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Hijrat e Madina | Prophet Muhammad History in Hindi Part 30
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Seerat e Mustafa Qist 30
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Table of Contents
मुसलमानों का मदीना पहुंचना
जब ये मुसलमान मदीना पहुंचे तो उन्होंने खुलकर अपने इस्लाम क़बूल करने का ऐलान कर दिया। ऐलानिया नमाज़ें पढ़ने लगे। मदीना मुनव्वरा में हालात साज़गार देखकर नबी करीम ﷺ ने मुसलमानों को मक्का से मदीना मुनव्वरा की तरफ हिजरत करने का हुक्म दिया क्योंकि क़ुरैश को जब ये पता चला कि नबी अकरम ﷺ ने एक जंगजू क़ौम के साथ नाता जोड़ लिया है और उनके यहां ठिकाना बना लिया है, तो उन्होंने मुसलमानों का मक्का में जीना और मुश्किल कर दिया।
तकलीफें देने का ऐसा सिलसिला शुरू किया कि अब तक ऐसा नहीं किया था। रोज़-ब-रोज़ सहाबा की परेशानियां और मुसीबतें बढ़ती चली गईं। कुछ सहाबा को दीन से फेरने के लिए तरह-तरह के तरीके आजमाए गए, तरह-तरह के अज़ाब दिए गए। आखिर सहाबा ने अपनी मुसीबतों की फरियाद आप ﷺ से की और मक्का से हिजरत कर जाने की इजाजत मांगी। हुजूर अकरम ﷺ चंद दिन खामोश रहे। आखिर एक दिन फ़रमाया:
“मुझे तुम्हारी हिजरतगाह की खबर दी गई है… वह यसरिब है (यानी मदीना)…”
और इसके बाद हुजूर अकरम ﷺ ने उन्हें हिजरत करने की इजाजत दे दी। इस इजाजत के बाद सहाबा-ए- किराम एक-एक, दो-दो करके छिप-छिपाकर जाने लगे। मदीना की तरफ रवाना होने से पहले नबी अकरम ﷺ ने अपने सहाबा के दरमियान भाईचारा फ़रमाया, उन्हें एक-दूसरे का भाई बनाया।
मसलन, हज़रत अबू बक्र रज़ियल्लाहु अन्हु और हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु के दरमियान भाईचारा फ़रमाया, इसी तरह हज़रत हम्ज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु को हज़रत ज़ैद बिन हारिसा रज़ियल्लाहु अन्हु का भाई बनाया, हज़रत उस्मान रज़ियल्लाहु अन्हु को हज़रत अब्दुर्रहमान बिन औफ़ रज़ियल्लाहु अन्हु का भाई बनाया, हज़रत उबादा बिन सामित रज़ियल्लाहु अन्हु और हज़रत बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु के दरमियान, हज़रत मुसअब बिन उमैर रज़ियल्लाहु अन्हु और हज़रत सअद बिन अबी वक़्क़ास रज़ियल्लाहु अन्हु के दरमियान, हज़रत अबू उबैदा बिन अल-जर्राह रज़ियल्लाहु अन्हु और हज़रत अबू हुज़ैफा रज़ियल्लाहु अन्हु के ग़ुलाम हज़रत सालिम रज़ियल्लाहु अन्हु के दरमियान, हज़रत सईद बिन ज़ैद रज़ियल्लाहु अन्हु और हज़रत तल्हा बिन उबैदुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हु के दरमियान और हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु को ख़ुद अपना भाई बनाया।
मदीने की तरफ पहली हिजरत
मुसलमानों में से जिन सहाबा ने सबसे पहले मदीना की तरफ हिजरत की, वे रसूल अकरम ﷺ के फूफी ज़ाद भाई हज़रत अबू सलमा अब्दुल्लाह बिन अब्दुल असद मख़ज़ूमी रज़ियल्लाहु अन्हु थे। उन्होंने सबसे पहले तन्हा जाने का इरादा फ़रमाया। जब ये हबशा से वापस मक्का आए थे तो उन्हें सख्त तकलीफें पहुंचाई गई थीं। आखिर उन्होंने वापस हबशा जाने का इरादा कर लिया था, मगर फिर उन्हें मदीना के लोगों के मुसलमान होने का पता चला तो ये रुक गए और हिजरत की इजाजत मिलने पर मदीना रवाना हुए। मक्का से रवाना होते वक्त ये अपने ऊंट पर सवार हुए और अपनी बीवी उम्मे सलमा रज़ियल्लाहु अन्हा और अपने दूध पीते बच्चे को भी साथ सवार कर लिया। जब उनके ससुराल वालों को पता चला तो वे उन्हें रोकने के लिए दौड़े और रास्ते में जा पकड़ा। उनका रास्ता रोककर खड़े हो गए।
उन्होंने उनके ऊंट की मेंहार पकड़ी और बोले:
“ऐ अबू सलमा! तुम अपने बारे में अपनी मर्ज़ी के मुख़्तार हो मगर उम्मे सलमा हमारी बेटी है, हम यह गवारा नहीं कर सकते कि तुम उसे साथ ले जाओ।”
यह कहकर उन्होंने उम्मे सलमा रज़ियल्लाहु अन्हा के ऊंट की लगाम खींच ली। उसी वक़्त अबू सलमा के ख़ानदान के लोग वहां पहुंच गए और बोले:
“अबू सलमा का बेटा हमारे ख़ानदान का बच्चा है। जब तुमने अपनी बेटी को उसके क़ब्जे से छुड़ा लिया तो हम भी अपने बच्चे को उसके साथ नहीं जाने देंगे।”
यह कहकर उन्होंने बच्चे को छीन लिया। इस तरह इन ज़ालिमों ने हज़रत अबू सलमा रज़ियल्लाहु अन्हु को उनकी बीवी और बच्चे से जुदा कर दिया। अबू सलमा रज़ियल्लाहु अन्हु तन्हा मदीना मुनव्वरा पहुंचे।
उम्मे सलमा रज़ियल्लाहु अन्हा शौहर और बच्चे की जुदाई के ग़म में रोज़ाना सुबह-सवेरे मक्का से बाहर मदीना मुनव्वरा की तरफ जाने वाले रास्ते में जाकर बैठ जातीं और रोती रहतीं। एक दिन उनका एक रिश्तेदार उधर से गुज़रा। उसने उन्हें रोते देखा तो उसे तरस आ गया। वह अपनी क़ौम के लोगों के पास गया और उनसे बोला:
“तुम्हें इस ग़रीब पर रहम नहीं आता… इसे इसके शौहर और बच्चे से जुदा कर दिया, कुछ तो ख़्याल करो।”
आख़िर उनके दिल पसीज गए। उन्होंने उम्मे सलमा रज़ियल्लाहु अन्हा को जाने की इजाज़त दे दी। यह ख़बर सुनकर अबू सलमा रज़ियल्लाहु अन्हु के रिश्तेदारों ने बच्चा उम्मे सलमा रज़ियल्लाहु अन्हा को दे दिया और उन्हें इजाज़त दे दी कि बच्चे को लेकर मदीना चली जाएं। इस तरह उन्होंने मदीना की तरफ तन्हा सफ़र शुरू किया।
रास्ते में हज़रत उस्मान बिन तल्हा रज़ियल्लाहु अन्हु मिले। यह उस वक़्त मुसलमान नहीं हुए थे, काबा के चाबीबरदार थे। यह सुल्हे-हुदैबिया के मौक़े पर मुसलमान हुए थे। यह उनकी हिफ़ाज़त की ग़रज़ से उनके ऊंट के साथ-साथ चलते रहे, यहां तक कि उन्हें क़ुबा में पहुंचा दिया। फिर हज़रत उस्मान बिन तल्हा रज़ियल्लाहु अन्हु यह कहते हुए रुख़्सत हो गए:
“तुम्हारे शौहर यहां मौजूद हैं।”
इस तरह उम्मे सलमा रज़ियल्लाहु अन्हा मदीना पहुंचीं। आप पहली मुहाजिर ख़ातून हैं जो शौहर के बिना मदीना आईं। हज़रत उस्मान बिन तल्हा रज़ियल्लाहु अन्हु ने उन्हें मदीना पहुंचाकर जो अज़ीम एहसान किया था, उसकी बुनियाद पर कहा करती थीं:
“मैंने उस्मान बिन तल्हा से ज़्यादा नेक और शरीफ़ किसी को नहीं पाया।”
इसके बाद मक्का से मुसलमानों की मदीना आमद शुरू हुई। सहाबा-ए- किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम एक के बाद एक आते रहे। अंसारी मुसलमान उन्हें अपने घरों में ठहराते, उनकी ज़रूरतों का ख़्याल रखते। हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु और अय्याश बिन अबू रबीआ रज़ियल्लाहु अन्हु बीस आदमियों के एक क़ाफ़िले के साथ मदीना पहुंचे।
हज़रत उमर की हिजरत
हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु की हिजरत की ख़ास बात यह है कि वह मक्का से छिपकर नहीं निकले बल्कि बाक़ायदा ऐलान करके निकले। उन्होंने पहले ख़ान-ए-काबा का तवाफ़ किया, फिर मक़ामे-इब्राहीम पर दो रकअत नमाज़ अदा की, उसके बाद मुश्रिकों से बोले:
“जो शख़्स अपने बच्चों को यतीम करना चाहता है, अपनी बीवी को बेवा करना चाहता है या अपनी मां की गोद वीरान करना चाहता है… वह मुझे जाने से रोक कर दिखाए।”
उनका यह ऐलान सुनकर सारे क़ुरैश को सांप सूंघ गया। किसी ने उनका पीछा करने की जुर्रत न की। वह बड़े वक़ार से उन सबके सामने रवाना हुए।
हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु भी हिजरत की तैयारी कर रहे थे। हिजरत से पहले वह आरज़ू किया करते थे कि नबी अकरम ﷺ के साथ हिजरत करें। वह रवाना होने की तैयारी कर चुके थे। एक दिन हुजूर नबी करीम ﷺ ने उनसे फ़रमाया:
“अबू बक्र! जल्दी न करो, उम्मीद है, मुझे भी इजाज़त मिलने वाली है।”
चुनांचे हज़रत अबू बक्र रज़ियल्लाहु अन्हु रुक गए। उन्होंने हिजरत के लिए दो ऊंटनियां तैयार कर रखी थीं। उन्होंने इन दोनों को आठ सौ दिरहम में ख़रीदा था और उन्हें चार माह से खिला-पिला रहे थे।
क़त्ल की साज़िश
उधर मुश्रिकों ने जब यह देखा कि मुसलमान मदीना हिजरत करते जा रहे हैं और मदीना के रहने वाले बड़े जंगजू हैं… वहां मुसलमान रोज़-ब-रोज़ ताक़त पकड़ते चले जाएंगे, तो उन्हें ख़ौफ़ महसूस हुआ कि अल्लाह के रसूल भी कहीं मदीना न चले जाएं और वहां अंसार के साथ मिलकर हमारे ख़िलाफ़ जंग की तैयारी न करने लगें… तो वे सब जमा हुए… और सोचने लगे कि क्या क़दम उठाएं।
यह क़ुरैश दारुन्नदवा में जमा हुए थे। दारुन्नदवा उनके मशवरा करने की जगह थी। यह पहला पुख़्ता मकान था जो मक्का में तामीर हुआ। क़ुरैश के इस मशवरे में शैतान भी शरीक हुआ। वह इंसानी शक्ल में आया था और एक बूढ़े के रूप में था, हरे रंग की चादर ओढ़े हुए था। वह दरवाज़े पर आकर ठहर गया। उसे देखकर लोगों ने पूछा:
“आप कौन बुज़ुर्ग हैं?”
