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Hazrat Isa Alaihis Salam Story in Hindi Part 3
Table of Contents
हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम (भाग 3)
हज़रत ईसा से मुताल्लिक कुछ तफसीरे
हज़रत ईसा (अलै.) से मुताल्लिक कुछ तफसीरी और दुसरे अहम मस्अले कुरआन के वाज़ेह बयान व मा क-त-लूहु व मास-ल-बूहु के बाद ‘वलाकिन शुब्बि-ह लहुम’ की तफ्सीर
अब एक बात बाकी रह जाती है कि सूरः निसा की आयत 4:157 व मा क-त-लूहु व मास-ल-बूहु के बाद ‘वलाकिन शुब्बि-ह लहुम‘ की नसीर क्या है? यानी वह क्या चीज़ थी जो यहूदियों पर छा गई तो कुरआन इसका जवाब इस जगह पर भी और आले इमरान में भी एक ही देता है और वह र-फ़-अ इलस्सामाई’ है। आले इमरान में इसको वायदे की शक्ल में जाहिर किया ‘व राफ़िउ-क इलैय’ (3-55) और निसा में वायदा पूरा करने की सूरत में यानी ‘बल र-फ़-अ-ल्लाहु इलैहि’ (4:158)
जिसका खुलासा यह निकलता है कि घेराव के वक्त जब हक़ का इन्कार करने वाले गिरफ्तारी के लिए अन्दर घुसे तो वहां ईसा को न पाया। यह देखा तो सहन हैरान हए और किसी तरह अन्दाज़ा न लगा सके कि सूरतेहाल क्या पेश आई और इस तरह ‘वला किन शुब्बि-ह लहुम’ जैसे बनकर रह गए। इसके बाद कुरआन कहता है –
‘इन्नल्लज़ी-नख्नतलफू फ़ीही लफ़ी शक्किम मिन्हु मालहुम बिही मिन इलिमन इल्लत्तिबाइज्जन्नि व मा क़-त-लूह यक़ीना (4:157) इसमें एक जैसी हालत जो पेश आई उसका नक्शा बयान किया गया है और इससे दो बातें खुलकर सामने आती हैं –
एक यह कि यहूदी इस सिलसिले में इस तरह शक में पड़ गए थे कि गुमान और अटकल के सिवा उनके पास इल्म व यक़ीन की कोई शक्ल बाकी नहीं रह गई थी और दूसरी बात यह कि उन्होंने किसी को क़त्ल करके यह मशहूर किया कि उन्होंने मसीह को क़त्ल कर दिया या फिर आयत मुहम्मद सल्ल० के ज़माने के यहूदियों का हाल बयान कर रही है।
पस कुरआन के इन वाज़ेह एलानों के बाद जो हज़रत मसीह (अलै.) की हिफाज़त के सिलसिले में किए गए हैं और जिनको तफ़्सील के साथ ऊपर की सतरों में बयान कर दिया गया है इन दोनों छोटी-छोटी चीज़ों की तफ़सील का ताल्लुक़ सहाबा के आसार और तारीखी रिवायतों पर रह जाता है की सिलसिले में सिर्फ उन्हीं रिवायतों और आसार को माना जाएगा जो सेहत और रिवायत के साथ-साथ इन बुनियादी तफ्सीलों से न करता जिनका ज़िक्र कुरआन मजीद ने अलग-अलग जगहों पर खुल कर किया है ‘कुरआन का बाज़-बाज़ की तफ्सीर कर देता है‘ के उसूल पर, जिनसे साबित होता है कि हज़रत ईसा (अलै.) को दुश्मन हाथ तक न लगा सके और वह महफूज़ मला-ए-आला की तरफ़ उठा लिए गए और जैसा कि हयाते ईसा की बहस में अभी कुरआनी नस्स (आयतों) से साबित होगा कि वह क़यामत वाले होने के लिए ‘निशान‘ हैं और इसलिए दो बार इस दुनिया में वापस आकर और ज़िम्मेदारी की खिदमत अंजाम देकर फिर मौत से दो चार होंगे।
क़त्ल किए गए और फांसी पर चढ़ाए गए शख्स से मुताल्लिक आसार व तारीख़ की जो मिली-जुली रिवायतें हैं उनका हासिल यह है कि सनीचर की रात में हज़रत ईसा (अलै.) बैतूल मुक़द्दस के एक बन्द मकान में अपने हवारियों के साथ मौजूद थे कि बनी इसराईल की साज़िश से दमिश्क के बुतपरस्त बादशाह ने हज़रत ईसा (अलै.) की गिरफ्तारी के लिए एक दस्ता भेजा। उसने आकर घेराव कर लिया। इसी बीच अल्लाह तआला ने ईसा को मला-ए-आला की जानिब उठा लिया। जब सिपाही अन्दर दाखिल हुए तो उन्होंने हवारियों में एक ही शख्स को हज़रत ईसा (अलै.) की जैसी शक्ल का पाया और उसको गिरफ्तार करके ले गए और फिर उसके साथ वह सब कुछ हुआ जिसका ज़िक्र पिछले पन्नों में हो चुका है।
इन्हीं रिवायतों में कुछ उसका नाम यूदस बिन करियायूता बयान करते हैं और कुछ जरजस और दूसरे दाऊद बिन लोज़ा कहते हैं। ये और दूसरी तफ़सील न कुरआन में ज़िक की गई है और न मफूअ हदीसों में इसलिए ज़ौक़ वालों को इख़्तियार है कि वे सिर्फ कुरआन ही की इन थोड़ी-सी बातों पर भरोसा करें कि हज़रत ईसा (अलै.) का आसमान पर उठाया जाना और हर तरह दुश्मनों से हिफ़ाजत के साथ ही साथ यहूदियों पर मामला मुश्तबह होकर किसी दूसरे को क़त्ल करना यहूदियों और ईसाइयों के पास इस सिलसिले में इल्म व यक़ीन से महरूम होकर गुमान और शक व शुबहा में मुब्तला हो जाना और क़ुरआन का हकीकते वाक्रिया को इल्म व यकीन की रोशनी में ज़ाहिर कर देना ये सभी साबित की हुई हक़ीक़तें हैं।
‘वलाकिन शुब्बि-हलहुम’ और मल्लल्लजी-नख्तलफू- फ़ोहि लफ़ी शक्किम मिन्हु (आयत) की तफ्सीर में इन आयतों की तफ़सील को मान लें और यह समझ कर मानें कि इन आयतों की तफ़सीर उन तफ़्सीलों पर टिकी हुई नहीं है बल्कि यह बात ज़्यादा है जो आयतों की सही तफ्सीर की ताईद में है-
हज़रत ईसा अलैहिसल्लाम की ज़िन्दगी
सूरः आले इमरान, माइदा और निसा की इन आयतों से यह साबित हो का है कि हज़रत ईसा (अलै.) से मुताल्लिक़ अल्लाह की हिक़मत का यह फैसला हुआ कि उनको ज़िन्दा हालत में ही मला-ए आला की ओर उठा लिया जाए और वह दुश्मनों और काफ़िरों से महफूज़ उठा लिए गए लेकिन कुरआन ने इस मसले में सिर्फ इसी को काफ़ी नहीं समझा बल्कि मौके-मौके से उनकी जिंदगी पर आयतों के ज़रिए कई जगह रोशनी डाली है और उन जगहों में इस ओर भी इशारे किए हैं कि हज़रत मसीह (अलै.) की लम्बी जिंदगी और आसमान की तरफ उठाए जाने में क्या हिक्मत काम कर रही थी ताकि हक़ वालों के दिल ईमान की ताज़गी से खिल जाएं और बातिल वाले अपनी दिल की तंगी पर शरमाए।
तर्जुमा- ‘और कोई अहले किताब में से बाकी न रहेगा मगर यह कि वह ज़रूर ईमान लाएगा ईसा पर और उस (ईसा) की मौत से पहले और वह (ईसा) कयामत के दिन उन पर (अहले किताब पर) गवाह बनेगा।’ (4:159)
इस आयत से पहले की आयतों में वही ज़िक्र किया गया वाकिया आया है-जो ऊपर आया है कि ईसा को न सूली पर चढ़ाया गया और न क़त्ल किया गया बल्कि अल्लाह तआला ने अपनी ओर उठा लिया, यह यहूदियों और इसाइयों के उस अक़ीदे के रद्द में है जो उन्होंने झूठे तरीके से और अटकल से कायम कर लिया था, उनसे कहा जा रहा है कि हज़रत मसीह (अलै.) के मुताल्लिक़ फांसी पर चढ़ाए जाने और क़त्ल किए जाने का दावा लानत के क़ाबिल है क्योंकि बोहतान और लानत जुड़वां हैं।
