु ने कहा:

“आप ने राफ़े को इजाज़त दे दी जबकि मुझे वापस जाने का हुक्म फ़रमाया, हालाँकि मैं राफ़े से ज़्यादा ताक़तवर हूँ।”

इस पर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया:

“अच्छा तो फिर तुम दोनों में कुश्ती हो जाए।”

दोनों में कुश्ती का मुक़ाबला हुआ। समरा बिन जुंदुब रज़ियल्लाहु अन्हु ने राफ़े बिन ख़दीज रज़ियल्लाहु अन्हु को पछाड़ दिया। इस तरह उन्हें भी जंग में हिस्सा लेने की इजाज़त हो गई।

आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फ़ौज के मुआइने से फ़ारिग़ हुए तो सूरज ग़ुरूब हो गया। हज़रत ज़ुबैर रज़ियल्लाहु अन्हु ने अज़ान दी। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने नमाज़ पढ़ाई। फिर इशा की नमाज़ अदा की गई। नमाज़ के बाद आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम आराम फ़रमाने के लिए लेट गए।

रात के वक़्त पहरा देने के लिए आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने पचास मुजाहिदों को मुक़र्रर किया। इनका सालार हज़रत मुहम्मद बिन मुस्लिमह रज़ियल्लाहु अन्हु को मुक़र्रर फ़रमाया। यह तमाम रात इस्लामी लश्कर के गिर्द पहरा देते रहे।

रात के आख़िरी हिस्से में आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने शैख़ैन से कूच फ़रमाया और सुबह की नमाज़ के वक़्त उहुद पहाड़ के क़रीब पहुंच गए।

जंग-ए-उहुद की शुरुआत

इस्लामी लश्कर ने जहाँ पड़ाव डाला, उस मक़ाम का नाम शौत था। आप ﷺ ने यहाँ फ़जर की नमाज़ अदा फ़रमाई। उस वक़्त लश्कर में अब्दुल्लाह बिन उबई बिन सलूल भी था। यह मुनाफ़िक़ था। इसके साथ तीन सौ जवान थे, और यह सब के सब मुनाफ़िक़ थे। इस मक़ाम पर पहुंचकर अब्दुल्लाह बिन उबई ने कहा:

“आप ने मेरी बात नहीं मानी और इन नौ-उमर लड़कों का मशवरा माना, हालाँकि इनका मशवरा कोई मशवरा ही नहीं है। अब ख़ुद ही हमारी राय के बारे में अंदाज़ा हो जाएगा, हम बिला-वजह क्यों जानें दें? इसलिए साथियो! वापस चलो।”

इस तरह यह लोग वापस लौट गए। अब हुज़ूर ﷺ के साथ सिर्फ़ सात सौ सहाबा रह गए। उस रोज़ मुसलमानों के पास सिर्फ़ दो घोड़े थे। इनमें से एक हुज़ूर ﷺ का था और दूसरा अबू बर्दा रज़ियल्लाहु अन्हु का था।

शौत के मक़ाम से चलकर आप ﷺ ने उहुद की घाटी में पड़ाव डाला। आप ﷺ ने पड़ाव डालते वक़्त इस बात का ख़याल रखा कि पहाड़ आपकी पीठ की तरफ़ रहे। इस जगह रात बसर की गई। फिर हज़रत बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु ने सुबह की अज़ान दी। सहाबा-ए-कराम रज़ियल्लाहु अन्हुम ने सफ़ें क़ायम कीं और आप ﷺ ने उन्हें नमाज़ पढ़ाई

नमाज़ के बाद हुज़ूर ﷺ ने मुसलमानों को ख़ुत्बा दिया। इसमें जिहाद के बारे में इरशाद फ़रमाया। जिहाद के अलावा हज़ूर ﷺ ने हलाल रोज़ी कमाने के बारे में भी नसीहत फ़रमाई और फ़रमाया:

“जिबरील (अलैहिस्सलाम) ने मेरे दिल में यह वही डाली है कि कोई शख़्स उस वक़्त तक नहीं मरेगा जब तक कि वह अपने हिस्से के रिज़्क़ का एक-एक दाना हासिल न कर ले (चाहे कुछ देर में हासिल हो मगर इसमें कोई कमी नहीं हो सकती)। इसलिए अपने परवरदिगार से डरते रहो और रिज़्क़ की तलबी में नेक रास्ते इख़्तियार करो (ऐसा हरगिज़ नहीं होना चाहिए कि रिज़्क़ में देर लगने की वजह से तुम अल्लाह की नाफ़रमानी करने लगो)।”

आप ﷺ ने यह भी इरशाद फ़रमाया:

“एक मोमिन का दूसरे मोमिन से ऐसा ही रिश्ता है जैसे सर और बदन का रिश्ता होता है। अगर सर में तकलीफ़ हो तो सारा बदन दर्द से कांप उठता है।”

इसके बाद दोनों लश्कर आमने-सामने आ खड़े हुए। मशरिक़ों के लश्कर के दाएं-बाएं ख़ालिद बिन वलीद और इक्रिमा थे। यह दोनों हज़रात उस वक़्त तक मुसलमान नहीं हुए थे

आँहज़रत ﷺ ने हज़रत जुबैर बिन अव्वाम रज़ियल्लाहु अन्हु को एक दस्ता देकर फ़रमाया:

“तुम ख़ालिद बिन वलीद के मुक़ाबले पर रहना और इस वक़्त तक हरकत न करना जब तक कि मैं इजाज़त न दूं।”

फिर आप ﷺ ने पचास तीर-अंदाज़ों के एक दस्ते पर हज़रत अब्दुल्लाह बिन जुबैर रज़ियल्लाहु अन्हु को अमीर मुक़र्रर फ़रमाया और उन्हें उस दर्रे पर मुतअय्यन फ़रमाया जो मुसलमानों की पीठ पर था। इस दर्रे पर पचास तीरअंदाज़ मुक़र्रर करने की वजह यह थी कि पीछे से दुश्मन हमला न कर सके

हुज़ूर अक़्दस ﷺ ने उन पचास तीरअंदाज़ों से फ़रमाया:

“तुम मशरिक़ों के घुड़सवार दस्तों को तीर-अंदाज़ी करके हमसे दूर ही रखना। कहीं ऐसा न हो कि वे पीछे से हमला कर दें। हमें चाहे फ़तह हो या शिकस्त, तुम अपनी जगह से न हिलना।”

इसके बाद हुज़ूर अक़्दस ﷺ ने एक तलवार निकाली और फ़रमाया:

“कौन मुझसे यह तलवार लेकर इसका हक़ अदा कर सकता है?”

इस पर कई सहाबा-ए-किराम उठकर आप ﷺ की तरफ़ लपके, लेकिन आप ﷺ ने वह तलवार उन्हें नहीं दी। इन हज़रात में हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु भी थे।

आप ﷺ ने इन सहाबा से फ़रमाया:

“बैठ जाओ।”

हज़रत जुबैर बिन अव्वाम रज़ियल्लाहु अन्हु ने भी वह तलवार लेने की तीन बार कोशिश की, मगर आप ﷺ ने हर बार इनकार कर दिया। आख़िर सहाबा के मजमे में से हज़रत अबू दुजाना रज़ियल्लाहु अन्हु उठे और अर्ज़ किया:

“मैं इस तलवार का हक़ अदा करूंगा।”

आप ﷺ ने वह तलवार उन्हें अता फ़रमा दीअबू दुजाना रज़ियल्लाहु अन्हु बे-हद बहादुर थे। जंग के दौरान ग़ुरूर के अंदाज़ में अकड़ कर चला करते थे। जब आप ﷺ ने उन्हें दोनों लश्करों के दरमियान अकड़ कर चलते देखा तो फ़रमाया:

“यह चाल ऐसी है जिससे अल्लाह तआला नफ़रत फ़रमाता है, सिवाय इस क़िस्म के मौक़ों के। (यानी दुश्मनों का सामना करते वक़्त यह चाल जाइज़ है ताकि यह ज़ाहिर हो कि ऐसा शख़्स दुश्मन से ज़रा भी ख़ौफ़ज़दा नहीं है और न ही उसे दुश्मन के जंगी साज़-ओ-सामान की परवाह है)।”

फिर दोनों लश्कर एक-दूसरे के बिलकुल क़रीब आ गए।

मशरिक़ों के लश्कर से एक ऊंट-सवार आगे निकला और मुबारज़त तलब की (यानी मुक़ाबले के लिए ललकारा)। उसने तीन बार पुकारा। तब हज़रत जुबैर बिन अव्वाम रज़ियल्लाहु अन्हु इस्लामी सफ़ों से निकलकर उसकी तरफ़ बढ़े।

हज़रत जुबैर रज़ियल्लाहु अन्हु उस वक़्त पैदल थे, जबकि दुश्मन ऊंट पर सवार था। उसके क़रीब पहुँचते ही हज़रत जुबैर रज़ियल्लाहु अन्हु एकदम ज़ोर से उछले और उसकी ऊँचाई के बराबर पहुँच गए। साथ ही उन्होंने उसकी गर्दन पकड़ ली….

दोनों में ऊंट पर ही ज़ोर-आज़माई होने लगी। उनकी ज़ोर-आज़माई देखकर आँहज़रत ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:

“इनमें से जो पहले नीचे गिरेगा, वही मारा जाएगा।”

अचानक वह मशरिक़ नीचे गिरा। फिर हज़रत जुबैर रज़ियल्लाहु अन्हु उस पर गिरे। गिरते ही उन्होंने फ़ौरन तलवार का वार किया और वह जहन्नम-रसीद हो गया।

आँहज़रत ﷺ ने हज़रत जुबैर रज़ियल्लाहु अन्हु की तारीफ़ इन अल्फ़ाज़ में फ़रमाई:

“हर नबी का एक हवारी (यानी ख़ास साथी) होता है और मेरे हवारी जुबैर हैं।”

फिर आप ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:

“अगर इस मशरिक़ के मुक़ाबले के लिए ज़ुबैर न निकलते, तो मैं ख़ुद निकलता।”

इसके बाद मशरिक़ों की सफ़ों में से एक और शख़्स निकला। इसका नाम तल्हा बिन अबू तल्हा था। यह क़बीला अब्दुद्दार से था। इसके हाथ में परचम था। अब इसने मुबारज़त तलब की।

इसने भी कई बार मुसलमानों को ललकारा। तब हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु मुसलमानों की सफ़ों में से निकलकर इसके सामने पहुँच गए

अब इन दोनों में मुक़ाबला शुरू हुआ। दोनों ने एक-दूसरे पर तलवार के वार किए। हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु का एक वार इसकी टांग पर लगाटांग कट गई

वह बुरी तरह गिर पड़ा और उसके कपड़े उलट गए। इस तरह वह बेरहन हो गया। वह पुकार उठा:

“मेरे भाई! मैं ख़ुदा का वास्ता देकर तुमसे रहम की भीख माँगता हूँ।”

हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु तल्हा बिन अबू तल्हा को छोड़कर लौट आए

आनहज़रत ﷺ ने उनसे पूछा:
“ऐ अली! तुमने उसे क्यों छोड़ दिया?”

