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Hazrat Musa Alaihissalam and Jews History (Part 2)
पिछले Part में हमने Hazrat Musa Alaihissalam की पैदाईश से Firon के समंदर में डूबने तक का ज़िक्र किया
अब यहां से हम Hazrat Musa Alaihissalam और Bani-Isrsel यानि यहूदियों का ज़िक्र करेंगे के किस तरह उन्होंने हज़रत मूसा के साथ सुलूक किया।
Table of Contents
समुद्र पार करने के बाद बनी इसराईल (Jews) की पहली मांग
हजरत मूसा अलैहि सलाम और बनी इसराईल ने सलामती के साथ लाल सागर पार करने के बाद शोर बयावान से होते हुए सीना की राह ली। सीना के मूर्ति-घरों में बुत के पुजारी, बुतों की पूजा में लगे हुए थे। बनी इसराईल ने यह मंजर देखा तो कहने लगे, मूसा! हमको भी ऐसे माबूद बना दे, ताकि हम भी इसी की तरह इनकी पूजा करें।
हजरत मूसा ने क़ौम की जुबानी यह शिर्क भरी मांग सुनी, तो बहुत ज़्यादा नाराज हुए और बनी इसराईल को डांटा और इतनी शर्म दिलाई और मलामत की “कि बदबख़्तो! एक अल्लाह की इबादत छोड़कर बुतों की इबादत की तरफ़ झुकाव है और अल्लाह की उन तमाम नेमतों को भूल बैठे जिन्हें अपनी आंखों से देख चुके हो।“
बनी इसराईल पर अल्लाह के इनाम
12 चश्मों का जारी होना
बनी इसराईल अब सीना की घाटी में थे, यहां बहुत तेज़ गर्मी पड़ती है। दूर दूर तक हरियाली और पानी का पता नहीं। बनी इसराईल हज़रत मूसा अलैहि सलाम से फ़रियाद करने लगे, तब हज़रत मूसा ने अल्लाह के दरबार में इल्तिजा की और अल्लाह की वह्य ने उनको हुक्म दिया कि अपना आसा (डंडा) ज़मीन पर मारो। हज़रत मूसा ने इर्शाद की तामील की तो फ़ौरन बारह स्रोत उबल पड़े और बनी इसराईल के बारह क़बीलों के लिए अलग-अलग चश्मे जारी हो गए।
मन्न व सलवा का उतरना
पानी के इस तरह जुटाए जाने के बाद बनी इसराईल ने भूख की शिकायत की। हज़रत मूसा ने फिर रब्बुल आलमीन से दुआ की। हज़रत मूसा की दुआ कुबूल हुई और ऐसा हुआ कि जब रात बीत गई और सुबह हुई तो बनी इसराईल ने देखा कि जमीन और पेड़ों पर जगह-जगह सफ़ेद ओले के दाने की तरह ओस की शक्ल में आसमान से कोई चीज़ बरस कर गिरी हुई है। खाया, तो बहुत मीठे हलवे की तरह थी। यह ‘मन्न‘ था और दिन में तेज हवा चली और थोड़ी देर में बटेरों के झुंड के झुंड जमीन पर उतरे और फैल गए। बनी इसराईल उनको भूनकर खाने लगे, यह ‘सलवा‘ था।
बादलों का साया
अब बनी इसराईल ने गर्मी की तेजी और साएदार पेड़ों और मकानों की राहत मयस्सर न होने की शिकायत की, तो फिर हज़रत मूसा अलैहि सलाम ने अल्लाह ताला से दुआ की, जो कुबूल हुई और आसमान पर बादलों के परे के परे बनी इसराइल पर साया फ़गन हो गए और बनी इस्राईल जहा भी जाते बादल साया फगन रहते।
बनी इसराईल की नाशुक्री
अल्लाह की इन मेहरबानियों और बख़्शिशो का बनी इसराईल शुक्र तो क्या अदा करते, एक दिन जमा होकर कहने लगे, ‘मूसा ! हम रोज-रोज़ एक ही खाना खाते रहने से घबरा गए हैं, हमको को इस ‘मन्न व सलवा‘ की ज़रूरत नहीं है। अपने अल्लाह से दुआ कर कि वह हमारे लिए जमीन से वाक़ला, खीरा, ककड़ी, मसूर, लहसुन, प्याज़ जैसी चीजें उगाए ताकि हम खूब खाएं।‘ जवाब में हज़रत मूसा अलैहि सलाम ने कहा-
क्या तुम बेहतर और उम्दा चीज़ के बदले में घटिया चीज़ की ख्वाहिश करते हो, किसी शहर में जा क्रियाम करो, बेशक वहां यह सब कुछ मिल जाएगा, जिसके तुम तलबगार हो। अल-बकर 2:61
तूर पर एतिकाफ़
हज़रत मूसा अलैहि सलाम से अल्लाह का वायदा था कि जब बनी इसराईल गुलामी से आजाद हो जाएंगे, तुमको “शरीअत” दी जाएगी। अब हजरत मूसा अलैहि सलाम अल्लाह की वह्य के इशारे तूर पर पहुंचे और वहां अल्लाह की इबादत के लिए एतिकाफ किया।
और हमने मूसा से तीस रातों का वायदा किया था रातें बढ़ाकर उसे पूरे चालीस कर दिये। इस तरह परवरदिगार के हुजूर आने की मुक़र्रर की हुई मीयाद यानी चालीस रातों की मीयाद पूरी हो गई। अल-आराफ़ 7:142
जब हज़रत मूसा अलैहि सलाम तूर पर एतकाफ के लिए तशरीफ़ ले गए तो –और मूसा ने अपने भाई हारून से कहा, तू मेरे पीछे मेरी क़ौम में नायब रहना और उनकी इस्लाह का ख्याल करना और फ़साद पैदा करने वाले की राह पर न चलना। अल-आराफ़ 7:142
तजल्ली-ए-जात
जब 40 रात पूरे हो गए तो अल्लाह ने हज़रत मूसा को हम कलामी का शरफ़ बख़्शा, तो वह पुकार उठे –
परवरदिगार! मुझे अपना जमाल दिखा कि तेरी तरफ़ नज़र कर सकू। हुक्म हुआ, तू मुझे नहीं देख सकेगा, मगर हां, इस पहाड़ की तरफ़ देख! अगर यह (तजल्ली-ए-हक़ की ताब ले आया और) अपनी जगह टिका रहा, तो मुझे देख सकेगा, फिर जब उसके परवरदिगार ने तजल्ली की तो उस तजल्ली ने पहाड़ रेजा-रेजा कर दिया और मूसा गश खाकर गिर पड़ा। जब मूसा होश में आया, तो बोला, ‘अल्लाह! तेरे लिए हर तरह की तक्दिस हो। मैं तेरे हुजूर तौबा करता हूं और सबसे पहले यक़ीन करने वालों में हूं।‘ अल-आराफ़ 7:143
तौरात का उतरना
इस इस के बाद मूसा अलैहि सलाम को तौरात अता की गई। और हमने उसके लिए तौरात की तख्तियों पर हर किस्म की नसीहत और (अहकाम में से) हर चीज़ की तफ्सील लिख दी है, पस इसका कुव्वत के साथ पकड़ और अपनी क़ौम को हुक्म कर कि वे उनको अच्छी तरह अख्तियार करें। अल-आराफ़ 145
बहरहाल हजरत मूसा अलैहि सलाम को (तख्तियों की शक्ल में) तौरात अता हुई और साथ-साथ यह भी बता दिया गया कि हमारा ‘कानून’ यह है कि जब कोई कौम हिदायत पहुंचने और उसकी सच्चाई पर दलील और रोशन हुज्जत आ जाने के बावजूद भी समझ से काम नहीं लेती और गुमराही और बाप-दादा की बूरी रस्म पर ही कायम रहती है और उस पर इसरार करती है, तो फिर हम भी उसको उस गुमराही में छोड़ देते हैं और हमारे हक के पैग़ाम में उनके लिए कोई हिस्सा बाक़ी नहीं रहता, इसलिए कि उन्होंने हक़ कुबूल करने की इस्तेदाद अपनी सरकशी के बदौलत बर्बाद कर दी।
बनी इसराईल की गौपरस्ती
इसी बीच एक और अजीब व ग़रीब वाकिया पेश आया, वह यह कि कोहे तूर पर एतिकाफ़ में फैलाव से फायदा उठाकर एक आदमी सामरी [सामरी के बारे में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने वजाहत की है कि वह बनी इसराईल में से न था, बल्कि वह सुमैरी क़ौम का आदमी था और सापरी उसका नाम नहीं है, बल्कि उसकी क़ौमियत की तरफ़ इशारा है (Sumarian) ] ने जो जाहिर में मुसलमान था, बनी इसराईल से कहा कि अगर तुम वह तमाम जेवर मेरे पास ले आओ जो तुमने मिस्रियों से उधार लिए थे और फिर वापस न कर सके, तो मैं तुम्हारे फायदे की एक बात कर दूं।
बनी इसराईल ने तमाम जेवर सामरी के हवाले कर दिए। उसने उनको गलाकर बछड़े का जिस्म तैयार किया और फिर अपने पास से एक मुट्ठी मिट्टी उसके लिए डाल दी। इस तर्कीब से उसमें जिंदगी के निशान पैदा हो गए और उससे बछड़े की आवाज़ ‘भाएं-भाएं’ आने लगी। अब सामरी ने बनी इसराईल से कहा कि मूसा (अलैहि सलाम) से गलती हो गई, तुम्हारा माबूद तो यह है।
सामरी की इस तर्गीब से बनी इसराईल ने उसकी पूजा शुरू कर दी।
हजरत हारुन (अलैहि सलाम) ने यह देखा तो बनी इसराईल को समझाया कि ऐसा न करो। यह तो गुमराही का रास्ता है, मगर उन्होंने हारून (अ०) की बात मानने से इंकार कर दिया और कहने लगे कि जब तक मूसा न आ जाएं हम इससे वाज आने वाले नहीं।
यहां जब यह नौबत पहुंची तो अल्लाह तआला की मस्लहत का ताकाजा हुआ कि हजरत मुसा (अलैहि सलाम) को इस वाकिए की इत्तिला दे दे, इसलिए मुसा से पूछा, मुसा! तुमने कौम को छोड़कर यहां आने में इतनी जल्दी क्यों की? हजरत मूसा (अ०) ने अर्ज किया, ऐ अल्लाह! इसलिए कि तेरे पास हाजिर होकर कौम के लिए हिदायत हसिल करू?’ अल्लाह तआला ने उस वक़्त उनको बताया कि जिसकी हिदायत के लिए तुम इस कदर बेचैन हो। वह इस गुमराही में मुब्तला है।
हजरत मूसा (अ०) ने यह सुना तो उनको सख्त रंज हुआ। और गुस्से और नदामत के साथ कौम की तरफ वापस हुए और कौम से मुखातब होकर फ़रमाया : “तुमने यह क्या किया?” मुझसे ऐसी कौन सी देर हो गई थी जो तुमने यह आफ़त खड़ी कर दी। यह फरमाते जाते थे और गैज व गजब से कांप रहे थे, यहां तक कि हाथ की लोहें (तख्तियां) भी गिर गई।
बनी इसराईल ने कहाः
हमारा तो कोई कुसूर नहीं। मिस्रियों के जेवरों का जो बोझ हम साथ लिए फिर रहे थे, वह सामरी ने हमसे मांग कर यह स्वांग बना लिया और हमको गुमराह कर दिया।
शिर्क‘ नुबूवत के मंसब के लिए एक बर्दाश्त न करने के काबिल चीज है, इसलिए और फिर इसलिए भी कि हज़रत मूसा बहुत गर्म मिज़ाज थे। उन्होंने अपने भाई हारून की गरदन पकड़ ली और दाढ़ी की तरफ हाथ बढ़ाया तो हज़रत हारून (अ.स) ने फ़रमाया,
- ‘भाई! मेरी मुतलक खता नहीं है। मैंने उन्हें हर पहलू से समझाया, मगर उन्होंने किसी तरह नहीं माना और कहने लगे कि जब तक मूसा न आ जाएं, हम तेरी बात सुनने वाले नहीं, बल्कि उन्होंने मुझको कमजोर पा कर मेरे कत्ल का इरादा कर लिया था। जब मैंने यह हालत देखी तो ख्याल किया कि अगर इनसे लड़ाई की जाए और पूरे ईमान वालों और उनके दर्मियान लड़ाई छिड़ जाए तो कहीं मुझ पर यह इलज़ाम न लगाया जाए कि मेरे पीछे कौम में फूट डाल दी, इसलिए मैं ख़ामोशी के साथ तेरे इतिज़ार में रहा। प्यारे भाई! तू मेरे सर के बाल न नोच और न दाढ़ी पर हाथ वला और इस तरह दूसरों को हंसने का मौका न।”
हारून (अ०) की यह माकूल दलील सुनकर हजरत मुसा का गुस्सा उनकी तरफ से ठंडा हो गया और अब सामरी की तरफ़ मुखातब होकर फ़रमाया –
- ‘सामरी! तूने यह क्या स्वांग बनाया है?’