उसने कहा:
“मैं नज्द का सरदार हूं। आप लोग जिस ग़रज़ से यहां जमा हुए हैं, मैं भी उसी के बारे में सुनकर आया हूं ताकि लोगों की बातें सुनूं और हो सके तो कोई मुफ़ीद मशवरा भी दूं।”
इस पर क़ुरैशियों ने उसे अंदर बुला लिया। अब उन्होंने मशवरा शुरू किया। उनमें से कोई बोला:
“इस शख़्स (यानी रसूल अल्लाह ﷺ) का मामला तुम देख ही चुके हो, अल्लाह की क़सम! अब हर वक़्त इस बात का ख़तरा है कि यह अपने नए और अजनबी मददगारों के साथ मिलकर हम पर हमला करेगा, लिहाज़ा मशवरा करके इसके बारे में कोई एक बात तय कर लो।”
वहां मौजूद एक शख़्स अबुल-बख़्तरी बिन हिशाम ने कहा:
“इसे बेड़ियां पहना कर एक कोठरी में बंद कर दो और उसके बाद कुछ अर्सा तक इंतज़ार करो, ताकि इसकी भी वही हालत हो जाए जो इस जैसे शायरों की हो चुकी है और यह भी उन्हीं की तरह मौत का शिकार हो जाए।”
इस पर शैतान ने कहा:
“हरगिज़ नहीं! यह राय बिल्कुल ग़लत है। यह ख़बर इसके साथियों तक पहुंच जाएगी, वे तुम पर हमला कर देंगे और अपने साथी को निकाल कर ले जाएंगे… इस वक़्त तुम्हें पछताना पड़ेगा, लिहाज़ा कोई और तदबीर सोचो।”
अब उनमें बहस शुरू हो गई। असवद बिन रबीआ ने कहा:
“हम इसे यहां से निकालकर जला-वतन कर देते हैं… फिर यह हमारी तरफ़ से कहीं भी चला जाए।”
इस पर नज्दी (यानी शैतान) ने कहा:
“यह राय भी ग़लत है। तुम देखते नहीं, इसकी बातें किस क़दर ख़ूबसूरत हैं, कितनी मीठी हैं। यह अपना कलाम सुनाकर लोगों के दिलों को मोह लेता है। अल्लाह की क़सम! अगर तुमने इसे जला-वतन कर दिया तो तुम्हें अमन नहीं मिलेगा। यह कहीं भी जाकर लोगों के दिलों को मोह लेगा। फिर तुम पर हमला-आवर होगा… और तुम्हारी यह सारी सरदारी छीन लेगा… लिहाज़ा कोई और बात सोचो।”
इस पर अबू जहल ने कहा:
“मेरी एक ही राय है और इससे बेहतर राय कोई नहीं हो सकती।”
सब ने कहा:
“और वह क्या है?”
अबू जहल ने कहा:
“आप लोग हर ख़ानदान और हर क़बीले का एक-एक बहादुर और ताक़तवर नौजवान लें। हर एक को एक-एक तलवार दें। इन सबको मुहम्मद पर हमला करने के लिए सुबह-सवेरे भेजें। वे सब एक साथ उस पर अपनी तलवारों का एक भरपूर वार करें… इस तरह उसे क़त्ल कर दें। इससे होगा यह कि उसके क़त्ल में सारे क़बीले शामिल हो जाएंगे, लिहाज़ा मुहम्मद के ख़ानदान वालों में इतनी ताक़त नहीं होगी कि वे इन सबसे जंग करें… लिहाज़ा वे ख़ून-बहा (यानी फ़िदये की रक़म) लेने पर आमादा हो जाएंगे, वह हम उन्हें दे देंगे।”
इस पर शैतान ख़ुश होकर बोला:
“हां! यह है आला राय… मेरे ख़याल में इससे अच्छी राय कोई और नहीं हो सकती।”
चुनांचे इस राय को सब ने मंज़ूर कर लिया। अल्लाह तआला ने फ़ौरन जिब्रील अलैहिस्सलाम को हुज़ूर अकरम ﷺ के पास भेज दिया। उन्होंने अर्ज़ किया:
“आप रोज़ाना जिस बिस्तर पर सोते हैं, आज उस पर न सोइए।”
इसके बाद उन्होंने मुश्रिकों की साज़िश की ख़बर दी, चुनांचे सूरह अल-अनफ़ाल की आयत 30 में आता है:
“और उस वाक़े का भी ज़िक्र कीजिए, जब काफ़िर लोग आप की निस्बत बुरी-बुरी तदबीरें सोच रहे थे कि क्या आपको क़ैद कर लें, या क़त्ल कर डालें, या जला-वतन कर दें और वे अपनी तदबीरें कर रहे थे और अल्लाह अपनी तदबीर कर रहा था और सबसे मज़बूत तदबीर वाला अल्लाह है।”
ग़रज़ जब रात का एक-तिहाई हिस्सा गुज़र गया तो मुश्रिकों का टोला हुज़ूर अकरम ﷺ के घर तक पहुंचकर छुप गया… वे इंतज़ार करने लगे कि कब वे सोएं और वे सब एक दम उन पर हमला कर दें। उन काफ़िरों की तादाद एक सौ थी।
नबी करीम ﷺ की हिजरत
हज़रत अली का आपके बिस्तर पर सोना
उधर हुज़ूर नबी करीम ﷺ ने हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु से फ़रमाया:
“तुम मेरे बिस्तर पर सो जाओ और मेरी यमनी चादर ओढ़ लो।”
फिर आप ﷺ ने हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु को तसल्ली देते हुए फ़रमाया:
“तुम्हारे साथ कोई नाखुशगवार वाक़िआ पेश नहीं आएगा।”
मश्रिकों के जिस गिरोह ने आप ﷺ के घर को घेर रखा था, उनमें हकीम बिन अबुल-आस, उक़्बा बिन अबी मुईत, नस्र बिन हारिस, उबैद बिन ख़लफ़, ज़म’अह बिन असवद और अबू जहल भी शामिल थे। अबू जहल उस वक़्त धीमी आवाज़ में अपने साथियों से कह रहा था:
“मुहम्मद (ﷺ) कहता है, अगर तुम उसके दीन को क़ुबूल कर लोगे तो तुम्हें अरब और अज़म की बादशाहत मिल जाएगी और मरने के बाद तुम्हें दोबारा ज़िंदगी अता की जाएगी और वहां तुम्हारे लिए ऐसी जन्नतें होंगी, ऐसे बाग़ात होंगे जैसे उर्दुन के बाग़ात हैं, लेकिन अगर तुम मेरी पैरवी नहीं करोगे तो तुम सब तबाह हो जाओगे, मरने के बाद दोबारा ज़िंदा किए जाओगे तो तुम्हारे लिए वहां जहन्नम की आग तैयार होगी जिसमें तुम्हें जलाया जाएगा।”
नबी अकरम ﷺ ने उसके यह अल्फ़ाज़ सुन लिए, आप यह कहते हुए घर से निकले:
“हाँ! मैं यक़ीनन यह बात कहता हूँ।”
इसके बाद आप ﷺ ने अपनी मुट्ठी में कुछ मिट्टी उठाई और यह आयत तिलावत फ़रमाई:
“यासीन। क़सम है हिकमत वाले क़ुरआन की, बेशक आप पैग़म्बरों के गिरोह में से हैं, सीधे रास्ते पर हैं। यह क़ुरआन ज़बरदस्त अल्लाह मेहरबान की तरफ़ से नाज़िल किया गया है ताकि आप (पहले तो) ऐसे लोगों को डराएं जिनके बाप-दादा नहीं डराए गए, सो उसी से ये बेख़बर हैं। उनमें से अक्सर लोगों पर बात साबित हो चुकी है, सो ये लोग ईमान नहीं लाएंगे। हमने उनकी गर्दनों में तौक़ डाल दिए हैं, फिर वे ठोडियों तक उठ गए हैं, जिससे उनके सर ऊपर को उठ गए हैं और हमने एक आड़ उनके सामने कर दी है और एक आड़ उनके पीछे कर दी है जिससे हमने उन्हें हर तरफ़ से घेर लिया है, सो वे देख नहीं सकते।”
यह सूरह यासीन की आयात 1 से 9 का तर्जुमा है। इन आयात की बरकत से अल्लाह तआला ने काफ़िरों को वक़्ती तौर पर अंधा कर दिया। वे हज़रत नबी अकरम ﷺ को अपने सामने से जाते हुए न देख सके।
हुज़ूर ﷺ ने जो मिट्टी फेंकी थी वह उन सब के सरों पर गिरी, कोई एक भी ऐसा न बचा जिस पर मिट्टी न गिरी हो।
जब क़ुरैश को पता चला कि हुज़ूर ﷺ उनके सरों पर ख़ाक डालकर जा चुके हैं तो वे सब घर के अंदर दाख़िल हुए। आप ﷺ के बिस्तर पर हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु चादर ओढ़े सो रहे थे। यह देखकर वे बोले:
“ख़ुदा की क़सम! यह तो अपनी चादर ओढ़े सो रहे हैं!”
