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jung e badr | prophet muhammad history in hindi part 34

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Jung E Badr | Prophet Muhammad History in Hindi Part 34

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Seerat e Mustafa Qist 34
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जंग-ए-बदर

पिछले भाग में आप पढ़ चुके हैं कि क़ुरैश के एक तिजारती क़ाफ़िले पर हमले की ग़रज़ से आप ﷺ रवाना हुए थे, लेकिन जब आप ﷺ उशीरा के मुक़ाम पर पहुँचे तो क़ाफ़िला उस मुक़ाम से गुज़रकर शाम की तरफ़ रवाना हो चुका था… चुनांचे आप ﷺ वापस तशरीफ़ ले आए थे। फिर जब आप ﷺ को इत्तिला मिली कि वह क़ाफ़िला शाम से वापस आ रहा है और इस सामान-ए-तिजारत का मुनाफ़ा मुसलमानों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल होगा, इस लिए आप ﷺ ने हुक्म दिया:

“क़ुरैश का तिजारती क़ाफ़िला आ रहा है, इसमें उनका माल व दौलत है। तुम इस पर हमला करने के लिए बढ़ो। मुमकिन है, अल्लाह तुम्हें इससे फ़ायदा दे।”

उधर इस क़ाफ़िले के सरदार अबू सुफ़ियान रज़ियल्लाहु अन्हु थे… ये क़ुरैश के भी सरदार थे।
(इस वक़्त तक ईमान नहीं लाए थे, फ़तह-ए-मक्का के मौक़े पर ईमान लाए।) इनकी आदत थी कि जब इनका क़ाफ़िला हिजाज़ की सरज़मीन पर पहुँचता तो जासूसों को भेजकर रास्ते की ख़बरें मालूम कर लेते थे।

इन्हें आप ﷺ का ख़ौफ़ भी था, चुनांचे इनके जासूस ने बताया कि आँहज़रात ﷺ इस तिजारती क़ाफ़िले को घेरने के लिए रवाना हो चुके हैं। यह सुनकर अबू सुफ़ियान रज़ियल्लाहु अन्हु ख़ौफ़ज़दा हो गए। उन्होंने फ़ौरन एक शख़्स को मक्का की तरफ़ रवाना किया और साथ ही उसे ये हिदायत दी:

“तुम अपने ऊँट के कान काट दो, कजावा उलट दो, अपनी क़मीस का अगला और पिछला दामन फाड़ दो, इसी हालत में मक्का में दाख़िल होना। उन्हें बताना कि मुहम्मद ﷺ अपने असहाब के साथ उनके क़ाफ़िले पर हमला करने वाले हैं।”

ऐसा इस लिए किया ताकि मुशरिकीन जल्द मदद को आ जाएँ।
वह शख़्स बहुत तेज़ी से रवाना हुआ। अब अभी यह मक्का पहुँचा नहीं था कि वहाँ आतिका बिन्त अब्दुल मुत्तलिब ने एक ख़्वाब देखा। हज़ूर नबी करीम ﷺ की फूफी थीं।

ख़्वाब बहुत ख़ौफ़नाक था, यह डर गईं। उन्होंने हज़रत अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु को अपना ख़्वाब सुनाया… लेकिन इस शर्त पर सुनाया कि वह किसी और को नहीं सुनाएँगे। उन्होंने पूछा:

“अच्छा ठीक है… तुम ख़्वाब सुनाओ, तुमने क्या देखा है?”
आतिका बिन्त अब्दुल मुत्तलिब ने कहा:

“मैंने ख़्वाब देखा कि एक शख़्स ऊँट पर सवार चला आ रहा है… यहाँ तक कि वह अबतह के पास आकर रुका। (अबतह मक्का मुअज़्ज़मा से कुछ फ़ासले पर है।) वहाँ खड़े होकर उसने पूरी आवाज़ से पुकार-पुकार कर कहा: ‘लोगो! तीन दिन के अंदर-अंदर अपनी क़त्लगाहों में चलने के लिए तैयार हो जाओ।’ फिर मैंने देखा कि लोग उसके गिर्द जमा हो गए हैं। फिर वह वहाँ से चलकर बैतुल्लाह में दाख़िल हुआ। लोग उसके पीछे-पीछे चले आ रहे थे। फिर वह शख़्स ऊँट समेत काबा की छत पर नज़र आया। वहाँ भी उसने पुकार कर ये अल्फ़ाज़ कहे। इसके बाद वह अबूक़बीस के पहाड़ पर चढ़ गया। वहाँ भी उसने पुकार कर ये अल्फ़ाज़ कहे। फिर उसने एक पत्थर उठाकर लुढ़काया। पत्थर वहाँ से लुढ़कता पहाड़ के दामन में पहुँचा तो अचानक टूटकर टुकड़े-टुकड़े हो गया। फिर मक्का के घरों में से कोई घर न बचा जहाँ उसके टुकड़े न पहुँचे हों।”

ये ख़्वाब सुनकर हज़रत अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु ने कहा:
“अल्लाह की क़सम, आतिका! तुमने बहुत अजीब ख़्वाब देखा है… तुम ख़ुद भी इसका तज़किरा किसी से न करना।”

हज़रत अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु वहाँ से निकले तो रास्ते में उन्हें वलीद बिन उ़त्बा मिला। ये उनका दोस्त था। अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु ने ख़्वाब इससे बयान कर दिया और वादा लिया कि किसी को बताएगा नहीं। वलीद ने जाकर ये ख़्वाब अपने बेटे उ़त्बा को सुना दिया। इस तरह ये ख़्वाब आगे ही आगे चलता रहा, यहाँ तक कि हर तरफ़ आम हो गया। मक्का में इस ख़्वाब पर ज़ोर-शोर से तज़किरा होने लगा। आख़िर तीन दिन बाद वह शख़्स ऊँट पर सवार मक्का में दाख़िल हुआ जिसे हज़रत अबू सुफ़ियान रज़ियल्लाहु अन्हु ने भेजा था। वह मक्का की वादी के दरमियान में पहुँचकर ऊँट पर खड़ा हो गया और पुकारा:

“ऐ क़ुरैश! अपने तिजारती क़ाफ़िले की ख़बर लो। तुम्हारा जो माल व दौलत अबू सुफ़ियान लेकर आ रहे हैं, उस पर मुहम्मद ﷺ हमला करने वाले हैं… जल्दी मदद को पहुँचो।”

इस तिजारती क़ाफ़िले में सारे क़ुरैशियों का माल लगा हुआ था, चुनांचे सब के सब जंग की तैयारी करने लगे। जो मालदार थे, उन्होंने ग़रीबों की मदद की ताकि ज़्यादा से ज़्यादा अफ़राद जंग के लिए जाएँ। जो बड़े सरदार थे, वे लोगों को जंग पर उभारने लगे। एक सरदार सुहैल बिन अम्र ने अपनी तक़रीर में कहा:

“ऐ क़ुरैशियो! क्या ये बात तुम बर्दाश्त कर लोगे कि मुहम्मद ﷺ और उनके बेदीन साथी तुम्हारे माल और दौलत पर क़ब्ज़ा कर लें? लिहाज़ा जंग के लिए निकलो… जिसके पास माल कम हो, उसके लिए मेरा माल हाज़िर है।”

इस तरह सब सरदार तैयार हुए, लेकिन अबू लहब ने कोई तैयारी न की। वह आतिका के ख़्वाब की वजह से ख़ौफ़ज़दा हो गया था। वह कहता था:
“आतिका का ख़्वाब बिल्कुल सच्चा है, और इसी तरह ज़ाहिर होगा।”

अबू लहब ख़ुद नहीं गया, लेकिन उसने अपनी जगह आस बिन हिशाम को चार हज़ार दिरहम देकर जंग के लिए तैयार किया, यानी वह उसकी तरफ़ से चला जाए।

उधर ख़ूब तैयारियाँ हो रही थीं, इधर आँहज़रात ﷺ मदीना मुनव्वरा से रवाना हुए। मदीना से बाहर ‘बिर्र-ए-उ़तबा’ नामी कुएँ के पास लश्कर को पड़ाव का हुक्म फ़रमाया। आप ﷺ ने सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम को इस कुएँ से पानी पीने का हुक्म दिया और ख़ुद भी पिया। यहीं आप ﷺ ने हुक्म फ़रमाया:
“मुसलमानों को गिन लिया जाए।”

सब को गिना गया, आप ﷺ ने सब का मुआयना भी फ़रमाया। जो कम उम्र थे, उन्हें वापस फ़रमा दिया। वापस किए जाने वालों में हज़रत उसामा बिन ज़ैद, राफ़े़ बिन खदीजा, बरा बिन आज़िब, उसैद बिन ज़हैर, ज़ैद बिन अरक़म और ज़ैद बिन साबित रज़ियल्लाहु अन्हुम शामिल थे।

जब उन्हें वापस चले जाने का हुक्म हुआ तो उमैर बिन अबू वक़्क़ास रज़ियल्लाहु अन्हु रोने लगे। आख़िर आप ﷺ ने उन्हें इजाज़त दे दी, चुनांचे वह जंग में शरीक हुए। उस वक़्त उनकी उम्र 16 साल थी।

बद्र की तरफ रवानगी

रौहा के मक़ाम पर आप ﷺ ने लश्कर को गिनने का हुक्म दिया। गिनने पर मालूम हुआ कि मुजाहिदीन की तादाद 313 है। आप ﷺ यह सुनकर खुश हुए और फरमाया:
“यह वही तादाद है जो तालूत के साथियों की थी, जो उनके साथ नहर तक पहुंचे थे।” (तालूत बनी इसराईल के एक नेक मुजाहिद बादशाह थे, उनकी कियादत में 313 मुसलमानों ने जालूत नामी काफ़िर बादशाह की फौज को शिकस्त दी थी।)

लश्कर में घोड़ों की तादाद सिर्फ पांच थी। ऊंट सत्तर के करीब थे। इसलिए एक-एक ऊंट तीन-तीन या चार-चार आदमियों के हिस्से में दिया गया।

आप ﷺ के हिस्से में जो ऊंट आया, उसमें दो और साथी भी शरीक थे। आप ﷺ भी उस ऊंट पर अपनी बारी के हिसाब से सवार होते और साथियों की बारी पर उन्हें सवार होने का हुक्म फरमाते… हालांकि वे अपनी बारी भी आप ﷺ को देने की ख्वाहिश जाहिर करते… वे कहते:
“ऐ अल्लाह के रसूल! आप सवार रहें… हम पैदल चल लेंगे।”

जवाब में आप ﷺ फरमाते:
“तुम दोनों पैदल चलने में मुझसे ज्यादा मजबूत नहीं हो और न मैं तुम्हारे मुकाबले में उसकी रहमत से बेनियाज़ हूं।” (यानी मैं भी तुम दोनों की तरह अज्र का ख्वाहिशमंद हूं।)

रौहा के मक़ाम पर एक ऊंट थक कर बैठ गया। आप ﷺ पास से गुजरे तो पता चला कि ऊंट थक कर बैठ गया है और उठ नहीं रहा। आप ﷺ ने कुछ पानी लिया, उससे कुल्ली की, कुल्ली वाला पानी ऊंट वाले के बरतन में डाला और उसके मुंह में डाल दिया। ऊंट फौरन उठ खड़ा हुआ और फिर इस कदर तेज चला कि लश्कर के साथ जा मिला। उस पर थकावट के कोई आसार बाकी न रहे।

