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A Warrior, Forced to Beg From his Own People Hindi

Tariq bin Ziyad History in Hindi

वह अंडलुस का विजेता था। एक महान योद्धा सेनापति। लेकिन इतिहास ने उसे दमिश्क की मस्जिद के सामने भीख मांगते भी देखा। जिसे दुश्मन युद्धों में नहीं हरा सके, उसे अपनों ने भिखारी बना दिया।

हमें केवल यह बताया गया है कि तारिक बिन ज़ियाद ने अंडलुस फतह किया था, यह नहीं बताया गया कि मुस्लिम शासकों ने उसके साथ क्या किया।** **तारिक बिन ज़ियाद की वह कहानी जो आपने न पढ़ी होगी और न सुनी होगी।

92 हिजरी में यहां ईसाई शासक रोडरिक सत्ता पर काबिज़ था, जिसे अरबी इतिहास में लज़रीक कहा जाता है।वह बेहद निर्दयी और विलासी था। उसका एक खास शौक यह था कि वह अपनी प्रजा के किशोर लड़कों और लड़कियों को शाही प्रशिक्षण के बहाने अपने प्रभाव में रखता था और अपनी वासना का शिकार बनाता था। इसी तरह उसके एक गवर्नर काउंट जूलियन की बेटी फ्लोरिंडा भी उसकी गंदी हरकतों से नहीं बच सकी। नतीजतन, किशोरी ने अपने पिता जूलियन को इस घटना के बारे में बताया, जिससे जूलियन के दिल में रोडरिक और उसकी हुकूमत के खिलाफ नफरत की आग भड़क उठी।

*यह वह समय था जब मुसलमान मूसा बिन नुसैर की नेतृत्व में उत्तरी अफ्रीका के अधिकांश हिस्सों पर काबिज हो चुके थे। इसलिए जूलियन एक प्रतिनिधिमंडल लेकर मूसा बिन नुसैर के दरबार में हाज़िर हुआ और मूसा को रोडरिक की सारी करतूतों से अवगत कराया। उसने अनुरोध किया कि वे स्पेन को रोडरिक जैसे निर्दयी, दुराचारी शासक से मुक्ति दिलाएं। जूलियन के अनुरोध पर मूसा बिन नुसैर ने खलीफा वलीद बिन अब्दुल मलिक से अंडलुस पर आक्रमण की अनुमति मांगी। खलीफा ने सतर्कता के निर्देश के साथ मंजूरी दे दी।

*मूसा ने शुरुआत में टंगियर से अंडलुस के लिए कुछ छोटी-छोटी सैन्य अभियान भेजे ताकि स्थिति का सही आकलन किया जा सके। ये अभियान सफल रहे तो मूसा ने तारिक बिन ज़ियाद के नेतृत्व में एक बड़ा सेना दल अंडलुस पर हमला करने के लिए भेजा। तारिक की सेना सात हजार साहसी मुसलमानों पर आधारित थी। उन्हें टंगियर से अंडलुस ले जाने के लिए चार बड़ी नौकाओं का इस्तेमाल किया गया, जो कई दिनों तक लगातार सैनिकों की आवाजाही पर नज़र रख रही थीं। आखिरकार, पूरी सेना अंडलुस के उस तट पर पहुंच गई, जिसे आज भी ‘जबल तारिक’ के नाम से जाना जाता है।

अंडलुस के प्रसिद्ध इतिहासकार मुक़री ने “नफह-उल-तीब” में फतह-ए-अंडलुस का वाकया बेहद तफसील से लिखा है। वह लिखते हैं कि जब तारिक कश्ती पर सवार हुए तो कुछ देर बाद उनकी आँख लग गई। उन्हें ख़्वाब में नबी करीम ﷺ की ज़ियारत हुई। उन्होंने देखा कि हज़रत ﷺ, ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन और कुछ अन्य सहाबा तलवारों और तीरों से लैस समंदर पर चलते हुए तशरीफ़ ला रहे हैं।