लेकिन जब चादर उलटी गई तो बिस्तर पर हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु नज़र आए। मुश्रिकीन हैरतज़दा रह गए। उन्होंने हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु से पूछा:
“तुम्हारे साहब कहां हैं?”
मगर उन्होंने कुछ न बताया, तो वे हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु को मारते हुए बाहर ले आए और मस्जिदे हराम तक लाए। कुछ देर तक उन्होंने उन्हें रोके रखा, फिर छोड़ दिया।
अब हुज़ूर ﷺ को हिजरत के सफ़र पर रवाना होना था। उन्होंने हज़रत जिब्रील अलैहिस्सलाम से पूछा:
“मेरे साथ दूसरा हिजरत करने वाला कौन होगा?”
जवाब में हज़रत जिब्रील अलैहिस्सलाम ने कहा:
“अबू बक्र सिद्दीक़ होंगे।”
हुज़ूर ﷺ उस वक़्त तक चादर ओढ़े हुए थे। इसी हालत में हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु के घर पहुंचे। दरवाज़े पर दस्तक दी तो हज़रत असमा रज़ियल्लाहु अन्हा ने दरवाज़ा खोला और हुज़ूर ﷺ को देखकर अपने वालिद हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु को बताया कि रसूल अल्लाह ﷺ आए हैं और चादर ओढ़े हुए हैं।
यह सुनते ही हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु बोल उठे:
“अल्लाह की क़सम! इस वक़्त आप ﷺ यक़ीनन किसी ख़ास काम से तशरीफ़ लाए हैं।”
फिर उन्होंने आप ﷺ को अपनी चारपाई पर बैठाया। आप ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:
“दूसरे लोगों को यहाँ से हटा दो।”
हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु ने हैरान होकर अर्ज़ किया:
“ऐ अल्लाह के रसूल! यह तो सब मेरे घर वाले हैं।”
इस पर आप ﷺ ने फ़रमाया:
“मुझे हिजरत की इजाज़त मिल गई है।”
अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु फ़ौरन बोल उठे:
“मेरे माँ-बाप आप पर क़ुर्बान, क्या मैं आपके साथ जाऊँगा?”
जवाब में हज़ूर ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:
“हाँ! तुम मेरे साथ जाओगे।”
यह सुनते ही ख़ुशी से हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु रोने लगे। हज़रत आयशा सिद्दीक़ा रज़ियल्लाहु अन्हा फ़रमाती हैं:
“मैंने अपने वालिद को रोते देखा तो हैरान हुई… क्योंकि मैं उस वक़्त तक नहीं जानती थी कि इंसान ख़ुशी की वजह से भी रो सकता है।”
फिर हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु ने अर्ज़ किया:
“ऐ अल्लाह के रसूल! आप पर मेरे माँ-बाप क़ुर्बान! आप इन दोनों ऊँटनियों में से एक ले लें, मैंने इन्हें इसी सफ़र के लिए तैयार किया है।”
इस पर हज़ूर ﷺ ने फ़रमाया:
“मैं यह क़ीमत देकर ले सकता हूँ।”
यह सुनकर हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु फिर रोने लगे और अर्ज़ किया:
“ऐ अल्लाह के रसूल! आप पर मेरे माँ-बाप क़ुर्बान! मैं और मेरा सब माल तो आप ही का है।”
हज़ूर ﷺ ने एक ऊँटनी ले ली।
कुछ रिवायतों में आता है कि हज़ूर ﷺ ने ऊँटनी की क़ीमत अदा की थी। इस ऊँटनी का नाम क़सवा था। यह आप ﷺ की वफ़ात तक आपके पास रही। हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु की ख़िलाफ़त में इसकी मौत वाक़े हुई।
सैय्यदा आयशा सिद्दीक़ा रज़ियल्लाहु अन्हा फ़रमाती हैं कि हमने इन दोनों ऊँटनियों को जल्दी-जल्दी सफ़र के लिए तैयार किया। चमड़े की एक थैली में खाने-पीने का सामान रख दिया। हज़रत अस्मा रज़ियल्लाहु अन्हा ने अपनी चादर फाड़कर उसके एक हिस्से से नाश्ते की थैली बाँध दी और दूसरे हिस्से से पानी के बर्तन का मुँह बंद कर दिया। इस पर हज़ूर ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:
“अल्लाह तआला तुम्हारी इस ओढ़नी के बदले जन्नत में दो ओढ़नियाँ देगा।”
ओढ़नी को फाड़कर दो करने के अमल की बुनियाद पर हज़रत अस्मा रज़ियल्लाहु अन्हा को “ज़ातु-निताक़ैन” का लक़ब मिला, यानी “दो ओढ़नी वाली।” याद रहे कि “निताक़” उस दुपट्टे को कहा जाता है जिसे अरब की औरतें काम के दौरान कमर के गिर्द बाँध लेती थीं।
फिर रात के वक़्त हज़ूर ﷺ हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु के साथ रवाना हुए और पहाड़ सौर के पास पहुँचे। सफ़र के दौरान कभी हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु हज़ूर ﷺ के आगे चलने लगते और कभी पीछे।
हज़ूर ﷺ ने दर्याफ़्त फ़रमाया:
“अबू बक्र! ऐसा क्यों कर रहे हो?”
जवाब में उन्होंने अर्ज़ किया:
“अल्लाह के रसूल! मैं इस ख़याल से परेशान हूँ कि कहीं रास्ते में कोई आपका पीछा करने वाला न बैठा हो।”
हज़रत अबु बक्र और सांप
इस पहाड़ में एक ग़ार थी। जब दोनों ग़ार के दरवाज़े तक पहुँचे तो हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु ने अर्ज़ किया:
“क़सम उस ज़ात की जिसने आपको हक़ देकर भेजा! आप ज़रा ठहरिए, पहले मैं ग़ार में दाख़िल होऊँगा। अगर ग़ार में कोई मोअज़्ज़ी कीड़ा हुआ तो कहीं वह आपको नुक़सान न पहुँचा दे…”
चुनांचे हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु ग़ार में दाख़िल हुए। उन्होंने ग़ार को हाथों से टटोलकर देखना शुरू किया। जहाँ कोई सुराख़ मिलता, अपनी चादर से एक टुकड़ा फाड़कर उसे बंद कर देते।
इस तरह उन्होंने सभी सुराख बंद कर दिए मगर एक सुराख रह गया और उसी में साँप था। हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु ने उस सुराख पर अपनी एड़ी रख दी। इसके बाद आंहज़रत ﷺ ग़ार में दाख़िल हुए। उधर साँप ने अपने सुराख पर एड़ी देखी तो उसे डस लिया।
तकलीफ़ की शिद्दत से हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु की आँखों से आँसू निकल पड़े, लेकिन उन्होंने अपने मुँह से आवाज़ नहीं निकलने दी, क्योंकि उस वक़्त आंहज़रत ﷺ उनके ज़ानू पर सर रखकर सो रहे थे। हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु ने साँप के डसने के बावजूद अपने जिस्म को ज़रा सा भी हरकत न दी… न आवाज़ निकाली कि कहीं हज़ूर ﷺ की आँख न खुल जाए। लेकिन आँसू रोक न सके… वह हज़ूर ﷺ पर गिर पड़े। उनके गिरने से हज़ूर ﷺ की आँख खुल गई। आपने हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु की आँखों में आँसू देखे तो पूछा:
“अबू बक्र! क्या हुआ?”
उन्होंने जवाब दिया:
“आप पर मेरे माँ-बाप क़ुर्बान, मुझे साँप ने डस लिया है।”
आप ﷺ ने अपना लुआबे-दहन साँप के काटे की जगह पर लगा दिया। इससे तकलीफ़ और ज़हर का असर फ़ौरन दूर हो गया।
सुबह हुई, आंहज़रत ﷺ को हज़रत अबू बक्र रज़ियल्लाहु अन्हु के जिस्म पर चादर नज़र न आई। तो दरयाफ़्त किया:
“अबू बक्र! चादर कहाँ है?”