इस ग़ज़वे के मौके पर हज़रत उस्मान रज़ियल्लाहु अन्हु को आप ﷺ ने मदीना मुनव्वरा ही में ठहरने का हुक्म फरमाया, वजह इसकी यह थी कि उनकी ज़ौजा मोहतरमा और आप ﷺ की बेटी सैयदा रुक़य्या रज़ियल्लाहु अन्हा बीमार थीं। आप ﷺ ने हज़रत उस्मान रज़ियल्लाहु अन्हु से फरमाया:
“तुम्हें यहां ठहरने का भी अज्र मिलेगा और जिहाद करने का अज्र भी मिलेगा।”

इस मौके पर आप ﷺ ने मदीना मुनव्वरा में हज़रत अबू लुबाबा रज़ियल्लाहु अन्हु को अपना क़ायम मक़ाम बनाया।

तल्हा बिन उबैद और सईद बिन ज़ैद रज़ियल्लाहु अन्हुमा को जासूसी की जिम्मेदारी सौंपी ताकि ये दोनों लश्कर से आगे जाकर क़ुरैश के तिजारती काफ़िले की खबर लाएं। नबी करीम ﷺ ने उन्हें मदीना मुनव्वरा से ही रवाना फरमा दिया था।

रौहा के मक़ाम से इस्लामी लश्कर आगे रवाना हुआ। अर्क ज़बीया के मक़ाम पर एक देहाती मिला। उससे दुश्मन के बारे में कुछ मालूम न हो सका। अब लश्कर फिर आगे बढ़ा। इस तरह इस्लामी लश्कर ज़फरान की वादी तक पहुंच गया। इस जगह आप ﷺ को इत्तिला मिली कि क़ुरैश मक्का एक लश्कर लेकर अपने काफ़िले को बचाने के लिए मक्का से कूच कर चुके हैं।

आप ﷺ ने यह इत्तिला मिलने पर तमाम लश्कर को एक जगह जमा फरमाया और उनसे मशवरा किया क्योंकि मदीना मुनव्वरा से मुसलमान सिर्फ एक तिजारती काफ़िले को रोकने के लिए रवाना हुए थे… किसी बाकायदा लश्कर के मुकाबले के लिए नहीं निकले थे… इस पर सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम ने बारी-बारी अपनी राय दी…

हज़रत मक़दाद रज़ियल्लाहु अन्हु ने अर्ज़ किया:
“ऐ अल्लाह के रसूल! आपको अल्लाह तआला ने हुक्म फरमाया है, उसके मुताबिक अमल फरमाइए, हम आपके साथ हैं। अल्लाह की क़सम! हम इस तरह नहीं कहेंगे जिस तरह मूसा अलैहिस्सलाम को बनी इसराईल ने कहा था कि आप और आपका रब जाकर लड़ लीजिए, हम तो यहीं बैठे हैं… बल्कि हम तो यह कहते हैं कि हम आपके साथ हैं, हम आपके आगे-पीछे और दाएं-बाएं लड़ेंगे, आख़िर दम तक लड़ेंगे।”

हज़रत मक़दाद रज़ियल्लाहु अन्हु की तक़रीर सुनकर आप ﷺ का चेहरा खुशी से चमकने लगा। आप ﷺ मुस्कुराने लगे। हज़रत मक़दाद रज़ियल्लाहु अन्हु को दुआ दी।

हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ और हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा ने भी तक़रीरें कीं… उनकी तक़रीरों के बाद नबी करीम ﷺ ने अंसारी हज़रात की तरफ देखा, क्योंकि अभी तक उनमें से कोई खड़ा नहीं हुआ था। अब अंसारी भी आप ﷺ का इशारा समझ गए, चुनांचे हज़रत सअद बिन मुआज़ रज़ियल्लाहु अन्हु उठे और अर्ज़ किया…
“ऐ अल्लाह के रसूल! शायद आपका इशारा हमारी तरफ है… तो अर्ज़ है कि हम ईमान ला चुके हैं, आपकी तस्दीक कर चुके हैं और गवाही दे चुके हैं, हम हर हाल में आपका हुक्म मानेंगे, फरमांबरदारी करेंगे।”

उनकी तक़रीर सुनकर आप ﷺ के चेहरे पर खुशी के आसार ज़ाहिर हुए, चुनांचे आप ﷺ ने फरमाया:
“अब उठो, कूच करो, तुम्हारे लिए खुशखबरी है, अल्लाह तआला ने मुझसे वादा फरमाया है कि वह हमें फतह देगा।”

ज़फरान की वादी से रवाना होकर आप ﷺ बद्र के मक़ाम पर पहुंचे। इस वक्त तक क़ुरैशी लश्कर भी बद्र के करीब पहुंच चुका था। आप ﷺ ने हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु को क़ुरैश के लश्कर की खबरें मालूम करने के लिए भेजा। उन्हें दो माशकी (पानी भरने वाले) मिले… वे क़ुरैशी लश्कर के माशकी थे। इन दोनों से लश्कर के बारे में काफी मालूमात हासिल हुईं… उन्होंने लश्कर में शामिल बड़े-बड़े सरदारों के नाम भी बता दिए… इस पर हुज़ूर नबी करीम ﷺ ने अपने सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम से फरमाया:
“मक्का ने अपना दिल और जिगर निकाल कर तुम्हारे मुकाबले के लिए भेजे हैं।”
यानी अपने तमाम मुअज़्ज़ज़ और बड़े-बड़े लोग भेज दिए हैं।

इस दौरान अबू सुफ़ियान रज़ियल्लाहु अन्हु काफ़िले का रास्ता बदल चुके थे और इस तरह उनका काफ़िला बच गया… जबकि इस काफ़िले को बचाने के लिए जो लश्कर आया था, उससे इस्लामी लश्कर का आमना-सामना हो गया। उधर अबू सुफ़ियान रज़ियल्लाहु अन्हु ने जब देखा कि काफ़िला तो अब बच गया है, तो उन्होंने अबू जहल को पैग़ाम भेजा कि वापस मक्का की तरफ लौट चलो… क्योंकि हम इस्लामी लश्कर से बचकर निकल आए हैं, लेकिन अबू जहल ने वापस जाने से इनकार कर दिया।

क़ुरैशी लश्कर ने बद्र के मक़ाम पर उस जगह पड़ाव डाला, जहां पानी नज़दीक था। दूसरी तरफ इस्लामी लश्कर ने जिस जगह पड़ाव डाला, पानी वहां से फासले पर था। इससे मुसलमानों को परेशानी हुई। तब अल्लाह तआला ने वहां बारिश बरसा दी और उनकी पानी की तकलीफ रफा हो गई। जबकि इसी बारिश की वजह से काफ़िर परेशान हुए। वे अपने पड़ाव से निकलने के काबिल न रहे… मतलब यह कि बारिश मुसलमानों के लिए रहमत और काफ़िरों के लिए ज़हमत साबित हुई।

सुबह हुई तो अल्लाह के रसूल ﷺ ने ऐलान फरमाया:
“लोगो! नमाज़ के लिए तैयार हो जाओ।”
चुनांचे सुबह की नमाज़ अदा की गई… फिर जब आप ﷺ ने सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम को ख़ुत्बा दिया, आप ﷺ ने इरशाद फरमाया:
“मैं तुम्हें ऐसी बात के लिए उभारता हूं, जिसके लिए तुम्हें अल्लाह ने उभारा है। तंगी और सख़्ती के मौकों पर सब्र करने से अल्लाह तआला तमाम तकलीफों से बचा लेता है और तमाम ग़मों से निजात अता फरमाता है।”

अब आप ﷺ लश्कर को लेकर आगे बढ़े… और क़ुरैश से पहले पानी के करीब पहुंच गए। मक़ाम बद्र पर पानी का एक चश्मा था। आपको वहां रुकते देखकर हज़रत ख़ब्बाब रज़ियल्लाहु अन्हु ने अर्ज़ किया:
“ऐ अल्लाह के रसूल! क़याम के लिए यह जगह मुनासिब नहीं है, मैं इस इलाके से अच्छी तरह वाक़िफ़ हूं… आप वहां पड़ाव डालें जो दुश्मन के पानी से क़रीब तरीन हो। हम वहां एक हौज़ बनाकर पानी उसमें जमा कर लेंगे। इस तरह हमारे पास पीने का पानी होगा… हम पानी के दूसरे गढ़े और चश्मे पाट देंगे, इस तरह दुश्मन को पानी नहीं मिलेगा।”

आप ﷺ ने उनकी राय को बहुत पसंद फ़रमाया… एक रिवायत के मुताबिक़ उसी वक्त हज़रत जिब्रील अलैहिस्सलाम अल्लाह तआला का पैग़ाम लाए और बताया कि हज़रत ख़ब्बाब रज़ियल्लाहु अन्हु की राय बहुत उम्दा है।

इस राय के बाद आप ﷺ लश्कर को लेकर आगे बढ़े और उस चश्मे पर आ गए जो उस जगह से क़रीब तरीन था जहां क़ुरैश ने पड़ाव डाला था। मुसलमानों ने यहां क़याम किया और आप ﷺ ने उन्हें दूसरे गढ़े भरने का हुक्म दिया।

फिर नबी करीम ﷺ ने उस कच्चे कुएं पर एक हौज़ बनवाया, जहां इस्लामी लश्कर ने पड़ाव डाला था। आप ﷺ ने उसमें पानी भरवा दिया और डोल डलवा दिए। इस तरह हज़रत ख़ब्बाब रज़ियल्लाहु अन्हु के मशवरे पर अमल हुआ। इसके बाद से हज़रत ख़ब्बाब रज़ियल्लाहु अन्हु को ज़ी राय कहा जाने लगा था।

इस मौके पर हज़रत सअद बिन मुआज़ रज़ियल्लाहु अन्हु ने आप ﷺ से अर्ज़ किया:
“ऐ अल्लाह के रसूल! क्यों न हम आपके लिए एक अरीश बना दें?” (अरीश खजूर की शाखाओं और पत्तों का एक सायबान होता है) “आप इसमें तशरीफ रखें, इसके पास आपकी सवारियां तैयार रहें और हम दुश्मन से जाकर मुकाबला करें।”

नबी अक़रम ﷺ ने उनका मशवरा क़बूल फरमाया। चुनांचे आपके लिए सायबान बनाया गया। यह एक ऊंचे टीले पर बनाया गया था। इस जगह से आप ﷺ पूरे मैदान-ए-जंग का मुआइना फ़रमा सकते थे। हुज़ूर अक़रम ﷺ ने वहीं क़याम फ़रमाया। सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम ने पूछा:
“आपके साथ यहां कौन रहेगा ताकि मुश्रिकों में से कोई भी आपके करीब न आ सके?”

हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं:
“अल्लाह की क़सम! यह सुनकर हम में से अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु आगे बढ़े और अपनी तलवार का साया आप ﷺ के सर पर करते हुए बोले:
‘जो शख़्स भी आपकी तरफ बढ़ने की जुर्रत करेगा, उसे पहले इस तलवार से निपटना पड़ेगा।'”

हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु के इन जुर्रतमंदाना अल्फ़ाज़ की बुनियाद पर हुज़ूर ﷺ ने उन्हें सबसे बहादुर शख़्स क़रार दिया।

मैदान ए बदर में

यह बात जंग शुरू होने से पहले की है। जब जंग शुरू हुई तो ख़ुद हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु भी उस सायबान के दरवाजे पर खड़े थे और हज़रत सअद बिन मुआज़ रज़ियल्लाहु अन्हु भी अंसारी सहाबा के एक दस्ता के साथ वहां मौजूद थे। और हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु अंदर आप ﷺ की हिफ़ाज़त पर मामूर थे।

इस तरह सुबह हुई, फिर क़ुरैशी लश्कर रेत के टीले के पीछे से नमूदार हुआ। इससे पहले हुज़ूर अक़रम ﷺ ने कुछ मुश्रिकों के नाम ले-लेकर फरमाया कि “फ़लां इस जगह क़त्ल होगा, फ़लां इस जगह क़त्ल होगा।”

हज़रत अनस बिन मालिक रज़ियल्लाहु अन्हु फ़रमाते हैं कि जिन लोगों के नाम लेकर हुज़ूर अक़रम ﷺ ने फरमाया था कि “इस जगह क़त्ल होगा,” वे बिल्कुल वहीं क़त्ल हुए, एक इंच भी इधर-उधर पड़े नहीं पाए गए।

हुज़ूर नबी करीम ﷺ ने जब देखा कि क़ुरैश का लश्कर लोहे का लिबास पहने हुए और हथियारों से ख़ूब लैस होकर बढ़ा चला आ रहा है, तो अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त से यूं दुआ फ़रमाई:
“ऐ अल्लाह! यह क़ुरैश के लोग, यह तेरे दुश्मन अपने तमाम बहादरों के साथ बड़े घमंड के आलम में तुझसे जंग करने (यानी तेरे अहकामात की मुख़ालफ़त करने) और तेरे रसूल को झुटलाने के लिए आए हैं। ऐ अल्लाह! तूने मुझसे अपनी मदद और नुसरत का वादा फरमाया है, लिहाजा वह मदद भेज दे। ऐ अल्लाह! तूने मुझ पर किताब नाज़िल फरमाई है और मुझे साबित क़दम रहने का हुक्म फरमाया है। मुश्रिकों के इस लश्कर पर हमें ग़लबा अता फ़रमा। ऐ अल्लाह! उन्हें आज हलाक कर दे।”

एक और रिवायत में आप ﷺ की दुआ में यह अल्फ़ाज़ भी आए हैं:
“ऐ अल्लाह! इस उम्मत के फिरऔन अबू जहल को कहीं पनाह न दे, ठिकाना न दे।”

ग़रज़, जब क़ुरैशी लश्कर ठहर गया तो उन्होंने उमैर बिन वहब जहमी रज़ियल्लाहु अन्हु को जासूसी के लिए भेजा। यह उमैर बिन वहब रज़ियल्लाहु अन्हु बाद में मुसलमान हो गए थे और बहुत अच्छे मुसलमान साबित हुए थे। आप ﷺ के साथ ग़ज़वा-ए-उहद में शरीक हुए।

क़ुरैश ने उमैर रज़ियल्लाहु अन्हु से कहा:
“जाकर मुहम्मद के लश्कर की तादाद मालूम करो और हमें खबर दो।”

उमैर रज़ियल्लाहु अन्हु अपने घोड़े पर सवार होकर निकले। उन्होंने इस्लामी लश्कर के गिर्द एक चक्कर लगाया। फिर वापस क़ुरैश के पास आए और यह खबर दी…
“इनकी तादाद तक़रीबन तीन सौ है। मुमकिन है कुछ ज़्यादा हों… मगर ऐ क़ुरैश! मैंने देखा है कि इन लोगों को लौटकर अपने घरों में जाने की कोई तमन्ना नहीं और मैं समझता हूँ कि इन में से कोई आदमी उस वक़्त तक नहीं मारा जाएगा जब तक कि किसी को क़त्ल न कर दे। गोया तुम्हारे भी उतने ही आदमी मारे जाएँगे… जितने कि इनके… उसके बाद फिर ज़िंदगी का क्या मज़ा रह जाएगा? इसलिए जंग शुरू करने से पहले इस बारे में ग़ौर कर लो।”

इनकी बात सुनकर कुछ लोगों ने अबू जहल से कहा:
“जंग के इरादे से बाज़ आ जाओ और वापस चलो, भलाई इसी में है।”

जंग की शुरुआत

वापस चलने का मशवरा देने वालों में हकीम बिन हिज़ाम रज़ियल्लाहु अन्हु भी थे। अबू जहल ने उनकी बात न मानी और जंग पर अड़ा रहा और जो लोग वापस चलने की कह रहे थे, उन्हें बुज़दिली का ताना दिया। इस तरह जंग टल न सकी।

अभी जंग शुरू नहीं हुई थी कि असवद मख़ज़ूमी ने क़ुरैश के सामने एलान किया:
“मैं अल्लाह के सामने अहद करता हूँ कि या तो मुसलमानों के बनाए हुए हौज़ से पानी पिऊँगा… या उसे तोड़ दूँगा या फिर इस कोशिश में जान दे दूँगा।”

फिर यह असवद मैदान में निकला। हज़रत हम्ज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु उसके मुक़ाबले में आए। हज़रत हम्ज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु ने उस पर तलवार का वार किया, उसकी पिंडली कट गई। उस वक़्त यह हौज़ के क़रीब था। टाँग कट जाने के बाद यह ज़मीन पर चित गिरा, खून तेज़ी से बह रहा था। इस हालत में यह हौज़ की तरफ़ सरका और हौज़ से पानी पीने लगा। हज़रत हम्ज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु फ़ौरन उसकी तरफ़ लपके और दूसरा वार करके उसका काम तमाम कर दिया।

इसके बाद क़ुरैश के कुछ और लोग हौज़ की तरफ़ बढ़े। इनमें हज़रत हकीम बिन हिज़ाम रज़ियल्लाहु अन्हु भी थे। हुज़ूर नबी करीम ﷺ ने उन्हें आते देखकर फ़रमाया:
“इन्हें आने दो, आज के दिन इनमें से जो भी हौज़ से पानी पी लेगा, वह यहीं कुफ़्र की हालत में क़त्ल होगा।”

हज़रत हकीम बिन हिज़ाम रज़ियल्लाहु अन्हु ने पानी नहीं पिया। ये क़त्ल होने से बच गए और बाद में इस्लाम लाए, बहुत अच्छे मुसलमान साबित हुए।

अब सबसे पहले उत्बा, उसका भाई शैबा और बेटा वलीद मैदान में आगे निकले और ललकारे:
“हमसे मुक़ाबले के लिए कौन आता है?”

इस ललकार पर मुसलमानों में से तीन अंसारी नौजवान निकले। ये तीनों भाई थे। इनके नाम मुअव्विज़, मुआज़ और औफ़ रज़ियल्लाहु अन्हुम थे। इनके वालिद का नाम अफ़रा था। इन तीनों नौजवानों को देखकर उत्बा ने पूछा:
“तुम कौन हो?”

उन्होंने जवाब दिया:
“हम अंसारी हैं।”

इस पर उत्बा ने कहा:
“तुम हमारे बराबर के नहीं… हमारे मुक़ाबले में मुहाजिरीन में से किसी को भेजो, हम अपनी क़ौम के आदमियों से मुक़ाबला करेंगे।”

इस पर नबी करीम ﷺ ने उन्हें वापस आने का हुक्म फ़रमाया। ये तीनों अपनी सफों में वापस आ गए। आप ﷺ ने उनकी तारीफ़ फ़रमाई और उन्हें शाबाशी दी।

अब आप ﷺ ने हुक्म फ़रमाया:
“ऐ उबैदा बिन हारिस, उठो! ऐ हम्ज़ा, उठो! ऐ अली, उठो!”

ये तीनों फ़ौरन अपनी सफों में से निकलकर उन तीनों के सामने पहुँच गए। इनमें उबैदा बिन हारिस रज़ियल्लाहु अन्हु ज़्यादा उम्र के थे, बूढ़े थे। इनका मुक़ाबला उत्बा बिन रबीअह से हुआ। हज़रत हम्ज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु का मुक़ाबला शैबा से, और हज़रत अली का मुक़ाबला वलीद से हुआ।

हज़रत हम्ज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु ने शैबा को वार करने का मौक़ा न दिया और एक ही वार में उसका काम तमाम कर दिया। इसी तरह हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु ने एक ही वार में वलीद का काम तमाम कर दिया। अलबत्ता उबैदा बिन हारिस रज़ियल्लाहु अन्हु और उत्बा के दरमियान तलवारों के वार शुरू हो गए…
तलवारों के साए में

दोनों के दरमियान कुछ देर तक तलवारों के वार होते रहे, यहाँ तक कि दोनों ज़ख़्मी हो गए। उस वक़्त तक हज़रत हम्ज़ा और हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हुमा अपने-अपने दुश्मन (मुक़ाबले के) का सफ़ाया कर चुके थे। लिहाज़ा, वे दोनों उनकी तरफ़ बढ़े और उत्बा को ख़त्म कर दिया। फिर ज़ख़्मी उबैदा बिन हारिस रज़ियल्लाहु अन्हु को उठाकर लश्कर में ले आए। उन्हें आप ﷺ के पास लिटा दिया गया। उन्होंने पूछा:
“ऐ अल्लाह के रसूल! क्या मैं शहीद नहीं हूँ?”
आप ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:
“मैं गवाही देता हूँ कि तुम शहीद हो।”

इसके बाद सफ़रा के मक़ाम पर हज़रत उबैदा बिन हारिस रज़ियल्लाहु अन्हु का इंतिक़ाल हो गया। उन्हें वहीं दफ़्न किया गया, जब कि हुज़ूर ﷺ ग़ज़वा-ए-बद्र से फ़ारिग़ होकर मदीना मुनव्वरा की तरफ़ लौट रहे थे।

एक सहाबी का हुज़ूर से बदला लेना

जंग से पहले हुज़ूर नबी करीम ﷺ ने सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम की सफ़ों को एक नेज़े के ज़रिए सीधा किया था। सफ़ों को सीधा करते हुए हज़रत सुवाद बिन ग़ज़िया रज़ियल्लाहु अन्हु के पास से गुज़रे। ये सफ़ से क़दरे आगे बढ़े हुए थे। हुज़ूर अक़रम ﷺ ने एक तीर से उनके पेट को छुआ और फ़रमाया:
“सुवाद! सफ़ से आगे न निकलो, सीधे खड़े हो जाओ।”

इस पर हज़रत सुवाद रज़ियल्लाहु अन्हु ने अर्ज़ किया:
“अल्लाह के रसूल! आपने मुझे इस तीर से तकलीफ़ पहुँचाई। आपको अल्लाह तआला ने हक़ और इंसाफ़ देकर भेजा है, लिहाज़ा मुझे बदला दें।”

आप ﷺ ने फ़ौरन अपना पेट खोला और उनसे फ़रमाया:
“लो! तुम अब अपना बदला ले लो।”

हज़रत सुवाद आगे बढ़े और आप ﷺ के सीने से लग गए और आपके शिकम मुबारक को बोसा दिया। इस पर आप ﷺ ने दरियाफ़्त किया:
“सुवाद! तुमने ऐसा क्यों किया?”