इसके बाद इस आयत में पहली बात की तस्दीक में इस जानिब तवज्जोह दिलाई जा रही है कि आज अगर इस मलऊन अकीदे पर फक्र कर रहे हो तो वह वक्त भी आने वाला है जब ईसा बिन मरयम (अलै.) अल्लाह तआला की हिक्मत व मस्लहत को पूरा करने के लिए ज़मीनी कायनात पर वापस तशरीफ़ लाएंगे और उसे आंखों से देखने के वक्त अहले किताब (यहूदी-ईसाई) में से हर एक मौजूद हस्ती को कुरआन के फैसले के मुताबिक हज़रत ईसा (अलै.) पर ईमान लाने के सिवा कोई चारा-ए-कार बाकी न रहेगा और फिर जब वे अपनी जिंदगी की मुद्दत ख़त्म करके मौत की गोद में चले जाएंगे तो क़यामतके दिन अपनी उम्मत (अहले किताब) पर उसी तरह गवाह होंगे जिस तरह तमाम नबी और रसूल अपनी-अपनी उम्मतों पर गवाह बनेंगे।
यह हकीकत कुछ छिपी हुई नहीं है कि हज़रत ईसा (अलै.) के बारे में अगरचे यहूदी व ईसाई दोनों फांसी और क़त्ल के वाकिए से इत्तिफ़ाक़ करते हैं लेकिन इस सिलसिले में दोनों के अक़ीदे की बुनियाद कतई तौर पर आपस में टकराने वाले उसूल पर कायम है। यहूदी हज़रत मसीह (अलै.) को गढ़ कर बातें बनाने वाले और झूठा कहते और दज्जाल समझते हैं और इसलिए फ़ख्र करते हैं कि उन्होंने यसूअ मसीह को फांसी पर भी चढ़ाया और फिर इस हालत में मार भी डाला।
इसके खिलाफ ईसाइयों का अकीदा यह है कि दुनिया का पहला इंसान आदम गुनाहगार था और सारी दुनिया गुनाहगार थी इसलिए ख़ुदा की सिफ़त ‘रहमत’ ने इब्नियत (बेटा होने) की शक्ल इख़्तियार की और उसको दुनिया में भेजा ताकि वह यहूदियों के हाथों सूली पर चढ़े और मारा जाए और इस तरह कायनात माज़ी (भूतकाल) और मुस्तक़बिल (भविष्य) के गुनाहों का’ क़फ्फारा’ बनकर दुनिया की नजात की वजह बने।’
सूरः निसा की आयतों में कुरआन ने साफ़-साफ कह दिया कि हज़रत मसीह (अलै.) के क़त्ल के दावे की बुनियाद किसी भी अक़ीदे की बुनियाद पर हो’ लानत के काबिल और ज़िल्लत और घाटे की वजह है। खुदा के सच्चे सर को झूठा समझकर यह अकीदा रखना भी लानत की वजह और खुदा के बन्दे और मरयम के पेट से पैदा इंसान को खुदा का बेटा बना कर और ‘क़फ्फारे‘ का झूठा अक़ीदा गढ़ कर हज़रत मसीह (अलै.) को फांसी पाया हुआ और कत्ल किया हुआ मान लेना भी गुमराही और इल्म व हकीकत के खिलाफ़ अटकल का तीर है और इस सिलसिले में सही और हकीकत पर मब्नी फैसला वही है जो कुरआन ने किया है और जिसकी बुनियाद ‘इल्म व यक़ीन और वह्य इलाही‘ पर कायम है।
हज़रत ईसा की ज़िन्दगी और उनका उतरना
क़ुरआन ने जिन मोजज़ों भरे इख्तिसार के साथ हज़रत ईसा (अलै.) के आसमान पर उठाए जाने, आज की जिंदगी और क़यामत की अलामतें बन कर आसमान से उतरने के बारे में साफ़ किया है, हदीसों के सही ज़खीरे में इन आयतों की ही तफ्सील बयान करके इन हक़ीक़तों को रोशन किया गया है। चनांचे इमामे हदीस बुखारी व मुस्लिम, दोनों ही ने (सहीह बुख़ारी, सहीह मुस्लिम) हज़रत अबू हुरैरह रजि० से यह रिवायत सनद के कई तरीकों से नकल की है
“अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इर्शाद फ़रमाया – ‘उस ज़ात की क़सम, जिस के कब्जे में मेरी जान है, ज़रूर वह वक़्त आने वाला है कि तुम में ईसा बिन मरयम, हाकिम व आदिल बन कर उतरेंगे, वह सलीब को तोड़ेंगे और खिंजीर (सूअर) को क़त्ल करेंगे (यानी मौजूदा ईसाई धर्म को मिटाएंगे और जिज़या उठा देंगे (यानी अल्लाह के निशान को देख लेने के बाद इस्लाम के सिवा कुछ भी कुबूल नहीं होगा।
और इस्लामी अहकाम में रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जिज़या का हुक्म उसी वक्त तक के लिए है) और माल इतना ज़्यादा होगा कि कोई उसके कुबूल करने वाला नहीं मिलेगा और खुदा के सामने एक सज्दा दुनिया और उसमें जो कुछ है उससे ज्यादा कीमत रखेगा (यानी माल की ज्यादती की वजह से खैरात व सदक्रात के मुकाबले में नफल इबादतों की अहमियत बढ़ जाएगी) हो, लानत के काबिल और ज़िल्लत और घाटे की वजह है। खुदा के सच्चे को झुठा समझकर यह अक़ीदा रखना भी लानत की वजह और खुदा और मरयम के पेट से पैदा इंसान को ख़ुदा का बेटा बना कर और ‘क़फ्फारे’ का झूठा अकीदा गढ़ कर मसीह को फांसी पाया हुआ और कत्ल किया हुआ मान लेना भी गुमराही और इल्म व हक़ीक़त के खिलाफ अटकल भी है और इस सिलसिले में सही और हकीकत पर मब्नी फैसला वही है जो क़ुरआन ने किया है और जिसकी बुनियाद ‘इल्म व यकीन और वह्य इलाही पर कायम है।
फिर हज़रत अबू हुरैरह रजि० ने फरमाया, अगर तुम (कुरआन से इसकी गवाही) चाहें तो यह आयत पढ़ो (व इम-मिन अहलिल किताब-आयत) और कोई अहले किताब में से न होगा, मगर (ईसा की) मौत से पहले उस पर (ईसा पर) ज़रूर ईमान ले आएगा और वह (ईसा) क़यामत के दिन उन पर ग़वाह होगा।
बुखारी और मुस्लिम में नाफ़ेह मौला अदू क्रतादा अंसारी रजि० की सनद से हज़रत अबू हुरैरह रजि० की यह रिवायत नक़ल की गई है –
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया-’उस वक्त तुम्हारा क्या हाल होगा जब तुममें इब्ने मरयम उतरेंगे और इस हालत में उतरेंगे कि तुम्हीं में से एक आदमी तुम्हारी इमामत कर रहा होगा। (किताबुल अबिया)
यह और इसी किस्म की हदीस का बहुत बड़ा ज़खीरा है जो हज़रत ईसा बिन मरयम (अलै.) , पैगम्बर बनी इसराईल से मुताल्लिक हदीस और तफ़सील की किताबों में नकल की गई है और सनद की ताकत के लिहाज़ से सहीह और हसन से कम दर्जा नहीं रखी और शोहरत और तवातुर के एतबार से जिनका यह मत है कि इमाम तिर्मिज़ी के मुताबिक हदीस के हाफ़िज़ इमामुद्दीन बिन कसीर, हदीस के हाफ़िज़ इब्ने हजर अस्क्लानी और दूसरे हदीस के इमाम, सोलह जलीलुल कद्र सहाबा रजि० ने इनको रिवायत किया है जिनमें से कुछ साहबा का यह दावा है कि नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने ये बातें सैकड़ों सहाबा के मज्मा में खुत्बा देकर फरमाई।
और ये सहाबा किराम बिना किसी इंकार और बेगानेपन के इन रिवायतों को खुलफ़ा ए राशिदीन की खिलाफत के दौर में एलानिया सुनाते थे। चुनांचे इन जलीलुल क़द्र सहाबा से जिन हज़ारों सहाबा ने सुना, उनमें से ये ऊंचे दर्जे की हस्तियां ज़िक्र के काबिल हैं जिनमें का हर आदमी हदीस की रिवायत में ज़ब्त व हिफ्ज़, सकाहत और इल्मी बड़प्पन को सामने रखकर इमामत व क़यामत का दर्जा रखता है। जैसे सईद बिन मुखय्यिब, नाफे मौला अबू कतादा, हंज़ला बिन अली अल-अस्लमी, अब्दुर्रहमान बिन आदम, अबू सलमा अबू बन, अता बिन बश्शार, अबू सुहैल, मूसिर बिन गिफारा, यस्या बिन अबी अम्र, ज़ुबैर बिन नुजैर, उर्वः बिन मसऊद सक़फ़ी, अब्दुल्लाह बिन ज़ैद अंसारी, अबू ज़रआ, याकूब बिन आमिर, अबू नसरा, अबुत्तुफैल रहमतुल्लाहि अलैहिम०