सामरी ने जवाब दिया कि मैंने ऐसी बात देखी जो इन इसराईलियों में से किसी ने नहीं देखी थी, यानी फ़िरऔन के डूबने के वक्त जिब्राइल घोड़े पर सवार इसराईलियों और फ़िरऔनियों के दर्मियान रोक बने हुए थे। मैंने देखा कि उनके घोड़े की सुम की ख़ाक में जिंदगी का असर पैदा हो जाता है और सूखी जमीन पर सब्जा उग आता है, तो मैंने जिब्रइल के घोड़े के क़दमों की खाक से एक मुट्ठी भर ली और उस ख़ाक को इस बछड़े में डाल दिया और उसमें जिंदगी की निशानियां पैदा हो गईं और यह ‘भां-भां’ करने लगा।
हजरत मूसा (अ०) ने फ़रमाया –
अच्छा, अब दुनिया में तेरे लिए यह सजा तजवीज की गई है कि तू पागलों की तरह मारा-मारा फिरे और जब कोई इंसान तेरे करीब आए तो उससे भागते हुए यह कहे कि देखना, मुझको हाथ न लगाना, यह तो दुनिया वाला अजाब है और कयामत में ऐसे नाफ़रमानों और गुमराहों के लिए जो अजाब मुकर्रर है, वह तेरे लिए अल्लाह के वायदे की शक्ल में पूरा होने वाला है।
ऐ सामरी! यह भी देख कि तूने जिस गौशाला को माबूद बनाया था और उसकी समाधि लगाकर बैठा था, हम अभी उसको आग में डालकर खाक किए देते हैं और इस ख़ाक को दरिया में फेंके देते हैं कि तुझको और तेरे इन बेवकूफ मुक्तादिओं को मालूम हो जाए कि तुम्हारे माबूद की क़द्र व कीमत और ताकत व कूवत का यह हाल है कि वह दूसरों पर इनायत व करम तो क्या करता, ख़ुद अपनी ज़ात को हलाकत व तबाही से न बचा सका।
बनी इसराईल को माफ़ी
गुस्सा कम होने पर हज़रत मूसा (अ०) ने तौरात की तख्तियों को उठा लिया और अल्लाह की तरफ़ रुजू किया कि अब बनी इसराईल की इस बेदीनी और इर्तिदाद की सजा अल्लाह के नजदीक क्या है? जवाब मिला कि जिन लोगों ने यह शिर्क किया, उनको अपनी जान से हाथ धो लेना पड़ेगा।
नसई में रिवायत है कि हजरत मूसा (अ०) ने बनी इसराईल से कहा कि तुम्हारी तौबा की सिर्फ़ एक शक्ल मुकर्रर की गई है कि मुजरिमो को अपनी जान इस तरह खत्म कराना चाहिए कि जो आदमी रिश्ते में जिससे सबसे ज्यादा करीब है, वह अपने अजीज़ को अपने हाथ से कत्ल करे यानी बाप बेटे और बेटा बाप को और भाई भाई को, आख़िरकार बनी इसराईल को इस हुक्म के आगे सर झुका देना पड़ा।
काफ़ी तायदाद में बनी इसराईल कत्ल हुए, जब नौबत यहां तक पहुंची तो हज़रत मूसा (अ०) अल्लाह के दरबार में सज्दे में गिर पड़े और अर्ज किया, ऐ अल्लाह! अब इन पर रहम फ़रमा कर इनकी ख़ताओं को बश दे। हज़रत मूसा (अ०) की दुआ कुबूल हुई और अल्लाह तआला ने फ़रमाया कि हमने क़ातिल व मक्तूल दोनों को बना दिया और जो जिंदा और कुसूरवार हैं, उनकी भी खता माफ़ कर दी। तुम उनको समझा दो कि आगे शिर्क के करीब भी न जाएं।
सत्तर सरदारों का इंतिख़ाब और उन पर अज़ाब
जब बनी इसराईल का यह जुर्म माफ़ कर दिया गया तो अब हजरत मूसा अलैहि सलाम ने उनसे फ़रमाया कि मेरे पास जो ये ‘अलवाह‘ (तख्तियां) हैं, यह किताब है, जो अल्लाह तआला ने तुम्हारी हिदायत और दीनी व दुनियावी जिंदगी की फ़लाह के लिए मुझको अता फरमाई है, यह तौरात है। अब तुम्हारा फर्ज है कि इस पर ईमान ले आओ और इसके हुक्मों को पूरा करो।
बनी इसराईल बहरहाल बनी इसराईल थे, कहने लगे, मूसा! हम कैसे यक़ीन करें कि यह अल्लाह की किताब है? सिर्फ तेरे कहने से तो हम नहीं मानेंगे, हम तो जब उस पर ईमान लाएंगे कि अल्लाह को बे-परदा अपनी आंखों से देख लें और वह हमसे यह कहे कि यह तौरात मेरी किताब है, तुम इस पर ईमान लाओ।
हज़रत मूसा अलैहि सलाम ने उनको समझाया, यह बेवकूफ़ी का सवाल है, इन आंखों से अल्लाह को किसने देखा है जो तुम देखोगे? यह नहीं हो सकता, मगर बनी इसराईल का इसरार बराबर कायम रहा।
हज़रत मूसा अलैहि सलाम ने जब यह देखा तो कुछ सोचकर इरशाद फ़रमाया कि यह तो नामुमकिन है कि तुम लाखों की तायदाद में मेरे साथ (तूर पहाड़) पर इसकी तस्दीक के लिए जाओ, मुनासिब यह है कि तुममें से कुछ सरदार चुनकर साथ लिए जाता हूं, वे अगर वापस आकर तस्दीक कर दें तो फिर तुम भी तस्लीम कर लेना और चूकि अभी गौशाला परस्ती करके एक बहुत बड़ा गुनाह कर चुके हो, इसलिए नदामत के इजहार के लिए और अल्लाह से आगे नेकी के अहद के लिए भी यह मौका मुनासिब है। कौम इस पर राजी हो गई और हज़रत मूसा अलैहि सलाम ने तमाम अस्बात से सत्तर सरदारों को चुन लिया और तूर पर जा पहुंचे।
तूर पर एक सफेद बादल की तरह ‘नूर’ ने हज़रत मूसा अलैहि सलाम को घेर लिया और अल्लाह से हमकलामी शुरू हो गई। हज़रत मूसा अलैहि सलाम ने अल्लाह के दरबार में अर्ज़ किया कि तू बनी इसराइल के हालात का दाना व जीना है, मैं उनकी जिद पर सत्तर आदमी इतिख़ाब कर लाया हूं क्या अच्छा हो कि वे भी इस ‘हिजाबे नूर’ से मेरी और तेरी हमकलामी को सुन ले और क़ौम के पास जाकर तस्दीक करने के काबिल हो जाए?
अल्लाह तआला ने हज़रत मूसा अलैहि सलाम की दुआ मंज़ूर फ़रमा ली और उनको ‘हिजाबे नूर‘ में लिया गया और उन्होंने हजरत मूसा अलैहि सलाम और अल्लाह रब्बुल आलमीन की हमकलामी (आपस की बात-चीत) को सुना।
सरदारों की हथधर्मी, अज़ाबे इलाही और नई जिंदगी
लेकिन जब नूर का परदा हट गया और हज़रत मूसा अलैहि सलाम और उन सरदारों के दर्मियान आमना-सामना हुआ तो सरदारों ने वही अपना पहला इसरार कायम रखा कि जब तक बे-परदा अल्लाह को न देख लें, हम ईमान लाने वाले नहीं।
इस बेवकूफी के इसरार और जिद पर अल्लाह की गैरत ने उनको यह सज़ा दी कि एक हैबतनाक चमक, कड़क और जलजले ने उनको आ लिया और जला कर खाक कर दिया। हजरत मूसा अलैहि सलाम ने जब यह देखा तो अल्लाह के दरबार में आजिजी के साथ दुआ मांगी, इलाही!
