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Hijrat e Habsha | Prophet Muhammad History in Hindi Part 24

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Seerat e Mustafa Qist 24
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यह हबशा की तरफ दूसरी हिजरत थी। पहली हिजरत का ज़िक्र Part 21 में किया गया है

इस हिजरत में अड़तीस मर्दों और बारह औरतों ने हिस्सा लिया। इन लोगों में हज़रत जाफर बिन अबू तालिब (रज़ि.) और उनकी बीवी अस्मा बिन्त उमैस (रज़ि.) भी थीं। इनमें मुक़दाद बिन असवद (रज़ि.), अब्दुल्लाह बिन मसऊद (रज़ि.), उबैदुल्लाह बिन जहश और उसकी बीवी उम्मे हबीबा बिन्त अबू सुफ़ियान (रज़ि.) भी थे। यह उबैदुल्लाह बिन जहश हबशा जाकर इस्लाम से फिर गया था और उसने ईसाई मज़हब अपना लिया था। इसी हालत में उसकी मौत हो गई। उसकी बीवी उम्मे हबीबा (रज़ि.) इस्लाम पर कायम रहीं। उनसे बाद में रसूल अल्लाह (ﷺ) ने निकाह फ़रमाया।

इन मुसलमानों को हबशा में बेहतरीन पनाह मिल गई, इस बात से क़ुरैश को और ज़्यादा तकलीफ हुई। उन्होंने उनके पीछे हज़रत अम्र बिन आस (रज़ि.) और अमारा बिन वलीद को भेजा ताकि यह वहां जाकर हबशा के बादशाह को मुसलमानों के खिलाफ भड़काएं (हज़रत अम्र बिन आस बाद में मुसलमान हुए)।

यह दोनों हबशा के बादशाह नजाशी के लिए बहुत से तोहफे लेकर गए। बादशाह को तोहफे पेश किए। तोहफों में कीमती घोड़े और रेशमी जब्बे शामिल थे। बादशाह के अलावा उन्होंने पादरियों और दूसरे बड़े लोगों को भी तोहफे दिए… ताकि वह सब उनका साथ दें।

बादशाह के सामने दोनों ने उसे सजदा किया, बादशाह ने उन्हें अपने दाएं-बाएं बिठा लिया।

अब उन्होंने बादशाह से कहा:


“हमारे खानदान के कुछ लोग आपकी सरज़मीन पर आए हैं। यह लोग हमसे और हमारे माबूदों से बेज़ार हो गए हैं। उन्होंने आपका धर्म भी स्वीकार नहीं किया। यह एक ऐसे धर्म में दाखिल हो गए हैं, जिसे न हम जानते हैं, न आप। अब हमें क़ुरैश के बड़े सरदारों ने आपके पास भेजा है ताकि आप इन लोगों को हमारे हवाले कर दें।”

यह सुनकर नजाशी ने कहा:
“वह लोग कहां हैं?”
उन्होंने कहा:
“आप ही के यहां हैं।”
नजाशी ने उन्हें बुलाने के लिए तुरंत आदमी भेज दिए। ऐसे में उन पादरियों और दूसरे सरदारों ने कहा:
“आप इन लोगों को इन दोनों के हवाले कर दें। क्योंकि इनके बारे में यह ज़्यादा जानते हैं।”

नजाशी ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। उसने कहा:
“पहले मैं इनसे बात करूंगा कि यह किस धर्म पर हैं।”

अब मुसलमान दरबार में हाज़िर हुए। हज़रत जाफर (रज़ि.) ने अपने साथियों से कहा:
“नजाशी से मैं बात करूंगा।”

उधर नजाशी ने तमाम ईसाई आलिमों को दरबार में बुला लिया था ताकि मुसलमानों की बात सुन सकें। वह अपनी किताबें भी उठा लाए थे।

मुसलमानों ने दरबार में दाखिल होते वक्त इस्लामी तरीक़े के मुताबिक़ सलाम किया, बादशाह को सजदा नहीं किया। इस पर नजाशी बोला:
“क्या बात है, तुमने मुझे सजदा क्यों नहीं किया?”

हज़रत जाफर (रज़ि.) तुरंत बोले:
“हम अल्लाह के सिवा किसी को सजदा नहीं करते, अल्लाह तआला ने हमारे दरमियान एक रसूल भेजे हैं… और हमें हुक्म दिया कि अल्लाह के सिवा किसी को सजदा न करें। अल्लाह के रसूल की तालीम के मुताबिक़ हमने आपको वही सलाम किया है जो जन्नत वालों का सलाम है।”

नजाशी इस बात को जानता था, क्योंकि यह बात इंजील में थी।

इसके बाद हज़रत जाफर (रज़ि.) ने कहा:
“अल्लाह के रसूल ने हमें नमाज़ का हुक्म दिया है और ज़कात अदा करने का हुक्म दिया है।”

इस वक्त हज़रत अम्र बिन आस (रज़ि.) ने नजाशी को भड़काने के लिए कहा:
“यह लोग इब्ने मरियम यानी ईसा (अलैहिस्सलाम) के बारे में आपसे अलग अकीदा रखते हैं। यह उन्हें अल्लाह का बेटा नहीं मानते।”

इस पर नजाशी ने पूछा:
“तुम लोग ईसा इब्ने मरियम और मरियम (अलैहिस्सलाम) के बारे में क्या अकीदा रखते हो?”