फिर इन बड़े उलेमा और नामी मुहद्दिसीन (यानी हदीस के नामी माहिर) जिन अनगिनत शार्गिदों ने सुना उनमें से हदीस-रिवायतों के तबक़े में, जिनकोi हदीस और कुरआन के इल्मों की जानकारी का बुलन्द रुतबा हासिल है और अपने-अपने वक़्त के ‘इमामुल हदीस’ और ‘अमीरुल मोमिनीन फ़िल हदीस’ मान लिए गए हैं, कुछ के नाम नीचे दिए जाते हैं –
इने शहाब ज़ोहरी, सुफ़ियान बिन ऐनीया, लैस, इले अबी जेब, औज़ाई, क़तादा, अब्दुर्रहमान बिन अबी उम्र, सुहैल, जबला बिन सुहैल, अली बिन ज़ैद, अब राफेअ, अब्दुर्रहमान बिन जुबैर, नोमान बिन सालिम, मामर, अब्दुल्लाह बिन उबैदुल्लाह (रहमहुमुल्लाह) ।
ग़रज़ इन रिवायतों और सही हदीसों को सहाबा, ताबिईन, तबा लाबिईन, यानी वक्त के बेहतरीन तबके में इस दर्जा जगह मिल चुकी थी और वह बगैर किसी इंकार के इस दर्जा कुबूल करने के लायक हो चुकी थी कि हदीस के इमामों के नज़दीक हज़रत ईसा (अलै.) की जिंदगी और उतरने से मुताल्लिन इन हदीसों के मानी व मतलब के लिहाज़ से तवातुर का दर्जा हासिल था और इसीलिए वे बे-झिझक इस मसले को ‘अहादीसे मुतवातिरा‘ से साबित और मुसल्लम कहते थे और हक़ीक़त भी यह है कि रिवायते हीस के तमाम तबकों और दों में इन रिवायतों को ‘तलक्का बिल कुबूल’ का यह दर्जा सिल रहा है कि हर दौर में उसके रावियों में “हदीस के इमाम‘ और रिवायते हदीस के ‘मदार‘ (आधार) नज़र आते हैं।
यही वजह है कि सहाबा पर मौकूफ़ मरफूल हदीसों और रिवायतों के नक़ल करने वालों में इमाम अहमद, इमाम बुखारी, इमाम मुस्लिम, अबू दाऊद, नसई, तिर्मिजी, इब्ने माजा जैसे हदीस के इमामों के नाम शामिल हैं और वे सब इन रिवायतों के सहीह और हसन होने पर एक राय रखते हैं और यही वजह है कि हज़रत ईसा (अलै.) के आसमान पर उठाए जाने और जिदंगी और आसमान से उतरने पर उम्मत मुत्तफ़िक़ हो चुकी है, चुनांचे अकाइद व कलाम के इल्म की मशहूर किताब ‘अकीदा सफ़ारीनी में उम्मत के इस इत्तिफाक को खोलकर बयान किया गया है।
‘और कयामत की निशानी में से तीसरी निशानी यह है कि (मसीह) ईसा बिन मरयम (अलै.) आसमान से उतरेंगे और उनका आसमान से किताब (कुरआन) सुन्नत (हदीस) और इज्मा-ए-उम्मत से कतई तौर साबित है। (कुरआन व हदीस से उतरना साबित करने के बाद फरमान जहां तक उम्मत के इज्मा का ताल्लुक़ है, तो इसमें ज़रा शुबहा नहीं है हज़रत ईसा (अलै.) के आसमान से उत्तरने पर उम्मत का इज्माअ है और हम बारे में इस्लामी शरीअत के मानने वालों में से किसी एक का भी इख्तिलाफ़ मौजूद नहीं, अलबत्ता फलसफ़ियों और मुलहिदों (अल्लाह के न मानने वालो ने हज़रत ईसा (अलै.) के उतरने का इंकार किया है और इस्लाम में उनका इंकार बिल्कुल बे-मानी है।
उतरने के वाक़िये सहीह हदीसों की रोशनी में
हज़रत ईसा (अलै.) के उतरने से मुताल्लिक सहीह हदीसों से जो तफ़सील सामने आती है उनको तर्तीब के साथ यूँ बयान किया जा सकता है-
क़यामत का दिन अगरचे तय है मगर अल्लाह के अलावा किसी को इसका इल्म नहीं है और यह अचानक वाक़े होगा और उनके पास क़यामत का इल्म है।’ (31:34) ‘और क़यामत का इल्म खुदा ही को है।’ ‘हत्ता इज़ा जाअत हुमुस्साअतु बगततन’ (6:31) (यहां तक कि उन पर अचानक क़यामत की घड़ी आ जाएगी) ‘ला तातीकुम इल्ला बग़ततन’ (7:187) ‘क़यामत तुम पर नहीं आएगी, मगर अचानक।’ और जिब्रीलं की हदीस में है, “मल मसऊलु अन्हा बि आलम मिन साइल’ (जिब्रील से फ़रमाया) क़यामत के बारे में आपसे ज़्यादा मुझे भी इल्म नहीं। जो थोड़ा बहुत इल्म आपको है उसी क्रदर मुझको भी इल्म है। और एक हदीस में है, तुम मुझसे क़यामत के बारे में सवाल करते हो तो इसका इल्म तो अल्लाह की हो है।’ अलबत्ता कुरआन ने और सहीह हदीसों ने कुछ ऐसी निशानियों बयान की हैं जो क़यामत के करीब पेश आएंगी और उनसे सिर्फ उसके नज़दीक हो जाने का पता चलता सकता है। क़यामत की शर्तों में एक बड़ी निशानी हज़रत ईसा (अलै.) का मला-ए-आला से उतरना है,जिसकी तफ़सील यह है –
‘मुसलमानों और ईसाइयों के दर्मियान जबरदस्त लड़ाई चल रही होगी मुसलमानों की कियादत व इमामत रसूलुल्लाह * में से एक ऐसे आदमी के हाथ में होगी जिसका लकब मेंहदी होगा। इस लड़ाई के दर्मियान ही में नसीह जलते दज्जाल का खुरूज होगा, यह यहूदी नस्ल का और काना होगा। क़ुदरत के करिश्मे ने उसकी पेशानी पर ‘का-फ़ि-र‘ (काफ़िर) लिख दिया होगा को ईमान वाले ईमानी फ़रासत (बुद्धि मत्ता) से पढ़ सकेंगे और उसके झूठ-फ़रेब से जुदा रहेंगे। यह पहले तो ख़ुदाई का दावा करेगा और शोबदे जजों की तरह शोबदे दिखाकर लोगों को अपनी तरफ़ मुतवजह करेगा मगर इस सिलसिले को कामयाब न देखकर कुछ दिनों के बाद ‘मसीहे हिदायत‘ होने का दावा करेगा।
यह देख कर यहूदी बड़ी तायदाद में, बल्कि क़ौमी हैसियत से उसकी पैरवी करने वाले बन जाएंगे और यह इसलिए होगा कि यहूदी ‘मसीहे हिदायत’ का इन्कार करके उनके कत्ल का दावा कर चुके हैं और मसीहे हिदायत के आने के आज तक इंतिज़ार में है। इसी हालत में एक दिन दमिश्क (सीरिया) की जामा मस्जिद में मुसलमान मुंह अंधेरे नमाज़ के लिए जमा होंगे, नमाज़ के लिए इक़ामत हो रही होगी और मेहदी मौऊद इक़ामत के मुसल्ले पर पहुंच चुके होंगे कि अचानक एक आवाज़ सबको अपनी ओर मुतवज्जह कर लेगी। मुसलमान आंख उठाकर देखेंगे तो सफ़ेद बादल छाया हुआ नज़र आएगा और थोड़ी-सी देर में यह दिखाई देगा के ईसा दो पीली खूबसूरत चादरों में लिपटे हुए और फ़रिश्तों के बाजुओं पर सहारा दिए हुए मला-ए-आला से उतर रहे हैं। फ़रिश्ते उनको मस्जिद के मीनार पर उतार देंगे और वापस चले जाएंगे।
अब हज़रत ईसा (अलै.) का ताल्लुक ज़मीनी कायनात के साथ दोबारा जुड़ जाएगा और वह फ़ितरत के आम कानून के मुताबिक मस्जिद के सहन में उतरने के लिए सीढ़ी तलब कर रहे होंगे, फ़ौरन तामील होगी और वह मुसलमानों के साथ नमाज़ की सफ़ों में आ खड़े होंगे। मुसलमानों का इमाम (मेहंदी मौऊद) ताज़ीम के तौर पर पीछे हटकर हज़रत ईसा (अलै.) से इमामत की दरख्वास्त करेंगे। आप फ़रमाएंगे कि यह इक़ामत तुम्हारे लिए कही गई है, इसलिए तुम ही नमाज़ पढ़ाओ।