उन्होंने अर्ज़ किया:
“अल्लाह के रसूल! आप देख रहे हैं, जंग सर पर है, इसलिए मैंने सोचा, आपके साथ ज़िंदगी के जो आख़िरी लम्हात बसर हों, वो इस तरह बसर हों कि मेरा जिस्म आपके जिस्म मुबारक से मस कर रहा हो…(यानी अगर मैं इस जंग में शहीद हो गया तो ये मेरी ज़िंदगी के आख़िरी लम्हात हैं)।”

ये सुनकर हुज़ूर अक़रम ﷺ ने उनके लिए दुआ फ़रमाई। एक रिवायत में आता है, “जिस मुसलमान ने भी नबी करीम ﷺ के जिस्म को छू लिया, आग उस जिस्म को नहीं छुएगी।” एक रिवायत में यूँ है कि “जो चीज़ भी हुज़ूर अक़रम ﷺ के जिस्म को लग गई, आग उसे नहीं जलाएगी।”

सहाबा की कुर्बानियां

फिर जब हुज़ूर अक़रम ﷺ ने सफ़ों को सीधा कर दिया तो फ़रमाया:
“जब दुश्मन क़रीब आ जाए तो उन्हें तीरों से पीछे हटाना और अपने तीर उस वक़्त तक न चलाना जब तक कि वे नज़दीक न आ जाएँ। (क्योंकि ज़्यादा फ़ासले से तीरंदाज़ी अक्सर बेकार साबित होती है और तीर ज़ाया होते रहते हैं) इसी तरह तलवारें भी उस वक़्त तक न खींचना जब तक कि दुश्मन बिलकुल क़रीब न आ जाए।”

इसके बाद आप ﷺ ने सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम को यह ख़ुत्बा दिया:
“मुसीबत के वक़्त सब्र करने से अल्लाह तआला परेशानियाँ दूर फ़रमाते हैं और ग़मों से निजात अता फ़रमाते हैं।”

फिर आप ﷺ अपने साइबान में तशरीफ़ ले गए। उस वक़्त हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु आपके साथ थे। साइबान के दरवाज़े पर हज़रत सअद बिन मुआज़ रज़ियल्लाहु अन्हु कुछ अंसारी मुसलमानों के साथ नंगी तलवारें लिए खड़े थे, ताकि दुश्मन को नबी ﷺ की तरफ़ बढ़ने से रोक सकें। आप ﷺ के लिए वहाँ सवारियाँ भी मौजूद थीं, ताकि ज़रूरत के वक़्त आप सवार हो सकें।

मुसलमानों में सबसे पहले महजअ रज़ियल्लाहु अन्हु आगे बढ़े। ये हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु के ग़ुलाम थे। आमिर बिन हज़रमी ने उन्हें तीर मारकर शहीद कर दिया।

इधर नबी करीम ﷺ अपने साइबान में अल्लाह तआला के हुज़ूर सज्दे में गिरकर यूँ दुआ करने लगे:
“ऐ अल्लाह! अगर आज मोमिनों की जमात हलाक हो गई तो फिर तेरी इबादत करने वाला कोई नहीं रहेगा।”

फिर हुज़ूर अक़रम ﷺ अपने साइबान से निकलकर सहाबा के दरमियान तशरीफ़ लाए और उन्हें जंग पर उभारने के लिए फ़रमाया:
“क़सम है उस ज़ात की, जिसके क़ब्ज़े में मुहम्मद की जान है, जो शख़्स भी आज इन मुशरिकों के मुक़ाबले में सब्र और हिम्मत के साथ लड़ेगा, उनके सामने सीना ताने जमा रहेगा और पीठ नहीं फेरेगा, अल्लाह तआला उसे जन्नत में दाख़िल करेगा।”

हज़रत उमैर बिन हम्माम रज़ियल्लाहु अन्हु उस वक़्त खजूरें खा रहे थे। ये अल्फ़ाज़ सुनकर खजूरें हाथ से गिरा दीं और बोले:
“वाह! तो मेरे और जन्नत के दरमियान बस इतना ही फ़ासला है कि इन काफ़िरों में से कोई मुझे क़त्ल कर दे!”

ये कहते ही तलवार खींचकर दुश्मनों से भिड़ गए और लड़ते-लड़ते शहीद हो गए।

हज़रत आउफ़ बिन अफ़रा रज़ियल्लाहु अन्हु ने आप ﷺ से पूछा:
“अल्लाह के रसूल! बंदे के किस अमल पर अल्लाह को हँसी आती है?” (यानी कौन सा अमल अल्लाह तआला को ख़ुश करता है?)

जवाब में आपने फ़रमाया:
“जब कोई मुजाहिद ज़िरह-बख़्तर पहने बग़ैर दुश्मन पर हमला कर दे।”

ये सुनते ही उन्होंने अपने जिस्म से ज़िरह-बख़्तर उतारकर फेंक दी और तलवार निकालकर दुश्मन पर टूट पड़े, यहाँ तक कि लड़ते-लड़ते शहीद हो गए।

हज़रत मअबद बिन वहब रज़ियल्लाहु अन्हु दोनों हाथों में तलवार लेकर जंग में शरीक हुए। ये नबी पाक ﷺ के हमज़ुल्फ़ थे, यानी उम्मुल मोमिनीन हज़रत सौदा रज़ियल्लाहु अन्हा की बहन के ख़ाविंद थे।

जंग के दौरान हुज़ूर नबी करीम ﷺ ने एक मुठ्ठी कंकरियाँ उठाईं और मुशरिकों पर फेंक दीं। ऐसा करने के लिए हुज़ूर ﷺ को हज़रत जिब्रील अलैहिस्सलाम ने कहा था।

कंकरियाँ फेंकते वक़्त हुज़ूर ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:
“ये चेहरे ख़राब हो जाएँ!”

एक रिवायत के मुताबिक़ ये अल्फ़ाज़ आए हैं:
“ऐ अल्लाह! इनके दिलों को ख़ौफ़ से भर दे, इनके पाँव उखाड़ दे!”

अल्लाह के हुक्म और हुज़ूर ﷺ की दुआ से कोई काफ़िर ऐसा न बचा जिस पर वो कंकरियाँ न पड़ी हों। इन कंकरियों ने काफ़िरों को बदहवास कर दिया। आख़िर नतीजा ये निकला कि वो शिकस्त खाकर भागे। मुसलमान उनका पीछा करने लगे, उन्हें क़त्ल और गिरफ़्तार करने लगे।

कंकरियों की मुठ्ठी के बारे में अल्लाह तआला ने क़ुरआन करीम में इरशाद फ़रमाया:
“और ऐ नबी! कंकरियों की मुठ्ठी आपने नहीं बल्कि हमने फेंकी थी।” (सूरतुल-अंफ़ाल: आयत 17)

हुज़ूर नबी करीम ﷺ ने काफ़िरों के शिकस्त खा जाने के बाद एलान फ़रमाया:
“मुसलमानों में जिसने जिस काफ़िर को मारा है…उसका सामान उसी मुसलमान का है और जिसने जिस काफ़िर को गिरफ़्तार किया, वो उसी मुसलमान का क़ैदी है।”

जो काफ़िर भागकर न जा सके, उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। इस जंग में हज़रत अबू उबैदा बिन अल-जिराह रज़ियल्लाहु अन्हु ने अपने बाप को क़त्ल किया। पहले ख़ुद बाप ने बेटे पर वार किया था, लेकिन हज़रत अबू उबैदा रज़ियल्लाहु अन्हु बच गए और ख़ुद उन पर वार किया, जिससे वो मारा गया। इस पर अल्लाह तआला ने ये आयत नाज़िल फ़रमाई:

“जो लोग अल्लाह पर और क़यामत के दिन पर पूरा-पूरा ईमान रखते हैं, आप उन्हें न देखें कि ऐसे शख़्सों से दोस्ती रखते हैं जो अल्लाह और रसूल के ख़िलाफ़ हैं, अगरचे वो उनके बेटे या भाई या ख़ानदान में से क्यों न हों।” (सूरतुल-मुजादलाह: 23)

इस जंग में हज़रत अब्दुर्रहमान बिन औफ़ रज़ियल्लाहु अन्हु ने उमैया बिन ख़लफ़ और उसके बेटे को क़ैदी बना लिया। इस्लाम से पहले मक्का में ये शख़्स हज़रत अब्दुर्रहमान बिन औफ़ रज़ियल्लाहु अन्हु का दोस्त रहा था… और यही वो उमैया बिन ख़लफ़ था जो हज़रत बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु पर बेहिसाब ज़ुल्म करता रहा था… हज़रत अब्दुर्रहमान बिन औफ़ रज़ियल्लाहु अन्हु इन दोनों को लिए मैदान-ए-जंग से गुज़र रहे थे कि हज़रत बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु की नज़र उमैया बिन ख़लफ़ पर पड़ गई।

काफिरों की इबरतनाक हार

हज़रत बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु उसे देखकर बुलंद आवाज़ में पुकारे: “काफिरों का सरदार उमैया बिन खलफ यह रहा… अगर उमैया बच गया तो समझो मैं नहीं बचा।”

हज़रत अब्दुर्रहमान बिन औफ़ रज़ियल्लाहु अन्हु ने उमैया को अपने बेटे के साथ इधर-उधर भागते देखा। हज़रत अब्दुर्रहमान बिन औफ़ रज़ियल्लाहु अन्हु के हाथ में कई ज़िरहें थीं, जो उन्हें मैदान-ए-जंग से माल-ए-ग़नीमत के तौर पर मिली थीं। मगर जैसे ही उन्होंने उमैया और उसके बेटे को देखा, उन्होंने ज़िरहें गिरा दीं और दोनों को पकड़ लिया। इस तरह वे अब उनके क़ैदी बन गए।

जब वे दोनों को लिए जा रहे थे, तभी हज़रत बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु ने उन्हें देख लिया और पुकारने लगे: “यह रहा उमैया बिन खलफ!”

हज़रत बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु के ये अल्फ़ाज़ सुनकर हज़रत अब्दुर्रहमान बिन औफ़ रज़ियल्लाहु अन्हु ने कहा: “लेकिन यह दोनों अब मेरे क़ैदी हैं।”

हज़रत बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु ने फिर वही अल्फ़ाज़ दोहराए:
“अगर आज उमैया बच गया तो समझो मैं नहीं बचा।”

इसके साथ ही हज़रत बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु ने लोगों को पुकारा:
“ऐ अंसारियो! ऐ अल्लाह के मददगारो! यह काफिरों का उमैया बिन खलफ है। अगर यह बच गया तो समझो मैं नहीं बचा।”

यह सुनकर अंसारी उनकी तरफ़ दौड़ पड़े और उन्होंने चारों तरफ़ से उन्हें घेर लिया। हज़रत बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु ने तलवार निकाल ली और उमैया पर वार किया। हज़रत अब्दुर्रहमान बिन औफ़ रज़ियल्लाहु अन्हु ने उमैया को बचाने के लिए उसके बेटे को आगे कर दिया, क्योंकि उमैया जाहिलियत के ज़माने में उनके दोस्त रह चुके थे। इसी दोस्ती की वजह से हज़रत अब्दुर्रहमान बिन औफ़ रज़ियल्लाहु अन्हु उसे क़त्ल होने से बचाना चाहते थे। मगर हज़रत बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु पर उमैया को मारने की धुन पूरी तरह सवार थी।

हज़रत बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु की तलवार उमैया के बेटे को लगी, जिससे वह ज़ख़्मी होकर गिर पड़ा। उसे गिरता देखकर उमैया भयानक अंदाज़ में चीखा। यह चीख़ हद दर्जे की खौफ़नाक और हीबतनाक थी। इसी दौरान तलवारें बुलंद हुईं और उमैया के जिस्म में उतर गईं।

उमैया को बचाने की कोशिश में हज़रत अब्दुर्रहमान बिन औफ़ रज़ियल्लाहु अन्हु भी मामूली से ज़ख़्मी हुए। वे अक्सर कहा करते थे: “अल्लाह तआला बिलाल पर रहम करे! मेरे हिस्से में न ज़िरहें आईं और न ही क़ैदी।”

इसी दौरान रसूलुल्लाह ﷺ ने पूछा:
“किसी को नौफल बिन खुवैलिद का भी पता है?”