ये बेवकूफ़ अगर बेवकूफ़ी कर बैठे तो क्या तू हम सब को हलाक कर देगा। ऐ अल्लाह! अपनी रहमत से तू इनको माफ कर दे। अल्लाह तआला ने हजरत मूसा अलैहि सलाम की दुआ को सुना और उन सबको दुबारा ताजा जिंदगी बख्शी और फिर जब वे जिंदगी का लिबास पहन रहे थे तो एक दूसरे की ताजा जिंदगी को आंखों से देख रहे थे। अल बक़रह 55
बनी इसराईल का फिर इंकार और तूर पहाड़ का सरों पर बुलंद होना
बहरहाल जब ये सत्तर सरदार दोबारा जिंदगी पाकर क़ौम की तरफ वापस हुए तो उन्होंने क़ौम से तमाम किस्सा कह सुनाया और बताया कि मूसा अलैहि सलाम जो कुछ कहते हैं वह हक है और बेशक वे अल्लाह के भेजे हुए हैं।
अब सलीम फ़ितरत का तकाज़ा तो यह था कि ये सब अल्लाह तआला का शुक्र बजा लाते और उसके ज़्यादा-से-ज्यादा फ़ज़्ल व करम को देखते हुए फरमाबरदारी और उबूदयित के साथ उसके सामने सर झुका देते, मगर हुंवा यह कि उन्होंने अपनी टेढ़ को बाकी रखा और अपने नुमाइन्दों की तस्दीक के वावजूद तौरात के कुबूल करने में ठुकराने और कुबूल न करने का रवैया अपना लिया और हज़रत मूसा अलैहि सलाम के इर्शाद पर कान न धरा।
जब हज़रत मूसा अलैहि सलाम ने यह देखा तो ख़ुदा के दरबार में रुजू करते हुए कौम की बेराहरवी की शिकायत की। अल्लाह के दरबार से हुक्म हुआ कि इन नाफ़रमानों के लिए मैं तुझको एक हुज्जत (मोजज़ा) और अता करता हूं और वह यह कि जिस पहाड़ (तूर) पर तू मुझसे हमकलाम हुआ है और जिस पर तेरी क़ौम के चुने हुए सरदारों ने हक़ का मुशाहदा किया है, उसी पहाड़ को हुक्म देता हूं कि वह अपनी जगह से हरकत करे और साइवान की तरह बनी इसराईल के सरों पर छा जाए और जुबाने हाल से यह सवाल करे कि मूसा अल्लाह का सच्चा पैग़ंबर है और तौरात बेशक अल्लाह की सच्ची किताब है और अगर ये दोनों हक व सदाकत का मजहर न होते तो, यह शानदार ‘निशान’ तुम न देखते, जिसका जाहिर होना अल्लाह की कुदरत के सिवा और किसी तरह भी नामुमकिन है।
चुनांचे ज्योंही अल्लाह का यह फैसला हुआ, तूर उनके सरों पर सायबान की तरह नजर आने लगा और जुबाने हाल से कहने लगा कि ऐ बनी इसराइल! अगर तुममें अक्ल और होश बाक़ी है और हक व बातिल की पहचान मौजूद है तो कान खोल कर सुनो कि मैं अल्लाह का निशान बनकर तुमको यकीन दिलाता हूं और गवाही देता हूं कि मूसा अलैहि सलाम ने कई बार मेरी पीठ पर बैठ कर अल्लाह तआला से साथ बात करने का शरफ़ हासिल किया है और तुम्हारी रुश्द व हिदायत का कानून (तौरात) भी उसको मेरी पीठ ही पर अता हुआ है।
और ऐ ग़फ़लत व सरकशी में मस्त लोगो! मेरी यह हैबत (रौब व दबदबा), जो तुम्हारे लिए हैरान करने वाली बन रही है, इस बात की गवाही है कि जब इंसान के सीने में दिल की नर्मी सख्ती से बदल जाती है, तो फिर वह पत्थर का टुकड़ा, बल्कि इससे भी ज़्यादा सख्त बन जाता है और रुश्द व हिदायत उसमें किसी ओर से दाखिल नहीं हो पाती। देखो, मैं पत्थर के टुकड़ों का मज्मूआ ‘पहाड़’ हूं, लेकिन अल्लाह के हुक्म के सामने किस तरह बन्दगी जाहिर कर रहा हूं, मगर तुम हो कि अना (मैं) और ख़ुदी के घमंड में किसी हालत में भी ‘नहीं’ को ‘हां’ से बदल देने को तैयार नहीं, सच है
–फिर तुम्हारे दिल सख्त हो गए, सो वे हो गए जैसे पत्थर या उनसे भी सख्त। अल-बकरः 74
बनी इसराईल ने जब यह ‘निशान’ देखा तो अब उसे वक़्ती खौफ़ व दहशत का फल समझिए या खुली आंखों अल्लाह के शानदार ‘निशान’ के मुशाहदे का नतीजा, यक़ीन कीजिए कि बनी इसराईल तौरात की तरफ़ मुतवज्जह हुए और हज़रत मूसा के सामने उसके अहकाम की तामील का इकरार किया, तब अल्लाह का फरमान हुआ कि ऐ बनी इसराईल! हमने जो तुझे दिया है, उसको मज़बूती के साथ लो और जो अहकाम इस (तौरात) में दर्ज हैं उनकी तामील करो, ताकि तुम परहेज़गार और मुत्तकी बन सको।
मगर अफ़सोस कि बनी इसराईल का यह अहदे मीसाक हंगामी साबित हुआ और ज़्यादा दिनों तक वे उस पर कायम न रह सके और आदत के मुताबिक फिर ख़िलाफ़वर्ज़ी शुरू कर दी। कुरआन मजीद ने इन वाकीयों को बहुत ही थोड़े में, मगर साफ़ और खुले लफ़्ज़ों में इस तरह बयान किया है।
और जब हमने तुमसे अहद लिया और तुम्हारे सर पर तूर को ऊंचा किया और कह्म जो हमने तुमको दिया है, उसको ताकत से पकडो और जो कुछ उसमें है, उसको याद करो, ताकि परहेजगार बनो। फिर बाद तुमने (इस तोरात से) पीठ फेरे ली, पस अगर तुम पर अल्लाह का और उसकी रहमत न होती तो बेशक तुम नुकसान उठाने वालों में हो जाते। सूरह बक़रह 63-64
और जब हमने उनके (बनी इसराईल के) सरों पर पार कर दिया, गोया कि वह सायबान है और उन्होंने यकीन कर लिया कि पर गिरने वाला है, तो हमने कहा) जो हमने तुमको दिया है, उसको से लो और जो कुछ उसमें है, उसको याद करो, ताकि तुम परहेजगार बने। अल-आराफ 170
इन आयतों में साफ किया गया है कि बनी इसराईल ने जब तौरात के कुबूल करने में आनाकानी की, बल्कि इंकार कर दिया तो अल्लाह तआला रे उनके सरों पर तूर को बुलन्द कर दिया और इस तरह अल्लाह की निशानी जाहिर करके उनको सौरात कुबूल करने पर तैयार किया।
अर्जे मुक़द्दस का वायदा और बनी इसराईल Jews
नोट – अर्जे मुक़द्दस से वह इलाका मुराद है जो पहले कनआन कहलाया, फिर फलस्तीन।
सीना के जिस मैदान में, उस वक़्त बनी इसराईल मौजूद थे, वह सरजमीन फलस्तीन से करीब थी और उनके बाप-दादा हज़रत इब्राहीम, हज़रत इस्हाक, और हज़रत याकूब से अल्लाह का वायदा था कि तुम्हारी औलाद को फिर उस सरजमीन का मालिक बनाएंगे और वह वहां फूले फलेगी।
इसलिए हज़रत मूसा अलैहि सलाम की मारफत अल्लाह का हुक्म हुआ कि अपनी क़ौम से को कि अर्जे मुकद्दस में दाखिल हों और वहां के जालिम व जाबिर हुक्मरानों को निकाल कर अदल व इंसाफ की जिंदगी बसर करें। हम वायदा करते हैं कि फ़ह तुम्हारी होगी और तुम्हारे जालिम दुश्मन नाकाम होंगे। हज़रत मूसा ने इससे पहले कि बनी इसराईल को अर्जे ‘मुकद्दस में दाखिल होने के लिए आमादा करें, बारह आदमियों को तफ्तीशे हाल के लिए भेजा। वह फ़लस्तीन के करीबी शहर अरील (Jaicho) में दाखिल हुए और तमाम हालात को पार से देखा, जब वापस आए तो हज़रत मूसा को बताया कि बहुत जसीम और तन व तोश के जबरदस्त हैं और बहुत कवी हैकल हैं।
हजरत मूसा अलैहि सलाम ने फ़रमाया कि जिस तरह तुमने मुझसे उनके बारे में कह्म है, कौम के सामने न कहना इसलिए कि एक लम्बे अर्से की गुलामी ने उनके हौसले पस्त कर दिए हैं और उनकी शुजाअत, ख़ुददारी और ऊंची हिम्मत की जगह बुजदिली, जिल्लत और पस्त हिम्मती ने ले ली है, मगर आखिर ये भी उसी कौम के लोग थे, न माने और ख़ामोशी के साथ क़ौम के सामने दुश्मन की ताकत का खूब बढ़ा-चढ़ा कर जिक्र किया, अलबत्ता सिर्फ दो आदमी यूशेम बिन नून और कालिब बिन याना ने हजरत मूसा के हुक्म की पूरी-पूरी तामील की और उन्होंने बनी इसराईल से ऐसी कोई बात नहीं कही कि जिससे उनकी हिम्मत टूटे।
अब हज़रत मूसा ने बनी इसराईल से कहा कि तुम इस बस्ती (अरीहा) में दाखिल हो और दुश्मन का मुकाबला करके उस पर काबिज हो जाओ, अल्लाह तुम्हारे साथ है।
और जब मूसा ने अपनी कौम से कहा, ऐ कौम! तुम पर जो अल्लाह का एहसान रहा है, उसको याद करो कि उसने तुममें नबी और पैगम्बर बनाए और तुमको बादशाह और हुक्मरा बनाया और वह कुछ दिन जो जहानों में किसी को नहीं दिया। ऐ कौम! उस मुकद्दस सरजमीन में दाखिल हो जिसको अल्लाह तआला ने तुम पर फ़र्ज कर दिया है और पीठ फेरकर न लौटो (कि नतीजा यह निकले) कि तुम घाटा और नुक्सान उठाने वाले बकर लौटो।’ अल-माइदा 20-21
बनी इसराईल की नाफरमानी और उसका नतीजा
जब हज़रत मूसा ने बनी इसराईल से कहा कि तुम इस बस्ती (अरीहा) में दाखिल हो और दुश्मन का मुकाबला करके उस पर काबिज हो जाओ, अल्लाह तुम्हारे साथ है।
तो बनी इसराईल ने यह सुनकर जवाब दिया कि, ‘मूसा! यहां तो बड़े खालिप लोग रहते हैं। हम तो उस वक़्त तक उस बस्ती में दाखिल न होंगे जब तक वे वहां से निकल न जाएं।’
अफ़सोस बदबख़्तो ने यह न सोचा कि जब तक हिम्मत व बहादुरी के साथ तुम उनको वहां से न निकालोगे, तो वे जालिम ख़ुद कैसे निकल जाएंगे?