नमाज़ से फ़रागत के बाद जब मुसलमानों की इमामत हज़रत ईसा (अलै.) हाथों में आ जाएगी और वे हथियार लेकर मसीहे ज़लालत (दज्जाल) के क़त्ल लिए रवाना हो जाएंगे और शहर पनाह के बाहर उसको बाब लुद्द पर सामने पाएंगे। दज्जाल समझ जाएगा कि उसके फ़रेब और ज़िदंगी के खात्मे का वक्त आ पहुंचा, इसलिए डर की वजह से रांग की तरह पिघलने लगेगा और हज़रत ईसा (अलै.) आगे बढ़कर उसको क़त्ल कर देंगे और फिर जो यहूदी दजाल के साथ रहने से क़त्ल से बच जाएंगे वे और ईसाई सब इस्लाम कुबूल कर लेंगे और मसीहे हिदायत की सच्ची पैरवी के लिए मुसलमानों के कंधे से कंधा मिला कर खड़े नज़र आएंगे, उसका असर मुशिरक जमाअतों पर भी पड़ेगा और इस तरह उस ज़माने में इस्लाम के अलावा कोई मज़हब बाकी नहीं रहेगा।
इन वाकियों के कुछ दिनों के बाद याजूज माजूज निकलेंगे और अल्लाह की हिदायत के मुताबिक हज़रत ईसा (अलै.) मुसलमानों को उस फितने से बचाए रखेंगे। हज़रत ईसा (अलै.) की हुकूमत का ज़माना चालीस साल रहेगा और इस बीच वह इज़दवाजी जिंदगी (दाम्पत्य जीवन) बसर करेंगे और उनकी हुकूमत के दौर में अदल व इंसाफ और खैर व बरकत का यह हाल होगा कि बकरी और शेर एक घाट में पानी पिएंगे और बदी और शरारत के अनासिर (तत्त्व दब कर रह जाएंगे। (इब्ने असाकिर)
नोट- और मुस्लिम शरीफ़ में है कि हुकूमत का दौर सात साल रहेगा।
हज़रत ईसा की वफात
हुकूमत के चालीस साल के दौर के बाद हज़रत ईसा (अलै.) का इंतिकाल हो जायेगा और नबी अकरम (ﷺ) के पहलू में दफ़न होंगे, हज़रत अबू हुरैरह रज़ि० की लम्बी हदीस में है कि –
“फिर वह दुनिया की कायनात पर उतर कर चालीस साल कियाम करें और इसके बाद वफ़ात पा जाएंगे और मुसलमान उनके जनाज़े की नमाज़ पढ़ें और उनको दफन करेंगे। (इब्ने हिब्बा)
और तिर्मिज़ी ने मुहम्मद बिन यूसुफ़ बिन अब्दुल्लाह बिन सलाम सनद हसन के सिलसिले से हज़रत अब्दुल्लाह बिन सलाम (अलै.) से ये रिवायत नक़ल की है – ‘अब्दुल्लाह बिन सलाम ने फ़रमाया, तौरात में मुहम्मद (ﷺ) की सिफ़त (हुलिया व सीरत) का ज़िक्र किया गया है और यह भी लिखा है कि हज़रत ईसा बिन मरयम (अलै.) उनके साथ (पहलू में) दफ़न होंगे।’
हज़रत ईसा और आखिरत का दिन
सुर: माइदा में हज़रत ईसा (अलै.) के अलग-अलग हालात का ज़िक्र किया गया फिर सुरः का आख़िर भी उन्हीं के तज़किरे पर ख़त्म होता है। इस जगह अल्लाह तआला ने एक तो क़यामत के उस वाक़िये का नक्शा खींचा है, जब नबियों से उनकी उम्मतों के बारे में सवाल होगा और वे बड़े अदब से अपनी लाइल्मी ज़ाहिर करेंगे और अर्ज़ करेंगे, ‘ऐ ख़ुदा! आज का दिन तूने इसलिए की फरमाया है कि हर मामले में हक़ीक़तों को सामने रखकर फैसला सुनाए हम चूकि सिर्फ ज़ाहिरी चीज़ों ही पर हुक्म लगा सकते हैं और दिलों और हकीकतों को देखने वाला तेरे सिवा कोई नहीं, इसलिए आज हम क्या गवाही दे सकते है, सिर्फ यही कह सकते हैं कि हमें कुछ मालूम नहीं, तू गैब का जानने वाला हैं, इसलिए तू ही सब कुछ जानता है।
तर्जुमा- वह दिन (ज़िक्र के क़ाबिल है) जबकि अल्लाह तआला पैगम्बरों को जमा करेगा, फिर कहेगा (अपनी-अपनी उम्मतों की जानिब से) क्या जवाब दिए गए? वे (पैगम्बर) कहेंगे, (तेरे इल्म के सामने) हम कुछ नहीं जानते। (5:109)
अगली आयतों में हज़रत ईसा (अलै.) के जवाब का ज़िक्र किया गया है। उसके बयान का तरीक़ा नबियों के जवाब के साथ मेल खाता है –
तर्जुमा-और (वह वक्त भी ज़िक्र के क़ाबिल है) जब अल्लाह तआला हज़रत ईसा बिन मरयम से कहेगा, क्या तूने लोगों (बनी इसराईल) से कह दिया था कि मुझको और मेरी मां को अल्लाह के अलावा खुदा बना लेना। हज़रत ईसा (अलै.) कहेंगे, पाकी तुझको ही शोभा देती है, मेरे लिए कैसे मुमकिन था कि मैं वह बात कहता जो कहने के लायक़ नहीं। अगर यह बात मैंने उनसे कही होती तो यकीनन तेरे इल्म में होती, इसलिए कि तू वह सब कुछ जानता है. जोर मेरे जी में है और मैं तेरा भेद नहीं पा सकता। बेशक तू गैब की बातों का जानने वाला है।
मैंने उस बात के अलावा कि जिसका तूने मुझे हुक्म दिया उनसे और कुछ नहीं कहा, वह यह कि सिर्फ अल्लाह ही की पूजा करो जो मेरा और तुम्हारा सब का रब है।’ और मैं उन पर उस वक्त तक का गवाह हूँ जब तक मैं उनके दर्मियान रहा। फिर जब तूने मुझको कब्ज़ कर लिया, तब तु ही उन पर निगहबान था और तू हर चीज़ पर गवाह है। अगर तू इन सबको अज़ाब चखाए तो ये तेरे बन्दे हैं और अगर इनको बख्श दे, पस तू ही बेशक गालिब हिकमत वाला है (5:116-118)
हज़रत ईसा (अलै.) जब अपना जवाब दे चुकेंगे, तब अल्लाह तआला यह इर्शाद फ़रमाएगा –
तर्जुमा- अल्लाह तआला फ़रमाएगा, यह ऐसा दिन है कि जिसमें सच्चों की सच्चाई ही काम आ सकती है। उन्हीं के लिए जन्नत है जिनके नीचे नहरें बहती हैं और जिनमें वे हमेशा-हमेशा रहेंगे और वे अल्लाह से राज़ी और अल्लाह उनसे राज़ी (का ऊंचा मुक़ाम पाएंगे) यह बहुत ही बड़ी कामयाबी है (15:119)
हज़रत ईसा (अलै.) का जवाब एक जलीलुल क़द्र पैगम्बर की शान की अज़मत के ठीक मुताबिक़ है। वह पहले अल्लाह के दरबार में उज्र रखेंगे कि यह कैसे मुमकिन था कि मैं ऐसी नामुनासिब बात कहता जो कतई तौर पर हक़ के ख़िलाफ़ है ‘सुब-हा-न-क मा यकूनु ली अन अकू-ल मा लै-स ली विहक्क’ फिर अदब के लिहाज़ के तौर पर अल्लाह के हक़ीकी इल्म के सामने अपने इल्म को हेच बे-इल्मी जैसा ज़ाहिर करेंगे इन कुन्तु कुलतुहू फ-कद अलिम-तहू मा फ़ी नफ़्सी वाला आलमुमा फ़ी नफिस-क इन्न-क अन-त अल्लामुल गुयूब० और इसके बाद अपने फ़र्ज़ की अंजामदेही का हाल गुज़ारिश करेंगे, ‘मा कुल्तु लहुम इल्ला मा अमरतनी बिही अनि बुदुल्ला-ह रब्बी वा रब्बकुम’ और फिर उम्मत ने हक़ की इस दावत का क्या जवाब दिया, उसके मुताल्लिक़ ज़ाहिर बातों की गवाही का भी इस ढंग से ज़िक्र करेंगे जिसमें उनकी गवाही अल्लाह की गवाही के मुकाबले में बे कीमत नज़र आए।
‘व कुन-त अलैहिम शहीदम-मा दुमतु फ़ीहिम फ़लम्मा तवफ्फैतनी कुन-त अन्तर्रकी-ब अलेहीम व अन-त अला कुल्लि शैइन शहीद‘ और इसके बाद यह जानते हुए कि उम्मत में मोमिनीन क़ानितीन भी हैं और मुन्किरीन ज़ाहिदीन भी- अज़ाब वाक़े होने और मगफिरत तलब करने का इस अंदाज से ज़िक्र करेंगे जिससे एक तरफ़ अल्लाह के मुक़र्रर किए हुए अमल के बदले के क़ानून की खिलाफ़वर्जी भी न मालूम हो और दूसरी ओर उम्मत के साथ रहमत व शफकत के जज़्बे का जो तकाज़ा है वह पूरा हो जाए। इन तुअज्जिब हुम फ़-इन्नहुम हबाटुक व इन ताग्फिर लहुम, फ़-इन्न-क अन्तल अज़िज़ुल हकीम० .