उन्होंने अर्ज़ किया:
“अल्लाह के रसूल! उसने मुझे ख़ुदा का वास्ता देकर रहम की दरख़्वास्त की थी।”

आप ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:
“उसे क़त्ल कर आओ।”

चुनांचे हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु गए और उसे क़त्ल कर डाला

इसके क़त्ल के बाद मशरिक़ों का परचम उसके भाई उथ्मान बिन अबू तल्हा ने ले लिया। इसके मुक़ाबले पर हज़रत हम्ज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु आए। उन्होंने उसके नज़दीक पहुँचते ही तलवार का वार किया। इस वार से उसका कंधा कट गया

वह गिर पड़ा, और दूसरे वार से उन्होंने उसका ख़ात्मा कर दिया।

अब तल्हा का बेटा मुसाफ़े आगे बढ़ाहज़रत आसिम बिन साबित बिन अबू अल-अफलह रज़ियल्लाहु अन्हु ने इस पर तीर चलाया, वह भी हलक हो गया

इसके बाद उसका भाई हारिस मैदान में निकलाहज़रत आसिम रज़ियल्लाहु अन्हु ने उसे भी ताककर तीर मारा, वह भी मार दिया गया

इन दोनों की माँ भी लश्कर में मौजूद थी। उसका नाम सुलाफ़ा था।

उसके दोनों बेटों ने माँ की गोद में दम तोड़ा। मरने से पहले सुलाफ़ा ने पूछा:
“बेटे! तुम्हें किसने ज़ख़्मी किया है?”

एक बेटे ने जवाब दिया:
“मैंने उसकी आवाज़ सुनी है, तीर चलाने से पहले उसने कहा था: ले, इसको संभाल, मैं अबू अल-अफलह का बेटा हूँ।”

इस जुमले से सुलाफ़ा जान गई कि वह तीरंअदाज़ हज़रत आसिम बिन साबित रज़ियल्लाहु अन्हु हैं।

चुनांचे उसने क़सम खाई:
“अगर आसिम का सर मेरे हाथ लगा तो मैं उसकी खोपड़ी में शराब पिऊँगी।”

साथ ही उसने एलान किया कि जो भी आसिम बिन साबित का सर काटकर लाएगा, मैं उसे 100 ऊँट इनाम में दूँगी।

हज़रत आसिम रज़ियल्लाहु अन्हु इस जंग में शहीद नहीं हुए। यह वाक़िआ रजीअ में हुआ, जिसका ज़िक्र अपने वक़्त पर आएगा, इंशाअल्लाह!

इन दोनों के क़त्ल के बाद उनके भाई किलाब बिन तल्हा ने परचम उठा लिया। उसे हज़रत जुबैर रज़ियल्लाहु अन्हु ने क़त्ल कर दिया। किलाब के बाद उसके भाई जल्लास बिन तल्हा ने परचम उठाया। उसे हज़रत तल्हा बिन उबैद रज़ियल्लाहु अन्हु ने क़त्ल कर दिया। इस तरह ये चारों अपने बाप की तरह वहीं क़त्ल हो गए।

उनके चाचा उथ्मान बिन तल्हा और अबू सईद बिन तल्हा भी इसी ग़ज़वा-ए-उहुद में मारे गए थे।

इसके बाद क़ुरैशियों का परचम अरता बिन शरजील ने उठाया।

इसके मुक़ाबले में हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु आए, वह उनके हाथों मारा गया।

इसके बाद शुरीह बिन क़ारिज़ ने परचम उठाया, वह भी मारा गया।

रिवायत में यह नहीं आया कि यह किसके हाथों मारा गया।

इसके बाद परचम अबू ज़ैद बिन अम्र ने उठाया। उसे हज़रत क़ुज़मान रज़ियल्लाहु अन्हु ने क़त्ल किया।

इसके बाद इन लोगों के ग़ुलाम सवाब ने परचम उठाया। यह एक हब्शी था।

इसने लड़ना शुरू किया, यहाँ तक कि इसका एक हाथ कट गया।

यह जल्दी से बैठ गया और परचम को अपनी गर्दन और सीने के सहारे उठाए रहा, यहाँ तक कि वह हज़रत सअद बिन अबी वक़्क़ास रज़ियल्लाहु अन्हु के हाथों क़त्ल हुआ।

आम जंग शुरू हो गई

दोनों लश्कर एक-दूसरे पर पूरी ताक़त से हमलाआवर हुए।

इस जंग के शुरू में ही मुशरिक़ों के घुड़सवार दस्ते ने तीन मर्तबा इस्लामी लश्कर पर हमला किया।

मगर आनहज़रत ﷺ ने पहाड़ी के ऊपर तीर तीरअंदाजी का जो दस्ता मुक़र्रर फ़रमाया था, वह हर मर्तबा तीरों की बाढ़ मारकर इस दस्ते को पीछे हटने पर मजबूर कर देता था।

मुशरिक़ीन तीनों मर्तबा बदहवासी के आलम में पीछे हटने पर मजबूर हुए।

इसके बाद मुसलमानों ने मुशरिक़ों पर भरपूर हमला किया।

यह हमला इस क़दर शदीद था कि मुशरिक़ों की ताक़त को ज़बरदस्त नुक़सान पहुँचा।

उस वक़्त लड़ाई पूरे ज़ोरों पर थी।

मुशरिक़ों की औरतों में हिनदह भी थी।
यह अबू सुफ़ियान की बीवी थी।
इस वक़्त तक यह इस्लाम न लाई थी और मुसलमानों की सख़्त तरीन दुश्मन और बहुत तुंद मिज़ाज थी।

इसने अपने हाथों में दफ़ ले लिया और इसके साथ दूसरी औरतें भी थीं।

उन्होंने भी दफ़ ले लिए।

अब सब मिलकर दफ़ बजाने लगीं और गीत गाने लगीं।

यह क़दम उन्होंने अपने मर्दों को जोश दिलाने के लिए उठाया।

उधर आनहज़रत ﷺ ने अबू दजाना रज़ियल्लाहु अन्हु को जो तलवार अता फ़रमाई थी, उन्होंने इसका हक़ अदा कर दिया।

हज़रत जुबैर बिन अव्वाम रज़ियल्लाहु अन्हु फ़रमाते हैं कि जब आप ﷺ ने एलान फ़रमाया था कि इस तलवार का हक़ कौन अदा करेगा, तो मेरे तीन मर्तबा तलवार माँगने के बावजूद आपने वह तलवार मुझे मरहमत न फ़रमाई।

हालाँकि मैं आपका फ़ूफ़ी ज़ाद था।

फिर आप ﷺ ने तलवार अबू दजाना को दे दी।

तो मैंने दिल में कहा, “देखता हूँ कि यह इस तलवार का हक़ किस तरह अदा करते हैं?”

इसके बाद मैंने इनका पीछा किया और साए की तरह इनके साथ लगा रहा।

मैंने देखा, इन्होंने अपने मोज़े में से एक सुरख़ रंग की पट्टी निकाली।

इस पट्टी पर एक तरफ लिखा था:

“अल्लाह की मदद और फ़तह क़रीब है।”

दूसरी तरफ लिखा था:

“जंग में बुज़दिली शर्म की बात है।
जो मैदान से भागा, वह जहन्नम की आग से नहीं बच सकता।”

यह पट्टी निकालकर इन्होंने अपने सर पर बाँध ली।

अंसारी मुसलमानों ने जब यह देखा तो वह बोल उठे:

“अबू दजाना ने मौत की पट्टी बाँध ली है!”

अंसारीयों में यह बात मशहूर थी कि हज़रत अबू दजाना रज़ियल्लाहु अन्हु जब यह पट्टी सर पर बाँध लेते, तो फिर दुश्मनों पर इस तरह टूटते कि कोई उनके मुक़ाबले पर टिक नहीं सकता।

चुनांचे इस पट्टी के बाँधने के बाद उन्होंने इंतिहाई ख़ौफ़नाक अंदाज़ में जंग शुरू कर दी।

वह दुश्मन पर मौत बनकर गिरे, उन्हें गाजर-मूली की तरह काटकर रख दिया।

दुश्मनों को इस हद तक क़त्ल किया कि आख़िर यह तलवार मुड़ गई और दरांती जैसी हो गई।

उस वक़्त मुसलमान पुकार उठे:

“अबू दजाना ने वाक़ई तलवार का हक़ अदा कर दिया!”

हज़रत जुबैर रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि मुशरिक़ों में एक शख़्स मैदान-ए-जंग में ज़ख़्मी मुसलमानों को तलाश करके शहीद कर रहा था।

मेरी नज़र इस पर पड़ी तो मैंने दुआ माँगी:
“या अल्लाह! इसका सामना अबू दजाना से हो जाए।”

अल्लाह ने मेरी दुआ क़बूल फ़रमाई और इसका आमना-सामना अबू दजाना रज़ियल्लाहु अन्हु से हो गया।
अब दोनों में तलवार के वार होने लगे।
अचानक इस मुशरिक़ ने अबू दजाना रज़ियल्लाहु अन्हु पर तलवार बुलंद की…

मुशरिक़ के इस वार को अबू दजाना (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने अपनी चमड़े की ढाल पर रोका।
मुशरिक़ की तलवार उनकी ढाल में फँस गई।

बस इस मौक़े से फ़ायदा उठाते हुए अबू दजाना ने फ़ौरन अपनी तलवार से उसका काम तमाम कर दिया।

औरत को क़त्ल नहीं किया

हज़रत सअद बिन अबी वक़्क़ास फ़रमाते हैं कि फिर एक मौक़े पर मैंने अबू दजाना को वही तलवार हिंद बिन्त उत़्बा को क़त्ल करने के लिए बुलंद करते देखा।
लेकिन फिर उन्होंने उस औरत को क़त्ल न किया
इस बारे में जब उनसे पूछा गया तो उन्होंने जवाब दिया:
“मैंने मुनासिब न समझा कि रसूलुल्लाह (ﷺ) की तलवार से एक औरत का क़त्ल करूँ, इसलिए उसे छोड़कर हट आया।”

हज़रत हम्ज़ा की बहादुरी और शहादत

हज़रत हम्ज़ा (रज़ियल्लाहु अन्हु) भी उनकी तरह इन्तिहाई सरफ़रोशी से जंग कर रहे थे
उस रोज़ हज़रत हम्ज़ा (रज़ियल्लाहु अन्हु) एक वक़्त में दो तलवारों से लड़ रहे थे, यानी उनके दोनों हाथों में तलवारें थीं
और लड़ते हुए वह कहते जा रहे थे:
“मैं अल्लाह का शेर हूँ!”
इसी दौरान सबाअ बिन अब्दुलउज़्ज़ा उनके सामने आ गया
उन्होंने उसे ललकारा
फिर तेज़ी से उसकी तरफ़ बढ़े और उसके सर पर पहुँचकर तलवार का वार किया
सबाअ फ़ौरन ही ढेर हो गया
हज़रत हम्ज़ा (रज़ियल्लाहु अन्हु) उस रोज़ इस क़दर दिलेरी से लड़े कि उनके हाथों से 31 मुशरिक़ मारे गए
सबाअ को क़त्ल करने के बाद वह उसकी ज़िरह उतारने के लिए झुके
उसी वक़्त हज़रत वह्शी की नज़र उन पर पड़ी, जो उस वक़्त मुशरिक़ों के लश्कर में शामिल थे।