यूशे और कालिब ने जब यह देखा तो कौम को हिम्मत दिलाई और कहा, शहर के फाटक से गुजर जाओ, कुछ मुश्किल नहीं, चलो और उनका मुकाबला करो। हमको पूरा यकीन है कि तुम ही ग़ालिब रहोगे।
‘इन डरने वालों में से दो ऐसे आदमियों ने जिन पर अल्लाह ने अपर फल और इनाम कियाकि तुम इन जाबिरों पर दरवाजे की तरफ से दाखिल हो जाओ।बस जिस वक्त तुम दाखिल हो जाओगे,तुम बेशक गालिब रहोगेऔर (यह भी कहा कि अल्लाह ही पर भरोसा रखो, अगर तुम ईमान लाए हो।’ अल-माइदा : 23
लेकिन बनी इसराईल पर इस दात का कुछ भी असर न हुआ और वे पहले की तरह अपने इंकार पर कायम रहे और जब हज़रत मूसा ने ज़्यादा जोर दिया तो अपने इंकार पर इसरार करते हुए कहने लगे
उन्होंने कहा, ऐ मूसा! हम कभी इस शहर में उस वक्त तक दाखिल नहीं होंगे, जब तक वे उसमें मौजूद हैं। पस तू और तेरा रब दोनों जाओ और उनसे लड़ो, हम तो यहीं बैठे हैं। (यानी तमाशा देखेंगे) अल-माइदा 24
हजरत मूसा ने जब यह ज़लील और बेहूदा बात सुनी तो बहुत दुखी हुए और इंतिहाई रंज़ व मलाल के साथ अल्लाह के हुजूर अर्ज किया,
“ऐ अल्लाह! मैं अपने और हारून के सिवा किसी पर काबू नहीं रखता, सो हम दोनों हाज़िर हैं। अब तू हमारे और इस नाफरमान कौम के दर्मियान जुदाई कर दे, ये तो सखल ना अस्त हैं।
अल्लाह ने हज़रत मूसा पर वह् नाजिल फ़रमाई,
‘मूसा! तुम ग़मगीन न हो, इनकी नाफरमानी का तुम पर कोई बोझ नहीं। अब हमने इनके लिए यह सजा मुकर्रर कर दी है कि ये चालीस साल इसी मैदान में भटकते फिरेंगे और इनको अर्जे मुक़द्दस में जाना नसीब न होगा। हमने उन पर अर्जे मुक़द्दस को हराम कर दिया है।’
(अल्लाह तआला ने) कहा
‘बेशक उन पर अर्जे मुकद्दस का दाखिला चालीस साल तक हराम कर दिया गया। इस मुद्दत में ये इसी मैदान में भटकते रहेंगे। बस तू नाफरमान क़ौम पर ग़म न खा और अफ़सोस न कर। सूरह मईदा 5:26
(सीना घाटी को ‘तीह‘ इसलिए कहते हैं कि कुरआन ने बनी इसराईल के लिए कहा है कि ‘यतीह-न फ़िलअर्ज‘ (ये उसमें भटकते फिरेंगे) जब कोई आदमी रास्ते से भटक जाए तो अरबी में कहते हैं ‘ता-ह फ़्ला‘)
इस सूरतेहाल के बाद हजरत मुसा और हजरत हारूरन को भी उसी मैदान में रहना पड़ा और वे भी अर्जे मुक़द्दस में दाखिल न हो सके, क्योंकि जरूरी था कि बनी इसराइल की रुश्द व हिदायत के लिए अल्लाह का पैग़म्बर उनमें मौजूद रहे।
Hazrat Haroon की वफ़ात
ऊपर लिखे हालात में जब बनी इसराईल ‘तीह’ के मैदान में फिरते-फिराते पहाड़ की उस चोटी के करीब पहुंचे, जो ‘हूर’ के नाम से मशहूर थी, तो हजरत हारून को मौत का पैग़ाम आ पहुंचा। वह और हजरत मूसा अलैहि सलाम अल्लाह के हुक्म से ‘हूर’ पर चढ़ गए और वहीं कुछ दिनों अल्लाह की इबादत में लगे रहे और जब हज़रत हारून का वहां इंतिकाल हो गया तो हज़रत मूसा अलैहि सलाम उनको कफ़नाने-दफ़नाने के बाद नीचे उतरे और बनी इसराईल को हारून की वफ़ात से मुत्तला किया।
हज़रत मूसा की वफ़ात
हज़रत मूसा अलैहि सलाम से रिवायत की गई एक हदीस के मुताबिक जब हजरत मूसा अलैहि सलाम की बफ़ात का वक्त करीब आ गया, तो मौत का फ़रिश्ता उनकी खिदमत में हाजिर हुआ।
फ़रिश्ते से कुछ बात-चीत के बाद हज़रत मूसा अलैहि सलाम ने अल्लाह तआला से अर्ज़ किया कि अगर लम्बी से लम्बी जिंदगी का आखिरी नतीजा मौत ही है, तो फिर वह चीज़ आज ही क्यों न आ जाए और दुआ की कि ऐ अल्लाह! इस आखिरी वक़्त में अर्जे मुक़द्दस से करीब कर दे।
हज़रत मूसा की दुआ के मुताबिक उनकी क़ब्र ‘अरीहा‘ की बस्ती में कसीदे अमर (लाल टीला) पर वाकेय है, जिसका ज़िक्र एक हदीस में भी आया है। वाजेह रहे कि ‘तीह‘ मैदान के सबसे करीब वादी मुक़द्दस का इलाका अरीहा की बस्ती है, गोया अल्लाह पाक ने उनकी आखिरी दुआ को भी शरफ़े कुबूलियत बख्शा।
(अरीहा को रीहू भी कहा गया है और आजकल Dericeo भी कहा जाता है। यह जगह जॉर्डन नदी के पच्छिम में युरूशलम से कुछ मील के फासले पर है और यहां एक कब्र ‘बनी मुसा’ के नाम से मशहूर है।
गाय के ज़िब्ह का वाकिया
एक बार ऐसा हुआ कि बनी इसराईल में एक कत्ल हो गया, मगर क़ातिल का पता न चला। आखिर शुबहा ने तोहमत की शक्ल अख्तियार की ली और आपसी इख्तिलाफ़ की ख़ौफ़नाक शक्ल पैदा हो गई। हज़रत मूसा (अ.स.) ने अल्लाह तआला की तरफ़ रुजू किया और अर्ज़ किया इस वाक़िये ने क़ौम में सख्त इख़्तिलाफ़ रुनुमा कर दिया । तू खुद जानने वाला और हिक्मत वाला है. मेरी मदद फ़रमा।
अल्लाह तआला ने हजरत मूसा (अ.स.) से फ़रमाया कि इनसे कहो, पहले एक गाय ज़िब्ह करें और इसके बाद गाय के एक हिस्से को मक्तूल के जिस्म से मस करें। अगर वे ऐसा करेंगे तो हम उसको जिंदगी बख्श देंगे और यह मामला साफ़ हो जाएगा।
हज़रत मूसा (अ.स.) ने बनी इसराईल से जब ‘गाय के ज़िब्ह करने के बारे में फ़रमाया तो उन्होंने अपनी टेढ़ी बातों और बहानेबाजियों की आदत के मुताबिक़ बहस शुरू कर दी और कहने लगे,
- “मूसा ! तू हमसे मज़ाक करता है? यानी मक्तूल के वाक़िए से गाय ज़िब्ह करने के वाकिए से क्या ताल्लुक? अच्छा, अगर यह वाक़ई अल्लाह का हुक्म है तो यह गाय कैसी हो? उसका रंग कैसा हो? इसकी कुछ और तफ़सीली बातें मालूम होनी चाहिए।”
हज़रत मूसा (अ.स.) ने जब अल्लाह की वह्य की मारफ़त उनके तमाम सवालों के जवाब दे दिए और बहानेबाज़ी का उनके लिए कोई मौक़ा न रहा, तब वे हुक्म की तामील पर तैयार हुए और अल्लाह की वह्य के मुताबिक मामला पूरा किया।
अल्लाह तआला के हुक्म से वह मक्तूल जिंदा हो गया और उसने तमाम वाकिए, जैसे कि वे थे, बयान कर दिए। और इस तरह न सिर्फ यह कि क़ातिल का पता चल गया, बल्कि क़ातिल को भी इक़रार के बग़ैर चारा न रहा और आपस के इज़िलाफ़ दूर हो गए और इन मामलों का अच्छे ढंग से ख़ात्मा हुआ।
कुरआन ने इस वाक़िये से मुताल्लिक सिर्फ इसी क़दर बतलाया है और बेशक यह वाक़िया अल्लाह की उन मुसलसल निशानियों में से एक निशानी थी जो यहूदियों की सख़्त, तेज़ तबियत व आदत के मुकाबले में हक़ की ताईद के लिए अल्लाह की हिकमत के पेशेनज़र ज़ुहूर में आयी।
हजरत मूसा और Qaroon
बनी इसराईल में एक बहुत बड़ा धनवान आदमी था। कुरआन ने उसका नाम क़ारून बताया है। उसके ख़ज़ाने ज़र व जवाहर से भरे हुए थे और बेइंतिहा मज़बूत मज़दूरों की जमाअत मुश्किल ही से उसके ख़ज़ाने की कुंजियां उठा सकती थी। इस खुशहाली और सरमायादारी ने उसको बेहद मगरूर (घमंडी) बना दिया था। क़ारून दौलत के नशे में इस क़दर चूर था कि वो अपने अजीज़ों, रिश्तेदारों और क़ौम के लोगों को हकीर और ज़लील समझता और उनसे हकारत के साथ पेश आता था।
हज़रत मूसा (अ.स.) और उनकी क़ौम ने एक बार उसको नसीहत की कि अल्लाह तआला ने तुझको बेपनाह दौलत और पूंजी दे रखी है और इज़्ज़त और हश्मत अता फरमाई है, इसलिए उसका शुक्र अदा कर और माली हक़ ‘ज़कात व सदाक़त‘ देकर ग़रीबों, फ़कीरों और मिस्कीनों की मदद कर, ‘अल्लाह को भूल जाना और उसके हुक्मों की खिलाफवर्ज़ी करना’ अख़्लाक़ व शराफ़त दोनों लिहाज से सख्त नाशुक्री और सरकशी है। उसकी दी हुई इज़्ज़त का बदला यह नहीं होना चाहिए कि तू कमज़ोरो और बूढ़ों को हक़ीर व ज़लील समझने लगे और घमंड और नफरत में चूर होकर ग़रीबों और अज़ीजों के साथ नफ़रत से पेश आए।
क़ारून के अपने बड़े होने के जज़्बे को हज़रत मूसा (अ.स.) की यह नसीहत पसन्द न आई और उसने गुरूर भरे अंदाज़ में कहा –
- “मूसा ! मेरी यह दौलत व सरवत तेरे खुदा की दी हुई नहीं है, यह तो मेरे अक्ली तजुर्बो और इल्मी काविशों का नतीजा है। मैं तेरी नसीहत को मानकर अपनी दौलत को इस तरह बर्बाद नहीं कर सकता।”
मगर हज़रत मूसा (अ.स.) बराबर तब्लीग़ का अपना फ़र्ज़ अंजाम देते रहे और क़ारून को हिदायत का रास्ता दिखाते रहे। क़ारून ने जब यह देखा मूसा (अ.स.) किसी तरह पीछा नहीं छोड़ते तो उनको ज़च करने और अपनी दौलत व हश्मत के मुज़ाहरे से मरऊब करने के लिए एक दिन बड़े कर्र व फ़र्र के साथ निकला।