जब हज़रत ईसा (अलै.) अर्जदाश्त या जवाब के मज़मून को खत्म कर चुके तो रब्बुल आलमीन ने अपने अदल के क़ानून का यह फैसला सुना दिया, ताकि रहमत व मगफिरत के हक़दार को मायूसी न पैदा हो, बल्कि मुसर्रत व शादमानी से उनके दिल रोशन हो जाएं और अज़ाब के हक़दार गलत उम्मीदें न क़ायम कर सकें। ‘कालल्लाहु हाज़ा यौमुन यनफ़उस्सादिक़ी-न सिदकहुम’ (5:119)
इन तमाम तफसीलों का हासिल यह है कि इन आयतों का आगा-पीछा साफ़-साफ़ बता देता है कि यह वाकिया क़यामत के दिन पेश आएगा और हज़रत ईसा (अलै.) के मला-ए-आला पर उठाए जाने के वक़्त नहीं पेश हुआ।
बनी इसराईल के फ़िरक़े
पीछे यह बताया जा चुका है कि अल्लाह ने हज़रत ईसा (अलै.) को इंजील अता की थी और यह इलहामी किताब असल में तौरात का तुक्मिला (Suppierment) थी। यानी हज़रत ईसा (अलै.) की तालीमी बुनियाद अगरचे तौरात पर ही क़ायम थी, मगर यहूद की गुमराहियों, मज़हबी बगावतों और सारकशियों की वजह से, जिन सुधारों की ज़रूरत थी, अल्लाह तआला ने हज़रत मसीह (अलै.) की मारफत इंजील की शक्ल में उनके सामने पेश कर दिया था।
हज़रत मसीह (अलै.) को नबी बनाए जाने से पहले यहूदियों की एतकादी और अमली गुमराहियां अगरचे बहुत ज़्यादा हो गई थी और हज़रत मसीह (अलै.) ने नबी बनाए जाने के बाद इन सबके सुधार के लिए क़दम उठाया भी, फिर कुछ अहम बुनियादी बातें खास तौर पर इस्लाह के क़ाबिल थीं, जिन्हें सुधारने के लिए हज़रत मसीह (अलै.) बहुत ज़्यादा सरगर्म अमल रहे।
1. यहूदियों की एक जमाअत कहती थी कि नेक बद की जज़ा-सज़ा दुनिया में मिल जाती है, बाकी क़यामत, आखिरत, आखिरत में जज़ा-सज़ा, हश्र व नश्र ये सब बातें गलत है। ये ‘सदूकी‘ थे।
2. दूसरी जमाअत अगरचे इन तमाम चीज़ों को हक़ समझती थी, मगर साथ ही यह यक़ीन रखती थी कि अल्लाह से मिलने के लिए यह बिल्कुल ज़रूरी है कि दुनिया की लज्ज़तों और दुनिया वालों से किनाराकश होकर सन्यासी का जीवन अपनाया जाए, चुनाचे वे बस्तियों से अलग ख़ानक़ाहों और झोपड़ियों में रहना पसन्द करते थे, मगर यह जमाअत हज़रत मसीह (अलै.) के नबी बनाए जाने से कुछ पहले अपनी यह हैसियत भी खो चुकी थी और अब ‘दुनिया त्याग देने’ के परदे में दुनिया की हर क़िस्म की गन्दगी में लथ-पत नज़र आती थी। ज़ाहिरी तौर पर रस्म व रिवाज ज़ाहिदों का-सा होता, मगर ये तंहाइयों में वह सब कुछ नज़र आता जिनसे खुले गुनाहगार भी एक बार शर्म से आंखें बंद कर लें, ये ‘फ़रीसी‘ कहलाते थे।
3. तीसरी जमाअत मज़हबी रस्मों और हैकल की खिदमत से मुताल्लिक थी, लेकिन उनका भी यह हाल था कि जिन रास्तों और खिदमों को ‘अल्लाह के लिए’ करना चाहिए था और जिन आमाल के नेक नतीजे खुलूस पर टिके हुए थे, उनको तिजारती करोबार बना लिया था और जब तक हर एक रस्म और हैकल की खिदमत पर भेंट और नज़र न ले लें, क़दम न उठाएं, यहां तक कि इस मुक़द्दस कारोबार के लिए उन्होंने तौरात के हुक्मों में भी घट-बढ़ कर दी थी, ये ‘काहिन‘ थे।
4. चौथी जमाअत इन सब पर हावी और मज़हब की ठेकेदार थी। इस जमाअत ने जनता में धीरे-धीरे यह अक़ीदा पैदा कर दिया था कि मज़हब और दीन के उसूल व एतक़ाद कुछ नहीं हैं, मगर ‘वह‘ जिनको वे संही कह दें, उनको यह अख्तियार हासिल है कि वे हलाल को हराम और हराम को हलाल बना दें, दीन के हुक्मों में इजाफ़ा या कमी कर दें, जिसको चाहें जन्नत का परवाना लिख दें और जिसकों चाहें जहन्नम की तहरीर दे दें। अल्लाह के यहाँ उनका फैसला अटल और अमिट है। ग़रज़ बनी इसराईल के ‘अरबाबम मिन दुनिल्लाह’ बने हुए थे और तौरात के लफ्ज़ी और मानवी हर क़िस्म की घट-बढ़ में इस दर्जा बहादुर थे कि उसको दुनियातलबी का मुस्तकिल सरमाया बना लिया था और आम व ख़ास की खुशनूदी के लिए ठहराई हुई क़ीमत पर दीन के हुक्मों को बदल डालना उनका दीनी काम था, ये ‘अहबार‘ या ‘फकीह‘ थे।
ये थी वे जमाअतें और ये थे उनके अक़ीदे और अमल जिनके दर्मियान हज़रत मसीह (अलै.) भेजे गए ताकि वह उन की इस्लाह करें। उन्होंने हर एक जमाअत के गलत अक़ीदों और अमलों का जायज़ा लिया, रहम व मुहब्बत के साथ उनके ऐबों और खराबियों पर उंगली उठाई, उनको सुधरने पर उभारा और उनके ख्यालों, अकीदों और उनके अमलों और किरदारों की गन्दागियों को ढेर करके उनका रिश्ता कायनात के पैदा करने वाले अल्लाह के साथ दोबारा कायम करने की कोशिश की, मगर इन बदबख्तों ने अपनी काली करतूतों में सुधार लाने से साफ इंकार कर दिया और न सिर्फ यह बल्कि उनको ‘मसीह ज़लालत’ कह कर उनकी हक़-व इर्शाद की दावत के दुश्मन और उनके खिलाफ़ साज़िशें करके उनकी जान को लग गए।
चारों इंजीलें
हज़रत मसीह (अलै.) पर जो इंजील नाज़िल हुई थी, उसके बारे में तमाम इल्म वालों का, जिनमें ख़ुद नसारा भी शामिल हैं, इत्तिफ़ाक़ है कि उनमें से कोई एक भी हज़रत मसीह (अलै.) पर उतरी हुई इंजील नहीं है, बल्कि यूनानी और उनसे नक़ल किए गए दूसरी ज़ुबानों के तर्जुमे हैं जो तब्दीली और घट-बढ़ का बराबर शिकार होते रहे हैं और सिर्फ यही नहीं कि ये चारों इंजीलें, इंजीले मसीह नहीं हैं, बल्कि किसी इल्मी, तारीख़ी और मज़हबी सनद से उनका हज़रत मसीह (अलै.) के शागिर्दो का लिखा होना भी साबित नहीं है, बल्कि बाद के लिखने वालों की लिखी हुई हैं, अलबत्ता इन तर्जुमों में बाज़ नसीहतों और हिकमतों के मुक़ामों के सिलसिले में एक हिस्सा ऐसा ज़रूर है जो हज़रत मसीह (अलै.) के इर्शाद से लिया गया है, इसलिए नक़ल में कहीं कहीं असल की झलक नज़र आ जाती है।
(मौलाना हिफ्जुर्रहमान स्योहारवी ने मौजूदा इंजील के बारे में ज़ोरदार तहक़ीक़ पेश की है, जिसका यह हासिल है। मोरस बकाई ने की साइंस और क़ुरआन’ में भी इंजील से मुताल्लिक़ तहकीकी बातें की है जिसपर तवज्जोह दी जानी चाहिए)
क़ुरआन और इंजील