झुकने की वजह से हज़रत हम्ज़ा (रज़ियल्लाहु अन्हु) की ज़िरह पेट पर से सरक गई थी।
हज़रत वह्शी यह वाक़िआ बयान करते हुए फ़रमाते थे:
*”मैंने फ़ौरन नेज़ा ताक कर मारा, वह उनके पेट में लगा।
मैं उनकी तरफ़ बढ़ा।
उन्होंने मुझे देखा और शदीद ज़ख़्मी हालत के बावजूद उठकर मुझ पर हमला करने की कोशिश की।
लेकिन फिर कमज़ोरी की वजह से गिर गए।
कुछ देर तक मैं एक तरफ़ दबका रहा।
जब मुझे इत्मीनान हो गया कि उनकी रूह निकल चुकी है, तब मैं उनके क़रीब गया।
वह वाक़ई शहीद हो चुके थे।
मैं वहाँ से हट आया और अपनी जगह पर जाकर बैठ गया।
क्योंकि मुझे सिर्फ़ उनके क़त्ल से दिलचस्पी थी।
और इस जंग में किसी और को क़त्ल करने की ख़्वाहिश नहीं थी…

और इसकी वजह यह थी कि मुझसे वादा किया गया था
“कि अगर मैंने हज़रत हम्ज़ा (रज़ियल्लाहु अन्हु) को क़त्ल कर दिया तो मुझे आज़ाद कर दिया जाएगा।”

हज़रत वह्शी (रज़ियल्लाहु अन्हु) हज़रत जुबैर बिन मुत़इम (रज़ियल्लाहु अन्हु) के ग़ुलाम थे और वह उस वक़्त तक मुसलमान नहीं हुए थे।

मुसलमानों पर ताबड़तोड़ हमला और शहादत

उधर मुशरिक़ों के परचमबरदार जब एक-एक करके ख़त्म हो गए और कोई परचम उठाने वाला न रहा, तो उनमें बद-दिली फैल गई… वे पसपा होने लगे। पीठ फेरकर भागने लगे।
ऐसे में वे चीख़ और चिल्ला रहे थे।

उनकी औरतें, जो कुछ देर पहले जोश दिलाने के लिए अशआर पढ़ रही थीं, अपने दफ़ फेंक कर पहाड़ की तरफ़ भागीं।
उन पर बदहवासी इस क़दर सवार हुई कि अपने कपड़े नोचने लगीं।
मुसलमानों ने जब दुश्मन को भागते देखा, तो उनका पीछा करने लगे।
उनके हथियारों और माल-ए-ग़नीमत पर क़ब्ज़ा करने लगे।
अब यहाँ… इस मौक़े पर एक अजीब वाक़िआ रूनुमा हो गया।

आनहज़रत (ﷺ) ने पहाड़ी के दर्रे पर पचास तीरअंदाज़ मुक़र्रर फ़रमाए थे और उन्हें वाज़ेह तौर पर हिदायत फ़रमाई थी कि वे अपनी जगह न छोड़ें..
उनके अमीर हज़रत अब्दुल्लाह बिन जुबैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) थे…

इस दस्ते ने जब काफ़िरों को भागते देखा और मुसलमानों को माल-ए-ग़नीमत जमा करते देखा, तो ये भी अपनी जगह छोड़ने लगे।

यह देखकर हज़रत अब्दुल्लाह बिन जुबैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) बोले:
“कहाँ जा रहे हो?
हमें यहाँ से हटना नहीं चाहिए,
अल्लाह के रसूल (ﷺ) ने हमें हिदायत फ़रमाई थी कि अपनी जगह जमे रहें…

और यहाँ से न हटें।”
इस पर उनके साथी बोले:

“अब मुशरिक़ों को शिकस्त हो गई है,
अब हम यहाँ ठहरकर क्या करेंगे?”

हज़रत अब्दुल्लाह बिन जुबैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) उन्हें रोकते रह गए।
लेकिन वे न माने और मैदान में चले गए।

लेकिन हज़रत अब्दुल्लाह बिन जुबैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) और कुछ साथी अलबत्ता वहीं रुके रहे।

उनकी तादाद दस से भी कम थी।

उन्होंने नीचे का रुख़ करने वालों से कहा:

“हम रसूलुल्लाह (ﷺ) के हुक्म की ख़िलाफ़वर्जी हरगिज़ नहीं करेंगे।”

इस तरह वहाँ दस से भी कम मुजाहिद रह गए…

उसी वक़्त हज़रत ख़ालिद बिन वलीद (रज़ियल्लाहु अन्हु) की नज़र दर्रे पर पड़ी।
यह काफ़िरों के एक दस्ते के सालार थे।
और लश्कर के दाएं बाज़ू पर मुक़र्रर थे।

शिकस्त के बाद यह उस तरफ़ से पसपा हो रहे थे कि दर्रे पर नज़र पड़ी…

**जंग के दौरान भी यह उस तरफ़ से बार-बार हमला करने की कोशिश करते रहे थे लेकिन पचास तीरअंदाज़ों के तीरों की बौछार ने उनकी पेशक़दमी रोक दी थी…
अब उन्होंने देखा कि वहाँ पचास के बजाय चंद मुसलमान रह गए हैं, तो यह अपने दस्ते के साथ उन पर हमला आवर हुए।

उनके दस्ते के साथ ही अक़रमा बिन अबू जहल भी अपने दस्ते के साथ उस तरफ़ पलट पड़े।

इस तरह पूरे दो दस्तों ने उन चंद मुसलमानों पर हमला कर दिया

उनका यह हमला इस क़दर ज़बरदस्त था कि पहले ही हमले में हज़रत अब्दुल्लाह बिन जुबैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) और उनके साथी शहीद हो गए।

मुशरिक़ों ने हज़रत अब्दुल्लाह बिन जुबैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) की लाश का मुस्ला किया। यानी उनकी नाक, कान, हाथ और पैर काट डाले। उनके जिस्म पर इतने नेज़े लगे थे कि पूरा जिस्म छलनी हो चुका था।

लेकिन आफ़रीन है इस मर्द-ए-मुजाहिद पर कि वह हज़ूर-ए-अकरम (ﷺ) के हुक्म पर वहीं से न हटे।

अब इन दोनों दस्तों ने इस दर्रे की तरफ़ से मुसलमानों की पुश्त पर अचानक बहुत ज़ोर का हमला किया। मुसलमान उस वक़्त माल-ए-ग़नीमत लूटने में मसरूफ़ थे। उनमें से अक्सर ने अपनी तलवारें नियाम में डाल ली थीं
इस ताबड़तोड़ हमले ने उन्हें बदहवास कर दिया।
काफ़िर उस वक़्त पूरे जोश में “या हुबल या उज्ज़ा” के नारे लगा रहे थे, यानी अपने बुतों के नाम पुकार रहे थे।
मुसलमान इस हमले से इस क़दर बदहवास हुए कि इधर-उधर भागने लगे।

उस वक़्त तक उन्होंने जितने काफ़िरों को क़ैदी बना लिया था या जितना माल-ए-ग़नीमत लूट चुके थे, वह सब छोड़कर भाग खड़े हुए।
मुशरिक़ों का परचम उस वक़्त ज़मीन पर पड़ा था…

एक मुशरिक़ औरत, बिन्त अलक़मा की नज़र उस पर पड़ी, तो उसने लपक कर उसे उठा लिया और बुलंद कर दिया।

अब तक जो मुशरिक़ भाग रहे थे, वह भी अपने परचम को बुलंद होते देखकर पलट पड़े।
वे जान गए कि जंग का पांसा पलट चुका है।

अब सब दौड़-दौड़कर अपने परचम के गर्द जमा होने लगे और बदहवास मुसलमानों पर हमला आवर होने लगे।

हुज़ूर की शहादत की अफ़वाह

ऐसे में एक मुशरिक़, इब्ने क़म्मा ने पुकारकर कहा:
“मुहम्मद (ﷺ) क़त्ल कर दिए गए।”* (मआज़ अल्लाह!)

इस ख़बर ने मुसलमानों को और ज़्यादा बदहवास कर दिया।

ऐसे में किसी सहाबी ने कहा:
“अब जब कि हज़रत मुहम्मद (ﷺ) क़त्ल हो चुके हैं, तो हम लड़कर क्या करेंगे?”

इस पर कुछ सहाबा-ए-किрам (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने कहा:
“अगर अल्लाह के रसूल (ﷺ) शहीद हो गए हैं, तो क्या तुम अपने नबी के दीन के लिए नहीं लड़ोगे, ताकि तुम शहीद की हैसियत से अपने ख़ुदा के सामने हाज़िर हो?”

हज़रत साबित बिन वह्दाह (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने पुकारकर कहा:
“ऐ गिरोह-ए-अंसार! अगर मुहम्मद (ﷺ) शहीद हो गए हैं, तो अल्लाह तआला तो ज़िंदा है, उसे तो मौत नहीं आ सकती। अपने दीन के लिए लड़ो, अल्लाह तआला फ़तह और कामरानी अता फ़रमाएगा।”

यह सुनते ही अंसार के एक गिरोह ने मुशरिकों के उस दस्ते पर हमला कर दिया, जिसमें ख़ालिद बिन वलीद, अक़रमा बिन अबू जहल, अम्र बिन आस और ज़रार बिन ख़त्ताब मौजूद थे
ये चारों ज़बरदस्त जंगजू थे

अंसार के हमले के जवाब में ख़ालिद बिन वलीद ने उन पर जवाबी हमला किया

इस जवाबी हमले में इब्ने वह्दाह (रज़ियल्लाहु अन्हु) और उनके साथी शहीद हो गए

बदहवासी के आलम में कुछ लोग मदीना की तरफ़ पलट पड़े थे
उनके रास्ते में उम्म-ए-अयमन (रज़ियल्लाहु अन्हा) आ गईं
वह बोलीं:
“मुसलमानो! यह क्या! तुम पीठ फेरकर जा रहे हो?”

इस पर वे पलट पड़े और मुशरिकों पर हमला आवर हुए

काफिरों का हुज़ूर पर हमला
जब परवाने शमा-ए-रिसालत पर निसार हुए

दूसरी तरफ़, मुसलमानों के तितर-बितर हो जाने की वजह से मुशरिकों के एक गिरोह ने नबी-ए-करीम (ﷺ) पर हमला कर दिया

आप (ﷺ) इस सख़्त वक़्त में भी साबित क़दम रहे और अपनी जगह पर जमे रहे

इस आलम में आप (ﷺ) अपने सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से फ़रमा रहे थे:
“ऐ फलाँ! मेरी तरफ़ आओ, ऐ फलाँ! मेरी तरफ़ आओ, मैं अल्लाह का रसूल हूँ।”
हर तरफ़ से आप (ﷺ) पर तीरों की बौछार हो रही थी
इस हालत में अल्लाह तआला ने आप (ﷺ) की हिफ़ाज़त फ़रमाई
इस नाज़ुक वक़्त में सहाबा-ए-किрам (रज़ियल्लाहु अन्हुम) की एक जमात आप (ﷺ) के गर्द जमा रही
यह जमात मुशरिकों के मुसलसल हमलों को रोक रही थी
ख़ुद को परवानों की तरह नबी-ए-करीम (ﷺ) पर क़ुर्बान कर रही थी
इनमें हज़रत अबू तल्हा (रज़ियल्लाहु अन्हु) भी थेवे दुश्मनों के वार अपनी ढाल पर रोक रहे थेवे बहुत अच्छे तीरअंदाज़ थे, उनका निशाना बहुत पुख़्ता थाचुनांचे, दुश्मनों पर मुसलसल तीर भी चला रहे थे और कहते जाते थे:
“मेरी जान आप पर फ़िदा हो जाए, मेरा चेहरा आपके लिए ढाल बन जाए।”