इस पर हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु ने अर्ज़ किया:
“अल्लाह के रसूल! उसे मैंने क़त्ल किया है।”

यह सुनकर आप ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:
“अल्लाहु अकबर! अल्लाह का शुक्र है जिसने इस शख्स के बारे में मेरी दुआ क़बूल फरमाई।”

जंग शुरू होने से पहले नौफल बिन खुवैलिद ने बुलंद आवाज़ में कहा था:
“ऐ गिरोह-ए-कुरैश! आज का दिन इज़्ज़त और सरबुलंदी का दिन है।”

इसकी बात सुनकर आप ﷺ ने फ़रमाया था:
“ऐ अल्लाह! नौफल बिन खुवैलिद का अंजाम मुझे दिखला।”

इसके बाद रसूलुल्लाह ﷺ ने हुक्म दिया:
“क़त्ल होने वाले काफ़िरों में अबू जहल की लाश को तलाश किया जाए।”

अबू जहल की हलाकत और बद्र की जंग

अबू जहल ने जंग शुरू होने से पहले कहा था:
“ऐ अल्लाह! दोनों दीनों (यानी इस्लाम और काफ़िरों के खुद-साख़्ता दीन) में जो दीन तेरे नज़दीक अफ़ज़ल और पसंदीदा हो, उसी की मदद और नुसरत फरमा।”

हज़रत मुआज़ बिन अम्र जमूह रज़ियल्लाहु अन्हु, जो इस जंग के दौरान कम-सिन सहाबा में से थे, कहते हैं कि जंग के दौरान मैंने देखा कि अबू जहल को उसके बहुत से साथी हिफ़ाज़त के लिए घेरे में लिए हुए हैं और कह रहे थे:
“ऐ अबू अल-हकम! (अबू जहल की कुनीयत थी) तुम तक कोई नहीं पहुंच पाएगा।”

जब मैंने उनकी यह बात सुनी तो अबू जहल की तरफ बढ़ा और उस पर तलवार का एक ज़ोरदार वार किया। इस वार से उसकी पिंडली कट गई। अबू जहल के बेटे हज़रत इकरिमा रज़ियल्लाहु अन्हु, जो उस वक्त काफ़िर थे (ये हज़रत इकरिमा रज़ियल्लाहु अन्हु फतह-ए-मक्का के मौके पर मुसलमान हुए थे), अपने बाप की मदद के लिए आगे बढ़े और मुझ पर तलवार से वार किया, जिससे मेरा बाजू कट गया। बस थोड़ी-सी खाल के साथ बाजू लटका रह गया।

मैं जंग में मशगूल रहा, लेकिन लटकने वाले हाथ की वजह से लड़ना मुश्किल हो रहा था। मैं तमाम दिन लड़ता रहा और वो बाजू लटकता रहा। आख़िर जब इससे ज्यादा रुकावट होने लगी, तो मैंने अपना पैर उस पर रखकर ज़ोर से झटका दिया। इससे वह खाल भी कट गई और मैंने अपने बाजू को उठाकर फेंक दिया।

अबू जहल ज़ख्मी हालत में पड़ा था कि इस दौरान उसके पास से हज़रत मुअव्विज़ बिन अफ़रा रज़ियल्लाहु अन्हु गुजरे। उन्होंने अबू जहल पर वार किया, जिससे वह ज़मीन पर गिर पड़ा। वह उसे मुर्दा समझकर आगे बढ़ गए, मगर वह अभी ज़िंदा था।

हज़रत मुअव्विज़ रज़ियल्लाहु अन्हु लड़ते-लड़ते आगे बढ़ते गए, यहां तक कि शहीद हो गए।

इतने में ज़ख़्मों से चूर अबू जहल के पास से हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु गुजरे। उन्होंने अपना पैर उसकी गर्दन पर रखकर कहा:
“ऐ ख़ुदा के दुश्मन! क्या तुझे अल्लाह ने रुसवा नहीं कर दिया?”

इसके बाद हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु ने उसकी गर्दन उड़ा दी। फिर हज़ूर नबी करीम ﷺ की ख़िदमत में हाज़िर होकर अर्ज़ किया:
“ऐ अल्लाह के रसूल! मैंने अबू जहल को क़त्ल कर दिया है।”

आप ﷺ ने फ़रमाया:
“बरतरी उसी ज़ात-ए-बारी तआला के लिए है जिसके सिवा कोई माबूद नहीं।”

आप ﷺ ने यह कलिमा तीन बार फ़रमाया। फिर आपने अबू जहल की तलवार हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु को इनायत फ़रमाई। यह तलवार निहायत खूबसूरत और क़ीमती थी, जिस पर चांदी का काम किया गया था।

बद्र की जंग में अल्लाह तआला ने फ़रिश्तों के ज़रिए भी मदद फ़रमाई थी। इस रोज़ हज़रत जुबैर बिन अव्वाम रज़ियल्लाहु अन्हु ने निहायत सरफरोशी से जंग की। उनके जिस्म पर बहुत बड़े-बड़े ज़ख़्म आए।

इस जंग में हज़रत उक़ाशा बिन महसन रज़ियल्लाहु अन्हु की तलवार लड़ते-लड़ते टूट गई। तो रसूलुल्लाह ﷺ ने उन्हें खजूर की एक छड़ी इनायत फ़रमाई। वह छड़ी उनके हाथ में आते ही मोजज़ाती तौर पर एक चमकदार तलवार बन गई। हज़रत उक़ाशा रज़ियल्लाहु अन्हु उस तलवार से लड़ते रहे, यहां तक कि अल्लाह तआला ने मुसलमानों को फतह अता फ़रमाई। इस तलवार का नाम “औन” रखा गया।

यह तलवार तमाम ग़ज़वात में हज़रत उक़ाशा रज़ियल्लाहु अन्हु के पास रही और उसी से वे जंग किया करते थे। उनके इंतिक़ाल के बाद यह तलवार उनकी औलाद को विरासत में मिलती रही और एक से दूसरे के पास पहुंचती रही।

इसी तरह हज़रत सलमा बिन असलम रज़ियल्लाहु अन्हु की तलवार भी टूट गई थी। हज़ूर अक़्दस ﷺ ने उन्हें खजूर की जड़ अता फ़रमाई और फ़रमाया:
“इससे लड़ो!”

जैसे ही उन्होंने उस जड़ को हाथ में लिया, वह एक निहायत बेहतरीन तलवार बन गई और फिर यह तलवार उनके पास रही।

रसूलुल्लाह ﷺ के मोजज़ात

हज़रत ख़बीब बिन अब्दुर्रहमान रज़ियल्लाहु अन्हु बयान करते हैं कि एक काफ़िर ने मेरे दादा पर तलवार से वार किया, जिससे उनकी एक पसली अलग हो गई। हज़ूर अक़्दस ﷺ ने अपने मुबारक लुआब-ए-दहन से उस टूटी हुई पसली को उसकी जगह रख दिया। वह पसली वहीं जम गई जैसे कभी टूटी ही नहीं थी।

हज़रत रिफ़ाअह बिन मालिक रज़ियल्लाहु अन्हु फ़रमाते हैं कि एक तीर मेरी आंख में आकर लगा, जिससे मेरी आंख फूट गई। मैं उसी हालत में रसूलुल्लाह ﷺ की ख़िदमत में हाज़िर हुआ। आप ﷺ ने मेरी आंख में अपना लुआब-ए-दहन डाल दिया। आंख उसी वक़्त ठीक हो गई और जिंदगी भर उसमें कभी कोई तकलीफ़ नहीं हुई।

मुश्रिकों की लाशों की निशानदेही

अब आप ﷺ ने हुक्म दिया कि मुश्रिकों की लाशों को उन जगहों से उठाया जाए, जहां-जहां उनके क़त्ल होने की निशानदेही की गई थी।

हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु फ़रमाते हैं कि नबी करीम ﷺ ने जंग से एक दिन पहले ही हमें बता दिया था:
“इंशा-अल्लाह कल यह उतबा बिन रबीअह के क़त्ल की जगह होगी, यह शीबा बिन रबीअह के क़त्ल की जगह होगी, यह उमैया बिन ख़लफ़ के क़त्ल की जगह होगी।”

आप ﷺ ने अपने मुबारक हाथ से उन जगहों की निशानदेही फ़रमाई थी।

अब जब लाशें जमा करने का हुक्म मिला और सहाबा किराम लाशों की तलाश में निकले, तो काफ़िरों की लाशें बिल्कुल उन्हीं जगहों पर पड़ी मिलीं।

हज़ूर अक़्दस ﷺ ने हुक्म फ़रमाया कि इन तमाम लाशों को एक गड्ढे में डाल दिया जाए।

फ़तेह के बाद

जब तमाम मुश्रिकों को गड्ढे में डाल दिया गया, तो हज़ूर नबी करीम ﷺ उस गड्ढे के एक किनारे पर आ खड़े हुए। वह वक़्त रात का था।

बुखारी और मुस्लिम की रिवायत में है कि जब नबी अकरम ﷺ को किसी ग़ज़वा में फ़तेह हासिल होती, तो आप ﷺ उसी मुक़ाम पर तीन रात क़याम फ़रमाया करते थे। तीसरे दिन आपने लश्कर को तैय्यारी का हुक्म दिया।

वहाँ से कूच करने से पहले, आप ﷺ सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम के साथ उस गड्ढे के किनारे खड़े होकर उन लाशों से मुख़ातिब हुए और फ़रमाया:
“ऐ फ़लाँ बिन फ़लाँ, और ऐ फ़लाँ बिन फ़लाँ! क्या तुमने देख लिया कि अल्लाह और उसके रसूल का वादा कितना सच्चा था? मैंने तो उस वादे को सच्चा पाया जो अल्लाह तआला ने मुझसे फ़रमाया था।”

आप ﷺ ने लोगों के नाम भी लिए, मसलन फ़रमाया:
“ऐ उत्बा बिन रबीअह, ऐ शीबा बिन रबीअह, ऐ उमैया बिन ख़लफ़ और ऐ अबू जहल बिन हिशाम! तुम लोग नबी के ख़ानदान से होते हुए भी बहुत बुरे साबित हुए। तुम मुझे झुटलाते थे, जबकि लोग मेरी तस्दीक़ कर रहे थे। तुमने मुझे वतन से निकाला, जबकि दूसरों ने मुझे पनाह दी। तुमने मेरे मुक़ाबले में जंग की, जबकि ग़ैरों ने मेरी मदद की।”

आप ﷺ के ये अल्फ़ाज़ सुनकर हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने अर्ज़ किया:
“ऐ अल्लाह के रसूल! आप उन मर्दों से बातें कर रहे हैं, जो बे-रूह लाशें हैं?”