क़ुरआन मजीद की बुनियादी तालिम यह है कि जिस तरह अल्लाह एक है, उसी तरह उसकी सच्चाई भी एक ही है और वह कभी किसी खास क़ौम खास जमाअत और खास गिरोह की विरासत नहीं रही, बल्कि हर कौम और हर मुल्क में अल्लाह की रुश्द व हिदायत का पैगाम, एक ही बुनियाद पर क़ायम रहते हुए उसके सच्चे पैगम्बरों या उसके नायबों के ज़रिए हमेशा दुनिया के लिए सीधे रास्ते की दावत देने वाला और उस तरफ़ बुलाने वाला रहा है और उसी का नाम ‘सीधा रास्ता‘ और ‘इस्लाम‘ है और क़ुरआन इसी भूले हुए सबक़ को याद दिलाने आया है और यही वह आखिरी पैगाम है जिसने तमाम पुराने मज़हब की सच्चाइयों को अपने अन्दर समो कर पूरी ज़मीनी कायनात की हिदायत का बेड़ा उठाया है। और अब इसलिए उसका इंकार गोया अल्लाह की तमाम सच्चाइयों का इंकार है।
इसी बुनियादी तालीम के पेशेनज़र उसने हज़रत मसीह (अलै.) की शान की बड़ाई को सराहा और यह माना कि बेशक इंजील इलहामी किताब और अल्लाह की किताब है, लेकिन साथ ही जगह-जगह दलीलों के साथ यह भी बतलाया कि अले किताब उलेमा ने इसकी सच्ची तालीम को मिटा डाला, बदल डाला और हर क़िस्म की तब्दीली करके इसकी तालीम को शिर्क व कुफ़्र की तालीम बना दिया।
लेकिन किसी किसी जगह पर अहले किताब को तौरात और इंजील के खिलाफ़ अमल पर मुलज़िम बनाते हुए मौजूदा तौरात व इंज़ील के हवाले भी देता है जिससे मालूम होता है कि क़ुरआन नाज़िल होते वक़्त असल नुस्खे भी, अगरचे बिगड़ी हुई शक्ल में ही क्यों न हो, पाए जाते थे, बहरहाल उस वक़्त भी ये दोनों किताबे लफ्ज़ी और मानवी दोनों क़िस्म की तहरीफ़ात से इतनी बिगड़ चुकी थीं कि वे हज़रत मूसा (अलै.) की तौरात और हज़रत ईसा (अलै.) की इंजील कहलाने की हक़दार नहीं रही थी, चुनांचे क़ुरआन ने असल किताबों की अज़मत और अहले किताब के हाथों की तहरीफ़ और उनका बिगाडा जाना दोनों को खोल कर बयान किया है।
तर्जुमा- (ऐ मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम!) अल्लाह ने तुमपर किताब को उतारा हक़ के साथ, जो तस्दीक़ करने वाली है उन किताबों की को उनके सामने हैं और उतारा उसने तौरत और इंजील को (क़ुरआन से) पहले जो हिदायत हैं लोगों के लिए और उतारा फुरक़ान (हक़ व बातिल में फ़र्क करने वाली) (3-3,4)
तर्जुमा- ‘और सिखाता है वह किताब को, हिकमत को, तौरात को, इंजील को।’ (3:48)
तर्जुमा- ऐ अहले किताब! तुम किस लिए हज़रत इब्राहीम (अलै.) के बारे में झगड़ते हो और हाल यह है कि तौरात और इंजील का नज़ूल नहीं हुआ, मगर हज़रत इब्राहीम (अलै.) के बाद, पस क्या तुम इतना भी नहीं समझते? (3:65)
तर्जुमा- ‘और पीछे भेजा हमने हज़रत ईसा बिन मरयम को, जो तस्दीक करने वाला है उस किताब की जो सामने है तोरात और दी हमने उसको इंजील जिसमें हिदायत और नूर है और अपने से पहली किताब की तस्दीक़ करती है और पूरी तरह हिदायत और नसीहत है परहेज़गारों के लिए और चाहिए कि अहले इंजील उसके मुताबिक़ फ़ैसले दें जो हमने इंजील में उतार दिया और जो अल्लाह के उतारे हुए क़ानून के मुवाफिक़ फैसला नहीं देता, पस यही लोग फ़ासिक़ हैं।’ (5:46-47)
तर्जुमा- ‘और अगर वे तौरात व इंजील को क़ायम रखते, (घटा-बढ़ा कर उनको बिगाड़ न डालते) और उसको क़ायम रखते, जो उसकी जानिब उनके परवरदिगार की जानिब से उतारा हुआ है तो अलबत्ता वे (फारिगुल बाली के साथ) खाते अपने ऊपर से और अपने नीचे से, कुछ उनमें बीच का रास्ता अपनाने वाले अच्छे लोग हैं और अक्सर उनके बद-अमल है। (5-66)
तर्जुमा- ‘(ऐ मुहम्मद ﷺ कह दीजिए, ऐ अहले किताब! तुम्हारे लिए टिकने की कोई जगह नहीं है, जब तक तौरात और इंजील और उस चीज़ से जिसको तुम्हारे परवरदिगार ने तुम पर नाज़िल किया, क़ायम न करो (ताकि उसका नतीजा क़ुरआन की तस्दीक निकले)
तर्जुमा- ‘और जब मैंने तुझको (ऐ ईसा) सिखाई किताबे हिकमत तौरात और इंजील। (5-110)
तर्जुमा- (भले लोग) वे शख्स हैं जो पैरवी करते है रसूल की जो नबी उम्मी है और जिसका ज़िक्र अपने पास तौरात और इंजील में लिखा पाते है (7:157)
तर्जुमा– बेशक अल्लाह ने खरीद लिया है मोमिनों से उनकी जाने और उनके मालों को इस बात पर कि उनके लिए जन्नत है, वे अल्लाह के रास्ते में जंग करते हैं, पस क़त्ल करते हैं और क़त्ल होते हैं, उनके लिए अल्लाह का वायदा सच्चा है जो तौरात और इंजील में किया गया है। (9:111)
गरज़ यह तारीफ़ व तौसीफ़ है उस तौरात और इंजील की जो ‘तौराते मूसा‘ और ‘इंजीले ईसा’ कहलाने की हक़दार और हक़ीक़त में अल्लाह की किताब थीं, लेकिन यहूदियों और ईसाइयों ने इन इलहामी (आसमानी) किताबों के साथ क्या मामला किया, इसका हाल भी क़ुरआन ही की ज़ुबान से सुनिए।
तर्जुमा- क्या तुम उम्मीद रखते हो कि वे तुम्हारी बात मान लेंगे, हालाकि उनमें एक गिरोह ऐसा था, जो अल्लाह का कलाम सुनता था, फिर उसको बदल डालता था बावजूद इस बात के कि वह उसके मतलब को समझता था और जान-बूझ कर घट-बढ़ करते थे। (2:75)
तर्जुमा- पस अफ़सोस उन (इल्म के दावेदारों) पर जिनका शेवा यह है कि खुद अपने हाथ से किताब लिखते हैं, फिर लोगों से कहते हैं, यह अल्लाह की तरफ से है और यह सब कुछ इसलिए करते हैं ताकि उसके मुआवज़े में एक हक़ीर सी क़ीमत दुनियावी फायदे की हासिल करें। पस अफ़सोस उस पर जो कुछ वे लिखते हैं और अफ़सोस इस पर जो कुछ वे इसके ज़रिए से कमाते (2:78)
तर्जुमा– वे अहले किताब अल्लाह की किताब (तौरात और इंजील) के वाकियों को उनकी सही जगह से बदल डालते हैं, यानी लफ्ज़ों में और उनके मानी में दोनों में तहरीफ़ यानी बिगाड़ पैदा करते हैं। (5:13)
इनके अलावा ‘समने क़लील‘ (मामूली पूंजी) के बदले अल्लाह को बेच देने से मुताल्लिक़ तो वक़र, आले इमरान, निसा और तौबा में कई आयतें मौजूद हैं जिनका हासिल यह है कि यहूदी-ईसाई तौरात-इंजील को दोनों तरह बेचा करते थे, लफ़्ज़ों में बदलाव के ज़रिए भी और मानी में बदलाव के सिलसिले से भी, गोया सोने-चांदी के लालच मे आम व खास की ख्वाहिशों के मुताबिक़ अल्लाह की किताब की आयतों में लफ्ज़ और मानी दोनों पहलुओं से बदलाव उनके बेच देने की हैसियत रखती है, जिससे बढ़कर बदबख्ती का दूसरा कोई अमल नहीं और जो हर हाल में लानत के लायक़ है।
क़ुरआन और ईसाईयों का अक़ीदा