उन्होंने बता दिया:
“अल्लाह के रसूल! मैंने चादर फाड़-फाड़ कर इस ग़ार के सुराख़ बंद किए हैं।”
आप ﷺ ने दुआ के लिए हाथ उठा दिए और फ़रमाया:
“ऐ अल्लाह! अबू बक्र को जन्नत में मेरा साथी बना।”
उसी वक़्त अल्लाह तआला ने वही के ज़रिए ख़बर दी कि आपकी दुआ क़बूल कर ली गई है।
मकड़ी ने गार पर जाला बुन दिया
इधर क़ुरैश के लोग नबी अकरम ﷺ की तलाश में उस ग़ार के क़रीब आ पहुँचे। उनमें से कुछ लोग जल्दी से आगे बढ़कर ग़ार में झाँकने लगे। ग़ार के दहाने पर उन्हें मकड़ी का जाला नज़र आया। साथ ही दो जंगली कबूतर नज़र आए। इस पर उनमें से एक ने कहा:
“इस ग़ार में कोई नहीं है।”
एक रिवायत में यूँ आया है कि उनमें उमय्या बिन ख़लफ़ भी था। उसने कहा:
“इस ग़ार के अंदर जाकर देखो।”
किसी ने जवाब दिया:
“ग़ार के अंदर जाकर देखने की क्या ज़रूरत है? ग़ार के मुँह पर बहुत जाले लगे हुए हैं। अगर वे अंदर गए होते तो ये जाले बाक़ी न रहते, न यहाँ कबूतर के अंडे होते।”
हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु ने जब इन लोगों को ग़ार के दहाने पर देखा तो आप रो पड़े और दबी आवाज़ में बोले:
“अल्लाह की क़सम! मैं अपनी जान के लिए नहीं रोता, मैं तो इस लिए रोता हूँ कि कहीं ये लोग आपको तकलीफ़ न पहुँचा दें।”
इस पर नबी अकरम ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:
“अबू बक्र! ग़म न करो, अल्लाह हमारे साथ है।”
उसी वक़्त अल्लाह तआला ने हज़रत अबू बक्र रज़ियल्लाहु अन्हु के दिल को सुकून बख़्श दिया। इन हालात में अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु को प्यास महसूस हुई। उन्होंने आंहज़रत ﷺ से इसका ज़िक्र किया… तो आप ﷺ ने इरशाद फ़रमाया…
“इस ग़ार के दरमियान में जाओ और पानी पी लो।”
सिद्दीक़-ए-अकबर रज़ियल्लाहु अन्हु उठकर ग़ार के दरमियान में पहुँचे। वहाँ उन्हें इतना बेहतरीन पानी मिला कि शहद से ज़्यादा मीठा, दूध से ज़्यादा सफ़ेद और मुश्क से ज़्यादा ख़ुशबूदार था। उन्होंने उसमें से पानी पिया। जब वह वापस आए तो आंहज़रत ﷺ ने उनसे फ़रमाया:
“अल्लाह तआला ने जन्नत की नहरों के निगराँ फ़रिश्ते को हुक्म दिया कि इस ग़ार के दरमियान में जन्नतुल-फ़िरदौस से एक चश्मा जारी कर दें ताकि तुम इसमें से पानी पी सको।”
यह सुनकर हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु हैरान हुए और अर्ज़ किया:
“क्या अल्लाह के नज़दीक मेरा इतना मक़ाम है?”
आप ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:
“हाँ! बल्कि ऐ अबू बक्र! इससे भी ज़्यादा है। क़सम है उस ज़ात की जिसने मुझे हक़ के पैग़ाम के साथ नबी बनाकर भेजा, वह शख़्स जो तुमसे बुग़्ज़ रखे, जन्नत में दाख़िल नहीं होगा।”
ग़रज़, क़ुरैश मायूस होकर ग़ार-ए-सौर से हट आए और साहिली इलाक़ों की तरफ़ चले गए। साथ ही उन्होंने ऐलान कर दिया:
“जो शख़्स मुहम्मद या अबू बक्र को गिरफ़्तार करे या क़त्ल करे, उसे सौ ऊँट इनाम में दिए जाएँगे।”
गार के बारे में किसे पता था?
आप ﷺ और अबू बक्र रज़ियल्लाहु अन्हु इस ग़ार में तीन दिन तक रहे। इस दौरान उनके पास हज़रत अबू बक्र रज़ियल्लाहु अन्हु के बेटे अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हु भी आते-जाते रहे। यह उस वक़्त कम उम्र थे मगर हालात को समझते थे। अंधेरा फैलने के बाद यह ग़ार में आ जाते और सुबह फ़ज्र के वक़्त वहाँ से वापस चले जाते, जिससे क़ुरैश यह ख़याल करते कि उन्होंने रात अपने घर में गुज़ारी है। इस तरह क़ुरैश के दरमियान दिन भर जो बातें होतीं, यह उन्हें सुनते और शाम को आंहज़रत ﷺ के पास पहुँचकर बता देते।
हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु के एक ग़ुलाम हज़रत आमिर बिन फ़ुहैरह रज़ियल्लाहु अन्हु थे। यह पहले तुफ़ैल नामी एक शख़्स के ग़ुलाम थे। जब यह इस्लाम ले आए तो तुफ़ैल ने उन पर ज़ुल्म ढाना शुरू कर दिया। इस पर हज़रत अबू बक्र रज़ियल्लाहु अन्हु ने उन्हें ख़रीदकर आज़ाद कर दिया। यह हज़रत अबू बक्र रज़ियल्लाहु अन्हु की बकरियाँ चराया करते थे।
यह भी उन दिनों ग़ार तक आते-जाते रहे। शाम के वक़्त अपनी लकड़ियाँ लेकर वहाँ पहुँच जाते और रात को वहीं रहते। सुबह मुँह-अँधेरे हज़रत अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हु के जाने के बाद यह भी वहाँ से अपनी बकरियाँ उसी रास्ते से वापस ले जाते ताकि उनके क़दमों के निशानात मिट जाएँ। इन तीन रातों तक उनका यही मामूल रहा। यह सब हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु की हिदायत पर करते थे।
हज़रत अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हु को भी हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु ने ही यह हुक्म दिया था कि वह दिन भर क़ुरैश की बातें सुना करें और शाम को उन्हें बताया करें। आमिर बिन फ़ुहैरह रज़ियल्लाहु अन्हु को भी हिदायत थी कि दिन भर बकरियाँ चराया करें और शाम को ग़ार में उनका दूध पहुँचाया करें।
हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु की बेटी अस्मा रज़ियल्लाहु अन्हा भी शाम के वक़्त उनके लिए खाना पहुँचाती थीं।
इन तीन के अलावा इस ग़ार का पता किसी को नहीं था। तीन दिन और रात गुज़रने पर आंहज़रत ﷺ ने हज़रत अस्मा रज़ियल्लाहु अन्हा से फ़रमाया:
“अब तुम अली के पास जाओ, उन्हें ग़ार के बारे में बता दो और उनसे कहो, वह किसी रहबर का इंतज़ाम कर दें। आज रात का कुछ पहर गुज़रने के बाद वह रहबर यहाँ आ जाए।”
चुनांचे हज़रत अस्मा रज़ियल्लाहु अन्हा सीधी हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु के पास आईं। उन्हें आप ﷺ का पैग़ाम दिया। हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु ने फ़ौरन एक उजरती रहबर का इंतज़ाम किया। उसका नाम उरीक़त बिन अब्दुल्लाह लैसी था। यह रहबर रात के वक़्त वहाँ पहुँचा।
नबी अकरम ﷺ ने जब ऊँट की बबलाने की आवाज़ सुनी, तो आप फ़ौरन हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु के साथ ग़ार से निकल आए और रहबर को पहचान लिया। आप ﷺ और हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु ऊँटों पर सवार हो गए।
इस सफ़र में हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु ने अपने बेटे अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हु के ज़रिए अपने घर से वह रक़म भी मंगवा ली थी जो वहाँ मौजूद थी… यह रक़म चार-पाँच हज़ार दिरहम थी। जब सिद्दीक़-ए-अकबर रज़ियल्लाहु अन्हु मुसलमान हुए थे, तो उनके पास चालीस-पचास हज़ार दिरहम मौजूद थे। गोया यह तमाम दौलत उन्होंने अल्लाह के रास्ते में ख़र्च कर दी थी। जाते वक़्त भी घर में जो कुछ था, मंगवा लिया…
उनके वालिद अबू क़ुहाफ़ा रज़ियल्लाहु अन्हु उस वक़्त तक मुसलमान नहीं हुए थे। उनकी बीनाई ख़त्म हो चुकी थी। वह घर आए तो अपनी पोती हज़रत अस्मा रज़ियल्लाहु अन्हा से कहने लगे:
“मेरा ख़याल है, अबू बक्र अपनी और अपने माल की वजह से तुम्हें मुसीबत में डाल गए हैं (मतलब यह कि जाते हुए सारे पैसे ले गए हैं)।”
यह सुनकर हज़रत अस्मा रज़ियल्लाहु अन्हा ने कहा:
“नहीं बाबा! वह हमारे लिए बड़ी ख़ैर-ओ-बरकत छोड़ गए हैं।”
हज़रत अस्मा रज़ियल्लाहु अन्हा कहती हैं:
“इसके बाद मैंने कुछ कंकर एक थैली में डाल दिए और उन्हें ताक़ में रख दिया, जिसमें मेरे वालिद अपने पैसे रखते थे। फिर उस थैली पर कपड़ा डाल दिया और अपने दादा का हाथ उन पर रखते हुए मैंने कहा: ‘यह देखिए! रुपये यहाँ रखे हैं।’ “
अबू क़ुहाफ़ा रज़ियल्लाहु अन्हु ने अपना हाथ रखकर महसूस किया और बोले:
“अगर वह यह माल तुम्हारे लिए छोड़ गए हैं, तब फ़िक्र की कोई बात नहीं, यह तुम्हारे लिए काफ़ी है।”
हालाँकि हक़ीक़त यह थी कि वालिद साहब हमारे लिए कुछ भी नहीं छोड़ गए थे।
हज़रत अबु बक्र की शान
नबी अकरम ﷺ के हिजरत कर जाने की खबर एक सहाबी हज़रत हम्ज़ा बिन जंदब रज़ि० को मिली तो कहने लगे:
“अब मेरे मक्का में रहने की कोई वजह नहीं।”
फिर उन्होंने अपने घर वालों को भी साथ चलने का हुक्म दिया। यह घराना मदीना मुनव्वरा के लिए निकल पड़ा। अभी तनईम के मक़ाम तक पहुँचा था कि हज़रत हम्ज़ा रज़ि० का इंतिक़ाल हो गया। इस मौके़ पर अल्लाह तआला ने सूरह अन-निसा में यह आयत नाज़िल फरमाई:
“और जो शख्स अपने घर से इस नीयत से निकल खड़ा हुआ कि अल्लाह और रसूल की तरफ़ हिजरत करेगा, फिर उसे मौत आ पकड़े, तब भी उसका सवाब अल्लाह तआला के जिम्मे साबित हो गया और अल्लाह बड़े मग़फिरत करने वाले हैं, बड़े रहमत करने वाले हैं।” (आयत 100)
हुज़ूर नबी करीम ﷺ ने एक मर्तबा हज़रत हस्सान बिन साबित रज़ि० से फरमाया:
“हस्सान, क्या तुमने अबू बक्र के बारे में भी कोई शेर कहा है?”