जब आप ﷺ तारिक बिन ज़ियाद के पास से गुज़रे तो आप ﷺ ने फरमाया, “तारिक, बढ़ते चले जाओ।” इसके बाद तारिक ने देखा कि आप ﷺ और आपके मुक़द्दस रफ़क़ा उनसे आगे बढ़कर अंडलुस में दाखिल हो गए। तारिक की आँख खुली तो वह बेहद खुश थे। उन्हें फतह-ए-अंडलुस की ख़ुशखबरी मिल चुकी थी। उन्होंने अपने साथियों को यह बशारत सुनाई और इस ख़बर ने मुजाहिदीन के हौसलों को नई बुलंदी तक पहुँचा दिया। इसके अलावा, एक और वाकया भी तारीख-ए-अंडलुस में दर्ज है।

तारिक अपनी फौज के साथ अंडलुस की सरहद में दाखिल हुए और दरिया के किनारे बसे शहरों को फतह करते हुए आगे बढ़े। रास्ते में एक बुजुर्ग औरत ने उनसे कहा कि इस मुल्क का तो ही फातिह मालूम होता है। मेरा शौहर बहुत बड़ा काहिन (ज्योतिषी) था। वह मुझसे कहा करता था कि गैर क़ौम अंडलुस पर क़ाबिज़ होगी। उसके सरदार की पेशानी ऊंची होगी और उसके बाएं कंधे पर तिल होगा, और उस तिल के चारों ओर बाल होंगे। मैं जहां तक गौर करती हूँ, तेरी ही पेशानी ऊंची पाती हूँ। अगर वह तिल तेरे बदन पर है, तो बेशक तू वही शख्स है जिसके बारे में मेरे शौहर ने पेशीनगोई की थी। तारिक ने अपने बाएं कंधे का तिल उस बुजुर्ग औरत को दिखाया।

एक मशहूर रिवायत है कि जब जज़ीरा-नुमा अंडलुस के किनारे पर तारिक की फौज उतरी, तो उन्होंने अपनी कश्तियाँ जला दीं ताकि जीत या मौत के सिवा फौज के सामने कोई तीसरा रास्ता न रहे। हालांकि यह वाकया नई तारीखों में बहुत आम है, मगर फतह-ए-अंडलुस की कदीम और मुस्तनद तारीखें इस ज़िक्र से खाली हैं। अंडलुस के मशहूर इतिहासकार मुक़री ने अंडलुस की ज़ख़ीम तारीख “नफह-उल-तीब” लिखी है, जिसमें यह वाकया मौजूद नहीं है। इसके अलावा इब्न खलदून और तबरी वगैरह ने भी कश्तियाँ जलाने का तज़किरा नहीं किया।

इस वाकये को अल्लामा इक़बाल ने भी अपने जज़्बात का लिबास पहनाया है:

“तारिक जो बर किनारा-ए-अंडलुस सफीना सूख्त। गुफ़्तंद कार तू ब निगाह-ए-ख़िरद ख़तास्त।”

“द्वयम अज़ सवाद-ए-वतन, बाज़ चुं रस्म? तरक-ए-सबब ज़ रू-ए-शरीअत कुजा रवास्त?”***

बहरकैफ, तारिक बिन ज़ियाद और उसके ओलुल-अज़्म (संकल्पवान) सैनिकों की हिम्मत और बहादुरी की मिसालें भी कम मिलती हैं। चुनांचे, तारिक बिन ज़ियाद अपने लश्कर के साथ “जबल-उल-फतह” या “जबल-उत-तारिक” के साहिल पर खेमाजान हुआ और वहां से “अल-जज़ीरा अल-ख़ज़रा” तक की साहिली पट्टी को किसी खास मुजाहमत (प्रतिरोध) के बिना फतह कर लिया। लेकिन तभी रॉडरिक ने अपने मशहूर जनरल टेडमीर (Theodomir) को एक भारी फौज देकर तारिक बिन ज़ियाद के खिलाफ रवाना कर दिया।