क़ुरआन नाज़िल होने के वक्त तमाम मसीही जिन बड़े फ़िरकों में तक़सीम थे सालूस के मुताल्लिक़ उनका अक़ीदा तीन अलग-अलग उसूलों पर टिका हुआ था, एक फ़िरका कहता था कि हज़रत मसीह (अलै.) ही ख़ुदा है और ख़ुदा ही हज़रत मसीह (अलै.) की शक्ल में दुनिया में उतर आया है और दूसरा फ़िरक़ा कहता था कि हज़रत मसीह (अलै.) इब्नुल्लाह (खुदा का बेटा) है और तीसरा कहता था कि एक का भेद तीन में छिपा हुआ है – बाप, बेटा, मरयम और इस जमाअत में भी दो गिरोह ये और दूसरा गिरोह हज़रत मरयम (अलै.) की जगह ‘रूहुल-क़ुद्स‘ को ‘अक्नूमे सालिस‘ कहता था, गरज़ वे हज़रत मसीह (अलै.) को ‘सालिसे सलासा‘ (तीन का तीसरा) तस्लीम करते थे।
इसलिए क़ुरआन की हक़ की सदा ने तीनों जमाअतों को अलग-अलग भी मुखातिब किया है और एक साथ भी और दलीलों की रोशनी में मसीही दुनिया पर यह वाज़ेह किया है कि इस बारे में हक़ का रास्ता एक और सिर्फ एक है और वह यह कि हज़रत मसीह (अलै.) हज़रत मरयम (अलै.) के पेट से पैदा हुए हैं और इंसान और खुदा के सच्चा पैगम्बर और रसूल हैं।
बाकी जो कुछ भी कहा जाता है, महज़ बातिल है, चाहे इसमें घटाया गया हो, जैसा कि यहूदियों का अक़ीदा है कि अल अयाज़ बिल्लाह (अल्लाह की पनाह) वह शोबदे बाज़ और झूठे थे या बढ़ाया गया हो जैसा कि ईसाइयों का अक़ीदा है कि वह खुदा है और खुदा के बेटे हैं या तीन में तीसरे हैं।
क़ुरआन ने सिर्फ यही नहीं कहा कि ईसाइयों के रद्द करने वाले पहलू को ही इस सिलसिले में वाज़ेह किया हो, बल्कि इसके अलावा हज़रत मसीह (अलै.) की बुलन्द शान की असल हक़ीक़त क्या है और अल्लाह के नज़दीक उनको क्या कुर्बत हासित है, इस पर भी नुमायां रोशनी डाली है, ताकि इस तरह यहूदियों के अक़ीदे का भी खंडन हो जाए और इफ़रात व तफ़रीत से जुदा राहे हक़ सामने नज़र आने लगे।
हज़रत ईसा अल्लाह के रसूल हैं –
तर्जुमा– हज़रत मसीह (अलै.) ने कहा बेशक मैं अल्लाह का बन्दा हूं और उसने मुझको नबी बनाया और मुझको मुबारक ठहराया, जहां भी मैं रहूं और उसने मुझको नमाज़ की और ज़कात की वसीयत फरमाई, जब तक भी ज़िन्दा रहू और उसने मुझे मेरी मां के लिए नेक और भला बनाया और मुझको सख्तगीर और बदबख्त नहीं बनाया, मुझ पर सलामती हो, जब मैं पैदा हुआ, जब मैं मर जाऊं और जब हश्र के लिए ज़िन्दा उठाया जाऊ (18:30-32)
तर्जुमा- ‘वह (मसीह) नहीं है, मगर ऐसा बन्दा, जिस पर हमने इनाम किया और हमने उसको मिसाल बनाया है बनी इसराईल के लिए और अगर हम चाहते तो कर देते हम तुम में से फ़रिश्ते ज़मीन में चलने-फिरने वाले और बेशक वह (मसीह) निशान है क़यामत के लिए, पस इस बात पर तुम शक न करो और मेरी पैरवी करो, यही सीधा रास्ता है। (43: 58-61)
तर्जुमा- ‘और (वह वक्त याद करो) जब हज़रत ईसा बिन मरयम (अलै.) ने कहा बनी इसराईल! बेशक मैं तुम्हारी तरफ़ अल्लाह का रसूल हूं तस्दीक़ करने वाला हूं जो मेरे सामने है तौरात और खुशखबरी देने वाला हूं एक रसूल की, जो मेरे बाद आएगा, उनका नाम अहमद है।’ (61:6)
हज़रत मसीह न ख़ुदा हैं, न खुदा के बेटे
तर्जुमा- ‘बेशक उन लोगों ने कुफ्र इख़्तियार किया जिन्होंने यह कहा, बेशक अल्लाह वही हज़रत मसीह इब्ने मरयम (अलै.) है। कह दीजिए कि अगर अल्लाह यह इरादा कर ले कि मसीह बिन मरयम, मरयम और ज़मीनी कायनात पर जो कुछ भी है, सबको हलाक़ कर डाले, तो कौन आदमी है जो अल्लाह से (उसके खिलाफ़) किसी चीज़ के मालिक होने का दावा कर सके और अल्लाह के लिए ही बादशाही है आसमानों की और ज़मीन की, वह जो चाहता है, उसको पैदा कर सकता है और अल्लाह हर चीज़ पर क़ुदरत रखने वाला है। (5:17)
तर्जुमा- बेशक उन लोगों ने कुफ़्र किया, जिन्होंने कहा, बेशक अल्लाह वही हज़रत मसीह बिन मरयम है, हालांकि हज़रत मसीह (अलै.) ने यह कहा, ऐ बनी इसराईल! अल्लाह की इबादत करो, जो मेरा और तुम्हारा परवरदिगार है, बेशक जो अल्लाह के साथ शरीक ठहराता है, पस यक़ीनन अल्लाह ने उस पर जन्नत को हराम कर दिया है और उसका ठिकाना जहन्नम है और ज़ालिमों के लिए कोई मददगार नही है। (5:72)
तर्जुमा- और उन्होंने कहा, अल्लाह ने ‘बेटा‘ बना लिया है, वह तो इन बातों से पाक है, बल्कि (उसके खिलाफ़) अल्लाह के लिए ही है जो कुछ भी असमानों और ज़मीन में है, हर चीज़ अल्लाह के लिए ताबेदार है।’ (2:116)
तर्जुमा- ‘बेशक हज़रत ईसा (अलै.) की मिसाल अल्लाह के नज़दीक आदम की सी है कि उसको मिट्टी से पैदा किया, फिर उसको कहा, हो जा, तो वह हो गया।’ (3:59)
तर्जुमा- ऐ अहले किताब! अपने दीनी मसअले में हद से न गुज़रो और अल्लाह के बारे में हक़ के अलावा कुछ न कहो, बेशक हज़रत मसीह बिन मरयम (अलै.) अल्लाह के रसूल हैं और उसका क़लमा हैं जिसको उसने मरयम पर डाला यानी बग़ैर बाप के उसके हुक्म से मरयम के पेट में वुजूद मिला और उसकी रूह हैं, पस अल्लाह पर और उसके रसूलों पर ईमान लाओ और तीनों (अक़ानीम) ने कहा, इससे बाज़ आ जाओ, तुम्हारे लिए बेहतर होगा। बेशक अल्लाह एक है पाक है इससे कि उसका बेटा हो। उसी के लिए है (बिला और की शिर्कत के) जो कुछ भी है आसमानों और ज़मीन में और काफी है अल्लाह वकील’ हो कर। (4:171)
तर्जुमा- ‘वह (खुदा) मूजिद’ (नए सिरे से बनाने वाला) है आसमानों और ज़मीन का, उसके लिए बेटा कैसे हो सकता है और न उसके बीवी है और उसने कायनात की हर चीज़ को पैदा किया है और वह हर चीज़ को जानने वाला है। (6:102)
तर्जुमा- ‘मसीह बिन मरयम नहीं हैं मगर खुदा के रसूल, बेशक उनसे पहले रसूल गुज़र चुके हैं और उनकी वालिदा सिद्दीका हैं। ये दोनों खाना खाते थे। (यानी दूसरे इंसानों की तरह खाने-पीने वगरैह मामलों में भी वे मुहताज थे।’ (5:75)
तर्जुमा- ‘हरगिज़ हज़रत मसीह (अलै.) इससे नागवारी नहीं इख्तियार करेगा, कि वह अल्लाह का बन्दा कहलाए और न करीबी फ़रिश्ते, यहां तक कि रुहुल क़ुदस (जिब्रील) नाक भौं चढ़ाएंगे और जो इबादत से नागवारी ज़ाहिर करे और घमंड करे, तो करीब है कि अल्लाह तआला उन सबको अपनी तरफ़ इकठ्ठा करेगा यानी जज़ा व सज़ा के दिन सब हक़ीक़ते हाल खुल जाएगी।’ (4:172)
तर्जुमा- ‘और यहूदी कहते हैं कि उज़ैर खुदा का बेटा है और हज़रत ईसा (अलै.) कहते हैं कि हज़रत मसीह खुदा का बेटा है। ये उनके मुंह की बातें हैं, रेस करने लगे अगले काफिरों की बात की, अल्लाह उनको हलाक़ करे, कहां से फिरे जाते हैं।’ (9:30)
तर्जुमा– ‘(ऐ मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) कह दीजिए, अल्लाह ‘एक है, अल्लाह बेनियाज़ हस्ती है, न किसी का बाप है और न किसी का बेटा और कायनात में कोई उस जैसा नहीं है।’ (112:1-3)