इसके जवाब में आप ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:
“जो कुछ मैं कह रहा हूँ, उसे तुम लोग इतना नहीं सुन रहे, (यानी तुम से ज़्यादा ये सुन रहे हैं), मगर ये लोग अब जवाब नहीं दे सकते।”

हज़ूर ﷺ ने फ़तेह की ख़बर मदीना मुनव्वरा भेज दी।

मदीना मुनव्वरा में फ़तेह की ख़बर

मदीना मुनव्वरा में फ़तेह की ख़बर हज़रत ज़ैद बिन हारिसा रज़ियल्लाहु अन्हु लाए थे। उन्होंने यह खुशख़बरी बुलंद आवाज़ में यूँ सुनाई:
“ऐ गिरोह-ए-अंसार! तुम्हें खुशख़बरी हो, रसूलुल्लाह ﷺ की सलामती और मुश्रिकों के क़त्ल और गिरफ़्तारी की! क़ुरैश के सरदारों में से फ़लाँ फ़लाँ क़त्ल कर दिए गए और फ़लाँ फ़लाँ गिरफ़्तार हो गए हैं।”

उनके मुँह से यह खुशख़बरी सुनकर अल्लाह का दुश्मन क़ाब बिन अशरफ़ यहूदी तैश में आ गया और उन्हें झुटलाने लगा। साथ ही उसने कहा:
“अगर मोहम्मद (ﷺ) ने इन बड़े-बड़े सूरमाओं को मार डाला है, तो ज़मीन की पुश्त पर रहने से ज़मीन के अंदर रहना बेहतर है।”
(यानी ज़िंदगी से मौत बेहतर है।)

फ़तेह की यह ख़बर वहाँ उस वक़्त पहुँची, जब मदीना मुनव्वरा में हज़ूर ﷺ की साहिबज़ादी का इन्तिक़ाल हो चुका था और उनके शौहर हज़रत उस्मान रज़ियल्लाहु अन्हु और वहाँ मौजूद सहाबा किराम उन्हें दफ़्न करके क़ब्र की मिट्टी बराबर कर रहे थे।

फ़तेह के बाद

आनहज़रत ﷺ को जब हज़रत रुक़य्या रज़ियल्लाहु अन्हा की वफ़ात की इत्तिला दी गई तो इरशाद फ़रमाया:
“अल्हम्दुलिल्लाह! अल्लाह तआला का शुक्र है। शरीफ़ बेटियों का दफ़्न होना भी इज़्ज़त की बात है।”

फ़तेह की ख़बर सुनकर एक मुनाफ़िक़ बोला:
“असल बात यह है कि तुम्हारे साथी शिकस्त खाकर तितर-बितर हो गए हैं और अब वे कभी एक जगह जमा नहीं हो सकेंगे। मोहम्मद (ﷺ) बैठे-बैठे आए हैं। अगर मोहम्मद (ﷺ) ज़िंदा होते तो अपनी ऊँटनी पर खुद सवार होते, मगर ये ज़ैद ऐसे बदहवास हो रहे हैं कि उन्हें खुद भी पता नहीं कि क्या कह रहे हैं।”

इस पर हज़रत उसामा रज़ियल्लाहु अन्हु ने उससे कहा:
“ओ अल्लाह के दुश्मन! मोहम्मद ﷺ को आने दे, फिर तुझे मालूम हो जाएगा… किसे फ़तेह हुई और किसे शिकस्त हुई है?”

माल-ए-ग़नीमत की तक़सीम

फिर नबी अकरम ﷺ मदीना मुनव्वरा की तरफ़ रवाना हुए। रास्ते में सफ़रा की घाटी में पहुंचे तो वहाँ आपने माल-ए-ग़नीमत तक़सीम फ़रमाया।

इस माल में 150 ऊँट और 10 घोड़े थे। इसके अलावा, हर क़िस्म का सामान, हथियार, कपड़े, बेहिसाब खालें और ऊन वग़ैरह भी शामिल थे। यह तमाम चीज़ें मुश्रिक अपनी तिजारत के लिए साथ लाए थे।

इस मौके पर आपने ऐलान फ़रमाया:
“जिस शख़्स ने किसी मुश्रिक को क़त्ल किया, उस मुश्रिक का सामान उसी को मिलेगा, और जिसने किसी मुश्रिक को गिरफ़्तार किया, वह उसी का क़ैदी होगा।”

आप ﷺ ने इस माल में से उन लोगों के भी हिस्से निकाले, जो ग़ज़वा-ए-बद्र में हाज़िर नहीं हो सके थे। यह वे लोग थे जिन्हें खुद नबी अकरम ﷺ ने किसी वजह से जंग में हिस्सा लेने से रोक दिया था।

  • हज़रत उस्मान रज़ियल्लाहु अन्हु— उनकी बीवी हज़रत रुक़य्या रज़ियल्लाहु अन्हा बहुत बीमार थीं और खुद हज़रत उस्मान रज़ियल्लाहु अन्हु को चेचक निकली हुई थी, इसलिए आपने उन्हें असहाब-ए-बद्र में शुमार फ़रमाया
  • हज़रत अबू लुबाबा रज़ियल्लाहु अन्हु— इन्हें आपने मदीना वालों के पास बतौर मुहाफ़िज़ छोड़ दिया था।
  • हज़रत आसिम बिन अदी रज़ियल्लाहु अन्हु— इन्हें आपने क़ुबा और आलिया वालों के पास छोड़ दिया था।
  • जासूसी के लिए भेजे गए लोग— ये लोग दुश्मनों की ख़बर लाने गए थे और जब लौटे, तो जंग ख़त्म हो चुकी थी।

मुश्रिक क़ैदियों की सज़ा

इसी मुक़ाम पर आपने क़ुरैश के क़ैदियों में से नज़र बिन हारिस को क़त्ल करने का हुक्म फ़रमाया। यह शख़्स क़ुरआन करीम और नबी अकरम ﷺ के बारे में बहुत सख़्त अल्फ़ाज़ इस्तेमाल करता था

इसी तरह कुछ आगे बढ़कर आपने अक़बा बिन अबी मुईत के क़त्ल का हुक्म फ़रमाया। यह भी बहुत बड़ा फ़ित्ना परवर था

  • इसने एक बार आप ﷺ के मुबारक चेहरे पर थूकने की कोशिश की थी।
  • एक बार जब आप ﷺ सजदे में थे, तो इसने आपकी गर्दन पर ऊँट की ओझ लाकर रख दी थी।

नबी अकरम ﷺ ने उससे फ़रमाया था:
“मक्का से बाहर मैं जब भी तुझसे मिलूँगा, तो इस हालत में मिलूँगा कि तलवार से तेरा सिर क़लम करूँगा।”

मदीना मुनव्वरा में फ़तेह का इस्तेक़बाल

इसके बाद नबी अकरम ﷺ आगे बढ़े और मदीना मुनव्वरा के क़रीब पहुँचे। वहाँ के लोग मदीना से बाहर निकल आए ताकि आप ﷺ और मुसलमानों का इस्तेक़बाल कर सकें और फ़तेह की मुबारकबाद दे सकें

जब आप ﷺ मदीना में दाख़िल हुए, तो शहर की बच्चियों ने दफ़ बजाकर इस्तेक़बाल किया। वे यह गीत गा रही थीं:

“हमारे सामने चाँद (चौदहवीं का चाँद) तूलू हुआ है, इस नेमत के बदले में हम पर हमेशा अल्लाह तआला का शुक्र अदा करना वाजिब है।”

अबू लहब की मौत

दूसरी तरफ़, मक्का में क़ुरैश की शिकस्त की ख़बर पहुँची। ख़बर लाने वाले ने पुकार कर कहा:

“लोगो! उत्बा और शीबा क़त्ल कर दिए गए, अबू जहल और उमैया भी क़त्ल कर दिए गए। क़ुरैश के सरदारों में से फ़लाँ-फ़लाँ भी मारे गए… और फ़लाँ-फ़लाँ गिरफ़्तार कर लिए गए।”

यह ख़बर बहुत वहशतनाक थी

यह सुनकर अबू लहब घिसटता हुआ बाहर आया। उसी वक़्त अबू सुफ़ियान बिन हारिस रज़ियल्लाहु अन्हु वहाँ पहुँचे। ये नबी अकरम ﷺ के चचाज़ाद भाई थे, लेकिन अभी तक मुसलमान नहीं हुए थे। यह ग़ज़वा-ए-बद्र में मुश्रिकों की तरफ़ से शरीक हुए थे

अबू लहब ने उन्हें देखते ही पूछा:
“मेरे क़रीब आओ और सुनाओ… क्या ख़बर है?”

क़ैदियों की रिहाई

अबू सुफ़ियान बिन हारिस (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने जवाब में मैदान-ए-जंग की जो कैफ़ियत सुनाई, वह यह थी:

“ख़ुदा की क़सम! बस यूँ समझ लो कि जैसे ही हमारा दुश्मन से टकराव हुआ, हमने गोया अपनी गर्दनें उनके सामने पेश कर दीं, और उन्होंने जैसे चाहा, हमें क़त्ल करना शुरू कर दिया, जैसे चाहा गिरफ़्तार किया। फिर भी मैं क़ुरैश को इल्ज़ाम नहीं दूँगा, क्योंकि हमारा वास्ता जिन लोगों से पड़ा, वे सफ़ेद रंग के थे और काले-सफ़ेद रंग के घोड़ों पर सवार थे। वे ज़मीन और आसमान के दरमियान फिर रहे थे—अल्लाह की क़सम, उनके सामने कोई चीज़ ठहरती नहीं थी।”

हज़रत अबू राफ़े़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि यह सुनते ही मैंने कहा:
“तब तो ख़ुदा की क़सम, वे फ़रिश्ते थे!”

मेरी बात सुनते ही अबू लहब ग़ुस्से में आ गया। उसने पूरी ताक़त से एक थप्पड़ मेरे मुँह पर मार दिया, फिर मुझे उठाकर पटक दिया और मेरे सीने पर चढ़कर बेइंतेहा मारने लगा

वहाँ मेरी मालकिन यानी उम्मे फ़ज़्ल भी मौजूद थीं। उन्होंने एक लकड़ी का पाया उठाकर इतनी ज़ोर से अबू लहब को मारा कि उसका सिर फट गया। साथ ही, उम्मे फ़ज़्ल ने सख़्त लहजे में कहा:
“तू इसे इसलिए कमज़ोर समझकर मार रहा है कि इसका आका यहाँ मौजूद नहीं?”

इस तरह अबू लहब ज़लील होकर वहाँ से रुख़्सत हुआ

जंग-ए-बद्र में इस क़दर ज़िल्लत-अमेज़ शिकस्त के बाद अबू लहब सात दिन से ज़्यादा ज़िंदा न रहाताऊन (प्लेग) में मुबतला होकर मर गया। उसकी लाश को दफ़न करने की हिम्मत भी कोई नहीं कर रहा था

आख़िर, उसी हाल में उसकी लाश सड़ने लगी और शदीद बदबू फैल गई। तब उसके बेटों ने एक गड्ढा खोदा और लकड़ी के ज़रिए उसकी लाश को गड्ढे में ढकेल दिया, फिर दूर से पत्थर बरसाकर उस गड्ढे को ढँक दिया

रसूल-ए-पाक ﷺ की बद्दुआ

इस शिकस्त पर मक्के की औरतों ने कई महीनों तक अपने क़त्ल होने वालों का सोग मनाया

इस जंग में असवद बिन ज़मआ नामी काफ़िर की तीन औलादें हलाक हो गईं

यह वह शख़्स था कि मक्का में जब भी रसूल-ए-पाक ﷺ को देखता था, तो आपका मज़ाक उड़ाता था और कहता था:

“लोगो! देखो तो! तुम्हारे सामने रुए-ज़मीन के बादशाह फिर रहे हैं, जो क़ैसर और किसरा के मुल्कों को फ़तेह करेंगे!!!”