हज़रत मूसा (अ.स.) बनी इसराईल के मज्मे में अल्लाह का पैग़ाम सुना है कि क़ारून एक बड़ी जमाअत और ख़ास शान व शौकत और खज़ानों की नुमाइश के साथ सामने से गुजरा, इशारा यह था कि अगर हज़रत मूसा (अ.स.) की तब्लीग़ का यह सिलसिला यों ही जारी रहा, तो मैं भी एक भारी जत्था रखता हूं और ज़र व जवाहर का भी मालिक हूं। इसलिए इन दोनों हथियारों के जरिए मूसा (अ.स.) को हरा कर रहूंगा।
बनी इसराईल ने जब क़ारून की इस दुनियावी सरवत व अज़मत को देखा तो उनमें से कुछ आदमियों के दिलों में इंसानी कमज़ोरी ने यह जज़्बा पैदा कर दिया कि वे बेचैन होकर यह दुआ करने लगे,
‘ऐ काश! यह दौलत व सरवत और अज्मत व शौकत हमको भी नसीब होती।’
मगर बनी इसराईल के सूझ-बूझ वाले अहले इल्म ने फ़ौरन मुदाख़लत की और उनसे कहने लगे,
‘ख़बरदार! इस दुनियावी ज़ेब व ज़ीनत पर न जाना और उसके लालच में गिरफ्तार न हो बैठना, तुम बहुत जल्द देखोगे कि इस दौलत व सरवत का बुरा अंजाम कैसा होने वाला है।’
आख़िरकार जब क़ारून ने किब्र व नखवत के खूब-खूब मुज़ाहरे कर लिए और हज़रत मूसा (अ.स.) और बनी इसराईल के मुसलमानों की तहक़ीर व तज़लील में काफ़ी से ज़्यादा ज़ोर लगा लिया तो अब गैरते हक़ हरकत में आई और ‘अमल का बदला’ के फितरी कानून ने अपना हाथ आगे बढ़ाया।
और क़ारून और उसकी दौलत पर अल्लाह का यह अटल फैसला सुना दिया ‘फलसफ़ना बिही व बिदारिहिलअर्ज’ (हमने क़ारून को और उसके सरमाए को ज़मीन के अन्दर धंसा दिया) और बनी इसराईल का आंखों देखते न ग़रूर बाकी रहा और न सामाने ग़रूर, सबको ज़मीन ने निगल कर इबरत का सामान मुहैया कर दिया। क़ुरआन मजीद ने कई जगहों पर इस वाकिए को तफ्सील से भी और मुख्लसर भी बयान किया है।
फिर हमने क़ारून और उसके महल को ज़मीन में घसा दिया, पस इसके लिए कोई जमाअत मददगार साबित न हुई, जो अल्लाह के अज़ाब से उसको बचाए, और वह बेयार व मददगार ही रह गया।’ क़सस 28-81
क़ारून का वाक़िया कब पेश आया?
तफसीर लिखने वाले उलेमा को इसमें तरहुद है कि क़ारून का वाकिया कब पेश आया? मिस्र में फ़िरऔन के ग़र्क होने से पहले या ‘तीह’ के मैदान में फ़िरऔन के गर्क होने के बाद। क़ुरआन ने इस वाकिए को फ़िरऔन के ग़र्क होने से मुताल्लिक वाकियों के बाद किया है। इसलिए हमारे नज़दीक यह वाक़िया ‘तीही मैदान का है।
हज़रत मूसा और हज़रत ख़िज़्र
हज़रत मूसा (अ.स.) की जिंदगी के वाक़ियों में एक अहम वाकिया उस मुलाक़ात का है जो उनके और एक साहिबे बातिन के दर्मियान हुई और हज़रत मूसा (अ.स.) ने उनसे तक्वीनी दुनिया के कुछ असरार व रुमूज़ मालूम किए। इस मुलाक़ात का ज़िक्र तफसील के साथ सूरः कहफ़ में किया गया है और बुख़ारी में इस वाकिए से मुताल्लिक कुछ और तफ़सील से ज़िक्र आया है।
बुख़ारी में सईद बिन जुबैर (र) से रिवायत है कि उन्होंने अब्दुल्लाह बिन अब्बास से अर्ज़ किया कि नौफ़ बकाली कहता है कि ख़िज़्र के मूसा (अ.स.), बनी इसराईल के मूसा (अ.स.) नहीं हैं, यह एक दूसरे मूसा (अ.स.) हैं। हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास ने फ़रमाया, ख़ुदा का दुश्मन झूठ कहता है मुझसे उबई बिन काब ने हदीस बयान की है कि उन्होंने रसूले अकरम (ﷺ) से सुना है: इर्शाद फ़रमाते हैं कि,
‘एक दिन हज़रत मूसा (अ.स.) बनी इसराईल को खिताब कर रहे थे कि किसी आदमी ने मालूम किया कि इस ज़माने में सबसे बड़ा आलिम कौन है? हज़रत मूसा (अ.स.) ने फ़रमाया, मुझे अल्लाह ने सबसे ज़्यादा इल्म अता फ़रमाया है। अल्लाह तआला को यह बात पसन्द न आई और उन पर इताब हुआ कि तुम्हारा मंसब तो यह था कि उसको इसे इलाही के सुपुर्द करते और कहते, ‘वल्लाहु आलम और फिर वह्य नाजिल फरमाई कि जहां दो समुन्दर मिलते हैं (मजमाउल बहरैन) वहां हमारा एक बन्दा है जो कुछ मामलों में तुझसे भी ज़्यादा आलिम व दाना है।’
हजरत मूसा (अ.स.) ने अर्ज़ किया, परवरदिगार! तेरे इस बन्दे तक पहुंचने का क्या तरीक़ा है? अल्लाह तआला ने फ़रमाया कि मछली को अपने तोशेदान में रख लो। पस जिस जगह वह मछली गुम हो जाए, उसी जगह वह आदमी मिलेगा।
हज़रत मूसा (अ.स.) ने मछली को तोशेदान में रखा और अपने ख़लीफ़ा यूशेअ बिन नून को साथ लेकर ‘मर्दे सालेह’ की तलाश में रवाना हो गए। जब चलते-चलते एक मक़ाम पर पहुंचे, तो दोनों एक पत्थर पर सर रखकर सो गए। मछली में ज़िंदगी पैदा हुई और वह जंबील से निकल कर समुन्दर में चली गई। मछली पानी के जिस हिस्से पर बहती गई और जहां तक गई, वहां पानी बर्फ की तह जम कर एक छोटी-सी पगडंडी की तरह हो गया, ऐसा मालूम होता था कि समुद्र में एक लकीर या खत खिंचा हुआ है।
यह वाक़िया यूशेअ बिन नून ने देख लिया था, क्योंकि वह हज़रत मूसा (अ.स.) से पहले बेदार हो गए थे मगर जब हज़रत मूसा (अ.स.) बेदार हुए तो उनसे ज़िक्र करना भूल गए और फिर दोनों ने अपना सफ़र शुरू कर दिया और उस दिन-रात आगे बढ़ते ही गए। जब दूसरा दिन हुआ तो हज़रत मूसा (अ.स.) ने फ़रमाया कि अब थकान ज़्यादा महसूस होने लगी, वह मछली लाओ, ताकि अपनी मूख मिटाएं।
नबी अकरम (ﷺ) ने फ़रमाया, हज़रत मूसा (अ.स.) को अल्लाह तआला की बताई हुई मंजिले मसूद तक पहुंचने में कोई थकान न हुई थी, मगर मंजिल से आगे ग़लती से निकल गए तो अब थकान भी महसूस होने लगी।
यूशेअ बिन नून ने कहा, आपको मालूम रहे कि जब हम पत्थर की चट्टान पर थे तो वहीं मछली का ताज्जुब भरा वाकिया पेश आया कि उसमें हरकत पैदा हुई और वह मक्तल (जंबील) में से निकल कर समुन्दर में चली गई और उसकी रफ्तार पर समुद्र में रस्ता बनता चला गया। मैं आपसे यह वाकिया कहना भूल गया। यह भी शैतान का एक चरका था।
नबी अकरम (ﷺ) ने फरमाया कि समुन्दर का वह ‘ख़त’ मछली के लिए “सब्र” (रास्ता) था और मूसा (अ.स.) और यूशेअ के लिए ‘उज्व’ (ताज्जुब वाली बात)।
हज़रत मूसा (अ.स.) ने फ़रमाया कि जिस जगह की हमको तलाश है, वह वही जगह थी और यह कहकर दोनों फिर एक दूसरे से बात-चीत करते हुए उसी राह पर लौटे और उस सख़रा (पत्थर की चट्टान) तक जा पहुंचे।
वहां पहुंचे तो देखा कि उस जगह उम्दा कपड़ा पहने हुए एक आदमी बैठा है। हज़रत मूसा (अ.स.) ने उसको सलाम किया। उस आदमी ने कहा, तुम्हारी इस सरजमीन में ‘सलाम’ कहां? (यानी इस सरज़मीन में तो मुसलमान नहीं रहते) यह ख़िज़्र (अ.स.) थे। हज़रत मूसा (अ.स.) ने कहा, हां, मैं तुमसे वह इल्म हासिल करने आया हूं जो अल्लाह ने तुम ही को बख्शा है।
ख़िज़्र (अ.स.) ने कहा, तुम मेरे साथ रहकर उन मामलों पर सब्र न कर सकोगे? मूसा ! अल्लाह ने मुझको तक्वीनी असरार द रुमूज़ का वह इल्म अता किया है जो तुमको नहीं दिया गया और उसने तुमको (तशरीई इल्मों का) वह इल्म अता फरमाया है जो मुझको अता नहीं हुआ।
हज़रत मूसा (अ.स.) ने कहा, ‘इन्शाअल्लाह‘ आप मुझको सब्र व ज़ब्त करने वाला पाएंगे और मैं आपके इर्शाद की बिल्कुल खिलाफ़वर्ज़ी नहीं करूंगा। हज़रत ख़िज़्र (अ.स.) ने कहा, तो फिर शर्त यह है कि जब आप मेरे साथ रहें तो किसी मामले के मुताल्लिक़ भी, जिसको आपकी निगाहें देख रही हों, मुझसे कोई सवाल न करें। मैं खुद उनकी हक़ीक़त आपको बता दूंगा। हज़रत मूसा (अ.स.) ने मंजूर कर लिया और दोनों एक तरफ़ को रवाना हो गए।
जब समुद्र के किनारे पहुंचे तो सामने से एक नाव नज़र आई। हज़रत ख़िज़्र (अ.स.) ने मल्लाहों से किराया पूछा। वे ख़िज़्र (अ.स.) को पहचानते थे, इसलिए उन्होंने किराया लेने से इंकार कर दिया और इसरार करके दोनों को कश्ती पर सवार कर लिया और कशती रवाना हो गई। अभी चले हुए ज़्यादा देर न हुई थी कि हज़रत ख़िज़्र (अ.स.) ने कश्ती के सामने वाले हिस्से का एक तख़्ता उखाड़ कर कश्ती में सूराख़ कर दिया। हज़रत मूसा (अ.स.) से ज़ब्त न हो सका, ख़िज़्र (अ.स.) से कहने लगे, कश्ती वालों ने यह एहसान किया कि आपको और मुझको मुफ़्त सवार कर लिया और अपने उसका यह बदला दिया कि कश्ती में सूराख़ कर दिया कि सब कश्ती वाले कश्ती समेत डूब जाएं, यह तो बहुत नामुनासिब हरकत हुई?