मुसलमानों की फौज के साथ लगातार कई लड़ाइयाँ हुईं, और टेडमीर को उनमें हार का मुँह देखना पड़ा। यहां तक कि उसकी फौज ईमान से सरशार (उत्तेजित) इस्लामी सिपाहियों के सामने पूरी तरह बिखर गई। टेडमीर ने अपने शासक रॉडरिक को खबर दी कि जिस क़ौम से मेरा सामना हुआ है, वह या तो आसमान से उतरी है या जमीन से निकली है। अब इसका मुकाबला केवल इस तरह मुमकिन है कि आप खुद एक बड़ी फौज लेकर इनके खिलाफ उतरें।

रॉडरिक ने अपने सिपहसालार का पैग़ाम मिलते ही सत्रह हजार सिपाहियों की एक बड़ी फौज तैयार की और तारिक की तरफ कूच किया। उधर मूसा बिन नुसैर ने भी तारिक बिन ज़ियाद की मदद के लिए पांच हजार फौजियों की कुमक (सहायता) रवाना की। इसके पहुंचने के बाद तारिक बिन ज़ियाद की फौज कुल बारह हजार सिपाहियों पर मुश्तमिल (आधारित) हो गई। हैरतअंगेज बात यह है कि कहां सत्तर हजार की प्रशिक्षित फौज और कहां बारह हजार अरबी सिपाही। जो न केवल इस मुल्क के लिए अजनबी थे बल्कि अंडलुस के आधुनिक हथियारों के सामने भी कमजोर दिखते थे।

मगर इस्लामी फौज के खून में जो जज़्बात और इंकलाबात (क्रांति) थे, उनके सामने चाहे लोहे की दीवारें हों या संगीन पहाड़, सब बेमाने थे। उन्होंने जिस दीन (धर्म) का परचम थामा था, वह न केवल दुनिया से अंधेरे को मिटाने के लिए था बल्कि ऐसा रोशन निज़ाम-ए-हयात (जीवन-व्यवस्था) लाने का ज़िम्मेदार भी था जिसमें मादी (भौतिक) और रूहानी (आध्यात्मिक) दोनों की भलाई का राज़ छिपा है। चुनांचे, वादी लक्का के मक़ाम पर दोनों फौजें आमने-सामने हुईं। तारिक ने अपनी छोटी फौज को जो खुतबा (भाषण) दिया, वह आज भी अरबी अदब और तारीख में अहम मुक़ाम रखता है।

*इसके अल्फाज़ क्या हैं, दिलों की गर्मजोशी और जज़्बे की लहरें हैं। जिनसे इस्लामी फौज में ऐसा जोश उठा कि वे अपनी जानें राह-ए-खुदा में निछावर करने के लिए तैयार हो गए। उस तकरीर के एक-एक लफ्ज़ से तारिक के अज्म (संकल्प), हिम्मत और सर्फ़रोशी (बलिदान) के जज़्बात का अंदाज़ा किया जा सकता है।

खुतबे के कुछ जुमलों का उर्दू तर्जुमा इस तरह है:

“लोगों! तुम्हारे लिए भागने की जगह कहां है? तुम्हारे पीछे समंदर है और आगे दुश्मन। इसलिए ख़ुदा की कसम, तुम्हारे लिए इसके सिवा कोई रास्ता नहीं कि तुम ख़ुदा के साथ किए हुए अहद (प्रतिज्ञा) में सच्चे उतरें और सब्र से काम लो। याद रखो कि इस जज़ीरे में तुम उन यतीमों से भी ज्यादा बेसहारा हो जो किसी कंजूस के दस्तरख्वान पर बैठे हों। दुश्मन तुम्हारे मुकाबले के लिए अपनी पूरी ताकत और हथियार लाया है। उसके पास काफी खाद्य सामग्री भी है। और तुम्हारे पास सिर्फ तुम्हारी तलवारों के सिवा कोई सहारा नहीं। तुम्हारे पास कोई खाद्य सामग्री भी नहीं है, सिवाय इसके कि तुम अपने दुश्मन से छीनकर हासिल करो। अगर ज्यादा वक्त इस हालत में गुजर गया कि तुम फाकों में रहे और कोई बड़ी कामयाबी न हासिल कर सके, तो तुम्हारी ताकत खत्म हो जाएगी। और अभी तक जो तुम्हारा खौफ दुश्मन के दिलों पर छाया है, उसकी जगह दुश्मन में तुम्हारे खिलाफ जुर्रत (साहस) पैदा हो जाएगी। इसलिए इस बुरे अंजाम को दूर करने का केवल एक रास्ता है, और वह यह है कि तुम पूरी स्थिरता के साथ इस सरकश बादशाह का मुकाबला करो। अगर तुम अपने आपको मौत के लिए तैयार कर लो, तो इस बेहतरीन मौके का फायदा उठाना मुमकिन है। और मैंने तुम्हें किसी ऐसे अंजाम से नहीं डराया जिससे मैं खुद बचा हूँ। न ही मैंने तुम्हें किसी ऐसे काम के लिए उकसाया है जिसमें सबसे सस्ती पूंजी इंसान की जान होती है। और जिसका आगाज़ मैंने खुद अपने आप से नहीं किया। याद रखो! अगर आज की मुश्किल पर तुमने सब्र कर लिया, तो एक लंबे वक्त तक आराम और सुख का आनंद ले सकोगे। अल्लाह तआला की नुसरत (सहायता) और हिमायत (रक्षा) तुम्हारे साथ है तुम्हारा यह अमल (कर्म) दुनिया और आख़िरत (परलोक) दोनों में तुम्हारी यादगार बनेगा। और याद रखो, जिस बात की दावत (आह्वान) मैं तुम्हें दे रहा हूं, उस पर सबसे पहले लब्बैक (स्वीकार) कहने वाला मैं खुद हूं। जब दोनों लश्कर टकराएंगे, तो मेरा इरादा यह है कि मेरा हमला इस कौम के सबसे सरकश (अहंकारी) व्यक्ति रॉडरिक पर होगा। और इंशाअल्लाह मैं अपने हाथों से उसे क़त्ल करूंगा। तुम मेरे साथ हमला करना। अगर मैं रॉडरिक की हलाकत (हत्या) के बाद मारा गया, तो रॉडरिक के क़त्ल के फर्ज़ (कर्तव्य) से मैं तुम्हें मुक्त कर चुका होऊंगा। और तुम्हारे बीच ऐसे बहादुर और बुद्धिमान लोग मौजूद हैं जिन्हें तुम अपनी सरपरस्ती (नेतृत्व) सौंप सकते हो। और अगर मैं रॉडरिक तक पहुंचने से पहले ही मारा गया, तो मेरे इस इरादे को पूरा करना तुम्हारा फर्ज़ होगा। तुम सब मिलकर उस पर हमला जारी रखना और पूरे जज़ीरे (द्वीप) की फतह का ग़म खाने के बजाय, इस एक व्यक्ति के क़त्ल की जिम्मेदारी स्वीकार कर लेना तुम्हारे लिए काफ़ी होगा। क्योंकि दुश्मन इसके बाद हिम्मत हार बैठेगा।