नबी-ए-करीम (ﷺ) को किसी मुसलमान के तरकश में तीर नज़र आते तो उनसे फ़रमाते:
“अपना तरकश अबू तल्हा के सामने उलट दो।”
हज़रत अबू तल्हा (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने उस रोज़ इस क़दर तीरअंदाज़ी की कि उनके हाथ से तीन कमानें टूट गईं

हज़ूर-ए-अकरम (ﷺ) जब दुश्मन को देखने के लिए अपना सिर ऊपर उठाते, तो हज़रत अबू तल्हा (रज़ियल्लाहु अन्हु) पुकार उठते:
“ऐ अल्लाह के रसूल! आप अपना सिर ऊपर न करें… कहीं कोई तीर आपको न लग जाए।”

फिर ख़ुद पंजों के बल हज़ूर-ए-अकरम (ﷺ) के बिल्कुल सामने आ जाते, ताकि हज़ूर (ﷺ) महफ़ूज़ रहें
कोई तीर लगे, तो मुझको लगे

इस दौरान नबी-ए-करीम (ﷺ) के पास जो कमान थी, उसका नाम ‘कतूम’ था
कमान का एक सिरा टूट गया था और दस्ते मुबारक में कमान की बालिश्त भर डोरी रह गई थी

हज़रत अक़ाशा बिन महसन (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कमान की डोरी बाँधने के लिए वह हज़ूर (ﷺ) से ले ली, मगर डोरी तो छोटी हो चुकी थी

इस पर उन्होंने अर्ज़ किया:
“अल्लाह के रसूल! डोरी छोटी हो गई है, इस लिए बंध नहीं सकती।”
इस पर हज़ूर-ए-अकरम (ﷺ) ने इरशाद फ़रमाया:
“इसको खींचो! पूरी हो जाएगी।”
हज़रत अक़ाशा (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं:
“अल्लाह की क़सम! मैंने उस डोरी को खींचा, तो वह खींचकर इतनी लंबी हो गई कि वह कमान के दोनों सिरों पर पूरी आ गई। मैंने एक सिरे पर दो-तीन बल भी दे दिए और फिर उस पर गिरह लगा दी।”
उस वक़्त आप (ﷺ) के आस-पास जो सहाबा-ए-किराम (रज़ियल्लाहु अन्हुम) मौजूद थे, उन्होंने दुश्मनों से ज़बरदस्त जंग की
इनमें हज़रत सअद बिन अबी वक़्क़ास (रज़ियल्लाहु अन्हु) भी थे

ये भी ज़बरदस्त तीरअंदाज़ थे
ये कहते हैं कि नबी-ए-अकरम (ﷺ) तीर उठा-उठाकर मुझे दे रहे थे और फ़रमाते जाते थे…

“ऐ सअद! तीरंदाज़ी करते जाओ, तुम पर मेरे माँ-बाप क़ुर्बान हों।”

हज़रत सअद (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं:
“हज़ूर-ए-अकरम (ﷺ) के हाथ से मुझे एक तीर ऐसा भी मिला, जिसके सिरे पर फल (तेज़ धार नोक वाला हिस्सा) नहीं था। आप (ﷺ) ने भी देख लिया कि तीर का फल नहीं है, फिर भी आपने इरशाद फ़रमाया: ‘यही तीर चलाओ।’”

इस पर हज़रत सअद (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने दुआ करते हुए कहा:
“ऐ अल्लाह! यह तेरा तीर है, तू इसे दुश्मन के सीने में पैवस्त कर दे।”

साथ ही हज़ूर-ए-अकरम (ﷺ) फ़रमा रहे थे:
“ऐ अल्लाह! सअद की दुआ क़ुबूल फ़रमा। ऐ अल्लाह! उसकी तीरंदाज़ी को दुरुस्त फ़रमा।”

फिर हज़रत सअद बिन अबी वक़्क़ास (रज़ियल्लाहु अन्हु) का तरकश ख़ाली हो गया, तीर ख़त्म हो गए

तब नबी-ए-अकरम (ﷺ) ने अपना तरकश उनके सामने उलट दिया

हज़रत सअद (रज़ियल्लाहु अन्हु) फिर तीर चलाने लगे…

कहा जाता है कि हज़रत सअद बिन अबी वक़्क़ास (रज़ियल्लाहु अन्हु) मुस्तजाबुद्दावात थे, यानी उनकी दुआ क़ुबूल होती थी

एक बार हज़रत सअद (रज़ियल्लाहु अन्हु) से किसी ने पूछा:
“आपकी दुआएँ क्यों फ़ौरन क़ुबूल होती हैं?”

उन्होंने जवाब दिया:
“मैं ज़िंदगी भर कोई लुक़्मा यह जाने बग़ैर मुँह तक नहीं ले गया कि यह कहाँ से आया है?”

(मतलब यह कि हमेशा हलाल खाया है।)

इस बारे में हज़ूर-ए-नबी (ﷺ) का फ़रमान है:
“क़सम उस ज़ात की, जिसके क़ब्ज़े में मेरी जान है, जब भी कोई बंदा हराम लुक़्मा अपने पेट में डालता है, तो चालीस दिन तक उसकी कोई दुआ क़ुबूल नहीं होती।”

इस सिलसिले में एक हदीस के अल्फ़ाज़ ये हैं:
“जिसकी कमाई हराम हो, जिसका पीना हराम हो और जिसका लिबास हराम हो, उसकी दुआएँ कैसे क़ुबूल हो सकती हैं?”

उस रोज़ हज़रत सअद (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने एक हज़ार तीर चलाए

हर तीर पर हज़ूर-ए-अकरम (ﷺ) ने उनसे फ़रमाया:
“तीरंदाज़ी करो, तुम पर मेरे माँ-बाप क़ुर्बान हों।”

हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं:
“मैंने नबी करीम (ﷺ) से यह जुमला हज़रत सअद के अलावा किसी और के लिए कहते हुए नहीं सुना कि ‘मेरे माँ-बाप तुम पर क़ुर्बान हों।’”

हज़रत सअद (रज़ियल्लाहु अन्हु) रिश्ते में हज़ूर-ए-अकरम (ﷺ) के मामू लगते थे

इसलिए उनके बारे में हज़ूर-ए-अकरम (ﷺ) यह भी फ़रमाया करते थे:
“यह सअद मेरे मामू हैं, कोई मुझे ऐसा मामू तो दिखाए!”

उस रोज़ हज़रत सअद (रज़ियल्लाहु अन्हु) के अलावा हज़रत सुहैल बिन हनीफ़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने भी तीर चलाए

जो कि उस नाज़ुक वक़्त में हज़ूर-ए-अकरम (ﷺ) के क़रीब रहने वालों में शामिल थे

हज़रत ज़ैद बिन आसिम (रज़ियल्लाहु अन्हु) की बीवी हज़रत उम्मे अम्मारा (रज़ियल्लाहु अन्हा) उस रोज़ मुजाहिदों को पानी पिला रही थीं

जब जंग का पांसा पलटा, मुसलमानों की फ़तह शिकस्त में बदली, तब भी यह ज़ख़्मियों को पानी पिला रही थीं

सहाबा और सहाबियात की फिदाकारी

हज़रत उम्मे अम्मारा रज़ियल्लाहु अन्हा का असल नाम नसीबा था। जब उन्होंने मुसलमानों को भागते देखा और मुश्रिकों को नबी करीम के चारों ओर इकट्ठा होते देखा तो बेचैन हो गईं। जल्दी से आप के क़रीब पहुँचीं और तलवार के ज़रिए दुश्मनों से लड़ने लगीं। तलवार चलाते-चलाते जब ज़ख़्मी हो गईं, तो तीर-कमान सँभाल लिया और मुश्रिकों पर तीर चलाने लगीं।

इसी दौरान उन्होंने इब्ने क़मीअह मुश्रिक को आते देखा, जो ये कहता हुआ चला आ रहा था:
“मुझे बताओ… मुहम्मद कहाँ हैं? अगर आज वो बच गए तो समझो, मैं नहीं बचूंगा।”

इसका मतलब ये था कि आज या तो वो रहेंगे या मैं। जब वो क़रीब आया तो हज़रत उम्मे अम्मारा रज़ियल्लाहु अन्हा और हज़रत मुसअब बिन उमैर रज़ियल्लाहु अन्हु ने उसका रास्ता रोका। उसी वक़्त उसने हज़रत उम्मे अम्मारा रज़ियल्लाहु अन्हा पर हमला किया, जिससे उनके कंधे पर ज़ख़्म आ गया। हज़रत उम्मे अम्मारा रज़ियल्लाहु अन्हा ने भी उस पर तलवार से कई वार किए, मगर उसने ज़िरह पहनी हुई थी, इसलिए बच गया।

उनकी कोशिशों को देखकर हज़ूर नबी करीम ने फ़रमाया:
“अल्लाह तुम्हारे घराने में बरकत अता फ़रमाए।”

इस पर हज़रत उम्मे अम्मारा रज़ियल्लाहु अन्हा ने अर्ज़ किया:
“अल्लाह के रसूल! हमारे लिए दुआ फ़रमाइए कि हम जन्नत में आपके साथ हों।”

आप ने फ़रमाया:
“ऐ अल्लाह! इन्हें जन्नत में मेरा रफ़ीक़ और साथी बना।”

इस पर हज़रत उम्मे अम्मारा रज़ियल्लाहु अन्हा ने कहा:
“अब मुझे इस बात की कोई परवाह नहीं कि दुनिया में मुझ पर क्या गुज़रती है।”

नबी अकरम फ़रमाते हैं:
“उहुद के दिन मैं दाएं-बाएं जिधर भी देखता था, उम्मे अम्मारा को देखता था कि वो मेरी हिफ़ाज़त के लिए जान की बाज़ी लगाकर दुश्मनों से लड़ रही हैं।”

ग़ज़वा-ए-उहुद में हज़रत उम्मे अम्मारा रज़ियल्लाहु अन्हा को बारह ज़ख़्म आए। उनमें नेज़ों के ज़ख़्म भी थे और तलवारों के भी।

उस दिन हज़रत अबू दुजाना रज़ियल्लाहु अन्हु ने भी अपने जिस्म को नबी अकरम के लिए ढाल बना लिया था। जो तीर आता, उसे अपनी कमर पर रोकते। यानी उन्होंने अपना मुँह हज़ूर नबी करीम की तरफ़ रखा था, ताकि आप महफ़ूज़ रहें। इस तरह उनकी कमर में बहुत से तीर धंस गए।

इसी तरह हज़रत ज़ियाद बिन अम्मारा रज़ियल्लाहु अन्हु भी आपकी हिफ़ाज़त में बहादुरी से ज़ख़्म खा रहे थे। यहाँ तक कि ज़ख़्मों से चूर होकर गिर पड़े। आप ने फ़रमाया:
“इन्हें मेरे क़रीब लाओ।”

उनकी खुशक़िस्मती देखिए कि उन्हें आपके क़रीब लाया गया। जब उन्हें ज़मीन पर लिटाया गया तो उन्होंने अपना मुँह और रुख़सार हज़रत नबी अकरम के क़दमों पर रख दिया और उसी हालत में जान दे दी… कितनी मुबारक मौत थी उनकी!