उसकी तकलीफ़देह बातों पर नबी अकरम ﷺ ने उसे अंधा होने की बद्दुआ दी थी

अल्लाह तआला ने वह बद्दुआ क़बूल फ़रमाई और वह अंधा हो गया

कुछ रिवायतों में आता है कि आपने उसके अंधा होने और उसकी औलाद के ख़त्म हो जाने की बद्दुआ फ़रमाई थी

अल्लाह तआला ने दोनों दुआएँ क़बूल फ़रमाईं

पहले वह अंधा हुआ, फिर उसकी तमाम औलाद जंग-ए-बद्र में मारी गई।

जंग के बाद क़ैदियों की रिहाई और हुज़ूर का रहम

जंग के बाद रसूल-ए-पाक ﷺ ने क़ैदियों के बारे में मशवरा फ़रमाया

हज़रत अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) का मशवरा यह था कि उन्हें फ़िद्या (माली जुर्माना) लेकर रिहा कर दिया जाए

जबकि हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) की राय यह थी कि उन्हें क़त्ल कर दिया जाए

आप ﷺ ने कुछ मसलहतों (भलाई के पहलुओं) की बिनाह पर हज़रत अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) की राय पसंद फ़रमाई और उन लोगों की जान बख़्श दी, फ़िद्या लेकर उन्हें रिहा कर दिया

हालाँकि, अल्लाह तआला ने इस मामले में हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) की राय को पसंद किया और सूरह अल-अंफ़ाल की आयत 67 से 70 नाज़िल फ़रमाई

इन आयात में अल्लाह तआला ने वाज़ेह कर दिया कि इन क़ैदियों को क़त्ल किया जाना चाहिए था

हुज़ूर की आँखों में आंसू आ गए

बद्र के क़ैदियों में नबी करीम ﷺ की बेटी हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) के शौहर अबू अल-आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) भी थे, जो उस वक़्त तक मुसलमान नहीं हुए थे

उस वक़्त हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) मक्का में थीं

जब उन्हें मालूम हुआ कि क़ैदियों को फ़िद्या लेकर रिहा करने का फ़ैसला हुआ है, तो उन्होंने अपने शौहर के फ़िद्या में अपना हार भेज दिया

यह हार हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) को उनकी वालिदा हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने उनकी शादी के मौक़े पर दिया था

फ़िद्ये में यह हार अबू अल-आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) का भाई लेकर आया और रसूल-ए-पाक ﷺ की ख़िदमत में पेश किया

हार को देखते ही आप ﷺ की आँखों में आँसू आ गए

आपको हज़रत ख़दीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की याद आ गई

तब आप ﷺ ने सहाबा-ए-किराम (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से फ़रमाया:

“अगर तुम मुनासिब समझो तो ज़ैनब के शौहर को रिहा कर दो और उनका यह हार भी वापस कर दो।”

सहाबा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने फ़ौरन कहा: “ज़रूर, या रसूलुल्लाह!”

चुनांचे अबू अल-आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) को रिहा कर दिया गया और ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) का हार भी लौटा दिया गया

हालाँकि, आप ﷺ ने अबू अल-आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) से यह वादा लिया कि मक्का जाते ही वे ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) को मदीना भेज देंगे

उन्होंने वादा कर लिया

(यहाँ यह भी वाज़ेह रहे कि हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) की शादी अबू अल-आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) से उस वक़्त हुई थी जब रसूलुल्लाह ﷺ ने इस्लाम की दावत शुरू नहीं की थी

जब आपने इस्लाम की दावत शुरू की तो मक्का के मुश्रिकों ने अबू अल-आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) पर दबाव डाला कि वे हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) को तलाक दे दें

मगर उन्होंने इनकार कर दिया

जबकि अबू लहब के दोनों बेटों ने नबी करीम ﷺ की बेटियों, हज़रत रुक़य्या (रज़ियल्लाहु अन्हा) और हज़रत उम्मे कुलसूम (रज़ियल्लाहु अन्हा) को तलाक दे दी

उस वक़्त सिर्फ़ निकाह हुआ था, रुख़्सती नहीं हुई थी

जब नबी करीम ﷺ को मालूम हुआ कि अबू अल-आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने मुश्रिकों की माँग मानने से इनकार कर दिया है, तो आप ﷺ ने उनके हक़ में दुआ फ़रमाई थी

अबू अल-आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) ग़ज़वा-ए-बद्र के कुछ अरसे बाद मुसलमान हो गए थे।)

हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) को लाने के लिए मदीना से हज़रत ज़ैद बिन हारिसा (रज़ियल्लाहु अन्हु) को भेजा गया

अबू अल-आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने वादे के मुताबिक़ हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) को उनके साथ भेज दिया

(इस वक़्त तक हिजाब (पर्दे) का हुक्म नाज़िल नहीं हुआ था)

इस तरह हज़रत ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) मदीना पहुँच गईं

रास्ते में मुश्रिकों ने उन्हें रोकने की कोशिश की, लेकिन अबू अल-आस (रज़ियल्लाहु अन्हु) के भाई उनके सामने आ गए और मुश्रिक नाकाम रहे

क़ैदियों में हज़रत ख़ालिद बिन वलीद (रज़ियल्लाहु अन्हु) के भाई, हज़रत वलीद बिन वलीद (रज़ियल्लाहु अन्हु) भी थे

उन्हें उनके भाई हिशाम और ख़ालिद बिन वलीद (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने फ़िद्या अदा करके रिहा करवाया

जब वे उन्हें लेकर मक्का पहुँचे, तो वहाँ हज़रत वलीद (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने इस्लाम क़बूल कर लिया

इस पर उनके भाइयों को ग़ुस्सा आ गया

उन्होंने कहा:

“अगर तुम्हें मुसलमान होना ही था, तो वहीं मदीना में क्यों नहीं हो गए?”

साज़िश नाकाम हो गई

भाइयों की बात के जवाब में हज़रत वलीद बिन वलीद (रज़ियल्लाहु अन्हु) बोले:

“मैंने सोचा, अगर मैं मदीना मुनव्वरा में मुसलमान हो गया, तो लोग कहेंगे कि मैं क़ैद से घबराकर मुसलमान हो गया हूँ।”

अब जब उन्होंने मदीना हिजरत का इरादा किया, तो उनके भाइयों ने उन्हें क़ैद कर दिया

हज़रत मुहम्मद ﷺ को जब यह बात मालूम हुई, तो आपने क़ुनूत-ए-नाज़िला में उनकी रिहाई की दुआ फ़रमानी शुरू कर दी

आख़िरकार एक दिन वलीद बिन वलीद (रज़ियल्लाहु अन्हु) मक्का से निकल भागने में कामयाब हो गए और मदीना पहुँचकर आप ﷺ की ख़िदमत में हाज़िर हो गए

इसी तरह एक और क़ैदी हज़रत वहब बिन उमैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) थे, जो बाद में इस्लाम ले आए

उन्होंने ग़ज़वा-ए-बद्र में मुसलमानों से जंग लड़ी थी और काफ़िरों की शिकस्त के बाद गिरफ़्तार कर लिए गए थे

वहब बिन उमैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) के वालिद का नाम उमैर था

उनके एक क़रीबी दोस्त सफ़वान (रज़ियल्लाहु अन्हु) थे

दोनों दोस्त मक्का के क़ुरैश क़बीले से ताल्लुक़ रखते थे और उस वक़्त तक इस्लाम नहीं लाए थे

ये दोनों मुसलमानों के सख़्त दुश्मन थे

इस्लाम दुश्मनों की गुप्त साज़िश

एक दिन दोनों दोस्त हिजरे अस्वद के पास बैठे थे

वे ग़ज़वा-ए-बद्र में क़ुरैश की शिकस्त और मारे गए क़ुरैशी सरदारों के बारे में बात करने लगे

सफ़वान (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा:

“अल्लाह की क़सम! इन सरदारों के क़त्ल हो जाने के बाद ज़िंदगी का कोई मज़ा ही नहीं रहा!”

यह सुनकर उमैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा:

“तुम सच कहते हो, ख़ुदा की क़सम! अगर मुझ पर एक शख़्स का क़र्ज़ न होता और मुझे अपने बीवी-बच्चों की फ़िक्र न होती, तो मैं मुहम्मद (ﷺ) के पास जाकर उन्हें क़त्ल कर देता (मआज़ अल्लाह)!”

“मेरे पास वहाँ पहुँचने का बहाना भी है, क्योंकि मेरा अपना बेटा वहब उनकी क़ैद में है। वह बद्र की लड़ाई में शरीक था…”

यह सुनकर सफ़वान (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने वादा करते हुए कहा:

“तुम्हारा क़र्ज़ मेरे ज़िम्मे है, मैं उसे अदा कर दूँगा। तुम्हारे बीवी-बच्चों की ज़िम्मेदारी भी मेरी है। जब तक वे ज़िंदा रहेंगे, मैं उनकी किफ़ालत (देखभाल) करूँगा।”

उमैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने यह सुनकर हज़रत मुहम्मद ﷺ के क़त्ल का पक्का इरादा कर लिया और कहा:

“तो फिर ठीक है! यह मामला मेरे और तुम्हारे दरमियान राज़ रहेगा। न तुम किसी से इसका ज़िक्र करोगे, न मैं!”

सफ़वान (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने इसका वादा कर लिया

इसके बाद उमैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) अपने घर गए, अपनी तलवार निकाली, उसकी धार तेज़ की और उसे ज़हर में डुबो दिया

फिर मक्का से मदीना का सफ़र किया

जब उमैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) मदीना पहुँचे, तो उन्होंने देखा कि मस्जिद-ए-नबवी में हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) कुछ दूसरे मुसलमानों के साथ ग़ज़वा-ए-बद्र की बातें कर रहे हैं

हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) की नज़र उन पर पड़ी, तो वे फ़ौरन खड़े हो गए, क्योंकि उन्होंने उमैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) के हाथ में नंगी तलवार देख ली थी

उन्होंने कहा:

“यह खुदा का दुश्मन ज़रूर किसी बुरे इरादे से आया है।”

फिर वे फ़ौरन वहां से नबी अकरम ﷺ के हुजरे मुबारक में गए और अर्ज़ किया:

“अल्लाह के रसूल! खुदा का दुश्मन उमैर नंगी तलवार लिए आया है।”

हज़रत मुहम्मद ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:

“उमर! उसे मेरे पास अंदर ले आओ।”

हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़ौरन बाहर निकले, तलवार का पटका पकड़कर उन्हें अंदर खींच लाए

उस वक्त वहां कुछ अंसारी मौजूद थे

हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने उनसे फ़रमाया:

“तुम लोग भी मेरे साथ अंदर आ जाओ… क्योंकि मुझे इसकी नीयत पर शक है।”

चुनांचे वे अंदर आ गए

हज़रत मुहम्मद ﷺ ने जब देखा कि हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) उमैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) को इस तरह पकड़कर ला रहे हैं, तो आप ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:

“उमर! इसे छोड़ दो… उमैर! आगे आ जाओ।”

चुनांचे उमैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) आप ﷺ के क़रीब आ गए और जाहिलियत के आदाब के मुताबिक़ “सुबह बख़ैर” कहा

हज़रत मुहम्मद ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:

“उमैर! हमें इस्लाम ने तुम्हारे इस सलाम से बेहतर सलाम अता किया है, जो जन्नत वालों का सलाम है… अब तुम बताओ, किस लिए आए हो?”

उमैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) बोले:

“मैं अपने क़ैदी बेटे के सिलसिले में बात करने आया हूँ।”

इस पर आप ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:

“फिर इस तलवार का क्या मतलब… सच्ची बात बताओ, किस लिए आए हो?”

उमैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) बोले:

“मैं वाक़ई अपने बेटे की रिहाई के लिए आया हूँ।”

चूंकि हज़रत उमैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) के इरादे से मुताल्लिक़ अल्लाह तआला ने हज़रत मुहम्मद ﷺ को वह्यी के ज़रिए पहले से बता दिया था, इसलिए आप ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:

“नहीं उमैर! यह बात नहीं… बल्कि बात यह है कि कुछ दिन पहले तुम और सफ़वान हिजर-ए-असवद के पास बैठे थे और तुम दोनों अपने मक़तूलों के बारे में बातें कर रहे थे, उन मक़तूलों की जो बद्र की लड़ाई में मारे गए और जिन्हें एक गड्ढे में डाल दिया गया था।

“उस वक्त तुमने सफ़वान से कहा था कि अगर तुम्हें किसी का क़र्ज़ न अदा करना होता और पीछे तुम्हें अपने बीवी-बच्चों की फ़िक्र न होती, तो मैं जाकर ‘मुहम्मद’ (ﷺ) को क़त्ल कर देता। इस पर सफ़वान ने कहा था कि अगर तुम यह काम कर डालो, तो क़र्ज़ की अदायगी वह कर देगा और तुम्हारे बीवी-बच्चों की भी किफ़ालत करेगा। लेकिन अल्लाह तआला तुम्हारा इरादा पूरा नहीं होने देंगे।”

उमैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) यह सुनकर हक्का-बक्का रह गए क्योंकि इस बातचीत के बारे में सिर्फ़ उन्हें पता था या सफ़वान (रज़ियल्लाहु अन्हु) को

चुनांचे उमैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़ौरन बोल उठे:

“मैं गवाही देता हूँ कि आप अल्लाह के रसूल हैं, और ऐ अल्लाह के रसूल! आप पर जो आसमान से ख़बरें आती हैं और जो वह्यी नाज़िल होती है, हम उसे झुठलाया करते थे।

“जहां तक इस मामले का ताल्लुक़ है… तो उस वक्त हिजर-ए-असवद के पास मेरे और सफ़वान के सिवा कोई तीसरा शख़्स मौजूद नहीं था और न ही हमारी बातचीत की किसी को ख़बर थी, क्योंकि हमने राज़दारी का अहद किया था।

“इसलिए अल्लाह की क़सम! आपको अल्लाह तआला के सिवा और कोई इस बात की ख़बर नहीं दे सकता। बस, हम्द व सना है उस ज़ात-ए-बारी तआला के लिए जिसने इस्लाम की तरफ़ मेरी रहनुमाई की, हिदायत बख़्शी और मुझे इस रास्ते पर चलने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाई।”

इसके बाद उमैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कलिमा पढ़ा और मुसलमान हो गए

तब हज़रत मुहम्मद ﷺ ने सहाबा-ए-किराम (रज़ियल्लाहु अन्हुम) से फ़रमाया:

“अपने भाई को दीन की तालीम दो और उन्हें क़ुरआन पाक पढ़ाओ और उनके क़ैदी को रिहा कर दो।”

सहाबा-ए-किराम (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने फ़ौरन हुक्म की तामील की

अब हज़रत उमैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने अर्ज़ किया:

“ऐ अल्लाह के रसूल! मैं हर वक्त इस कोशिश में लगा रहता था कि अल्लाह के इस नूर को बुझा दूँ और जो लोग अल्लाह के दीन को क़बूल कर चुके हैं, उन्हें खूब तकलीफ़ पहुँचाया करता था। अब मेरी आप से दरख़्वास्त है कि आप मुझे मक्का जाने की इजाज़त दें, ताकि वहाँ के लोगों को अल्लाह की तरफ़ बुलाऊँ और इस्लाम की दावत दूँ। मुमकिन है, अल्लाह तआला उन्हें हिदायत अता फ़रमाएँ।”

हज़रत मुहम्मद ﷺ ने उन्हें मक्का जाने की इजाज़त दे दी।

चुनांचे वे वापस मक्का आ गए।

उनकी तबलीग़ से उनके बेटे वहब (रज़ियल्लाहु अन्हु) भी मुसलमान हो गए।

जब हज़रत सफ़वान (रज़ियल्लाहु अन्हु) को यह इत्तिला मिली कि उमैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) मुसलमान हो गए हैं, तो वे हैरान रह गए और क़सम खा ली कि अब कभी उमैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) से नहीं बोलेंगे।

अपने घर वालों को दीन की दावत देने के बाद उमैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) सफ़वान (रज़ियल्लाहु अन्हु) के पास आए और पुकार कर कहा:

“ऐ सफ़वान! तुम हमारे सरदारों में से एक सरदार हो। तुम्हें मालूम है कि हम पत्थरों को पूजते रहे हैं और उनके नाम पर क़ुर्बानियाँ देते रहे हैं। भला यह भी कोई दीन हुआ? मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह तआला के सिवा कोई माबूद नहीं और यह कि मुहम्मद ﷺ अल्लाह के रसूल हैं।”

उनकी बात सुनकर सफ़वान (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कोई जवाब न दिया।

बाद में फतह-ए-मक्का के मौके पर उमैर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने उनके लिए अमान तलब की थी और फिर वे भी ईमान ले आए थे।

(उनके इस्लाम लाने का क़िस्सा फतह-ए-मक्का के मौके पर तफ़सील से आएगा, इंशाअल्लाह।)

इसी तरह उन क़ैदियों में हज़रत मुहम्मद ﷺ के चाचा हज़रत अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) भी थे।

सहाबा-ए-किराम (रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने उन्हें बहुत सख़्ती से बाँध रखा था।

रस्सी की सख़्ती उन्हें बहुत तकलीफ़ दे रही थी और वे कराह रहे थे।

उनकी इस तकलीफ़ की वजह से हज़रत मुहम्मद ﷺ भी तमाम रात बेचैन रहे…

जब सहाबा-ए-किराम (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को मालूम हुआ कि हज़रत मुहम्मद ﷺ इस वजह से बेचैन हैं, तो फ़ौरन हज़रत अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) की रस्सियाँ ढीली कर दीं…

यही नहीं! बाकी तमाम क़ैदियों की रस्सियाँ भी ढीली कर दीं…

फिर उन्होंने अपना फ़िदया अदा किया और रिहा हुए।

इसी मौके पर हज़रत अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) मुसलमान हो गए थे मगर उन्होंने मक्का वालों से अपना मुसलमान होना पोशीदा रखा।

क़ैदियों में एक क़ैदी अबू अज़्ज़ा जुहमी भी था।

उसने हज़रत मुहम्मद ﷺ से इल्तिजा की:

“ऐ अल्लाह के रसूल! मैं बाल-बच्चों वाला आदमी हूँ और खुद बहुत ज़रूरतमंद हूँ… मैं फ़िदया नहीं अदा कर सकता… मुझ पर रहम फ़रमाएँ।”

यह एक शायर था और मुसलमानों के ख़िलाफ़ शेर लिख-लिखकर तकलीफ़ पहुँचाया करता था।

इसके बावजूद हज़रत मुहम्मद ﷺ ने उसकी दरख़्वास्त मंज़ूर फ़रमाई और बिना फ़िदया के उसे रिहा कर दिया…

लेकिन इस से यह वादा लिया कि आइंदा वह मुसलमानों के ख़िलाफ़ शेर नहीं लिखेगा…

उसने वादा कर लिया…

मगर रिहा होने के बाद जब यह मक्का पहुँचा, तो फिर अपना काम शुरू कर दिया।

मुसलमानों के ख़िलाफ़ शेर लिखने लगा।

यह मक्का के मुश्रिकों से कहा करता था:

“मैंने मुहम्मद पर जादू कर दिया था, इसलिए उन्होंने मुझे बिना फ़िदया के रिहा कर दिया।”

अगले साल यह शख़्स ग़ज़वा-ए-उहुद के मौके पर काफ़िरों की लश्कर में शामिल हुआ और अपने अशआर से काफ़िरों को जोश दिलाता रहा…

इसी लड़ाई में यह क़त्ल हुआ।

बद्र की फतह की ख़बर शाह-ए-हबशा तक पहुँची तो वह बहुत ख़ुश हुए।

हज़रत जाफ़र (रज़ियल्लाहु अन्हु) और कुछ दूसरे मुसलमान उस वक्त तक हबशा ही में थे।

शाह-ए-हबशा ने उन्हें अपने दरबार में बुलाकर यह ख़ुशख़बरी सुनाई।

बद्र की लड़ाई में शरीक होने वाले सहाबा ‘बद्री’ कहलाए।

इन्हें बहुत फ़ज़ीलत हासिल है।

हज़रत अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायत है कि हज़रत मुहम्मद ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:

“अल्लाह तआला ने असहाब-ए-बद्र पर अपना ख़ास फ़ज़्ल व करम फ़रमाया है और उनसे कह दिया है कि जो चाहो करो, मैं तुम्हारे गुनाह माफ़ कर चुका… या यह फ़रमाया कि तुम्हारे लिए जन्नत वाजिब हो चुकी है।”

सय्यदा फातिमा की रूखसती

ग़ज़वा-ए-बदर के बाद आप ﷺ ने अपनी छोटी बेटी हज़रत फ़ातिमा रज़ियल्लाहु अन्हा की शादी हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु से कर दी। शादी से पहले आप ﷺ ने हज़रत फ़ातिमा से पूछा:

“बेटी, तुम्हारे चचाज़ाद भाई अली रज़ियल्लाहु अन्हु की तरफ़ से तुम्हारा रिश्ता आया है, तुम इस बारे में क्या कहती हो?”

हज़रत फ़ातिमा रज़ियल्लाहु अन्हा ख़ामोश रहीं, गोया उन्होंने कोई ऐतराज़ न किया। तब हुज़ूर नबी अकरम ﷺ ने हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु को बुलाया और उनसे पूछा:

“तुम्हारे पास क्या कुछ है?” (यानी शादी के लिए क्या इंतज़ाम है?)

उन्होंने जवाब दिया:

“मेरे पास सिर्फ़ एक घोड़ा और एक ज़िरह है।”

यह सुनकर आप ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:

“घोड़ा तो तुम्हारे लिए ज़रूरी है, अलबत्ता तुम ज़िरह को फ़रोख़्त कर दो।”

हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु ने वह ज़िरह चार सौ अस्सी दिरहम में फ़रोख़्त कर दी और रक़म लाकर आप ﷺ की ख़िदमत में पेश कर दी।

इस सिलसिले में एक रिवायत यह भी है कि जब हज़रत उस्मान रज़ियल्लाहु अन्हु को पता चला कि शादी के सिलसिले में हज़रत अली अपनी ज़िरह बेच रहे हैं तो उन्होंने फ़रमाया:

“यह ज़िरह इस्लाम के शहसवार अली की है, यह हरगिज़ फ़रोख़्त नहीं होनी चाहिए।”

फिर उन्होंने हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु के ग़ुलाम को बुलाया और उन्हें चार सौ दिरहम देते हुए कहा:

“यह दिरहम इस ज़िरह के बदले में अली को दे दें।”

साथ ही उन्होंने ज़िरह भी वापस कर दी… बहरहाल इस तरह शादी का ख़र्च पूरा हुआ। हुज़ूर नबी करीम ﷺ ने हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु और हज़रत फ़ातिमा रज़ियल्लाहु अन्हा के निकाह का ख़ुत्बा पढ़ा, फिर आप ﷺ ने दोनों के लिए दुआ फ़रमाई।

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