हज़रत ख़िज़्र (अ.स.) ने कहा कि मैंने तो पहले ही कहा था कि आप मेरी बातों पर सब्र न कर सकेंगे? आखिर वहीं हुआ। हज़रत मूसा (अ.स.) ने फ़रमाया, में वह बात बिल्कुल भूल गया, इसलिए आप भूल-चूक पर पकड़ें नहीं और मेरे मामले में सख़्ती न करें। यह पहला सवाल वाकई मूसा (अ.स.) की भूल की वजह से था। इसी बीच एक चिड़िया कश्ती के किनारे आकर बैठी और पानी में चोंच डालकर एक क़तरा पानी पी लिया। हज़रत ख़िज़्र (अ.स.) ने कहा, बेशक तश्वीहे इल्म इलाही के मुकाबले में मेरा और तुम्हारा इल्म ऐसा ही बे-हकीकत है, जैसा कि समुद्र के सामने यह क़तरा।
कश्ती किनारे लगी और दोनों उतर कर एक ओर को रवाना हो गए। समन्दर के किनारे-किनारे जा रहे थे कि एक मैदान में कुछ बच्चे खेल रहे थे। हज़रत ख्रिज (अ.स.) आगे बढ़े और उनमें से एक बच्चे को क़त्ल कर दिया।
हज़रत मूसा (अ.स.) फिर सब्र न कर सके, फ़रमाने लगे – ‘नाहक एक मासूम जान को आपने मार डाला, यह तो बहुत ही बुरा किया?’
हज़रत ख़िज़्र (अ.स.) ने कहा, मैं तो शुरू ही में कह चुका था कि आप मेरे साथ रहकर सब्र व ज़ब्त से काम न ले सकेंगे।नबी अकरम (ﷺ) ने फरमाया, चूंकि यह बात पहली बात से भी ज़्यादा सख्त थी, इसलिए हज़रत मूसा (अ.स.) फिर सब्र न कर सके। हज़रत मूसा (अ.स.) ने फ़रमाया, खैर इस बार और नजरअंदाज कर दीजिए इसके बाद भी अगर सब्र न हो सका, तो फिर उज़्र करने का कोई मौका न रहेगा और इसके बाद आप मुझसे अलग हो जाइएगा।
ग़रज फिर दोनों रवाना हो गए और चलते-चलते एक ऐसी बस्ती में पहुंचे, जहां के रहने वाले खुशहाल और मेहमानदारी के हर तरह काबिल थे, मगर दोनों की मुसाफिराना दरख्वास्त पर भी उनको मेहमान बनाने से इंकार कर दिया था। ये अभी बस्ती ही में से गुज़रे थे कि ख़िज़्र (अ.स.) एक ऐसे मकान की ओर बढ़े, जिसकी दीवार कुछ झुकी हुई थी और उसके गिर जाने का डर था।
हज़रत ख़िज़्र (अ.स.) ने उसको सहारा दिया और दीवार को सीधा कर दिया। हज़रत मूसा (अ.स.) ने फिर ख़िज़्र (अ.स.) को टोका और फ़रमाने लगे कि “हम इस बस्ती में मुसाफिर की हैसियत से दाखिल हुए मगर उसके बसने वालों ने न मेहमानदारी की और न टिकने को जगह दी। आपने यह क्या किया उसके एक बाशिंदे की दीवार को बगैर मुआवजे के दुरुस्त कर दिया। अगर करना ही तो भूख-प्यास को दूर करने के लिए कुछ उजरत ही तै कर लेते।
हज़रत ख़िज़्र (अ.स.) ने फ़रमाया, अब मेरी और तेरी जुदाई का वक्त आ गया, “हाजा फ़िराकु व बैनक‘ और फिर उन्होंने हजरत मूसा को इन तीनों मामलों हक़ीक़तों को समझाया और बताया कि ये सब अल्लाह की तरफ़ से वे थीं, जिन पर आप सब्र न कर सके।
हज़रत ख़िज़्र से मुताल्लिक अहम बातें
हज़रत ख़िज़्र (अ.स.) से मुताल्लिक़ कुछ बातें ज़िक्र के क़ाबिल हैं –
1. ख़िज़्र नाम है या लकब?
कुरआन मजीद में न हज़रत ख़िज़्र का नाम ज़िक्र हुआ है औ लकब, बल्कि ‘अब्दम मिन इबादिना’ (हमारे बन्दों में से एक बन्दा) का ज़िक्र किया गया है। बुख़ारी व मुस्लिम की सही हदीसों में ख़िज़्र (अ.स.) कहकर’ हुआ है, इसलिए न यह कहा जा सकता है कि ख़िज़्र नाम है और न यह ख़िज़्र लकब है और इसका खोलना ज़रूरी भी नहीं।
2. ख़िज़्र सिर्फ ‘नेक बन्दा’ हैं या वली हैं या नबी हैं या रसूल? तर्जीह के काबिल यही है कि वह नबी थे। कुरआन मजीद ने अन्दाज़ में उनके शरफ़ का ज़िक्र किया है, वह नबी की पदवी के लिए ही उतरता है विलायत का मक़ाम तो उससे बहुत पीछे है।
3. उनको हमेशा की जिंदगी हासिल है या वफ़ात पा चुके? तहक़ीक़ करने वाले उलेमा की सही राय यह है कि वह वफ़ात पा चुके हैं, क्योंकि इस दुनिया में मौत एक हकीकत है। “और ऐ मुहम्मद! हमने तुझसे पहले भी किसी बशर को हयात अता नहीं की।” अल-अंबिया
4. मज्मउल बहरैन (बहरैन की जगह) कहां है? ‘मजमउल बहरैन’ ‘यह मकाम वह है जो आजकल अक़्बा के नाम से मशहूर है।’
5. हज़रत ख़िज़्र (अ.स.) का मक़ाम व मर्तबा क्या है? हज़रत ख्रिज (अ.स.) का मक़ाम-कुरआन मजीद ने इस वाकिए के शुरू में ख़िज़्र के ‘इल्म’ के मुताल्लिक कहा है
‘व अल्लमहू मिल्लदुन्नी इलमा‘और हमने उसको अपने पास से इल्म अता किया। अल-कहफ़ 15
और क़िस्से के आखिर में ख़िज़्र का यह क़ौल नक़ल किया है –
“वमा फ़-अत्तु हू अन अमरी’ मैंने वाकियों के इस सिलसिले को अपनी ओर से नहीं किया। अल-कहफ़ 88
तो इन दोनों जुम्लों से मालूम होता है कि अल्लाह तआला ने ख़िज़्र (अ.स.) को कुछ चीजों की हक़ीक़तों का वह इल्म अता फ़रमाया था, जो तक्वीनी रुमूज़ व असरार और बातिनी हक़ीक़तों से मुताल्लिक़ है और यह एक ऐसा मुजाहरा था, जिसे अल्लाह तआला ने हक़ वालों पर वाज़ेह कर दिया। अगर इस दुनिया की तमाम हकीकतों पर से इसी तरह परदा उठा दिया जाए जिस तरह कुछ हक़ीक़तों को ख़िज़्र (अ.स.) के लिए बेनकाब कर दिया था,
तो इस दुनिया के तमाम हुक्म ही बदल जाएं और अमल की आजमाइशों का यह सारा कारखाना बिखर कर रह जाए, मगर दुनिया आमाल की आज़माइशगाह है, इसलिए ‘तक्वीनी हक़ीक़तों’ पर परदा पड़ा रहना ज़रूरी है, ताकि हक़ व बातिल की पहचान के लिए जो तराजू अल्लाह की कुदरत ने मुक़र्रर कर दिया है, वह बराबर अपना काम अंजाम देता रहे।
जहां तक हज़रत मूसा (अ.स.) का ताल्लुक है, तो नबूवत व रिसालत के मामलात के मज्मूए के एतबार से हज़रत मूसा (अ.स.) का मकाम हज़रत ख़िज़्र (अ.स.) के मकाम से बहुत बुलन्द है, क्योंकि वे अल्लाह के नबी भी हैं और जलीलुलक़द्र रसूल भी, शरीअत वाले भी हैं और किताब वाले भी और रसूलों में अज़्म वाले रसूल हैं, पस हज़रत ख़िज़्र (अ.स.) का वह जुज़ई इल्म तक्वीन के असरार से ताल्लुक रखता था हज़रत मूसा (अ.स.) की शरीअत के जामे इल्म से आगे नहीं जा सकता।
हज़रत मूसा और बनी इसराईल का ईज़ा पहुंचाना
पीछे के पार्ट्स में जिन वाक़ियों का ज़िक्र किया गया है उनसे यह बात साफ़ हो चुकी है कि बनी इसराईल ने हज़रत मूसा (अ.स.) को क़ौल और अमल दोनों तरीकों से बड़ी तक्लीफें पहुंचाईं, यहां तक कि बुहतान लगाने और तोहमत गढ़ने से भी बाज़ नहीं रहे, लेकिन क़ुरआन मजीद ने इन वाकियों के अलावा, जिनका ज़िक्र पीछे के पन्नों में हो चुका है, सूरः अहज़ाब और सूरः सफ़्फ़ में हज़रत मूसा (अ.स.) के साथ बनी इसराईल के तकलीफ पहुंचाने पर निंदा करते हुए कहा है।
ऐ ईमान वालो! तुम उन बनी इसराईल की तरह न बनो, जिन्होंने मूसा को तकलीफ़ पहुंचाई। अल-अहजाब 69
और जब मूसा ने अपनी क़ौम से कहा कि ऐ कौम! तू किस लिए मुझको तकलीफ़ पहुंचाती है, जबकि तुझको मालूम है कि मैं तुम्हारी ओर अल्लाह का भेजा हुआ रसूल हूं। अस सफ्फ 61:5 इस बारे में बहस की गई है कि यहां जिस तकलीफ का ज़िक्र किया गया है, क्या उससे वही हालात मुराद हैं जो बनी इसराईल की सरकशी से मुताल्लिक हैं या उनके अलावा किसी ख़ास वाकिए की ओर इशारा है।
इस बहस में सही मस्लक यह है कि जब कुरआन ने हज़रत मूसा अलै० से मुताल्लिक तकलीफ़ के वाकिए को मुज्मल बयान किया है तो हमारे लिए भी यही मुनासिब है कि उसको किसी वाकिए से मुताल्लिक़ न करें और जिस हिक्मत व मस्लहत की वजह से अल्लाह ने उसको मुज्मल रखना मुनासिब समझा, हम भी उसी को काफ़ी समझें।
हज़रत मूसा की नुबूवत के ज़माने से मुताल्लिक दूसरे मामले
फ़िरऔन नई तहक़ीक़ की रोशनी में
मिस्री दारुल आसार के चित्रकार (मुसव्विर) और असरी और हजरी (पत्थरों और खंडरात के) नामी आलिम अहमद यूसुफ़ आफंदी की खोज का ख़ुलासा यह है कि यूसुफ़ जब मिस्र में दाखिल हुए हैं तो यह फ़िरऔन के सोलहवें ख़ानदान का जमाना था और उस फ़िरऔन का नाम ‘अबाबिल अब्बल’ था और जिस फ़िरऔन ने बनी इसराईल को मुसीबतों में डाला वह रामीसीस सेकंड (Ramesses II) हो सकता है।
यह मिस्र के हुक्मरानों का उन्तीसवां ख़ानदान था। हज़रत मूसा (अ.स.) उसके ज़माने में पैदा हुए और उनकी गोद में पले-बढ़े। रामीसीस सेकेंड ने इस डर से कि बनी इसराईल का यह शानदार कबीला, जो लाखों इंसानों पर मुश्तमिल था, अन्दरूनी बगावत पर उत्तर न आए, बनी इसराईल को मुसीबतों में मुब्तला करना ज़रूरी नहीं समझा, जिनका ज़िक्र तौरात और कुरआने हकीम में किया गया है।