क़ुरआन ने इस सिलसिले में अपनी सच्चाई और अक़ीदे और अमल की इस्लाह का जो दलीलों के साथ वाज़ेह एलान किया, उसके पढ़ने के साथ-साथ यह बात भी तवज्जोह के क़ाबिल है कि मौजूदा किताब मुक़द्दस इंजील में मिलावट पैदा करने और बिगाड़ने के बावजूद जिस शक्ल व सूरत में आज मौजूद है, वह किसी एक जगह पर भी सालूस (Trinity) के इस अक़ीदे का पता नहीं देती, इसलिए तसलीस के अक़ीदे में ईसाइयों के लिए मौजूदा किताबे मुकद्दस से भी कोई हुज्जत व दलील नहीं मिलती और इसलिए बगैर किसी शक व शुबहे के यह कहना हक़ है कि तसलीस का यह अक़ीदा बुतपरस्ती वाले अक़ीदों की मिलावट का नतीजा है।
कफ्फ़ारा
मौजूदा मसीहियत (ईसाई धर्म) का दूसरा अकीदा, जिसने मसीही दीन की हक़ीक़त को बर्बाद कर डाला, ‘कफ्फारे‘ का अक़ीदा है। इसकी बुनियाद इस कल्पना पर रखी गई है कि तमाम कायनात (जिसमें नेक लोग और नबी और रसूल सभी शामिल है) शुरू ही से गुनाहगार है। आखिर अल्लाह की रहमत को जोश आया और उसकी मशीयत ने इरादा किया कि बेटे को दुनिया की कायनात में भेजे और वह सूली पर चढ़ा हुआ होकर पहले और आखिरी तमाम कायनात के गुनाहों का कफ्फ़ारा हो जाए और इस तरह दुनिया को निजात और मुक्ति हासिल हो सके लेकिन इस अक़ीद को ज़ोरदार बनाने के लिए कुछ ज़रूरी हिस्सों की ज़रूरत थी, जिनके बगैर यह इमारत नहीं खड़ी की जा सकती थी।
इसलिए रसूल के ज़माने में सबसे पहले मसीही दीन ने यहूदी दीन के इस अक़ीदे को मान लिया कि उनको फांसी के तख्ते पर भी चढ़ाया गया और मार भी डाला गया और इसको मान लेने के बाद दूसरा क़दम यह उठाया कि ‘अल्लाह की सिफ़त रखने के बावजूद‘ हज़रत मसीह (अलै.) का फांसी पाना और क़त्ल होना अपने लिए नहीं, बल्कि कायनात की निजात के लिए था। चुनांचे जब उस पर यह हादसा गुज़र गया तो उसने फिर ‘अल्लाह होने’ की चादर ओढ़ ली और आलमे लाहूत में बाप और बेटे के दर्मियान दोबारा लाहुती रिश्ता क़ायम हो गया।
पस जब मज़हब में एक अल्लाह के साथ सही अक़ीदा और नेक अमली गुम हो जाए और निजात का दारोमदार अमल व किरदार के बजाए ‘कफ्फ़ारे पर क़ायम’ हो जाए, उसका नतीजा मालूम?
क़ुरआन ने इसी तरह जगह-जगह यह वाज़ेह किया है कि नजात के लिए अक़ीदे का सही होना यानी सही खुदापरस्ती और नेक अमली के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है और जो आदमी भी इस ‘सीधे रास्ते’ को तर्क करके ‘खुशगुमानी‘ और वहम व गुमान को आदर्श बनाएगा और नेक अमली और सही ख़ुदा परस्ती पर न चलेगा, बिला शुबहा गुमराह है और सीधे रास्ते से पूरी तरह महरूम।
तर्जुमा- जो लोग अपने को मोमिन कहते हैं और जो यहूदी हैं और जो ईसाई हैं और जो साबी हैं, उनमें से जो भी अल्लाह पर और आखिरत के दिन पर ईमान ले आया और उसने नेक अमल किए, तो यही वे लोग हैं, जिनका बदला उनके परवरदिगार के पास है, न उन पर डर छायेगा और न वे गमगीन होंगे (2:62)
यानी क़ुरआन की धर्मों और मिल्लतों में सुधार लाने की दावत का मक़सद यह नहीं है कि यहूदी, ईसाई और साबी गिरोहों की तरह एक नया गिरोह ‘मोमिन‘ के नाम से इस तरह इज़ाफ़ा कर दे कि गोया वह भी एक क़ौम, नस्ली या मुल्की गिरोहबन्दी है, चाहे उसकी खुदापरस्ती की ज़िंदगी और अमल की ज़िंदगी कितनी ही गलत और बर्बाद हो या सिरे से गायब हो मगर उस गिरोहबन्दी का आदमी होने की वजह से ज़रूर कामयाब और ख़ुदा की जन्नत व रज़ा का हक़दार है, क़ुरआन का मक़सद हरगिज़ यह नहीं है।
बल्कि वह यह ऐलान करने आया है कि उसकी सच्ची दावत से पहले कोई आदमी किसी भी गिरोह और मज़हबी जमाअत से ताल्लुक़ रखता हो अगर उसने (क़ुरआन की सच्ची तालीम) के मुताबिक़ ख़ुदापरस्ती और नेक अमली को इख़्तियार कर लिया है तो बेशक वह निजात पाया हुआ और कामयाब है, वरना तो वह गैर मुसलमान घर में पैदा हुआ, पला और बढ़ा और उसी सोसाइटी में ज़िंदगी गुज़ार कर मर गया, मगर क़ुरआन की सच्ची दावत के मुताबिक़ ख़ुदापरस्ती और नेक अमली दोनों से महरूम रहा या मुखालिफ़ (विरोधी), तो उसको न कामयाबी है, न फलाह, बाकी रहा मसीही धर्म के कफ्फारे का ख़ास मस्अला तो क़ुरआन ने उसे ग़लत करार देने के लिए यह रास्ता अपनाया कि जिन बुनियादों पर उसको क़ायम किया गया था, उसकी जड़ ही काट दी।
तवज्जोह करने की बात
यह बात कभी नहीं भूली जानी चाहिए कि पिछले धर्मों और क़ौमों के बिगड़ने और घटने-बढ़ने से घट-बढ़ करने वालों को बहुत ज़्यादा मदद मिली कि बुनियादी अक़ीदों में खुले लफ़्ज़ों के इस्तेमाल के बजाए वक़्त के ताबीर करने वालों, तफसीर लिखने वालों और तर्जुमानी करने वालों ने इशारों, इस्तिआरों और तश्बीहो से बहुत ज़्यादा काम लिया। इन ताबीरों का नतीजा यह निकला कि जब हक़ मज़हबों का मूर्ति पूजकों और फ़लसफ़ियों से वास्ता पड़ा और उन्होंने किसी न किसी तरह इस दीने हक़ को कुबूल कर लिया।
तो अपने फ़लसफ़ियाना और मुशिकाना अफ़्कार व ख़यालात के लिए उन्हीं इस्तियारों और तश्बीहों को सहारा बनाया और धीरे-धीरे मिल्लते हक़ीक़ी की सूरत बदल कर उसको माजूने मुरक्कब बना डाला। इसी हक़ीक़त को देखते हुए क़ुरआन ने वुजूद बारी, तौहीद, रिसालत, इलहामी किताबें, अल्लाह के फरिश्ते, गरज़ बुनियादी अकीदों में दोहरे लफ़्ज़, पेचदार तश्बीह और तौहीद में ख़लल डालने वाले इशारों-कनायों के बजाए खुले-साफ लफ़्ज़ों को अपनाया है ताकि किसी ख़ुदा के न मानने वाले और मुशरिक फ़लसफ़ी को ख़ालिस तौहीद में शिर्क और अटकलों की नई-नई बातों का मौका हाथ न आने पाए और अगर कोई आदमी इसके बाद भी बेजा हिम्मत करे तो खुद क़ुरआन की खुली आयतें ही उनके इलहाद के टुकड़े-टुकड़े कर दें।
नोट : मुरत्तिब की तरफ़ से हज़रत मरयम (अलै.), हज़रत ईसा (अलै.) की पैदाइश, ज़िंदगी और मोजज़े वगैरह से मुताल्लिक़ कई मसले बहस में आ गए हैं। हज़रत मौलाना स्योहारवी ने तमाम मसलों पर खुलकर बातें की हैं, लेकिन इन बहसों का खुलासा मुमकिन नहीं है, इसलिए मजबूरी में उन्हें छोड़ा जा रहा है, जो पाठक ख्याल महसूस करें उनसे दरख्वास्त है कि वे असल किताब से रुजू फ़रमावें।