तारिक बिन ज़ियाद के सर्फ़रोश (बलिदानी) साथी पहले ही जोश-ए-जंग (युद्ध का उत्साह) और शौक-ए-शहादत (बलिदान की इच्छा) से मदहोश थे। तारिक के इस खिताब (भाषण) ने उनके दिलो-दिमाग में नया जोश और उमंग जगा दी। नतीजतन, उनके जज़्बात (भावनाओं) में ऐसा तूफान उठा कि “बहर-ए-ज़ुलमात” (अंधकार का सागर) की गहराई और “जबल-उत-तारिक” (तारिक का पहाड़) की बुलंदी (ऊंचाई) भी उनके लिए बे-मानी (अर्थहीन) लगने लगी। इस्लामी लश्कर अपने जिस्म-ओ-जान को भुलाकर, मर्दाना वार (वीरता से) लश्कर-ए-अज़ीम (बड़ी सेना) से जंग लड़ने लगा।

यह मआर्का (युद्ध) लगातार आठ दिन जारी रहा। वादी लक्का की जमीन शहीद-ए-इस्लाम (इस्लाम के शहीदों) के खून से सुर्ख (लाल) हो गई। मुझाहिदीन-ए-मिल्लत (इस्लामी योद्धाओं) के इस निसार (बलिदान) से मुस्तकबिल (भविष्य) की एक नई तारीख़ (इतिहास) लिखी जाने वाली थी। बिलाखिर, पैगंबर-ए-इस्लाम ﷺ की पेशनगोई (भविष्यवाणी) हकीकत में बदल गई। चुनांचे, फतह-ओ-नुसरत (जीत और विजय) ने इन दिलेर और बहादुर मुसलमानों के कदम चूमे। रॉडरिक का लश्कर बुरी तरह पसपा (पराजित) हुआ और रॉडरिक भी उसी जंग में मारा गया।

कुछ रिवायतों (कथाओं) से पता चलता है कि उसे खुद तारिक बिन ज़ियाद ने क़त्ल किया। और कुछ में है कि उसका खाली घोड़ा दरिया के किनारे पाया गया, जिससे कयास (अनुमान) होता है कि वह दरिया में डूबकर हलाक हुआ। फतह-ए-लक्का (लक्का की विजय) के बाद मुसलमान अंडलुस के दूसरे शहरों पर भी अपना कब्ज़ा जमाते चले गए। इन फतहों (विजयों) ने वाज़ेह (स्पष्ट) कर दिया कि यूरोप के वसी (विस्तृत) समंदर और बहरी बेड़े (समुद्री नौसेना) मुसलमानों के बुलंद हौसलों और जज़्बात को नहीं रोक सकते।

अंडलुस की फतह, हालांकि, यूरोप में दाखिल होने का संग-ए-मील (मील का पत्थर) था। चुनांचे, मुसलमानों की पेशकदमी (प्रगति) जारी रही। यहां तक कि वे फ्रांस में दाखिल हुए और कोह-ए-नीरीनीज़ (पाइरेनीज़ पर्वत) के दामन तक अपने परचम (ध्वज) लहराने में कामयाब रहे।

तारिक बिन ज़ियाद के नसब (वंश) की तरह उनकी ज़िंदगी का इख़्तिताम (अंत) भी पुरअसरारियत (रहस्य) के परदों में दबा हुआ है। मशहूर यह है कि तारिक मूसा बिन नसीर के साथ दमिश्क लौट आए थे, जिसका सबब (कारण) दोनों के दरमियान इख़्तिलाफ़ (विवाद) था। आख़िरकार, ख़लीफ़ा अल-वलीद बिन अब्दुल मलिक ने दोनों को मुअज़्ज़ल (पदच्युत) कर दिया। कहा जाता है कि ज़िंदगी के आख़िरी अय्याम (दिन) तारिक ने कसमपरसी (ग़रीबी) में गुज़ारे, बल्कि यहां तक कि उन्हें मस्जिदों के बाहर सवाल (भिक्षा) करते हुए देखा गया।

