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Arabs Betrayal of Palestine: A Historical and Political Analysis
“फिलिस्तीन के साथ अरब हुकूमतों की ग़द्दारी: एक तारीख़ी और सियासी तज़्ज़िया”
Table of Contents
अगर आप डिटेल्स में पढ़ना चाहते हैं तो आप फिलिस्तीन का इतिहास में जा कर पढ़ सकते हैं
फिलिस्तीन का मसला बीसवीं सदी का सबसे पुराना और ना हल होने वाला सियासी और इंसानी मसला है। मगर इस संघर्ष की सबसे तल्ख़ हकीक़त यह है कि खुद अरब हुकूमतें—जिन्हें उम्मत की रहनुमा माना जाता रहा है—ने बार-बार फिलिस्तीनियों को धोखा दिया। ये ग़द्दारी कभी खुल कर सियासी मुआहदों की सूरत में, कभी खामोशी और बे-हिसी में, और कभी दुश्मनों से दोस्ती की शक्ल में सामने आती रही।
1. 1916 – साइक्स-पिको समझौता: पीठ में पहला ख़ंजर
ब्रिटेन और फ्रांस ने एक सीक्रेट समझौते में साइक्स-पिको (Sykes–Picot Agreement) के तहत ओट्टोमन खिलाफ़त के इलाक़ों को आपस में बाँटने का मंसूबा बनाया। उस समय कुछ अरब क़बायली लीडर्स ने खिलाफ़त के ख़िलाफ़ बग़ावत कर दी, इस वादे पर कि उन्हें आज़ाद मुल्क दिए जाएंगे। मगर नतीजा निकला—फिलिस्तीन समेत पूरा मिडिल ईस्ट कॉलोनियल ताक़तों के कब्ज़े में चला गया।
2. 1917 – बॅल्फ़ोर डिक्लेरेशन और अरबों की खामोशी
ब्रिटिश सरकार ने यहूदियों से वादा किया कि वो फिलिस्तीन में उनके लिए “नेशनल होम” कायम करेगी। अरब लीडरशिप की तरफ़ से न कोई ठोस विरोध, न ही सियासी कदम उठाया गया। यहूदियों की बुनियाद उस वक़्त रखी गई जब मुस्लिम दुनिया सो रही थी।
3. 1948 – इस्राईल का क़ियाम और अरबों की शर्मनाक शिकस्त
जब इस्राईल क़ायम हुआ तो मिस्र, जॉर्डन, सीरिया, इराक और लेबनान ने जंग छेड़ी। लेकिन:
- इन हुकूमतों के दरमियान कोई इत्तिहाद नहीं था।
- जॉर्डन ने वेस्ट बैंक को खुद कब्ज़े में ले लिया।
- मिस्र ने ग़ज़्ज़ा पट्टी अपने अधीन कर ली।
- फिलिस्तीनियों को आज़ादी के बजाए दोहरे कब्ज़े में धकेल दिया गया।
4. 1967 – छह रोज़ा जंग: मस्जिद-अक्सा के गुम होने की तारीख़
इस्राईल ने सिर्फ़ छह दिनों में मिस्र, सीरिया और जॉर्डन की फौजों को शिकस्त देकर:
- अल-क़ुद्स (यरुशलम) पर क़ब्ज़ा कर लिया
- मस्जिद-अक्सा को ज़ायोनी क़ब्ज़े में दे दिया
- अरब मुल्कों की सैन्य और सियासी नाकामी पूरी दुनिया के सामने आई
5. 1979 – कैंप डेविड समझौता: मिस्र की खुली ग़द्दारी
मिस्र ने अमरीकी दबाव में इस्राईल को तस्लीम कर लिया। बदले में उसे सिनाई वापस मिला। मगर:
- यह समझौता फिलिस्तीनियों की पीठ में छुरा घोंपने जैसा था
- मिस्र पहला अरब मुल्क बना जिसने इस्राईल से खुला समझौता किया
6. 1993 – ओस्लो समझौता: फिलिस्तीनी लीडरशिप की मजबूरी, अरबों की बेरुख़ी
PLO ने इस्राईल को एक सियासी हक़ीक़त मान लिया। उम्मीद थी कि दो-राष्ट्र हल (Two-State Solution) मिलेगा, मगर:
- अरब मुल्कों ने इस समझौते को बस तमाशा समझा
- न कोई दबाव डाला, न कोई रणनीति बनाई
7. 2020 – अब्राहम अकॉर्ड्स: अरबों की खुली बाहें और इस्राईल
UAE, बहरीन, फिर मोरक्को और सूडान ने इस्राईल को औपचारिक तौर पर मान्यता दी। सऊदी अरब भी बैक-डोर डिप्लोमेसी में शामिल रहा। यह:
- फिलिस्तीनियों की तन्हाई का ऐलान था
- उम्मत के तसव्वुर का मज़ाक था
8. 2023 – ग़ज़्ज़ा नरसंहार और अरब दुनिया की मुर्दा खामोशी
- इस्राईल ने ग़ज़्ज़ा पर जंग छेड़ दी
- 30,000 से ज़्यादा शहीद, जिनमें हज़ारों बच्चे थे
- अरब हुकूमतें सिर्फ़ बयानात तक महदूद रहीं
- न तेल का बायकॉट, न दूतावास बंद, न कोई संयुक्त सैन्य रणनीति
नतीजा: उम्मत के ख्वाब की तबाही
आज की तारीख़ में:
- अरब हुकूमतें तिजारती फ़ायदे और तख़्त की सलामती को दीनी फ़र्ज़ से ऊपर रखती हैं
- उम्मत का तसव्वुर महज़ एक नारा बन कर रह गया है
- इस्राईल को तस्लीम करने की दौड़ लगी है
- फिलिस्तीनियों को अकेला छोड़ दिया गया है
क्या किया जाए?
- उम्मत को हुकूमतों से नहीं, अवाम से जोड़ना होगा
- फिलिस्तीन के लिए एक रूहानी, इल्मी और निडर आवाज़ उठानी होगी
- दुनिया भर के मुसलमानों को तालीम, तहक़ीक़ और मसलकी इत्तिहाद की बुनियाद पर फिर से उठ खड़ा होना होगा
ख़ातमा
“अरब दुनिया और क़ज़िया-ए-फ़िलस्तीन”
अरब मुल्कों में तालीम हासिल करने और वहाँ कई साल रहने के तजुर्बे, इसके अलावा मुख्तलिफ़ अरब क़ौमों के अफ़राद से मुलाक़ात और गुफ़्तगू और उनके अफ़्कार व नज़रियात का मुताला करने के बाद एक तल्ख़ हक़ीक़त सामने आती है: बेशतर अरब क़ौमें “क़ज़िया-ए-फ़िलस्तीन” को एक मज़हबी और दीनी मसला नहीं समझतीं, बल्कि इसे महज़ दो ममालिक के दरमियान क़ब्ज़ा और अदम-ए-क़ब्ज़ा का एक सियासी तनाज़ा क़रार देती हैं। ये नुक्ता दरअसल उनके रवैय्ये और तर्ज़-ए-फ़िक्र की बुनियाद है, जो उनकी अमली ज़िंदगी, पालिसी साज़ी और बैनुल-अक़वामी मौक़िफ़ में वाज़ेह तौर पर झलकता है।
उनकी अव्वलीन तरजीह अपनी हुकूमतों और बादशाहतों का तहफ़्फ़ुज़ है, और इस मक़सद के लिए वो किसी भी हद तक जा सकते हैं। दीन, शरीअत, उम्मत और मज़लूमों की हिमायत जैसे मुक़द्दस अल्फ़ाज़ उनके लिए महज़ ख़तीबाना लफ़ाज़ी हैं, जिनका अमली ज़िंदगी से कोई ताल्लुक नहीं। यहाँ तक कि मज़हब के दावेदार, उलमा और मशाइख़ भी हुक़्क़ाम की ख़ुशनूदी के असीर नज़र आते हैं। उनके फ़तावे और बयानात अक्सर औक़ात हुकूमतों की मर्ज़ी और सियासी ज़रूरतों के ताबे होते हैं। हुक़्क़ाम के ज़ालिमाना और ग़ैर-शरई इक़दामात की न सिर्फ़ तौजीह की जाती है, बल्कि उन्हें शरीअत का जामा पहना कर आवाम को फ़रेब दिया जाता है। हक़-गुई और कलिमा-ए-हक़ कहने का तसव्वुर वहाँ एक नापैद रोशनी बन चुका है।