उन्होंने अर्ज़ किया:
“जी हाँ।”
आप ﷺ ने इरशाद फरमाया:
“सुनाओ, मैं सुनना चाहता हूँ।”
हज़रत हस्सान बिन साबित रज़ि० बहुत बड़े शायर थे, उनको “शायर-ए-रसूल” का खिताब भी मिला है। हुज़ूर अकर्म ﷺ की फरमाइश पर उन्होंने जो दो शेर सुनाए, उनका तर्जुमा यह है:
“हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़, जो दो में के दूसरे थे, इस बुलंद-ओ-बाला ग़ार में थे और जब वह पहाड़ पर पहुँच गए तो दुश्मन ने उनके इर्द-गिर्द चक्कर लगाए।
यह आप ﷺ के आशिक-ए-ज़ार थे जैसा कि एक दुनिया जानती है और इस इश्क़-ए-रसूल में उनका कोई सानी या बराबर नहीं था।”
यह शेर सुनकर हुज़ूर नबी करीम ﷺ मुस्कुराने लगे, यहाँ तक कि आपके दाँत मुबारक नज़र आने लगे। फिर इरशाद फरमाया:
“तुमने सच कहा हस्सान, वह ऐसे ही हैं जैसा कि तुमने कहा, वह ग़ार वाले के नज़दीक (यानी मेरे नज़दीक) सबसे ज़्यादा प्यारे हैं, कोई दूसरा शख्स उनकी बराबरी नहीं कर सकता।”
हज़रत अबू-दर्दा रज़ि० फरमाते हैं कि एक रोज़ हुज़ूर नबी करीम ﷺ ने मुझे अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ि० से आगे चलते देखा तो इरशाद फरमाया:
“ऐ अबू-दर्दा, यह क्या, तुम इस शख्स से आगे चलते हो जो दुनिया और आख़िरत में तुमसे अफ़ज़ल है। कसम है उस जात की जिसके कब्जे में मेरी जान है, अंबिया व मुरसलीन के बाद अबू बक्र से ज़्यादा अफ़ज़ल आदमी पर न कभी सूरज तुलू हुआ और न ग़ुरूब हुआ।”
हज़रत अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन आस रज़ि० से रिवायत है कि मैंने रसूलुल्लाह ﷺ को यह फरमाते हुए सुना:
“मेरे पास जिबरील आए और कहने लगे कि अल्लाह तआला आपको हुक्म देता है कि अबू बक्र से मशवरा किया कीजिए।”
हज़रत अनस रज़ि० से रिवायत है कि रसूलुल्लाह ﷺ ने इरशाद फरमाया:
“मेरी उम्मत पर अबू बक्र की मोहब्बत वाजिब है।”
यह चंद हदीसें हज़रत अबू बक्र रज़ि० की शान में इस लिए नक़्ल कर दी गईं कि वह नबी करीम ﷺ के हिजरत के साथी थे और यह अज़ीम इज़्ज़त है।
ग़ार से निकल कर हुज़ूर अकर्म ﷺ और हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ि० ऊँटों पर सवार हुए और राहबर के साथ सफर शुरू किया। हज़रत आमिर बिन फहीरा रज़ि० भी हज़रत अबू बक्र रज़ि० के साथ उसी ऊँट पर सवार थे।
ग़रज़ यह मुख़्तसर सा काफ़िला रवाना हुआ, राहबर उन्हें साहिल-ए-समंदर के रास्ते से ले जा रहा था। रास्ते में कोई मिलता और अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ि० से पूछता:
“यह तुम्हारे साथ कौन हैं?”
तो आप इस के जवाब में फरमाते:
“मेरे साथ मेरे राहबर हैं।”
यानी मेरे साथ मुझे रास्ता दिखाने वाले हैं। उनका मतलब था कि यह दीन का रास्ता दिखाने वाले हैं, मगर पूछने वाले इस गोल-मोल जवाब से यूँ समझते कि यह कोई राहबर (गाइड) हैं जो साथ जा रहे हैं।
अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ि० के इस तरह जवाब देने की वजह यह थी कि नबी करीम ﷺ ने हिदायत दी थी कि लोगों को मेरे पास से टालते रहना, यानी अगर कोई मेरे बारे में पूछे तो तुम यही ज़ो-मआनी (गोल-मोल) जवाब देना। क्योंकि नबी के लिए किसी सूरत में झूट बोलना मुनासिब नहीं… चाहे किसी भी लिहाज से हो।
चुनांचे जो शख्स भी आप ﷺ के बारे में सवाल करता रहा, हज़रत अबू बक्र रज़ि० यही जवाब देते। रहे अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ि०… वह इन रास्तों से अक्सर तिजारत के लिए जाते रहते थे, उन्हें अक्सर लोग जानते थे, उनसे किसी ने यह नहीं पूछा कि आप कौन हैं।
सौ ऊंटनियों का इनाम
इधर क़ुरैश ने सौ ऊँटनियों का एलान किया था, यह एलान सिराक़ा बिन मालिक रज़ि० ने भी सुना जो उस वक्त तक ईमान नहीं लाए थे।
सिराक़ा रज़ि० खुद अपनी कहानी इन अल्फाज़ में सुनाते हैं:
“मैंने यह एलान सुना ही था कि मेरे पास साहिली बस्ती का एक आदमी आया, उसने कहा, कि ऐ सिराक़ा, मैंने कुछ लोगों को साहिल के करीब जाते देखा है और मेरा ख्याल है कि वह मुहम्मद (ﷺ) और उनके साथी हैं।”
मुझे भी यक़ीन हो गया कि वह आँहज़रत ﷺ और उनके साथी ही हो सकते हैं। चूँकि मैं सौ ऊँटनियों का इनाम हासिल करना चाहता था, इसलिए मैंने फौरन उठकर घर का रुख़ किया और अपनी बांदी को हुक्म दिया कि मेरी घोड़ी निकालकर चुपके से वादी में पहुँचा दे और वहीं ठहर कर मेरा इंतिज़ार करे।
इसके बाद मैंने अपना नेज़ा उठाया और अपने घर के पिछले हिस्से से निकलकर वादी में जा पहुँचा। इस सारी राज़दारी का मक़सद यह था कि मैं अकेले ही इस काम को अंजाम दूँ और पूरा इनाम खुद हासिल कर लूँ। मैंने अपनी ज़िरह भी पहन ली थी और फिर अपनी घोड़ी पर सवार होकर तेज़ी से उस तरफ़ रवाना हुआ।
मैंने अपनी घोड़ी को बहुत तेज़ भगाया, यहाँ तक कि आख़िरकार मैं आँहज़रत ﷺ से कुछ ही फासले पर पहुँच गया। लेकिन ठीक उसी वक़्त मेरी घोड़ी को ठोकर लगी, वह मुँह के बल नीचे गिर गई और मैं भी नीचे आ गिरा। घोड़ी उठकर हिनहिनाने लगी। मैं भी उठ खड़ा हुआ। मेरे तरकश में फाल के तीर थे। यह वे तीर थे जिनसे अरब के लोग फ़ाल निकाला करते थे। किसी तीर पर लिखा होता था “करो”, और किसी पर लिखा होता था “न करो”।
मैंने तरकश में से एक तीर निकाला और फ़ाल निकाली—यानी यह जानना चाहता था कि यह काम करूँ या न करूँ। फ़ाल में “न करो” निकला। यानी मुझे यह काम नहीं करना चाहिए। लेकिन यह बात मेरी मरज़ी के ख़िलाफ़ थी। मैं तो सौ ऊँटनियों का इनाम हासिल करना चाहता था!
“न” वाला तीर निकलने के बावजूद मैं फिर से अपनी घोड़ी पर सवार हुआ और आगे बढ़ने लगा। यहाँ तक कि आँहज़रत ﷺ के बहुत क़रीब पहुँच गया। उस वक़्त आँहज़रत ﷺ कुरआन करीम की तिलावत कर रहे थे और पीछे मुड़कर नहीं देख रहे थे, लेकिन हज़रत अबू बक्र रज़ि० बार-बार पीछे मुड़कर देख रहे थे।
ठीक उसी वक़्त मेरी घोड़ी की अगली दोनों टाँगें घुटनों तक ज़मीन में धँस गईं, हालाँकि वहाँ की ज़मीन सख़्त और पत्थरीली थी! मैं घोड़ी से उतरा, उसे डाँटा, तो वह खड़ी हो गई, लेकिन उसकी टाँगें अभी भी ज़मीन में धँसी हुई थीं, वे बाहर नहीं निकलीं।
मैंने फिर से फ़ाल निकाली। इस बार भी “न करो” वाला तीर ही निकला!
आख़िर मैं पुकार उठा:
“मेरी तरफ़ देखिए! मैं आपको कोई नुक़सान नहीं पहुँचाऊँगा और न ही मेरी तरफ़ से आपको कोई तकलीफ़ पहुँचेगी। मैं सिराक़ा बिन मालिक हूँ। मैं अब आपका हक़ीक़ी हमदर्द हूँ और मैं आपको कोई नुक़सान पहुँचाने नहीं आया हूँ। मुझे नहीं मालूम कि मेरी बस्ती के लोग भी आपकी तलाश में रवाना हो चुके हैं या नहीं।”
यह कहने से मेरा मक़सद यह था कि अगर कुछ और लोग भी इस तरफ़ आ रहे होंगे, तो मैं उन्हें रोक दूँगा। इस पर आँहज़रत ﷺ ने हज़रत अबू बक्र रज़ि० से फ़रमाया:
“इससे पूछो, यह क्या चाहता है?”
अब मैंने उन्हें अपने बारे में और अपने इरादे के बारे में सब कुछ बता दिया और फिर कहा:
“बस आप दुआ कर दीजिए कि मेरी घोड़ी की टाँगें ज़मीन से बाहर निकल आएँ। मैं वादा करता हूँ कि अब मैं आपका पीछा नहीं करूँगा!”