इसी तरह हज़रत मुसअब बिन उमैर रज़ियल्लाहु अन्हु भी हज़ूर की हिफ़ाज़त करते हुए इब्ने क़मीअह के हाथों शहीद हुए। असल में इब्ने क़मीअह ने हज़रत मुसअब बिन उमैर रज़ियल्लाहु अन्हु को नबी करीम समझ लिया था, क्योंकि उनकी शक्ल मुहम्मद से मिलती-जुलती थी। इसलिए जब उसने उन्हें शहीद किया तो क़ुरैश के सरदारों को जाकर ये ख़बर दी कि उसने रसूलुल्लाम को शहीद कर दिया है, हालाँकि उसने हज़रत मुसअब बिन उमैर रज़ियल्लाहु अन्हु को शहीद किया था।

इसी दौरान उबै बिन ख़लफ़ रसूलुल्लाह की तरफ़ बढ़ा। इस पर कई सहाबा उसके रास्ते में आ गए, लेकिन हज़ूर ने फ़रमाया:
“उसे मेरी तरफ़ आने दो।”

फिर आप ये कहते हुए उसकी तरफ़ बढ़े:
“ऐ झूठे! कहाँ भागता है?

फिर हज़ूर ने अपने एक सहाबी के हाथ से एक नेज़ा लिया और उसकी नोक उबै बिन ख़लफ़ की गर्दन में बहुत ही आहिस्ता से चुभो दी। मतलब ये कि नेज़ा इस क़दर आहिस्ता चुभोया कि उससे ख़ून भी नहीं निकला, मगर इस हल्की सी ख़राश ही से वो बुरी तरह चीख़ता हुआ वहाँ से भागा… वो कह रहा था:
“ख़ुदा की क़सम! मुहम्मद ने मुझे मार डाला।”

मश्रिकों ने उसे रोकने की कोशिश की और कहा:
“तू तो बहुत छोटे दिल का निकला… तेरी अक़्ल जाती रही, अपने पहलू में तीर लिए फिरता है, तीरअंदाज़ी करता है… और तुझे कोई ज़ख़्म भी नहीं आया… लेकिन चीख़ कितना रहा है, एक मामूली सी ख़राश है, ऐसी ख़राश पर तो हम ‘अह’ भी नहीं करते।”

इस पर उबै बिन ख़लफ़ ने दर्द से कराहते हुए कहा:
“लात और उज्ज़ा की क़सम! इस वक़्त मुझे जिस क़दर शदीद तकलीफ़ हो रही है, अगर वो ज़ी-मजाज़ के मेले में सारे आदमियों पर भी तक़सीम कर दी जाए तो सब के सब मर जाएँ।”

बात असल में ये थी कि मक्का में उबै बिन ख़लफ़ नबी अकरम से कहा करता था:
“ऐ मुहम्मद! मेरे पास एक बेहतरीन घोड़ा है, मैं उसे रोज़ाना बारह मर्तबा चारा खिला कर मोटा कर रहा हूँ, उस पर सवार होकर मैं तुम्हें क़त्ल करूँगा।”

उसकी बकवास सुनकर हज़ूर फ़रमाते थे:
“इंशाअल्लाह! मैं ख़ुद तुझे क़त्ल करूँगा।”

अब जब उसे आप के हाथों ख़राश पहुँची तो उसकी ना-क़ाबिले-बर्दाश्त तकलीफ़ ने उसे चीख़ने पर मजबूर कर दिया… वो बार-बार लोट-पोट हो रहा था और किसी ज़बीहा किए हुए बैल की तरह तड़प रहा था। उसकी तकलीफ़ को देखते हुए उसके कुछ साथी उसे साथ लेकर मक्का की तरफ़ रवाना हुए, लेकिन उसने रास्ते में ही दम तोड़ दिया।

एक हदीस में आता है:
“वो शख़्स जिसे नबी ने क़त्ल किया हो या जिसे नबी के हुक्म से क़त्ल किया गया हो, उसे उसके क़त्ल के वक़्त से क़यामत के दिन तक अज़ाब दिया जाता रहेगा।”

एक और हदीस के अल्फ़ाज़ ये हैं:
“सबसे ज़्यादा सख़्त अज़ाब उसे होता है जिसे नबी ने ख़ुद क़त्ल किया हो।”

ग़ज़वा-ए-उहुद की सख़्त घड़ियाँ

उहुद की लड़ाई शुरू होने से पहले एक फ़ितना-बाज़ काफ़िर अबू आमिर ने जगह-जगह गड्ढे खोद दिए थे, ताकि मुसलमान बेख़बरी में उनमें गिर जाएँ और नुक़सान उठाते रहें। ये शख़्स हज़रत हंज़ला रज़ियल्लाहु अन्हु का बाप था… और हज़रत हंज़ला रज़ियल्लाहु अन्हु वो हैं जिन्हें फ़रिश्तों ने ग़ुस्ल दिया था।

लड़ाई जारी थी कि हज़ूर अकरम एक गड्ढे में गिर गए। हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु ने आपको गिरते देखा, तो आगे बढ़कर फ़ौरन आपको दोनों हाथों पर ले लिया। हज़रत तल्हा बिन उबैदुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हु ने आपको ऊपर उठाकर बाहर निकाला।

आप जब गड्ढे में गिरे तो इब्ने क़मीअह ने आप पर पत्थर बरसाए। उनमें से एक पत्थर आपके पहलू में लगा। उत्बा बिन अबी वक़्क़ास ने भी आपको पत्थर मारा। उसके फेंके हुए पत्थर से आपका चेहरा-ए-मुबारक लहूलुहान हो गया और निचला होंट फट गया।

हज़रत हातिब रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि जब मैंने उत्बा को हज़ूर पर पत्थर फेंकते देखा तो उसकी तरफ़ लपका। मैंने उसका पीछा किया और आख़िर उसे जा लिया। मैंने फ़ौरन ही उस पर तलवार से वार किया। इस वार से उसकी गर्दन कटकर दूर जा गिरी। मैंने फ़ौरन उसकी तलवार और घोड़े पर क़ब्ज़ा किया और हज़ूर नबी करीम की ख़िदमत में हाज़िर हो गया। मैंने आपको उत्बा के क़त्ल की ख़बर सुनाई।

आप ने इरशाद फ़रमाया:
“अल्लाह तुमसे राज़ी हो गया, अल्लाह तुमसे राज़ी हो गया।”

नबी अकरम की चोटें और बद्दुआ

इस हमले में हज़ूर अकरम की लोहे की टोप भी टूट गई। चेहरा-ए-मुबारक भी ज़ख़्मी हुआ। इब्ने क़मीअह के हमले से दोनों रुख़सार भी ज़ख़्मी हुए थे। टोप की दो कड़ियाँ आपके रुख़सार-ए-मुबारक में गड़ गई थीं।

आप ने इब्ने क़मीअह के लिए बद्दुआ दी:
“अल्लाह तुझे ज़लील कर दे और बर्बाद कर दे।”

अल्लाह की क़ुदरत और सहाबा की बहादुरी

अल्लाह तआला ने हज़ूर की दुआ क़बूल फ़रमाई। इस जंग के बाद जब इब्ने क़मीअह अपनी बकरियों के गल्ले में पहुँचा, तो उन्हें लेकर पहाड़ पर चढ़ा। वो बकरियों और मेंढों को घेर-घेरकर ले जा रहा था कि अचानक एक मेंढे ने उस पर हमला कर दिया। उस मेंढे ने इतनी ज़ोर से उसे सींग मारी कि वो पहाड़ से नीचे लुढ़क गया और उसका जिस्म टुकड़े-टुकड़े हो गया।

जब नबी अकरम का चेहरा-ए-मुबारक ज़ख़्मी हुआ और ख़ून बहने लगा, तो आप ख़ून पोंछते जाते थे और फ़रमाते जाते थे:
“वो क़ौम कैसे फ़लाह पाएगी जिसने अपने नबी के चेहरे को इस लिए ख़ून से रंगीन कर दिया कि वो उन्हें उनके परवरदिगार की तरफ़ बुलाता है?”

हज़ूर अकरम के चेहरे-ए-मुबारक में ख़ुद की कड़ियाँ घुस गई थीं। हज़रत अबू उबैदा बिन जर्राह रज़ियल्लाहु अन्हु ने अपने दाँतों से उन कड़ियों को खींच-खींचकर निकाला। इस कोशिश के दौरान उनका अपना सामने का एक दाँत टूट गया। फिर उन्होंने दूसरी कड़ी को दाँतों से पकड़कर खींचा, तो एक और दाँत टूट गया… लेकिन कड़ी निकल गई।

अब होना तो ये चाहिए था कि हज़रत अबू उबैदा बिन जर्राह रज़ियल्लाहु अन्हु के सामने के दो दाँत टूट जाने के बाद उनका चेहरा बदनुमा हो जाता। लेकिन हुआ ये कि वो पहले से ज़्यादा ख़ूबसूरत हो गए।

नबी अकरम के ज़िंदा होने की ख़ुशख़बरी

जब ये ख़बर मशहूर हुई कि आप को शहीद कर दिया गया है, तो हज़रत अबू उबैदा बिन जर्राह रज़ियल्लाहु अन्हु पहले शख़्स थे जिन्होंने आपको ज़िंदा-सलामत देखा और पुकारे:
“ऐ मुसलमानो! तुम्हें ख़ुशख़बरी हो, रसूलुल्लाह तो ये रहे, मौजूद हैं!”

जब मुसलमानों ने हज़ूर को ज़िंदा-सलामत देखा, तो परवानों की तरह आपके चारों तरफ़ जमा हो गए। आप अपने इन साथियों के साथ एक घाटी की तरफ़ रवाना हुए। उस वक़्त आपके साथ हज़रत अबू बक्र, हज़रत उमर, हज़रत अली, हज़रत ज़ुबैर और हज़रत हारिस बिन सिमा रज़ियल्लाहु अन्हुम थे।

इस रोज़ हज़रत ज़ुबैर बिन अव्वाम रज़ियल्लाहु अन्हु ने भी ज़बरदस्त साबित क़दमी दिखाई थी और आपकी हिफ़ाज़त में मौत की बैअत की थी, यानी ये अहद किया था कि आपकी हिफ़ाज़त में जान तो दे देंगे, लेकिन साथ नहीं छोड़ेंगे।

हज़रत हारिस बिन सिमा की जुर्रत

आप अपने इन सहाबा के साथ घाटी की तरफ़ बढ़ रहे थे कि उस्मान बिन अब्दुल्लाह एक सियाह और सफ़ेद घोड़े पर सवार आपकी तरफ़ बढ़ा। वो लोहे में पूरी तरह ग़र्क़ था। आप उसकी आवाज़ सुनकर रुक गए। उसी वक़्त उस्मान बिन अब्दुल्लाह के घोड़े को ठोकर लगी, वो एक गड्ढे में गिर गया।

साथ ही हज़रत हारिस बिन सिमा रज़ियल्लाहु अन्हु उसकी तरफ़ लपके और अपनी तलवार से उस पर वार किया। उसने तलवार का वार रोका… थोड़ी देर दोनों तरफ़ से तलवार चलती रही, फिर अचानक हज़रत हारिस ने उसके पैर पर तलवार मारी। वो ज़ख़्म खाकर बैठ गया… हज़रत हारिस रज़ियल्लाहु अन्हु ने एक भरपूर वार करके उसका ख़ात्मा कर दिया।

इस पर हज़ूर नबी करीम ने फ़रमाया:
“अल्लाह का शुकर है जिसने इसे हलाक कर दिया।”