अरब दुनिया में इल्मी व फ़िक्री क़हत इस क़दर शदीद है कि बड़े-बड़े अहल-ए-इल्म, साइंसदां, माहिरीन-ए-टेक्नॉलॉजी और आलमी सतह के माहिरीन-ए-इक़्तिसाद वहाँ से हिजरत करके अमरीका, मग़रिबी और यूरोपी ममालिक का रुख़ कर चुके हैं। इस हिजरत का सबब सिर्फ़ बेहतर तनख़्वाहें नहीं, बल्कि इज़्ज़त-ए-नफ़्स, इल्मी आज़ादी, सहूलतें और तहक़ीकी माहौल का फ़ुक़दान है, जो अरब ममालिक में नापैद है। वहाँ के तालीमी इदारों—यूनिवर्सिटीज़ और कॉलेजेज़—ज़्यादातर रस्मी नौईयत के हामिल हैं, जो महज़ सरकारी असनाद फ़राहम करते हैं, मगर इल्म, तहक़ीक़, तन्क़ीद और जिद्दत जैसे बुनियादी अनासिर से महरूम हैं।
मज़ीद बरा-आँ, अरब दुनिया का दिफ़ाई और अस्करी निज़ाम भी निहायत कमज़ोर और इनहिसार पसंद है। जहाँ दुनिया के दीगर ममालिक साइंस, तहक़ीक़ और दिफ़ाई ख़ुद-कफ़ालत में आगे बढ़ रहे हैं, वहीं अरब ममालिक आराम व ऐश, नई गाड़ियों, महलों और फ़ैशन के दिलदादा नज़र आते हैं। उनके अख़बारात, बयानात, और कॉन्फ़्रेंसें तो ख़ूब शोर मचाती हैं, मगर अमली मैदान में उनका किरदार न होने के बराबर है। उनके बयानात अक्सर महज़ रस्मी, वक़्ती और ज़बानी जमा खर्च पर मुश्तमिल होते हैं, जिनसे न तो किसी ज़ुल्म का सद्बाब होता है, न मज़लूमों को कोई फ़ायदा पहुंचता है, और न ही उम्मत-ए-मुस्लिमा की कोई इज्तिमाई रहनुमाई होती है।
ऐसे में ये उम्मीद रखना कि यही अरब हुकूमतें किसी मुस्लिम मसले, ख़ास तौर पर क़ज़िया-ए-फ़िलस्तीन जैसे संगीन अलमिए का हल पेश करेंगी, एक ख़ाम ख़्याली के सिवा कुछ नहीं। उनके रवैय्ये, बयानात, पालिसीयों और तरजीहात का तज़्ज़िया करने के बाद यही नतीजा निकलता है कि उनके हाँ उम्मत का तसव्वुर माद पड़ चुका है, और उनकी निगाह में मज़हब महज़ एक साकाफ़ती अलामत, और उम्मत का इत्तिहाद महज़ एक जज़्बाती नारा है।
इस लिए हमें अरब दुनिया की ज़ाहिरी चमक-दमक से धोका नहीं खाना चाहिए, बल्कि अपनी नजात और वहदत के लिए एक इल्मी, फ़िक्री और रूहानी तहरीक की ज़रूरत है जो सच कहने का हौसला रखती हो, और हुक़्क़ाम के इवानों से नहीं बल्कि मज़लूमों की आहों से जन्म लेती हो।
अरब हुकूमतों की ग़द्दारी एक तारीख़ है, जो खून से लिखी गई है। मगर ये भी सच है कि हर तारीख़ का एक रुख बदलने वाला मोड़ होता है। अगर आज भी उम्मत सो कर नहीं उठी, तो फिलिस्तीन का नाम भी माज़ी बन जाएगा।
Read In English
The Palestinian issue is one of the longest-standing unresolved political and humanitarian crises of the 20th and 21st centuries. However, one of the bitter truths about this struggle is the repeated betrayal of the Palestinian cause by Arab governments. This betrayal has come in many forms—through overt political deals, silent complicity, and, at times, open alliances with the enemy. While the Arab people often express solidarity with Palestine, their rulers have frequently undermined that very cause.