शीर्षक: हज़रत उम्मे मअबद के ख़ेमें पर
नबी करीम ﷺ ने दुआ फ़रमाई। आपकी दुआ करते ही हज़रत सिराक़ा रज़ि० की घोड़ी के पैर ज़मीन से बाहर निकल आए।
जैसे ही घोड़ी के पैर बाहर आए, सिराक़ा रज़ि० फिर उस पर सवार हुए और आँहज़रत ﷺ की तरफ़ बढ़े। इस पर आप ﷺ ने दुआ फ़रमाई:
“ऐ अल्लाह! हमें इससे दूर रख!”
इस दुआ के साथ ही घोड़ी पेट तक ज़मीन में धँस गई। अब सिराक़ा रज़ि० बोले:
“ऐ मुहम्मद! मैं क़सम खाकर कहता हूँ… मुझे इस मुसीबत से निजात दिला दीजिए… मैं आपका हमदर्द साबित होऊँगा।”
नबी अकरम ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:
“ऐ ज़मीन! इसे छोड़ दे।”
यह फ़रमाना था कि उनकी घोड़ी ज़मीन से बाहर निकल आई।
कुछ तफ़सीरों में लिखा है कि सिराक़ा रज़ि० ने सात बार वादा ख़िलाफ़ी की। हर बार यही हुआ। कुछ रिवायतों में है कि ऐसा तीन बार हुआ। आख़िरकार हज़रत सिराक़ा रज़ि० समझ गए कि वे आँहज़रत ﷺ तक नहीं पहुँच सकते। तब उन्होंने कहा:
“अब मैं आपका पीछा नहीं करूँगा… अगर आप मेरे सामान में से कुछ लेना चाहें तो ले सकते हैं, यह सफ़र में आपके काम आएगा।”
हज़ूर ﷺ ने उनसे कुछ लेने से इनकार कर दिया और फ़रमाया:
“तुम बस अपने आपको रोके रखो और किसी को हम तक न आने दो।”
आप ﷺ ने सिराक़ा रज़ि० से यह भी फ़रमाया:
“ऐ सिराक़ा! उस वक़्त तुम्हारा क्या हाल होगा जब तुम्हें किसरा (ईरान के शहंशाह) के कंगन पहनाए जाएँगे?”
सिराक़ा रज़ि० यह सुनकर हैरान हुए और बोले:
“आपने क्या फ़रमाया… किसरा बादशाह के कंगन मुझे पहनाए जाएँगे?”
आप ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:
“हाँ! ऐसा ही होगा।”
यह आँहज़रत ﷺ की एक हैरतअंगेज़ पेशिनगोई थी, क्योंकि उस समय ऐसा होने का दूर-दूर तक कोई इमकान नहीं था। लेकिन फिर एक वक़्त आया कि हज़रत सिराक़ा रज़ि० मुसलमान हो गए।
हज़रत उमर रज़ि० के दौर में जब मुसलमानों को फ़तह दर फ़तह हासिल हुई और ईरान के बादशाह किसरा को शिकस्त-ए-फ़ाश हुई, तो ग़नीमत के माल में किसरा के कंगन भी शामिल थे।
हज़रत उमर रज़ि० ने वह कंगन हज़रत सिराक़ा रज़ि० को पहनाए। उस वक़्त सिराक़ा रज़ि० को याद आया कि नबी करीम ﷺ ने हिजरत के वक़्त इरशाद फ़रमाया था:
“ऐ सिराक़ा! उस वक़्त तुम्हारा क्या हाल होगा जब तुम्हें किसरा के कंगन पहनाए जाएँगे?”
अपने ईमान लाने की तफ़सील सिराक़ा रज़ि० ख़ुद इस तरह बयान करते हैं:
*”जब रसूल करीम ﷺ हुनैन और ताइफ़ की जंगों से फ़ारिग़ हो चुके, तो मैं उनसे मिलने के लिए रवाना हुआ। मेरी मुलाक़ात उनसे जिअराना के मुक़ाम पर हुई। मैं अंसारी सवारों के दरमियान से गुज़रते हुए उस हिस्से की तरफ़ बढ़ा जहाँ आप ﷺ अपनी ऊँटनी पर तशरीफ़ फ़रमा थे। जब क़रीब पहुँचा, तो अर्ज़ किया:
“ऐ अल्लाह के रसूल! मैं सिराक़ा हूँ।”
इरशाद फ़रमाया:
“क़रीब आ जाओ।”
मैं क़रीब आ गया और फिर ईमान ले आया।
हज़रत उमर सिद्दीक़ रज़ि० ने जब किसरा के कंगन मुझे पहनाए, तो फ़रमाया:
*”तमाम तारीफ़ें उस अल्लाह के लिए हैं, जिसने यह चीज़ें ईरान के शहंशाह किसरा बिन हुरमज़ से छीन लीं, जो यह कहा करता था: ‘मैं इंसानों का परवरदिगार हूँ।'”
यह सिराका नबी अकरम ﷺ से माफ़ी मिलने के बाद वापस लौटे और रास्ते में जो भी आप ﷺ की तलाश में आता, उसे यह कहकर वापस भेजते रहे:
“मैं इस तरफ़ से ही आ रहा हूँ… यहाँ मुझे कोई नहीं मिला… और लोग जानते ही हैं कि मुझे रास्तों की कितनी पहचान है।”
ग़रज़, उस दिन यह क़ाफ़िला पूरी रात चलता रहा… यहाँ तक कि चलते-चलते अगले दिन दोपहर हो गई। अब दूर-दूर तक कोई आता-जाता नज़र नहीं आ रहा था। ऐसे में सामने एक उभरी हुई चट्टान दिखाई दी, जिसका साया काफ़ी दूर तक फैला हुआ था।
हज़रत मुहम्मद ﷺ ने वहाँ क़याम (ठहरने) का इरादा फ़रमाया। हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ि० सवारी से उतरे और अपने हाथों से जगह को साफ़ करने लगे, ताकि आप ﷺ चट्टान के साए में आराम कर सकें। जगह साफ़ करने के बाद उन्होंने अपनी चर्म (खाल की) चादर वहाँ बिछाई और अर्ज़ किया:
“अल्लाह के रसूल! यहाँ आराम फ़रमा लें… मैं पहरा दूँगा।”
हज़रत मुहम्मद ﷺ सो गए। इसी दौरान हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ि० ने देखा कि एक चरवाहा चट्टान की तरफ़ आ रहा है… शायद वह भी साए में आराम करना चाहता था।
हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ि० फ़ौरन उसकी तरफ़ बढ़े और पूछा:
“तुम कौन हो?”
उसने जवाब दिया:
“मैं मक्का का रहने वाला एक चरवाहा हूँ।”
हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ि० ने फ़रमाया:
“क्या तुम्हारी बकरियों में कोई दूध देने वाली बकरी है?”
चरवाहे ने कहा:
“हाँ, है।”
फिर वह एक बकरी लेकर आया और अपने एक बर्तन में दूध दुहा। हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ि० ने वह दूध लिया और हज़रत मुहम्मद ﷺ के पास आए, जो उस वक़्त सो रहे थे। उन्होंने आपको जगाना मुनासिब न समझा और दूध का बर्तन लिए खड़े रहे, जब तक कि आप ﷺ ख़ुद नहीं जाग गए।
हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ि० ने दूध में पानी मिलाया ताकि वह ठंडा हो जाए, फिर ख़िदमत में पेश किया और अर्ज़ किया:
“यह दूध पी लीजिए।”
हज़रत मुहम्मद ﷺ ने दूध पिया और पूछा:
“क्या चलने का वक़्त हो गया?”
हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ि० ने अर्ज़ किया:
“जी हाँ! वक़्त हो गया है।”
हुज़ूर उम्मे मअबद के खेमे पर
अब यह क़ाफ़िला फिर रवाना हुआ… अभी कुछ दूर ही गए होंगे कि एक ख़ेमा नज़र आया। ख़ेमे के बाहर एक औरत बैठी थीं। यह उम्मे मअबद रज़ि० थीं, जो उस वक़्त तक इस्लाम की दावत से महरूम थीं। इनका नाम आतिका था। यह एक बहादुर और शरीफ़ ख़ातून थीं।
उन्होंने भी आने वालों को देख लिया। उस वक़्त उम्मे मअबद रज़ि० को यह मालूम नहीं था कि यह छोटा सा क़ाफ़िला किन हस्तियों का है।
नज़दीक आने पर हज़रत मुहम्मद ﷺ को उम्मे मअबद रज़ि० के पास एक बकरी खड़ी नज़र आई… वह बहुत ही कमज़ोर और दुबली-पतली बकरी थी।
आप ﷺ ने उम्मे मअबद रज़ि० से पूछा:
“क्या इसके थनों में दूध है?”
उम्मे मअबद रज़ि० ने कहा:
“इस कमज़ोर और मरियल बकरी के थनों में दूध कहाँ से आएगा?”
आप ﷺ ने फ़रमाया:
“क्या तुम मुझे इसे दुहने की इजाज़त दोगी?”