रामसीस सेकेंड ने अपने बुढ़ापे के ज़माने में अपने बेटे मरनिफ़ताह (Marineflah) को हुकूमत में शरीक कर लिया था, इसलिए मरनिफ़ताह ही वह फ़िरऔन हो सकता है जो नदी में डूबा। इस नतीजे की ताईद इससे होती हैं कि मिस्री दस्तूर के मुताबिक़ मरनिफ़ताह का अलग से मनबरा नहीं, बल्कि वह अठारहवीं खानदान के फ़िरऔन के मक़बरे में दफ़न किया गया।
मिश्री अजाइबघरों में एक लाश आज भी महफूज़ है और मुहम्मद अददी की किताब ‘दवातुर्रसूल इलल्लाही’ के मुताबीक इस लाश की नाक के सामने का हिस्सा नहीं है। ऐसा मालूम होता है कि शायद दरियाई मछली ने खराब किया है और फिर उसकी लाश अल्लाह के फैसले के मुताबिक किनारे पर फेंक दी गई, ताकि –
वह मेरे बाद आने वालों के लिए (अल्लाह का) निशान रहे। सूरह यूनुस 10:92
मोरिस बकाईए (Maurice Bucaille) का फ़ैसला करने वाला कौल फ़िरऔन के ग़र्क हो जाने का वाक़िया बहुत से पुराने और नए तहकीक़ करने वालों के लिए बहस का मौजू बना रहा और अब तक बना हुआ है, बहुत सी किताबें लिखी जा चुकी हैं और लिखी जा रही हैं लेकिन ये सब उस वाक़िये की तारीख़ी और जुगराफ़ियाई (ऐतिहासिक और भौगोलिक) हैसियत पर ज़ोर देती हैं।
इस बारे में मोरिस बकाईए (Maurice Bucaille) मशहूर व मारूफ फ्रांसीसी मुसन्निफ़ (लेखक) ने अपनी किताब बाइबिल, कुरआन और सांइस (Bible, Quran and Science) में तफ्सीली बहस की है, जो देखने-पढ़ने वाले और ज़्यादा मालूमात के ख्वाहिशमंद हों, वे उस किताब से जिसका उर्दू तर्जुमा भी हो चुका है, रुजू कर सकते हैं।
हम यहां सिर्फ ख़ास बातें बयान करेंगे
- –1. हज़रत मूसा (अ.स.) रामीसिस सेकेंड के ज़माने में पैदा हुए और उसके यहां उन्होंने परवरिश पाई।
- 2. रामीसिस सेकेंड का इंतिक़ाल हज़रत मूसा (अ.स.) के मदयन में ठहरने के ज़माने में हो गया।
- 3. रामीसिस सेकेंड के बाद उसका बेटा मरनिफ़्ताह तख्त पर बैठा और लगभग बारह सौ साल कब्ल मसीह लाल सागर में डूबने वाला यही फ़िरऔन है। लाल सागर को किस जगह से पार किया गया, यकीन के साथ नहीं कहा जा सकता।
- 4. रामीसित सेकेंड और मरनिफ़्ताह दोनों की लाशें मिनी म्यूजियम में महफूज़ हैं। मोरिस बकाईए की बहस के खात्मे पर आखिरी लाइनें तवज्जोह के काबिल हैं।
- 5. फ़ालके बह (समुद्र का फटना) का ज़माना अन्दाजा है कि बारह सौ साल क़ब्ल मसीह का है।
जादू और मज़हब
1. जादू की कोई हक़ीक़त भी है या वह सिर्फ नज़र का धोखा है और बे-हक़ीक़त कोई चीज है? इसके बारे में अहले सुन्नत उलेमा की यह राय है कि जादू सच में एक हक़ीक़त है और नुक्सान पहुंचाने वाले असरात भी रखता है। अल्लाह तआला ने अपनी बड़ी हिक्मत को सामने रखकर उसमें इसी तरह नुक्सान पहुंचाने वाले असरात रख दिए हैं, जिस तरह ज़हर वगैरह में मगर यह नहीं है कि ‘जादू’ अल्लाह की कुदरत से बेनियाज़ होकर ‘अल्लाह की पनाह’ खुद बे नियाज़ है, खुद अपने आप असर रखने वाले चीज़ है, यह अक़ीदा ख़ालिस कुफ्र है।
2. इस्लामी फुकहा (विद्वानों) ने जादू के बारे में साफ़ किया है कि जादू के जिन आमाल में शैतान, गन्दी रूहें और गैरअल्लाह से मदद चाही जाए सौर उनको हाजत रवा करार देकर मंत्रों के ज़रिए उनको काबू में करने का काम किया जाए, तो वह शिर्क जैसा है और उस पर अमल करने वाला काफ़िर है। जिन अमलों में इनके अलावा दूसरे तरीके अख़्तियार किए जाएं और उनसे दूसरों को नुक्सान पहुंचाया जाए उनका करने वाला हराम और बड़े गुनाह का मुर्तकिब है।
मोजज़ा और जादू में फ़र्क –
नबी और रसूल का असल मोजज़ा उसकी वह तालीम होती है, जो वे राहे हक़ से हटी हुई और मटकी हुई कौमों की हिदायत के लिए नुस्खा-ए कीमिया और दीनी और दुन्यवी फलाह व कामरानी के लिए बेनजीर कानून की शक्ल में पेश करता है।
लेकिन आम इंसानी दुनिया की फ़ितरत इस पर कायम है कि वे सच्चाई और सदाक़त के लिए भी कुछ ऐसी चीजों के ख्वाहिशमन्द होते हैं जो लाने वाले के रूहानी करिश्मों से ताल्लुक रखती हों और जिनके मुकाबले से तमाम दुन्यवी ताक़तें आजिज़ हो जाती हों, क्योंकि उनके इल्म की पहुंच कैसी सच्चाई के लिए इसी को मेयार करार देती हैं।
इसलिए यह ‘अल्लाह की सुन्नत’ जारी रही है कि वे नबियों और रसूलों को दीने हक की तालीम व पैग़ाम के साथ एक या कुछ निशानियों (मोजज़ों) को भी अता करता है और जब वे मुबूवत के दावे के साथ बग़ैर (सबब) ऐसा ‘निशान दिखाता है, जिसका मुक़ाबला दुनिया की कोई ताकत नहीं की सकती तो उसका नाम ‘मोजज़ा’ होता है।
मरने के बाद की जिंदगी –
कुरआन मजीद ने मरने के बाद की जिंदगी का आम कानून तो यह बताया है कि दुनिया की मौत के बाद फिर आखिरत की दुनिया ही के लिए दोबारा जिंदगी मिलेगी, लेकिन ख़ास “कानून’ यह है कि कभी कभी हिक्मत व मस्लहत के पेशेनज़र अल्लाह तआला इस दुनिया ही में मुर्दा को जिंदगी बख़्श दिया करता है और नबियों की मोजज़ो वाली जिंदगी में खुद कुरआनी गवाही के मुताबिक यह सच्चाई कई बार ज़ाहिर होकर सामने आ चुकी है।
हज़रत मूसा (अ.स.) की नुबूवत के ज़माने में बनी इसराईल के सत्तर सरदारों के दोबारा जी उठने के मौके पर यह सूरत सामने आई कि उनके नामाकूल और गुस्ताखी वाले इसरार पर ‘रजआ’ के अज़ाब ने उनको मौत के घाट उतार दिया और फिर हज़रत मूसा (अ.स.) की इज्ज वाली दुआ पर अल्लाह की रहमत की वुसअत ने तरस खाया और इन जान से तंग इंसानों को दोबारा जिंदगी बना दी।
इसी तरह गाय के ज़िब्ह करने के वाक़िए में मक्तूल को दोबारा जिंदगी बख्शी। इन वाकियों से मुताल्लिक हिक्मत व मस्लहत खुद अल्लाह ही बेहतर जानते हैं। इंसानी समझ तो इतना ही कह सकती है कि इसका मक़सद यह है कि मुतास्सिर होने वाले शुक्रगुज़ार हों और आगे इस किस्म की बेजा ज़िद को काम में न लाएं और अल्लाह के सच्चे फरमाबरदार बन्दे बनकर रहें। कुरआन के साफ़ और खुले बयान के बाद घटिया तावील गैर-जरूरी है।
मोजज़ों का ज़्यादा होना –
हज़रत मूसा (अ.स.) के नबी होने के ज़माने में मोजज़ों का ज़्यादा होना नज़र आता है, जिनको दो हिस्सों में बांटा जाता है –
1. कुलजुम के पार करने से पहले, और 2. कुलजुम के पार करने के बाद,
कुलजुम के पार करने से पहले
1. असा (डंडा) 2. यदे बैज़ा (हाथ की सफ़ेदी)3. सिनीन (अकाल)4. फलों का नुक़सान 5. तूफ़ान 6. जराद (टिड्डी दल) 7. कुम्मल 8. जफ़ादेअ (मेंढ़क)9. दम (खून) 10. फ़लक़े बह (कुलजुम नदी का फट कर दो हिस्सों में हो जाना)
कुलजुम पार करने के बाद
11. मन्न व सलवा 12. ग़माम (बादलों का साया) 13. इन्फ़िजारे उयून (पत्थर से चश्मों का बह पड़ना) 14. नतक़े जबल (पहाड़ का उखड़ कर सरों पर आ जाना) और 15. तौरात का नाज़िल होना
ऊपर के ज़्यादा-से-ज़्यादा मोजज़ो के सिलसिले में यह भूलना नहीं चाहिए कि सदियों की गुलामी की जिंदगी बसर करने और छोटी खिदमतों में मश्गूल रहने की वजह से बनी इसराईल की नुमायां खूबियों को घुन लग गया था और मिस्रियों में रहकर मज़हर परस्ती और अस्नाम परस्ती ने उनकी अक़्ल और हवास को इस दर्जा मुअत्तल कर दिया था कि वे क़दम-कदम पर अल्लाह के एक होने और अल्लाह के हुक्मों में किसी करिश्मे का इन्तिज़ार करते रहते, इसके बगैर उनके दिल में यकीन व ईमान की कोई जगह न बनती थी।
पस उनकी हिदायत के लिए दो ही शक्लें हो सकती थीं एक यह कि उनको सिर्फ समझाने-बुझाने के मुख्तलिफ़ तरीकों ही से हक के कुबूल करने पर तैयार किया जाता और पिछले नबियों की उम्मतों की तरह किसी ख़ास और अहम मौके पर आयतुल्लाह (अल्लाह की निशानी यानी मोजज़े का मुज़ाहरा पेश आता और दूसरी शक्ल यह थी कि उनकी सदियों की तबाह हुई इस हालत की इस्लाह के लिए रूहानी ताकत का जल्द-जल्द मुज़ाहरा किया जाए और हक़ और सच्चाई की तालीम के साथ-साथ अल्लाह तआला के तक्वीनी निशान (मोजज़े) इनके कुबूल करने और तसल्ली करने की इस्तेदाद को बार-बार ताक़त पहुंचाएं।
पस इस कौम की पस्त ज़ेहनियत और तबाह हाली के पेशेनज़र अल्लाह की मस्लहत ने उनकी इस्लाह व तबियत के लिए यही दूसरी शक्ल अख्तियार की। ‘वल्लाहु अलीमुन हकीम०’ (अल्लाह ही जानने वाला और हिक्मत वाला है।)
वाकिये से नसीहतें क्या मिली?