हज़रत अबू दुजाना की बहादुरी

उसी वक़्त अब्दुल्लाह बिन जाबिर आमिरी ने हज़रत हारिस रज़ियल्लाहु अन्हु पर हमला कर दिया। उसकी तलवार हज़रत हारिस रज़ियल्लाहु अन्हु के कंधे पर लगी। कंधा ज़ख़्मी हो गया… इन लमहात में हज़रत अबू दुजाना रज़ियल्लाहु अन्हु ने अब्दुल्लाह बिन जाबिर पर हमला कर दिया और अपनी तलवार से उसे ज़बह कर डाला।

हज़रत तल्हा की कुर्बानी और जन्नत की खुशखबरी

मुसलमान हज़रत हारिस रज़ियल्लाहु अन्हु को उठाकर ले गए ताकि उनकी मरहम-पट्टी की जा सके। फिर हज़ूर नबी करीम ने उस चट्टान के ऊपर जाने का इरादा फ़रमाया जो घाटी के अंदर उभरी हुई थी, लेकिन ज़ख़्मों से खून निकल जाने और ज़िरहों के बोझ की वजह से आप चढ़ न सके। यह देखकर हज़रत तल्हा रज़ियल्लाहु अन्हु आपके सामने बैठ गए और आपको कंधों पर बिठाकर चट्टान के ऊपर ले गए। इस वक्त आप ने फ़रमाया:
“तल्हा के इस नेक अमल की वजह से उन पर जन्नत वाजिब हो गई।”

उनकी एक टांग में लंगड़ापन था। जब उन्होंने हज़ूर को कंधों पर उठाकर चलना शुरू किया तो उनकी चाल में लंगड़ापन था। अब उनकी कोशिश यह थी कि लंगड़ापन न हो, ताकि हज़ूर अकरम को तकलीफ़ न पहुंचे। आपकी बरकत से उनकी यह लंगड़ाहट हमेशा के लिए दूर हो गई।

हज़रत फ़ातिमा का वालिद की खिदमत में पेश होना

इस वक्त तक जंग की खबरें मदीना मुनव्वरा में पहुंच चुकी थीं, लिहाजा वहां से औरतें मैदान-ए-उहुद की तरफ़ चल पड़ीं। इनमें हज़रत फ़ातिमा रज़ियल्लाहु अन्हा भी थीं। जब उन्होंने हज़ूर को ज़ख़्मी देखा, तो बेइख़्तियार आपसे लिपट गईं। फिर उन्होंने आपके ज़ख़्मों को धोया। हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु पानी डालने लगे, लेकिन ज़ख़्मों से खून और ज़्यादा बहने लगा। तब हज़रत फ़ातिमा रज़ियल्लाहु अन्हा ने अपनी चादर का एक टुकड़ा फाड़कर जलाया। जब वह जलकर राख हो गया, तो वह राख उन्होंने हज़ूर के ज़ख़्मों में भर दी। इस तरह आपके ज़ख़्मों से खून बहने का सिलसिला रुका।

दुश्मनों का हमला और हज़रत उमर की बहादुरी

जब आप इस चट्टान पर पहुंचे, तो दुश्मनों का एक गिरोह पहाड़ के ऊपर पहुंच गया। इस गिरोह में ख़ालिद बिन वलीद भी थे। हज़ूर अकरम ने दुश्मनों को देखकर फ़रमाया:
“ऐ अल्लाह! हमारी ताक़त और कूवत सिर्फ तेरी ही ज़ात है।”

इस वक़्त हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने मुहाजिरीन के एक गिरोह के साथ इन लोगों का मुक़ाबला किया और उन्हें पीछे धकेलकर पहाड़ से नीचे उतरने पर मजबूर कर दिया। इसके बाद आप ने ज़ोहर की नमाज़ अदा की। कमज़ोरी की वजह से यह नमाज़ बैठकर अदा फ़रमाई।

सहाबा की बहादुरी और क़ुर्बानियाँ

इस लड़ाई में हज़रत तल्हा रज़ियल्लाहु अन्हु के जिस्म पर तक़रीबन 70 ज़ख़्म आए। ये ज़ख़्म नेज़ों, बर्छों और तलवारों के थे। तलवार के एक वार से उनकी उंगलियां भी कट गईं। दूसरे हाथ में उन्हें एक तीर आकर लगा था, जिससे लगातार खून बहने लगा, यहां तक कि कमज़ोरी की वजह से वे बेहोश हो गए। इस पर हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु ने उनके मुंह पर पानी के छींटे मारे। इससे उन्हें होश आया, तो फ़ौरन पूछा:
“रसूलुल्लाह का क्या हाल है?”

हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु ने जवाब दिया:
“ख़ैरियत से हैं।”

यह सुनकर हज़रत तल्हा रज़ियल्लाहु अन्हु ने कहा:
“अल्लाह का शुक्र है, हर मुसीबत के बाद आसानी होती है।”

हज़रत अब्दुर्रहमान बिन औफ़ रज़ियल्लाहु अन्हु के मुंह पर ज़र्ब लगी। इस ज़र्ब से उनके दांत टूट गए। इसके अलावा उनके जिस्म पर 20 ज़ख़्म थे। एक ज़ख़्म उनके पैर पर भी आया था, जिससे वे लंगड़े हो गए थे। हज़रत क़अब बिन मालिक रज़ियल्लाहु अन्हु के जिस्म पर भी 20 के क़रीब ज़ख़्म आए थे। ग़रज़ यह कि अकसर सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम शदीद ज़ख़्मी हुए थे।

क़ज़मान की बहादुरी और उसका अंजाम

उहुद की लड़ाई शुरू होने से पहले एक शख़्स, क़ज़मान नामी, भी मुसलमानों की तरफ़ से जंग में शामिल हुआ था। उसे देखते ही हज़ूर ने इरशाद फ़रमाया था कि “यह शख़्स जहन्नमी है।”

वह उहुद की लड़ाई में बहुत बहादुरी से लड़ा। लड़ाई शुरू होने पर सबसे पहला तीर भी इसी ने चलाया था। लड़ते-लड़ते वह मुशरिकों के ऊंट-सवार दस्ते पर टूट पड़ा और आठ-दस मुशरिकों को आंख झपकते ही क़त्ल कर डाला।

बअज़ सहाबा ने उसकी बहादुरी का तज़किरा हज़ूर से किया। उनका मक़सद यह था कि “आपने तो इसे जहन्नमी फ़रमाया है, लेकिन यह इस क़दर दिलेरी से लड़ रहा है!”

इस पर आप ने फिर इरशाद फ़रमाया:
“यह शख़्स जहन्नमी है।”

सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम इस पर बहुत हैरान हुए…

जब क़ज़मान लड़ते-लड़ते बहुत ज़ख़्मी हो गया तो उसे उठाकर बनी ज़फ़र के मोहल्ले में पहुँचाया गया। यहाँ लोग उसकी तारीफ़ करने लगे। इस पर वह बोला:
“मुझे कैसी खुशख़बरी सुना रहे हो? ख़ुदा की क़सम! मैं तो सिर्फ़ अपनी क़ौम की इज़्ज़त और फ़ख़्र के लिए लड़ा हूँ। अगर क़ौम का यह मामला न होता तो मैं हरगिज़ न लड़ता।”

उसके इन अल्फ़ाज़ का मतलब यह था कि वह अल्लाह और उसके रसूल का कलमा बुलंद करने के लिए नहीं लड़ा था… फिर ज़ख़्मों की तकलीफ़ नाक़ाबिले बर्दाश्त हो गई। उसने अपनी तलवार निकाली। उसकी नोक अपने सीने पर रखकर सारा बोझ उस पर डाल दिया। इस तरह तलवार उसके सीने के आर-पार हो गई… इस तरह वह हराम मौत मरा। उसे इस तरह मरते देख एक शख़्स दौड़कर नबी करीम ﷺ की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और बोला:

“मैं गवाही देता हूँ कि आप अल्लाह के रसूल हैं।”

आप ﷺ ने दरयाफ़्त फ़रमाया:
“क्या हुआ?”

जवाब में उसने कहा:
“आपने जिस शख़्स के बारे में फ़रमाया था कि वह जहन्नमी है, उसने ख़ुदकुशी कर ली है।”

इस तरह क़ज़मान के बारे में आपकी पेशीनगोई दुरुस्त साबित हुई।

इसके बिलकुल उलट एक वाक़िआ यूँ पेश आया कि बनी अब्दुल-अशल का एक शख़्स “असीरम” अपनी क़ौम को इस्लाम लाने से रोकता था… जिस रोज़ नबी करीम ﷺ ग़ज़वा-ए-उहुद के लिए मदीना मुनव्वरा से रवाना हुए, यह शख़्स मदीना आया और अपनी क़ौम के लोगों के बारे में मालूम किया कि वे कहाँ हैं? बनी अब्दुल-अशल नबी करीम ﷺ के साथ ग़ज़वा-ए-उहुद के लिए रवाना हो चुके थे। जब उसे यह बात मालूम हुई तो अचानक उसने इस्लाम के लिए रग़बत महसूस की। उसने ज़िरह पहनी, अपने हथियार साथ लिए और मैदान-ए-जंग में पहुँच गया। फिर मुसलमानों की एक सफ़ में शामिल होकर काफ़िरों से जंग करने लगा। यहाँ तक कि लड़ते-लड़ते शदीद ज़ख़्मी हो गया।

जंग के बाद बनी अब्दुल-अशल के लोग अपने मक़तूलों को तलाश कर रहे थे कि असीरम पर नज़र पड़ी। उन्होंने उसे पहचान लिया… उसे मैदान-ए-जंग में ज़ख़्मों से चूर देख उसकी क़बीले के लोगों को बहुत हैरत हुई। उन्होंने पूछा:
“तुम यहाँ कैसे आ गए… क़ौमी जज़्बा ले आया या इस्लाम से रग़बत हो गई?”