अगर यह बात सही है, तो इसे उमवी सल्तनत के इस अज़ीम (महान) सिपहसालार के साथ बहुत बड़ी नाइंसाफ़ी कहा जाएगा। अंदलुस के अक्सर बड़े शहरों, आर्कादिना, क़ुर्तुबा, मलाग़ा, इलोधेरा, और तलैतिला की फतह (विजय) के बाद करीब दो दर्जन हाकिमों (शासकों) के ज़ेरे असर (अधीन) अंदलुस ने बेनज़ीर (बेमिसाल) तरक्की की। इन हुक्मरानों (शासकों) में चंद मशहूर नाम ये हैं: तारिक बिन ज़ियाद शव्वाल 92 हिजरी से जमादी अल-उला 93 हिजरी, मूसा बिन नसीर 93 हिजरी से 95 हिजरी, अब्दुलअज़ीज़ बिन मूसा 95 हिजरी से 97 हिजरी, अय्यूब बिन हबीब अल-लहमी 97 हिजरी से 98 हिजरी, अब्दुलरहमान अल-नक़ी 98 हिजरी से 100 हिजरी।

मुस्लिम दौर-ए-इक्तिदार (शासनकाल) के साथ, जहां एक तरफ़ ईसाई अपनी रेशा-दवानियों (साज़िशों) में मसरूफ़ (व्यस्त) रहे, वहीं मुस्लिम अरबाब-ए-हुकूमत (शासक वर्ग) भी इक्तिदार (सत्ता) की ख़ातिर आपसी रस्साकशी (संघर्ष) का शिकार हो गए। ख़लीफ़ा मंसूर (393 हिजरी) के इंतिक़ाल (मृत्यु) के बाद अंदलुस में एक इंतिशार (अराजकता) का दौर शुरू हो गया। बरबरी उमरा (सरदारों), ग़ुलामों, और ख़्वाजा सराओं (नौकरों) ने सर उठाना शुरू कर दिया। सुल्तान हिशाम को महल से बाहर लाना चाहा, मगर वह राज़ी न हुआ। हिशाम आराम-तलब (आलसी) और काहिल (सुस्त) बन गया था। मंसूर के बेटे को हाजिब (वज़ीर) मुक़र्रर (नियुक्त) किया, जिसने साबित-क़दमी (स्थिरता) से सल्तनत को संभाले रखा। इसके बाद 399 हिजरी में मोहम्मद सानी मेहदी को तख़्तनशीन (सिंहासन पर बैठाया) किया गया।

ग़रज़ (इस प्रकार), अहल-ए-क़ुर्तुबा (क़ुर्तुबा के लोगों) की इस सरकशी (विद्रोह) और बदहाली का असर ये हुआ कि ग्यारहवीं सदी ईसवी के निस्फ़-ए-अव्वल (प्रथम अर्धांश) तक क़रीब तीस खुदसर (स्वतंत्र) ख़ानदान उतने ही शहरों या अजला (ज़िलों) में साहिब-ए-इक्तिदार (सत्ता के मालिक) बन गए। जिनमें अशबीलिया में अबादियान, मलाग़ा व अल-जसरा में जमूद का ख़ानदान, ग़रनाटा में ज़ुहैर का, सरकस्ता में बनी हूद का, तलैतिला में ज़ुल-नून का, और बलन्सिया, मर्सिया, व अल-मरबिया के हुक्मरां (शासक) औरों से ज़्यादा सरबरआवर्दा (उन्नत) थे।

इस तवाइफ़-उल-मुल्की (अलग-अलग शासन) का असर सरहदी ईसाइयों पर भी पड़ा, और वे भी खुदसर हो गए। नसारा अल्फांसो शशम (छठा) ने इस बिखराव का फ़ायदा उठाया। उसने अल-जोरिया, लिओन और क़श्तालिया की सल्तनतों को बाहम (एकत्रित) मिलाकर अपने तहत (अधीन) कर लिया और अपने इक्तिदार को आगे बढ़ाने लगा। तब अशबीलिया के बादशाह “मुअतमद” ने शुमाली अफ्रीका (उत्तरी अफ्रीका) के बड़े-बड़े हाकिमों को मदद के लिए तलब (आमंत्रित) किया। यह मर्दाना बादशाह यूसुफ़ बिन ताशक़ीन था।** **उसने पहले अल-जसरा पर कब्ज़ा किया, फिर ज़लाफ़ा पहुंचा, और 479 हिजरी में अल्फांसो हुकूमत का ख़ात्मा (समाप्ति) कर दिया।