आईये मुख़्तसर में देखते है के हमे हज़रत मूसा (अ.स.) के वाकिये से नसीहत क्या मिली?
मुसीबतों में सब्र किया जाए – अगर इंसान को कोई मुसीबत और आज़माइश पेश आ जाए तो उसे यह ज़रूरी है कि सब्र व रज़ा के साथ उसे सहे। अगर ऐसा करेगा तो बेशक उसको बड़ा अज्र हासिल होगा और वह यक़ीनी तौर पर सफल और कामयाब होगा।
कामयाबी के लिए शर्त – जो आदमी अपने मामलों में अल्लाह पर भरोसा और एतमाद रखता है और उसी को दिल के खुलूस के साथ अपना हासिल समझता है, तो अल्लाह तआला ज़रूर उसकी मुश्किलों को आसान कर देते हैं और उसकी मुसीबतों को नजात और कामयाबी के साथ बदल देते हैं।
मोहब्बते इलाही की ताक़त – जिसका मामला हक़ के साथ इश्क तक पहुंच जाता है, उसके लिए बातिल की बड़ी से बड़ी ताक़त भी हेच और बे-वजूद होकर रह जाती है।हर कि पैमां बा ‘हुबल मौजूद बस्त’गरदिनश अज़ बन्द हर माबूद हरस्त
अल्लाह की मदद – अगर कोई अल्लाह का बन्दा हक़ की मदद और हिमायत के लिए सरफ़रोशाना खड़ा हो जाता है, तो अल्लाह दुश्मनों और बातिल परस्तों ही में से उसका मददगार पैदा कर देता है।
ईमानी लज्ज़त के असरात – अगर एक बार भी कोई ईमानी लज्ज़त का लुत्फ़ उठा ले और सच्चे दिल से उसे मान ले, तो यह नशा उसको ऐसा मस्त बना देता है कि उसकी जान के हर रेशे से वही हक़ की आवाज़ निकलने लगती है।
सब्र का फल – सब्र का फल हमेशा मीठा होता है, भले ही उसके फल हासिल होने में कितनी ही कड़वाहटें सहनी पड़ें, मगर जब भी वह फल लगेगा, मीठा ही होगा।
गुलामी के असरात – गुलामी और महकूमी की जिंदगी का सबसे बुरा असर यह होता है कि हिम्मत और इरादे की रूह पस्त होकर रह जाती है और इंसान इस नापाक ज़िंदगी के ज़िल्लत भरे अम्न व सुकून को नेमत समझने और हक़ीर रास्तों को सबसे बड़ी अज़्मत सोचने लगता है और जद्दोजहद की ज़िंदगी से परेशान व हैरान नज़र आता है।
जमीन की विरासत के लिए शर्ते – ज़मीन या मुल्क की विरासत उसी क़ौम का हिस्सा है जो बे-सर व सामानी से बेख़ौफ़ होकर और अज़्म व हिम्मत का सबूत देकर हर किस्म की मुश्किल और रुकावट का मुकाबला करती और ‘सब्र’ और अल्लाह की मदद पर भरोसा करते हुए जद्दोजहद के मैदान में साबित कदम रहती हैं।
बातिल की नाकामी – बातिल की ताक़त कितनी ही ज़बरदस्त और शान व शौकत से भरी हुई हो, अंजाम यह होगा कि उसे नामुरादी का मुंह देखना पड़ेगा और आख़िरी अंजाम में कामरानी व कामयाबी का सेहरा उन्हीं के लिए होता है जो नेक और हिम्मत वाले हैं।
ज़ालिम कौमों का अंजाम – यह ‘आदतुल्लाह’ है कि जाबिर व ज्ञालिम कौमें, जिन क़ौमों को ज़लील और हकीर समझती हैं, एक दिन आता है कि वही ज़ईफ़ और कमज़ोर कौमें अल्लाह की ज़मीन की वारिस बनती और हुकूमत व इक़्तिदार की मालिक हो जाती हैं और ज़ालिम क़ौमों का इक़्तिदार ख़ाक में मिल जाता है।
ताक़त का खुमार और उसका अंजाम – ताकत, हुकूमत और दौलत, सरवत में डूबी जमाअतों का हमेशा से यह शिआर रहा है कि सबसे पहले वही ‘हक़ की दावत’ के मुकाबले में सामने आ खड़ी होती है, मगर कौमों की तारीख यह भी बताती है के हमेशा हक़ के मुकाबले में उनको नाकामी, हार और नामुरादी का मुंह देखना पड़ा है।
सरकशी का अंजाम – जो हस्ती या जमाअत जानते बूझते और हक़ को हक़ जानते हुए भी सरकशी करे और अल्लाह की दी हुई निशानियों की इंकारी और नाफ़रमान बने तो उसके लिए अल्लाह का क़ानून यह है कि वह उनसे हक़ कुबूल करने की इस्तेदाद फ़ना कर देता है, क्योंकि यह उनकी लगातार सरकशी का कुदरती फल है। यह बहुत बड़ी गुमराही है कि इंसान को जब हक़ की बदौलत कामयाबी हासिल हो जाए तो अल्लाह के शुक्र की जगह हक के मुख़ालिफ़ों की तरह ग़फ़लत व सरकशी में मुब्तला हो जाए।
दीन में इस्तिक़ामत (जमाव) – कोई हक़ को कुबूल करे या न करे, हक़ की दावत देने वाले का फ़र्क है कि हक़ की नसीहत करने से बाज़ न रहे। किसी क़ौम पर ज़ाबिर व ज़ालिम हुक्मरां का मुसल्लत होना, उस हुक्मरां की अल्लाह के नज़दीक मक़बूल होने और सरबुलन्द व सरफ़राज़ होने की दलील नहीं, बल्कि वह अल्लाह का एक अज़ाब है जो महकूम कौम की बद-अमलियों के बदले की शक्ल में ज़ाहिर होता है, मगर महकूम क़ौम की ज़ेहनियत पर जाबिर ताकत का इस क़दर ग़लबा छा जाता है कि वह अपनी परेशानियों को ज़ालिम हुकूमत पर अल्लाह की रहमत समझने लगती है।
अल्लाह की बरदाश्त – जब कोई क़ौम या कोई जमाअत बदकिरदारी और सरकशी में मुब्तला होती है तो अल्लाह का क़ानून यह है कि उसको फ़ौरन ही पकड़ में नहीं लिया जाता, बल्कि एक तदरीज के साथ मोहलत मिलती रहती है कि अब बाज़ आ जाए, अब समझ जाए और इस्लाह हाल कर ले। लेकिन जब वह इस्लाह पर तैयार नहीं होती और उनकी सरकशी और बदअमली एक ख़ास हद तक पहुंच जाती है तो फिर अल्लाह की पकड़ व पंजा उनको पकड़ लेता है और वे बे-यार व मददगार फ़ना के घाट उतर जाते हैं।
इंसानी इल्म की अहमियत – किसी हस्ती के लिए भी, वह नबी या रसूल ही क्यों न हो, यह मुनासिब नहीं कि वह यह दावा करे कि मुझसे बड़ा आलिम कायनात में कोई नहीं, बल्कि उसको अल्लाह के इल्म के सुपुर्द कर देना बेहतर है।
ग़ुलामी एक लानत है – मिल्लते इस्लामिया की पैरवी करने वालों के लिए ‘ग़ुलामी’ बहुत बड़ी लानत है और अल्लाह का ग़ज़ब है और उस पर क़नाअत कर लेना गोया अल्लाह के अज़ाब और अल्लाह की लानत पर भरोसा कर लेने के बराबर है। फ़ातबिरू या उलिल अब्सार