इस पर उम्मे मअबद रज़ि० बोलीं:
“लेकिन यह तो अभी वैसे भी दूध देने वाली नहीं हुई… आप ख़ुद सोचिए, यह दूध कैसे दे सकती है? लेकिन मेरी तरफ़ से इजाज़त है, अगर इससे आप दूध निकाल सकते हैं तो निकाल लीजिए।”
हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ि० इस बकरी को हज़रत मुहम्मद ﷺ के पास ले आए।
आप ﷺ ने उसकी कमर और थनों पर हाथ फेरा और दुआ की:
“ऐ अल्लाह! इस बकरी में हमारे लिए बरकत अता फ़रमा।”
जैसे ही आप ﷺ ने यह दुआ मांगी… बकरी के थन दूध से भर गए और उनसे दूध टपकने लगा।
यह मंजर देखकर उम्मे मअबद रज़ि० हैरान रह गईं।
आप ﷺ ने फ़रमाया:
“एक बरतन लाओ।”
हज़रत उम्मे मअबद रज़ि० एक बड़ा बरतन ले आईं… वह इतना बड़ा था कि उससे आठ-दस आदमी सेराब हो सकते थे।
ग़रज़ हज़रत मुहम्मद ﷺ ने बकरी का दूध निकाला—उसके थनों में बहुत ज़्यादा दूध भर गया था।
आप ﷺ ने सबसे पहले वह दूध उम्मे मअबद रज़ि० को दिया।
उन्होंने खूब सैर होकर पिया, फिर उनके घरवालों ने पिया। आख़िर में नबी करीम ﷺ ने ख़ुद दूध पिया और फिर फ़रमाया:
“क़ौम को पिलाने वाला ख़ुद सबसे आख़िर में पीता है।”
सबके दूध पी लेने के बाद आप ﷺ ने फिर बकरी का दूध निकालकर उम्मे मअबद रज़ि० को दे दिया और वहाँ से आगे रवाना हो गए।
अबू मअबद रज़ि० की वापसी
शाम के वक़्त हज़रत उम्मे मअबद रज़ि० के शौहर अबू मअबद रज़ि० लौटे। वह अपनी बकरियाँ चराने गए हुए थे।
ख़ेमे पर पहुंचे तो देखा कि वहाँ बहुत सा दूध रखा है। दूध देखकर हैरान हो गए और बीवी से बोले:
“ऐ उम्मे मअबद! यह यहाँ दूध कैसा रखा है…? घर में तो कोई दूध देने वाली बकरी नहीं थी!”
मतलब यह कि घर में जो बकरी थी, वह तो दूध देने वाली ही नहीं थी… फिर यह दूध कहां से आया?
हज़रत उम्मे मअबद रज़ि० बोलीं:
“आज यहाँ से एक बहुत मुबारक शख़्स का गुज़र हुआ था।”
यह सुनकर हज़रत अबू मअबद रज़ि० और ज़्यादा हैरान हुए, फिर बोले:
“उनका हुलिया तो बताओ!”
नबी करीम ﷺ का हुलिया बयान किया
- “उनका चेहरा नूरानी था… उनकी आँखें लंबी पलकों के नीचे चमक रही थीं… वे गहरी सियाह थीं… उनकी आवाज़ में नर्मी थी… वे न तो बहुत लंबे थे और न ही बहुत छोटे क़द के थे… उनके लफ़्ज़ ऐसे थे जैसे किसी लड़ी में मोती पिरो दिए गए हों… जब ख़ामोश होते तो उन पर बाऔक़ार संजीदगी होती… अपने साथियों को जब किसी बात का हुक्म देते तो वे फ़ौरन उसे पूरा करते… और किसी बात से रोकते तो वे फ़ौरन रुक जाते…वे इंतिहाई ख़ुश-अख़लाक़ थे… उनकी गर्दन से नूर की किरणें फूटती थीं… उनकी दोनों भौंहें मिली हुई थीं… उनके बाल निहायत सियाह थे… वे दूर से देखने में निहायत शानदार, और क़रीब से निहायत हसीन और जलील-उल-क़दर लगते थे… जब उनकी तरफ़ नज़र जाती तो फिर दूसरी तरफ़ हट नहीं सकती थी… अपने साथियों में सबसे ज़्यादा हसीन, बार-ओक़ार और बुलंद-मर्तबा थे।”
हज़रत उम्मे मअबद रज़ि० का बयान किया हुआ हुलिया सुनकर उनके शौहर बोले:
“अल्लाह की क़सम! यह हुलिया और ये ख़ूबियाँ तो उन्हीं क़ुरैशी बुज़ुर्ग (मुहम्मद ﷺ) की हैं… अगर मैं उस वक़्त यहाँ होता, तो ज़रूर उनकी पैरवी अपना लेता… और अब मैं इसकी कोशिश करूंगा!”
रिवायात में आता है कि हज़रत उम्मे मअबद और हज़रत अबू मअबद रज़ि० दोनों हिजरत करके मदीना आए और इस्लाम क़बूल कर लिया।
जिस बकरी का दूध नबी करीम ﷺ ने दुहा था, वह हज़रत उमर रज़ि० की खिलाफ़त के ज़माने तक ज़िंदा रही।
मदीना मुनव्वरा में आमद
उधर मक्का में, जब कुरैश को नबी करीम ﷺ का कुछ पता न चला, तो वे लोग हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ि० के दरवाज़े पर आए। उनमें अबू जहल भी था।
दरवाज़े पर दस्तक दी गई।
हज़रत अबू बक्र रज़ि० की बड़ी बेटी, हज़रत अस्मा रज़ि० बाहर आईं।
अबू जहल ने पूछा:
“तुम्हारे वालिद कहां हैं?”
वे बोलीं:
“मुझे नहीं मालूम।”
यह सुनकर अबू जहल ने उन्हें एक ज़ोरदार थप्पड़ मारा। थप्पड़ से उनके कान की बाली टूटकर गिर गई।
फिर भी हज़रत अस्मा रज़ि० ने कुछ न बताया।
अबू जहल और उसके साथी नाकाम होकर बड़बड़ाते हुए लौट गए।
उधर मदीना मुनव्वरा के मुसलमानों को यह ख़बर मिली कि अल्लाह के रसूल ﷺ मक्का मुअज़्ज़मा से हिजरत करके मदीना की तरफ़ चल पड़े हैं…
अब तो वे बेचैन हो गए। इंतज़ार करना उनके लिए मुश्किल हो गया।
हर रोज़ सुबह-सुबह अपने घरों से निकलते और हरा नामी जगह तक पहुंचते।
हरा, मदीना के बाहर की एक पथरीली ज़मीन थी।
जब दोपहर हो जाती और धूप तेज़ हो जाती, तो मायूस होकर वापस लौट आते।
फिर एक दिन ऐसा हुआ कि मदीना के लोग फिर से हरा तक आए।
काफ़ी देर हो गई। धूप तेज़ हो गई, तो वे फिर वापस लौटने लगे।
उसी वक़्त एक यहूदी हरा की एक ऊंची पहाड़ी पर चढ़ा।
उसे मक्का की तरफ़ से कुछ सफ़ेद लिबास वाले आते दिखे।
उस क़ाफ़िले से उठती धूल में से जब नबी करीम ﷺ साफ़ नज़र आने लगे, तो वह यहूदी चिल्ला उठा:
“ऐ गुरोह-ए-अरब! जिनका तुम इंतज़ार कर रहे थे, वे आ गए!”
रसूलुल्लाह ﷺ का इस्तेक़बाल
यह अल्फ़ाज़ सुनते ही मुसलमान फौरन लौटकर हरा की तरफ़ भागे।
उन्होंने रसूलुल्लाह ﷺ और उनके साथियों को एक दरख़्त के साए में आराम करते पाया।
रिवायत में आता है कि वहाँ 500 से ज़्यादा अंसारियों ने नबी करीम ﷺ का इस्तेक़बाल किया।
वहाँ से चलकर रसूलुल्लाह ﷺ क़ुबा पहुंचे।
यह सोमवार का दिन था।
आप ﷺ ने बनू अम्र बिन औफ़ के एक शख़्स, हज़रत कुलसूम बिन हद्म रज़ि० के घर क़याम फ़रमाया।
बनू अम्र का यह घराना, कबीला औस में से था।
उनके बारे में रिवायत मिलती है कि वे पहले ही इस्लाम क़बूल कर चुके थे।
मस्जिद-ए-क़ुबा की बुनियाद
क़ुबा में, नबी करीम ﷺ ने एक मस्जिद की बुनियाद रखी।
इसका नाम “मस्जिद-ए-क़ुबा” रखा गया।
इस मस्जिद के बारे में हदीस में आता है कि
“जो शख़्स मुकम्मल वुज़ू करे, फिर मस्जिद-ए-क़ुबा में नमाज़ पढ़े, तो उसे एक हज और उमरा का सवाब मिलेगा।”
रसूलुल्लाह ﷺ अक्सर इस मस्जिद में तशरीफ़ लाते रहे।
इस मस्जिद की फ़ज़ीलत में अल्लाह तआला ने सुरह तौबा में एक आयत भी नाज़िल फ़रमाई।
क़ुबा से आप ﷺ मदीना मुनव्वरा पहुंचे।
जैसे ही आपकी आमद की ख़बर मुसलमानों को मिली, उनकी ख़ुशी की कोई इंतिहा न रही।
हज़रत बरा रज़ि० फ़रमाते हैं:
“मैंने मदीना वालों को नबी करीम ﷺ की आमद पर जितना ख़ुश देखा, उतना किसी और मौक़े पर नहीं देखा।”
सब लोग आप ﷺ के रास्ते में दोनों तरफ़ आकर खड़े हो गए।
औरतें अपने घरों की छतों पर चढ़ गईं, ताकि आप ﷺ की आमद का मंज़र देख सकें।
औरतें और बच्चे ख़ुशी में ये अशआर पढ़ने लगे…
طَلَعَ الْبَدْرُ عَلَيْنَا
مِنْ ثَنِيَّاتِ الْوَدَاعِ
وَجَبَ الشُّكْرُ عَلَيْنَا
مَا دَعَا لِلّهِ دَاعِ
أَيُّهَا الْمَبْعُوْثُ فِيْنَا
جِئْتَ بِالْأَمْرِ الْمُطَاعِ
रास्ते में, एक जगह हज़रत मुहम्मद ﷺ बैठ गए।
हज़रत अबू बक्र रज़ि० उनके पास खड़े हो गए।
हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ि० पर बढ़ापे के आसार नज़र आने लगे थे जबकि रसूलुल्लाह ﷺ जवान लग रहे थे।
नबी करीम ﷺ के बाल काले थे, हालांकि आप ﷺ उम्र में हज़रत अबू बक्र रज़ि० से दो साल बड़े थे।
अब हुआ ये कि जो लोग पहले नबी करीम ﷺ को नहीं पहचानते थे, उन्होंने हज़रत अबू बक्र रज़ि० को ही अल्लाह के रसूल समझ लिया और गर्मजोशी से उनसे मिलने लगे।
हज़रत अबू बक्र रज़ि० ने तुरंत इस बात को महसूस कर लिया।
इसी दौरान धूप भी रसूलुल्लाह ﷺ पर पड़ने लगी।
चुनांचे हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ि० ने अपनी चादर से रसूलुल्लाह ﷺ पर साया कर दिया।
तब जाकर लोगों को मालूम हुआ कि अल्लाह के रसूल ﷺ ये हैं।
फिर नबी करीम ﷺ वहाँ से रवाना हुए।
आप ﷺ ऊँटनी पर सवार थे और बहुत से लोग आपके साथ चल रहे थे।
कुछ सवार थे और कुछ पैदल।
उस वक़्त मदीना के लोगों की ज़बान पर ये अल्फ़ाज़ थे:
“अल्लाहु अकबर! रसूलुल्लाह ﷺ तशरीफ़ ले आए!”