1. 1916 – Sykes-Picot Agreement: The First Stab in the Back
Britain and France secretly signed the Sykes–Picot Agreement to divide Ottoman territories after World War I. Several Arab tribal leaders, believing promises of independence, revolted against the Ottoman Caliphate, unknowingly facilitating European colonialism. The result: Palestine and the entire Middle East fell under colonial control.
2. 1917 – Balfour Declaration and Arab Silence
The British government promised the Zionist movement a “national home” in Palestine. Despite its grave implications for Muslims, Arab leadership did not launch any organized resistance or political campaign to stop it. This was a foundational moment in the creation of Israel, while much of the Muslim world remained unaware or passive.
3. 1948 – Creation of Israel and Arab Defeat
When Israel was established, Arab countries like Egypt, Jordan, Syria, Iraq, and Lebanon went to war. However:
- Their forces lacked coordination.
- Jordan annexed the West Bank for itself.
- Egypt took control of the Gaza Strip.
- Instead of gaining independence, Palestinians came under dual occupation.
4. 1967 – Six-Day War: The Fall of Al-Aqsa
Israel defeated Egypt, Jordan, and Syria in just six days, seizing:
- East Jerusalem (including Al-Quds and Masjid Al-Aqsa)
- West Bank, Gaza, Sinai, and the Golan Heights
This humiliating defeat exposed the weakness of Arab military and political leadership and marked the beginning of permanent Israeli control over Al-Quds.
5. 1979 – Camp David Accords: Egypt’s Open Betrayal
Under American mediation, Egypt became the first Arab country to officially recognize Israel. In return, it regained Sinai, but:
- The deal abandoned the Palestinians
- It shattered Arab unity
- It legitimized Israel’s occupation in the eyes of the West
6. 1993 – Oslo Accords: Palestinian Compromise, Arab Apathy
The Palestinian Liberation Organization (PLO) recognized Israel in hopes of a Two-State Solution. Yet:
- Arab regimes showed no real support
- They did not pressure Israel or offer concrete aid to Palestine
- Most Arab governments used this as an excuse to slowly disengage from the issue
7. 2020 – Abraham Accords: Embracing the Enemy
UAE and Bahrain, followed by Morocco and Sudan, normalized relations with Israel. Saudi Arabia remained involved through backdoor diplomacy. This marked:
- The abandonment of the Palestinian cause
- The collapse of the idea of a united Muslim front
- A shift toward self-interest and Western appeasement
8. 2023 – Gaza Massacre and Dead Silence
- Israel launched a full-scale war on Gaza
- Over 30,000 killed, including thousands of children
- Arab governments offered only empty statements
- No oil embargo, no severing of diplomatic ties, no united military front
Conclusion: The Death of the Ummah’s Dream
Today:
- Arab rulers prioritize their regimes over religion and justice
- The concept of a united Ummah has become a mere slogan
- Recognition of Israel is now seen as a strategic opportunity
- Palestinians are left isolated and betrayed
What Must Be Done?
- Rebuild the Ummah from the ground up—not through governments but through people
- Revive a movement rooted in truth, scholarship, and spiritual courage
- Invest in education, research, and unity beyond sectarian lines
Final Word
The betrayal of Palestine by Arab regimes is a history written in blood. Yet every dark chapter offers the chance for a new dawn. If the Muslim Ummah fails to rise even now, Palestine may one day exist only in history books.