असीरम ने जवाब दिया:
“मैं इस्लाम से रग़बत की बुनियाद पर शरीक हुआ हूँ। पहले अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाया फिर मैदान में आकर जंग की… यहाँ तक कि इस हालत में पहुँच गया।”

हज़रत अबू हुरैरा (रज़ि.) उनके बारे में कहा करते थे कि मुझे ऐसे शख़्स का नाम बताओ जिसने कभी नमाज़ नहीं पढ़ी मगर वह जन्नत में चला गया। उनका इशारा हज़रत असीरम (रज़ि.) की तरफ़ होता था।

हज़रत हन्ज़ला (रज़ि.) की शहादत

इस लड़ाई में हज़रत हन्ज़ला (रज़ि.) शहीद हुए। उहुद की लड़ाई से एक दिन पहले उनकी शादी हुई थी। दूसरी सुबह ही ग़ज़वा-ए-उहुद का एलान हो गया… ये ग़ुस्ल के बिना लश्कर में शामिल हो गए और उसी हालत में लड़ते-लड़ते शहीद हो गए। नबी अकरम ﷺ ने उनके बारे में इरशाद फ़रमाया:
“तुम्हारे साथी हन्ज़ला को फ़रिश्ते ग़ुस्ल दे रहे हैं।”

इसी बुनियाद पर हज़रत हन्ज़ला (रज़ि.) को “ग़सीलुल-मलाइका” कहा गया, यानी वह शख़्स जिन्हें फ़रिश्तों ने ग़ुस्ल दिया।

हज़रत अम्र बिन जमूह (रज़ि.) की बहादुरी

इसी ग़ज़वा में हज़रत अम्र बिन जमूह (रज़ि.) भी शहीद हुए। ये लंगड़े थे, इनके चार बेटे थे। जब ये जंग के इरादे से चलने लगे तो चारों बेटों ने इनसे कहा था:
“हम जा रहे हैं… आप न जाएँ।”

इस पर अम्र बिन जमूह (रज़ि.) हज़ूर नबी करीम ﷺ की ख़िदमत में हाज़िर हुए और बोले:
“अल्लाह के रसूल! मेरे बेटे मुझे जंग में जाने से रोक रहे हैं… मगर अल्लाह की क़सम! मेरी तमन्ना है कि मैं अपने लंगड़ेपन के साथ जन्नत में पहुँच जाऊँ।”

आप ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:
“तुम माज़ूर हो, लिहाज़ा तुम पर जिहाद फ़र्ज़ नहीं है।”

दूसरी तरफ़ आप ﷺ ने उनके बेटों से फ़रमाया:
“तुम्हें अपने बाप को जिहाद से रोकना नहीं चाहिए, मुमकिन है अल्लाह उन्हें शहादत नसीब फ़रमा दे।”

ये सुनते ही हज़रत अम्र बिन जमूह (रज़ि.) ने हथियार सँभाले और निकल पड़े। उन्होंने अल्लाह से दुआ की:
“ऐ अल्लाह! मुझे शहादत की नेअमत अता फ़रमा और घर वालों के पास ज़िंदा आने की रूसवाई से बचा।”

चुनांचे ये इसी जंग में शहीद हुए।

मुश्रिकीन का मदीना न लौटना

हज़ूर नबी करीम ﷺ ने हज़रत अली (रज़ि.) से फ़रमाया:
“दुश्मन के पीछे-पीछे जाओ और देखो, वे क्या करते हैं और क्या चाहते हैं? अगर वे लोग ऊँटों पर सवार हैं और घोड़ों को हाँकते हुए ले जा रहे हैं तो समझो वे मक्का जा रहे हैं। लेकिन अगर घोड़ों पर सवार हैं और ऊँटों को हाँक रहे हैं तो समझो वे मदीना जा रहे हैं। और क़सम है उस ज़ात की जिसके क़ब्ज़े में मेरी जान है अगर उन्होंने मदीना का रुख़ किया तो मैं हर क़ीमत पर मदीना पहुँचकर उनका मुक़ाबला करूँगा।”

हज़रत अली (रज़ि.) उनके पीछे रवाना हुए, आख़िर मालूम हुआ कि मशरिक़ीन ने मक्का जाने का इरादा कर लिया है। इस तरफ़ से इत्मिनान हो जाने के बाद मुसलमानों को अपने मक़तूलों की फ़िक्र हुई।

शहीद सहाबा के जिस्मों की तलाश

हज़ूर नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया:
“कोई सअद बिन रबी का हाल मालूम करके आए… मैंने उनके ऊपर तलवार चमकती देखी थी।”

इस पर कुछ सहाबा किराम उनके हालात मालूम करने के लिए जाने लगे। इस वक़्त हज़ूर नबी करीम ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:
“अगर तुम सअद बिन रबी को ज़िंदा पाओ तो उनसे मेरा सलाम कहना और उनसे कहना कि रसूलुल्लाह तुमसे तुम्हारा हाल पूछते हैं।”

एक अंसारी मुसलमान ने आख़िर हज़रत सअद बिन रबी (रज़ि.) को तलाश कर लिया। वे ज़ख़्मों से चूर-चूर थे, ताहम अभी जान बाक़ी थी…

उहुद के शहीदों की तदफीन

इन साहाबी ने फ़ौरन हज़रत सअद बिन रबीअ रज़ियल्लाहु अन्हु से कहा:
“रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम तुम्हारा हाल पूछते हैं, तुम ज़िन्दों में हो या मुर्दों में?”

हज़रत सअद बिन रबीअ रज़ियल्लाहु अन्हु ने कहा:
“मैं अब मुर्दों में हूँ। मेरे जिस्म पर نیزों के बारह ज़ख़्म लगे हैं, मैं उस वक़्त तक लड़ता रहा जब तक कि मुझमें ताक़त बाक़ी थी। अब तुम रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से मेरा सलाम अर्ज़ करना और कहना कि इब्ने रबीअ आप के लिए अर्ज़ करता था कि अल्लाह तआला आपको हमारी तरफ़ से वही बेहतरीन जज़ा अता फ़रमाए जो एक उम्मत की तरफ़ से उसके नबी को मिल सकती है।
निज़ मेरी क़ौम को भी मेरा सलाम पहुँचा देना और उनसे कहना कि सअद बिन रबीअ तुम से कहता है कि अगर ऐसी सूरत में तुमने दुश्मन को अल्लाह के नबी तक पहुँचने दिया कि तुम में से एक शख़्स भी ज़िन्दा है तो इस जुर्म के लिए अल्लाह के यहाँ तुम्हारा कोई उज्र क़ुबूल नहीं होगा।”

यह कहने के चंद लमहों बाद ही उनकी रूह निकल गई। वह अंसारी साहाबी इसके बाद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास हाज़िर हुए और सअद बिन रबीअ रज़ियल्लाहु अन्हु के बारे में बताया। तब आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उनके बारे में इरशाद फ़रमाया:
“अल्लाह तआला सअद पर रहमत फ़रमाए, उसने सिर्फ़ अल्लाह और रसूल के लिए ज़िन्दगी में भी और मरते वक़्त भी (दोनों हालात में) ख़ैरख़्वाही की है।”

हज़रत सअद बिन रबीअ रज़ियल्लाहु अन्हु की दो साहबज़ादियाँ थीं। उनकी एक साहबज़ादी हज़रत अबूबक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु की ख़िलाफ़त के ज़माने में एक मर्तबा उनसे मिलने के लिए आईं। आप ने उनके लिए चादर बिछा दी। ऐसे में हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु तशरीफ़ ले आए। उन्होंने हज़रत अबूबक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु से पूछा:
“यह ख़ातून कौन हैं?”

हज़रत अबूबक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु ने फ़रमाया:
“यह उस शख़्स की बेटी है जो मुझसे और तुमसे बेहतर था।”

हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने पूछा:
“ऐ ख़लीफ़ा-ए-रसूल! वह कौन शख़्स था?”

आप ने फ़रमाया:
“वह शख़्स वह था जो सबक़त करके जन्नत में पहुँच गया, मैं और तुम रह गए। यह सअद बिन रबीअ की साहबज़ादी हैं।”

हज़रत हम्ज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु की शहादत

इसके बाद नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अपने चचा हज़रत हम्ज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु की तलाश में निकले। उस वक़्त एक शख़्स ने अर्ज़ किया:
“मैंने उन्हें चट्टानों के क़रीब देखा है, वह उस वक़्त कह रहे थे, ‘मैं अल्लाह का शेर हूँ और उसके रसूल का शेर हूँ।'”

उसके बताने पर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम उन चट्टानों की तरफ़ चले जहाँ उस शख़्स ने हज़रत हम्ज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु को देखा था। आख़िरी वादी के दरमियान में हज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को अपने चचा की लाश नज़र आई। हालत यह थी कि उनका पेट चाक था और नाक-कान काट डाले गए थे। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के लिए यह मंज़र बहुत दर्दनाक था। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया:
“इस जैसा तकलीफ़देह मंज़र मैंने कभी नहीं देखा।”

फिर हज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम खूब रोए। हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु फ़रमाते हैं कि हमने आंहज़रत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को इतना रोते हुए कभी नहीं देखा जितना आप हम्ज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु की लाश पर रोए।

हज़रत सफ़िया रज़ियल्लाहु अन्हा का सब्र

इसके बाद नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हज़रत ज़ुबैर रज़ियल्लाहु अन्हु से फ़रमाया:
“अपनी वालिदा को इस तरफ़ न आने देना, वह प्यारे चचा की नअश देखने न पाएँ।”

हज़रत ज़ुबैर रज़ियल्लाहु अन्हु की वालिदा का नाम हज़रत सफ़िया रज़ियल्लाहु अन्हा था, वह हज़रत हम्ज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु की बहन थीं और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की फूफी थीं। हुक्म सुनते ही हज़रत ज़ुबैर रज़ियल्लाहु अन्हु मदीना मुनव्वरा के रास्ते पर पहुँच गए। इस तरफ़ से हज़रत सफ़िया रज़ियल्लाहु अन्हा चली आ रही थीं। वह उन्हें देखते ही बोलीं:
“बेटे! तुम मुझे क्यों रोक रहे हो?”

इस पर हज़रत ज़ुबैर रज़ियल्लाहु अन्हु ने अर्ज़ किया:
“अम्मी! आप वापस चली जाएँ।”

हज़रत सफ़िया रज़ियल्लाहु अन्हा ने बेटे के सीने पर हाथ मारा और फ़रमाया:
“क्यों चली जाऊँ? मुझे मालूम है कि मेरे भाई की लाश का मसलह किया गया है, मगर यह सब अल्लाह की राह में हुआ है, मैं इंशाअल्लाह सब्र का दामन नहीं छोड़ूँगी।”

उनका जवाब सुनकर हज़रत ज़ुबैर रज़ियल्लाहु अन्हु नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास आए और उनका जवाब आप को बताया। तब आप ने फ़रमाया:
“अच्छा! उन्हें आने दो।”

चुनांचे उन्होंने आकर भाई की लाश को देखा, “इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन” पढ़ा और उनकी मग़फिरत की दुआ की।

शुहदा-ए-उहुद की तदफीन

इसके बाद आंहज़रत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया:
“हम्ज़ा के लिए कफ़न का इंतज़ाम करो।”

हज़रत मुसअब बिन उमैर रज़ियल्लाहु अन्हु को भी कफ़न के लिए सिर्फ़ एक चादर मिली, जो इतनी छोटी थी कि सिर ढाँकते तो पाँव खुल जाते, पाँव ढाँकते तो सिर खुल जाता था। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया:
“सिर को चादर से ढाँक दो और पैरों पर घास डाल दो।”

बाक़ी शुहदा को भी इसी तरह कफ़न दिया गया। दो-दो, तीन-तीन शहीदों को एक ही क़ब्र में दफ़न किया गया।

फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने शुहदा पर नमाज़े जनाज़ा अदा फ़रमाई।

ग़ज़वा-ए-उहुद के शुहदा में हज़रत अब्दुल्लाह बिन जहश रज़ियल्लाहु अन्हु भी थे। उन्होंने एक दिन पहले दुआ की थी:
“ऐ अल्लाह! कल किसी बहुत ताक़तवर आदमी से मेरा मुक़ाबला हो, जो मुझे क़त्ल करे, फिर मेरी लाश का मसलह करे… फिर मैं क़यामत के दिन तेरे सामने हाज़िर हूँ, तो तू मुझसे पूछे: ‘ऐ अब्दुल्लाह! तेरी नाक और कान किस वजह से काटे गए?’ तो मैं कहूँ कि ‘तेरी और तेरे रसूल की इताअत की वजह से’, और उस वक़्त अल्लाह तआला फ़रमाए: ‘तूने सच कहा।'”

चुनांचे यह उस लड़ाई में शहीद हुए और उनकी लाश का मसलह किया गया। लड़ाई के दौरान उनकी तलवार टूट गई थी। तब हज़ूर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उन्हें खजूर की एक शाख अता फ़रमाई। वह उनके हाथ में जाते ही तलवार बन गई और वह इसी से लड़े।