रास्ते में आप ﷺ की खुशी में हब्शियों ने नेज़ा-बाज़ी और करतब दिखाए।
इसी दौरान एक शख़्स ने पूछा:
“ऐ अल्लाह के रसूल! आप जो यहाँ से आगे तशरीफ़ ले जा रहे हैं, तो क्या हमारे घरों से बेहतर कोई घर चाहते हैं?”
इसके जवाब में आप ﷺ ने फ़रमाया:
“मुझे एक ऐसी बस्ती में रहने का हुक्म दिया गया है, जो दूसरी बस्तियों को खा लेगी।”
इसका मतलब ये था कि वो बस्ती दूसरी बस्तियों पर असरअंदाज़ होगी या उन्हें फ़तह कर लेगी।
ये जवाब सुनकर लोगों ने नबी करीम ﷺ की ऊँटनी का रास्ता छोड़ दिया।
इस बस्ती के बारे में बाद में सबको मालूम हुआ कि वो “मदीना मुनव्वरा” है।
मदीना मुनव्वरा का पहला नाम “यस्रिब” था।
“यस्रिब” एक शख़्स का नाम था, जो हज़रत नूह अलैहिस्सलाम की औलाद में से था।
जुमे की पहली नमाज़ और मस्जिदे-जुमा
मदीना मुनव्वरा में नबी करीम ﷺ की आमद जुमा के दिन हुई।
चुनांचे इसी दिन पहला जुमा पढ़ा गया।
जुमे की ये पहली नमाज़ मदीना मुनव्वरा के महल्ला बनी सालिम में अदा की गई थी, और अब इस मस्जिद को “मस्जिदे-जुमा” कहा जाता है।
ये मस्जिद क़ुबा की तरफ़ जाने वाले रास्ते के बाईं ओर है।
यही पहली जुमा की नमाज़ थी और इससे पहले नबी करीम ﷺ ने ख़ुत्बा भी दिया था।
इस पहले ख़ुत्बे में आपने इरशाद फ़रमाया:
“जो शख़्स अपने आपको जहन्नम की आग से बचा सकता है, वो ज़रूर बचा ले, चाहे वो आधे छुहारे के बराबर ही क्यों न हो। जो कुछ भी न जानता हो, वो कलिमा तैयबा को लाज़िम कर ले, क्योंकि नेकी का सवाब दुगुना से लेकर सात सौ गुना तक मिलता है। और सलाम हो अल्लाह के रसूल पर, अल्लाह की रहमत और बरकत हो।”
नमाज़-ए-जुमा अदा करने के बाद नबी करीम ﷺ अपनी ऊँटनी पर सवार हुए।
आप ﷺ ने उसकी लगाम ढीली छोड़ दी, यानी उसे अपनी मर्ज़ी से चलने दिया।
ऊँटनी ने पहले दाएँ-बाएँ देखा, जैसे चलने से पहले सोच रही हो कि किस तरफ़ जाना है।
इसी दौरान बनी सालिम के लोगों ने अर्ज़ किया:
“ऐ अल्लाह के रसूल! हमारे हाँ क़याम फ़रमाइए, यहाँ लोगों की तादाद ज़्यादा है, यहाँ आपकी पूरी हिफ़ाज़त होगी, हमारे पास दौलत भी है, हथियार भी हैं, बाग़ात भी हैं और ज़िंदगी की ज़रूरी चीज़ें भी हैं।”
नबी करीम ﷺ मुस्कुराए, उनका शुक्रिया अदा किया और फ़रमाया:
“मेरी ऊँटनी का रास्ता छोड़ दो, ये जहाँ जाना चाहे, इसे जाने दो, क्योंकि ये मामूर है।”
इसका मतलब ये था कि अल्लाह तआला के हुक्म से ऊँटनी खुद चलेगी और इसे अपनी मंज़िल मालूम है।
आप ﷺ ने उन लोगों को दुआ दी:
“अल्लाह तआला तुम्हें बरकत अता फ़रमाए।”
इसके बाद ऊँटनी आगे बढ़ी और बनी बीयासा के महल्ले में पहुँची।
यहाँ के लोगों ने भी अर्ज़ किया कि हमारे हाँ ठहरिए।
आप ﷺ ने वही जवाब दिया, जो बनी सालिम को दिया था।
फिर ऊँटनी बनी सादाह के इलाक़े से गुज़री।
यहाँ के लोगों ने भी अर्ज़ किया कि हमारे पास ठहरिए।
आप ﷺ ने वही जवाब दिया।
नबी करीम ﷺ की ननिहाल
ऊँटनी अब बनी अदी के महल्ले में दाख़िल हुई।
यहाँ आपके दादा हज़रत अब्दुल मुत्तलिब की ननिहाल थी।
इन लोगों ने अर्ज़ किया:
“हम आपके ननिहाल वाले हैं, इसीलिए हमारे हाँ क़याम फ़रमाइए। यहाँ आपकी रिश्तेदारी भी है, हम तादाद में भी ज़्यादा हैं, आपकी हिफ़ाज़त भी बढ़-चढ़कर करेंगे, फिर ये कि हम आपके रिश्तेदार भी हैं, सो हमें छोड़कर न जाइए।”
आप ﷺ ने वही जवाब दिया कि ऊँटनी मामूर है, इसे अपनी मंज़िल मालूम है।
हज़रत अबू अय्यूब अंसारी रज़ि० के घर क़याम
ऊँटनी आगे बढ़ी और बनी मालिक बिन नजार के महल्ले में पहुँची।
यहाँ ये हज़रत अबू अय्यूब अंसारी रज़ि० के दरवाज़े के क़रीब बैठ गई।
हज़रत अबू अय्यूब अंसारी रज़ि० का असली नाम खालिद बिन ज़ैद अंसारी था।
ये क़बीला खज़रज से थे।
बैअते अक़बा के वक़्त मौजूद थे।
हर मौक़े पर नबी करीम ﷺ के साथ रहे।
हज़रत अली रज़ि० के दौर-ए-ख़िलाफ़त में उनके क़रीबी मददगारों में शामिल थे।
इनकी वफ़ात यज़ीद के दौर में क़ुस्तुंतुनिया के जिहाद के दौरान हुई।
ऊँटनी का दुबारा बैठना और दुआ
ऊँटनी बैठ गई, मगर अभी आप ﷺ उस से उतरे नहीं थे कि वो अचानक फिर खड़ी हो गई।
कुछ क़दम चली और फिर ठहर गई।
आप ﷺ ने उसकी लगाम अभी भी ढीली छोड़ रखी थी।
फिर ऊँटनी वापस उसी जगह आई, जहाँ पहले बैठी थी और वहीं दोबारा बैठ गई।
उसने अपनी गर्दन ज़मीन पर रख दी और मुँह खोले बग़ैर एक आवाज़ निकाली।
अब नबी करीम ﷺ ऊँटनी से उतरे और फ़रमाया:
“ऐ मेरे परवरदिगार! मुझे मुबारक जगह पर उतारना और तू ही सबसे बेहतरीन जगह ठहराने वाला है।”
आप ﷺ ने ये जुमला चार मरतबा इरशाद फ़रमाया, फिर फ़रमाया:
“इंशाअल्लाह! यही क़यामगाह होगी।”
अब आप ﷺ ने सामान उतारने का हुक्म दिया।
हज़रत अबू अय्यूब अंसारी रज़ि० ने अर्ज़ किया:
“क्या मैं आपका सामान अपने घर ले जाऊँ?”
आप ﷺ ने इजाज़त दे दी।
हज़रत अबू अय्यूब अंसारी रज़ि० सामान उतार कर ले गए।
बनी नजार की बच्चियों की खुशी
इसी वक़्त हज़रत असअद बिन ज़ुरारा रज़ि० भी आ गए।
उन्होंने ऊँटनी की लगाम पकड़ ली और उसे अपने साथ ले गए।
यानी ऊँटनी उनके यहाँ मेहमान बनी।
बनी नजार के हाँ नबी करीम ﷺ के उतरने पर उनकी बच्चियों ने दफ़ (ढोल) हाथों में ले लिए।
ख़ुशी से झूमकर उन्हें बजाने लगीं और ये गीत गाने लगीं:
“हम बनी नजार के पड़ोसियों में से हैं, कितनी बड़ी खुशकिस्मती की बात है कि मुहम्मद ﷺ हमारे पड़ोसी हैं।”
उनकी आवाज़ सुनकर नबी करीम ﷺ बाहर तशरीफ़ लाए।
उनके पास गए और फ़रमाया:
“क्या तुम मुझ से मोहब्बत करती हो?”
उन्होंने जवाब दिया:
“हाँ! ऐ अल्लाह के रसूल!”
इस पर आप ﷺ ने फ़रमाया:
“अल्लाह जानता है, मेरे दिल में भी तुम्हारे लिए मोहब्बत ही मोहब्बत है।”
नबी करीम ﷺ हज़रत अबू अय्यूब अंसारी रज़ि० के घर उस वक़्त तक ठहरे, जब तक कि मस्जिदे-नबवी और उसके साथ आपका हुजरा तैयार नहीं हो गया।
आप ﷺ क़रीब 11 महीने तक वहीं क़याम फ़रमाते रहे।