यूसुफ़ बिन ताशक़ीन, बानी-ए-ख़ानदान-ए-मुराबिता (मुराबित वंश का संस्थापक), हुक्मरान-ए-मराकश (मोरक्को का शासक), 449 हिजरी में हसब-ए-वादा (वचनानुसार) मराकश लौट गया और कुछ फ़ौज यहां हिफ़ाज़त के लिए छोड़ गया। 501 हिजरी में यूसुफ़ का इंतिक़ाल (मृत्यु) हुआ। इसके बाद उसका बेटा अली जानशीन (उत्तराधिकारी) हुआ। ग़रज़ (इस प्रकार), यह सिलसिला (क्रम) किसी न किसी सूरत (रूप) में चलता रहा। जब अंदलुस के बड़े-बड़े सूबे और शहर ईसाइयों के तसलुत (अधिकार) का शिकार हो गए और सिर्फ ग़रनाटा (ग्रेनेडा) मुसलमानों के पास बाक़ी रह गया, तो उस वक़्त भी मलक़ा ग़रनाटा हुकूमत के मातहत था

मगर आख़िरी दौर में जब सुल्तान अबुल-हसन ग़रनाटा का तख़्तनशीन हुआ, तो उसने अपने इख़्तियार (नियंत्रण) में आई हुई मलक़ा की हुकूमत अपने भाई अल-ज़ग़ल के हवाले कर दी। और इसे एक खुदमुख़्तार (स्वतंत्र) रियासत क़रार दे दिया। दोनों भाइयों ने मिलकर ईसाइयों के सैलाब को रोके रखा और उनके ख़िलाफ़ कई बार कामयाबी भी हासिल की। मुमकिन था कि फिर से पूरा अंदलुस ईसाई हुकूमत से आज़ाद हो जाता, मगर इसी दौरान अबुल-हसन के बेटे अबू अब्दुल्लाह ने महलाती साज़िशों (दरबारी षड्यंत्रों) के ज़रिए अपने बाप के ख़िलाफ़ बग़ावत (विद्रोह) करके उसे बेदख़ल (हटा) दिया। और ग़रनाटा पर कब्ज़ा कर लिया।

अबुल-हसन ने जान की अमान के लिए अपने भाई अल-ज़ग़ल के पास पनाह ले ली। इस वाक़िये (घटना) से ग़रनाटा और मलक़ा के दरमियान आपसी ताल्लुक़ात (संबंध) का ख़ात्मा (अंत) हो गया, जिसका फ़ायदा ईसाइयों ने उठाया। अबुल-हसन और अल-ज़ग़ल, दोनों भाई 888 हिजरी से 891 हिजरी तक ईसाइयों से लड़ते रहे। आख़िरकार, 891 हिजरी में दोनों भाई नसारा (ईसाइयों) से जंग करते हुए शहीद हो गए। यह शहादतें (बलिदान) गो कि अंदलुस में मुस्लिम हुकूमत और शौकत (वैभव) का ख़ात्मा थीं।

क़श्तालिया के ईसाई हाकिम फ़र्डिनेंड और मलिका इसाबेला ने इस शहर पर कब्ज़ा कर लिया। मलक़ा पर तसलुत (कब्ज़ा) के बाद ग़रनाटा में अबू अब्दुल्लाह की सरकार भी सात साल से ज़्यादा न टिक सकी। और 898 हिजरी में अबू अब्दुल्लाह ने ग़रनाटा भी फ़र्डिनेंड और इसाबेला के हवाले कर दिया। अंदलुस में मुसलमान 92 हिजरी (711 ई.) में जिस शान-ओ-तज़क (वैभव) से दाख़िल हुए थे, उसी लाचारी और बेबसी से उन्हें यहां से निकाला गया।