हज़रत जाफर (रज़ि.) ने कहा:
“इनके बारे में हम वही कहते हैं जो अल्लाह तआला फरमाता है, यानी कि वह रूहुल्लाह और कलिमतुल्लाह हैं और कुंवारी मरियम के बतन से पैदा हुए हैं।”

फिर हज़रत जाफर बिन अबी तालिब (रज़ि.) ने बादशाह के दरबार में यह तक़रीर की:


“ऐ बादशाह! हम एक गुमराह क़ौम थे, पत्थरों को पूजते थे, मुर्दार जानवरों का गोश्त खाते थे, बेहयाई के काम करते थे। रिश्तेदारों के हक़ ग़ज़ब करते थे। पड़ोसियों के साथ बुरा सुलूक करते थे। हमारा हर ताकतवर आदमी कमज़ोर को दबा लेता था। यही थी हमारी हालत, फिर अल्लाह तआला ने हम में उसी तरह एक रसूल भेजा, जैसा कि हमसे पहले लोगों में रसूल भेजे जाते रहे हैं। यह रसूल हम ही में से हैं। हम उनका नसब, उनकी सच्चाई और पाकदामनी अच्छी तरह जानते हैं।

उन्होंने हमें अल्लाह तआला की तरफ बुलाया कि हम उसे एक जानें, उसकी इबादत करें और यह कि अल्लाह के सिवा जिन पत्थरों और बुतों को हमारे बाप-दादा पूजते चले आए हैं, हम उन्हें छोड़ दें। उन्होंने हमें हुक्म दिया कि हम सिर्फ़ अल्लाह तआला की इबादत करें, नमाज़ पढ़ें, ज़कात दें, रोज़े रखें। उन्होंने हमें सच्च बोलने, अमानत पूरी करने, रिश्तेदारों की ख़बरगीरी करने, पड़ोसियों से अच्छा सुलूक करने, बुराइयों और खून बहाने से बचने और बदकारी से दूर रहने का हुक्म दिया।

इसी तरह गंदी बातें करने, यतीमों का माल खाने और घरों में बैठने वाली औरतों पर तोहमत लगाने से मना फरमाया। हम ने उनकी तस्दीक़ की, उन पर ईमान लाए और जो तालीमात वह लेकर आए, उनकी पैरवी की। बस इस बात पर हमारी क़ौम हमारी दुश्मन बन गई ताकि हमें फिर पत्थरों की पूजा पर मजबूर कर सके। इन लोगों ने हम पर बड़े-बड़े ज़ुल्म किए, नए से नए ज़ुल्म ढाए, हमें हर तरह तंग किया। आख़िरकार जब इनका ज़ुल्म हद से बढ़ गया और यह हमारे दीन के रास्ते में रुकावट बन गए तो हम आपकी सरज़मीन की तरफ निकल पड़े। हमने दूसरों के मुक़ाबले में आपको पसंद किया। हम तो यहां यह उम्मीद लेकर आए हैं कि आपके मुल्क में हम पर ज़ुल्म नहीं होगा।”

हज़रत जाफर (रज़ि.) की तक़रीर सुनकर नजाशी ने कहा:
“क्या आपके पास अपने नबी पर आने वाली वही का कुछ हिस्सा मौजूद है?”

“हाँ! मौजूद है।” जवाब में हज़रत जाफर बोले।

“वह मुझे पढ़कर सुनाएं।” नजाशी बोला।

इस पर उन्होंने क़ुरआन करीम से सूरह मरियम की चंद शुरुआती आयतें पढ़ीं। आयतें सुनकर नजाशी और उसके दरबारियों की आंखों में आंसू आ गए।

नजाशी बोला:
“हमें कुछ और आयतें सुनाओ।”

इस पर हज़रत जाफर ने कुछ और आयतें सुनाईं। तब नजाशी ने कहा:
“अल्लाह की क़सम! यह तो वही कलाम है जो हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) लेकर आए थे। खुदा की क़सम, मैं इन लोगों को तुम्हारे हवाले नहीं करूंगा।”

इस तरह क़ुरैशी वफ़्द नाकाम लौट गया।

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