इस जंग में हज़रत जाबिर रज़ियल्लाहु अन्हु के वालिद हज़रत अब्दुल्लाह बिन अम्र रज़ियल्लाहु अन्हु भी शहीद हुए थे। उनके चेहरे पर ज़ख़्म आया था। इस ज़ख़्म की वजह से जब उनका आख़िरी वक़्त आया तो उनका हाथ इस ज़ख़्म पर था। जब उनकी लाश उठाई गई और हाथ को ज़ख़्म पर से हटाया गया, तो ज़ख़्म से ख़ून जारी हो गया। इस पर उनका हाथ फिर ज़ख़्म पर रख दिया गया। ज्योंही हाथ रखा गया, ख़ून बंद हो गया।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अम्र और हज़रत अम्र बिन जमूह रज़ियल्लाहु अन्हुमा को एक ही क़ब्र में दफ़न किया गया था। काफ़ी मुद्दत बाद उहुद के मैदान में सैलाब आ गया, जिससे वह क़ब्र खुल गई… लोगों ने देखा कि उन दोनों की लाशों में ज़रा भी फ़र्क़ नहीं आया था… बिल्कुल तरोताज़ा थीं… यूँ लगता था जैसे अभी कल ही दफ़न की गई हों। हज़रत अब्दुल्लाह बिन अम्र रज़ियल्लाहु अन्हु का हाथ उसी तरह ज़ख़्म पर था… किसी ने उनका हाथ हटा दिया… हाथ हटाते ही ख़ून जारी हो गया, चुनांचे फिर ज़ख़्म पर रख दिया गया।

हज़रत अमीर मुआविया रज़ियल्लाहु अन्हु ने अपने दौर में मैदान-ए-उहुद से एक नहर खुदवाई। यह नहर शुहदा की क़ब्रों के दरमियान से निकाली गई, इस लिए उन्होंने लोगों को हुक्म दिया कि अपने-अपने मरहूमीन को इन क़ब्रों से निकालकर दूसरी जगह दफ़न कर दें। लोग रोते हुए वहाँ पहुँचे। उन्होंने क़ब्रों से लाशों को निकाला तो तमाम शुहदा की लाशें बिल्कुल तरोताज़ा थीं, नर्म, मुलायम थीं। उनके तमाम जोड़ नर्म थे। और यह वाक़िआ ग़ज़वा-ए-उहुद के चालीस साल बाद का है।

हज़रत हम्ज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु की लाश निकालने के लिए जब उनकी क़ब्र खोदी जा रही थी, तो उनके पाँव में कुदाल लग गई।

कुदाल का लगना था कि हज़रत हम्ज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु के पाँव से ख़ून जारी हो गया। गोया उनका जिस्म इस तरह तरोताज़ा था जैसे किसी ज़िंदा इंसान का होता है, यहाँ तक कि ख़ून भी ख़ुश्क नहीं हुआ था और ख़ून शिरयानों में इस तरह जारी था कि ज़रा-सी कुदाल लगते ही पैर से बह निकला।

दूसरी यह बात सामने आई कि उन लाशों से मुश्क जैसी महक आ रही थी… यह वाक़िआ ग़ज़वा-ए-उहुद के तक़रीबन पचास साल बाद का है, जबकि मदीना मुनव्वरा की मिट्टी इस क़दर शोर (नमक़ियात वाली) है कि पहली ही रात लाश में तब्दीली का अमल शुरू हो जाता है। मालूम हुआ, जिस तरह ज़मीन अंबिया के जिस्मों में कोई तब्दीली नहीं कर सकती, उसी तरह शुहदा के जिस्म भी सलामत रहते हैं।

इसी तरह हज़रत ख़ारिजा बिन ज़ैद रज़ियल्लाहु अन्हु और हज़रत सअद बिन अबी रबीअ रज़ियल्लाहु अन्हु को एक क़ब्र में दफ़न किया गया। ये उनके चचाज़ाद भाई थे। कुछ लोग अपने शुहदा को उहुद से मदीना मुनव्वरा ले गए थे, लेकिन हज़ूर अक़रम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हुक्म फ़रमाया कि उन्हें वापस लाया जाए और मैदान-ए-उहुद ही में दफ़न किया जाए।

शहीदों का मरतबा

फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने ग़ज़वा-ए-उहुद के शुहदा के बारे में फ़रमाया:
“मैं इन सब का गवाह हूँ… जो ज़ख़्म भी किसी को अल्लाह तआला के रास्ते में लगा है, अल्लाह तआला क़यामत के दिन उस ज़ख़्म को दोबारा उसी हाल में पैदा फ़रमाएँगे कि उसका रंग ख़ून के रंग का होगा और उसकी ख़ुशबू मुश्क जैसी होगी।”

ग़ज़वा-ए-उहुद में शहीद होने वाले सहाबा में हज़रत जाबिर रज़ियल्लाहु अन्हु के वालिद हज़रत अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हु भी थे। हुज़ूर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हज़रत जाबिर रज़ियल्लाहु अन्हु से फ़रमाया:
“ऐ जाबिर! क्या मैं तुम्हें एक बात न बता दूँ?… और वह यह कि जब भी अल्लाह तआला किसी शहीद से कलाम फ़रमाते हैं तो पर्दों में से कलाम फ़रमाते हैं, लेकिन इस ज़ात-ए-हक़ ने तुम्हारे वालिद से रूबरू कलाम फ़रमाया और फ़रमाया, मुझसे माँगो, मैं अता करूँगा।”

उन्होंने कहा: “ऐ बारी तआला! मुझे फिर दुनिया में लौटा दिया जाए ताकि वहाँ पहुँचकर मैं एक बार फिर तेरी राह में क़त्ल हो सकूँ।”

इस पर अल्लाह तआला ने फ़रमाया:
“यह मेरी आदत के ख़िलाफ़ है कि मर्दों को दोबारा दुनिया में लौटाऊँ।”

उन्होंने अर्ज़ किया:
“परवरदिगार! जो लोग मेरे पीछे दुनिया में बाक़ी हैं, उन तक यह बात पहुँचा दे कि यहाँ शुहदा को कैसे-कैसे इनआमात से नवाज़ा जाता है।”

इस पर अल्लाह तआला ने यह आयत नाज़िल फ़रमाई:
“और ऐ मुख़ातिब! जो लोग अल्लाह की राह में क़त्ल किए गए, उन्हें मुर्दा मत ख़याल करो, बल्कि वह लोग ज़िंदा हैं और अपने परवरदिगार के मुक़र्रब हैं। उन्हें रिज़्क़ भी मिलता है।”

हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम बनी दीनार की एक औरत के पास पहुँचे। इस औरत का शौहर, बाप और भाई इस ग़ज़वा में शहीद हुए थे। एक रिवायत के मुताबिक उनका बेटा भी शहीद हुआ था… जब लोगों ने उन्हें यह ख़बर सुनाई तो उन्होंने फ़ौरन पूछा:

“रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का क्या हाल है?”

लोगों ने बताया:
“अल्लाह का शुक्र है… आप ख़ैरियत से हैं।”

इस पर औरत ने कहा:
“मैं आपको अपनी आँखों से देख लूँ।”

फिर जब उन्होंने आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को आते देख लिया तो बोलीं:
“आप ख़ैरियत से हैं तो हर मुसीबत हीच है।” (यानी अब किसी ग़म की कोई अहमियत नहीं।)

करामात

ग़ज़वा-ए-उहुद में हज़रत क़तादा बिन नोमान रज़ियल्लाहु अन्हु की आँख में ज़ख़्म आ गया था… यहाँ तक कि आँख डीले से बाहर निकलकर लटक गई थी। लोगों ने उसे काट डालना चाहा और इस बारे में हुज़ूर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से पूछा।

आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया:
“काटो नहीं।”

फिर उन्हें अपने पास बुलाया और उनकी आँख अपने हाथ मुबारक में लेकर हथेली से उसकी जगह पर रख दी। फिर यह दुआ पढ़ी:
“ऐ अल्लाह! इनकी आँख को इनके हुस्न और ख़ूबसूरती का ज़रिया बना दे।”

चुनांचे यह दूसरी आँख से भी ज़्यादा ख़ूबसूरत और तेज़ हो गई… हज़रत क़तादा रज़ियल्लाहु अन्हु को कभी आँख की तकलीफ़ होती तो दूसरी में होती, इस आँख पर उस तकलीफ़ का कोई असर न होता।

एक और सहाबी की गर्दन में एक तीर आकर पीवस्त हो गया… वह फ़ौरन रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर हुए। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उनके ज़ख़्म पर अपना लुआब-ए-दहन लगा दिया। ज़ख़्म फ़ौरन ठीक हो गया।

ग़ज़वा-ए-उहुद का झंडा

ग़ज़वा-ए-उहुद में इस्लामी लश्कर का झंडा हज़रत मुसअब बिन उमैर रज़ियल्लाहु अन्हु के हाथ में था। जंग के दौरान उनका दायाँ हाथ कट गया तो उन्होंने झंडा बाएँ हाथ में पकड़ लिया। जब वह भी कट गया तो दोनों कटे हुए बाज़ुओं से झंडे को थाम लिया। इस वक़्त वह यह आयत तिलावत कर रहे थे:

“और मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अल्लाह के रसूल ही तो हैं, इस से पहले और भी बहुत रसूल गुज़र चुके।” (सूरह आले इमरान: आयत 144)

जब उन्होंने जंग के दौरान किसी को यह कहते सुना कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम क़त्ल कर दिए गए, तो ख़ुद ब ख़ुद उनकी ज़बान से यह अल्फ़ाज़ जारी हो गए।

इसके बाद हज़रत मुसअब बिन उमैर रज़ियल्लाहु अन्हु शहीद हो गए।

जंग का अंजाम

ग़र्ज़, जंग ख़त्म हुई और शुहदा को दफ़्न कर देने के बाद हुज़ूर अक़रम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मदीना की तरफ़ रवाना हुए। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इस वक़्त घोड़े पर सवार थे। आपने इस वक़्त शुहदा और उनके अज़ीज़ों के लिए यह दुआ फ़रमाई:

“ऐ अल्लाह! इनके दिलों से रंज और ग़म को मिटा दे, इनकी मुसीबतों को दूर फ़रमा दे और शहीदों के जानशीनों को उनका बेहतरीन जानशीन बना दे।”

मदीना पहुँचने पर नबी अक़रम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु की तलवार ख़ून आलूदा देख कर फ़रमाया:

“अगर तुमने जंग में बेहतर कारकरदगी का मुज़ाहिरा किया है तो फ़लाँ फ़लाँ ने भी ख़ूब जिहाद किया है।”

ग़ज़वा-ए-उहुद में तक़रीबन 70 मुसलमान शहीद हुए। मरने वाले मुशरिकों की तादाद मुख़्तलिफ़ बताई जाती है।

जब अल्लाह के रसूल मदीना मुनव्वरा पहुँचे तो मुसलमानों की शिकस्त पर मुनाफ़िक़ों और यहूदियों की ज़बानें खुल गईं। वह खुले आम मुसलमानों को बुरा कहने लगे, ख़ुशी से बग़लें बजाने लगे।

ग़ज़वा-ए-उहुद के दूसरे ही रोज़, सुबह-सवेरे नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का क़ासिद मदीना मुनव्वरा में यह ऐलान कर रहा था:
“मुसलमानो! क़ुरैश का ताअक़ुब करने के लिए तैयार हो जाओ।”

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