इस आठ सौ साल के दौर-ए-हुकूमत (शासनकाल) के ख़ात्मे (अंत) की कई वजूहात (कारण) हैं, जिनमें निफ़ाक़ (आपसी फूट) सबसे अहम (मुख्य) है। इसीलिए क़ुरान और हदीस ने मुसलमानों के इत्तेहाद (एकता) पर सबसे ज़्यादा ज़ोर दिया।

दूसरी वजह यह थी कि उनमें ऐशपरस्ती (भोग-विलास) और बेअमली (निष्क्रियता) भी आ गई थी, जिसने उनके दिलों पर बे-हिसी (संवेदनहीनता) की मोहर लगा दी। मुसलमानों के इन आठ सौ साल के दौर-ए-इक्तिदार (सत्ता काल) में उन्होंने इस सरज़मीन (भूमि) पर इल्म-ओ-दानिश (ज्ञान और शिक्षा) और तहज़ीब-ओ-तमद्दुन (संस्कृति और सभ्यता) के वह चराग़ (दीप) रोशन किए कि जिसकी रोशनी से अब तक यूरोप मुस्तफ़ीद (लाभान्वित) हो रहा है।

*और पूरी दुनिया में इस ख़ित्ते (क्षेत्र) को सबसे ज़्यादा तरक़्क़ीया (विकसित) दी थी। स्पेन के अलमनाक (दुखद) और इबरतनाक (शिक्षाप्रद) मुख़्तसर (संक्षिप्त) हालात के बाद, हम यहां की इल्मी, अदबी (साहित्यिक), साइंसी (वैज्ञानिक), तहज़ीबी (सांस्कृतिक), और तस्नीफ़ी (लेखकीय) ख़िदमत (सेवाओं) पर एक इजमाली (सारांश) नज़र डालेंगे।

अंदलुस की मुस्लिम हुकूमत सिर्फ तलवार और जंग के मैदान तक सीमित नहीं थी, बल्कि उन्होंने इस सरज़मीन को इल्म, तहज़ीब, और तरक़्क़ी का मरकज़ (केन्द्र) बना दिया। यहां मसाजिद (मस्जिदें), मदरसे (विद्यालय), और कुतुबख़ाने (पुस्तकालय) बनाए गए, जिनसे न सिर्फ अंदलुस बल्कि यूरोप और दुनिया भर के लोग इल्म हासिल करने के लिए खिंचे चले आते थे। मुस्लिम हुकूमत के दौर में अंदलुस में कई इल्मी और अदबी मराकिज़ (केंद्र) क़ायम हुए। मिसाल के तौर पर क़ुर्तुबा (कोर्डोबा) उस दौर में दुनिया का सबसे बड़ा इल्मी मरकज़ था, जहां सैकड़ों मदरसे, हज़ारों कुतुबख़ाने और बेहतरीन उलमा (विद्वान) मौजूद थे।

क़ुर्तुबा का कुतुबख़ाना इतना बड़ा था कि उसमें लाखों किताबें थीं, और यहां की लाइब्रेरीज़ में दुनिया के तमाम इलाकों से किताबें जमा की जाती थीं। मुसलमानों ने साइंस, मेडिसिन, फिलॉसफी, और मैथमैटिक्स में ऐसे कारनामे अंजाम दिए जिनसे यूरोप की रिनेसां (पुनर्जागरण) मुमकिन हुई। मिसाल के तौर पर मशहूर साइंटिस्ट अल-ज़रावी (अल्बुकासिस), जिन्होंने सर्जरी में नई खोजें कीं; इब्न-रुश्द (एवरोस), जिनकी फिलॉसफी ने यूरोपीय सोच को बदल दिया; और अबू अल-क़ासिम, जिन्होंने मेडिकल के कई नए औज़ार ईजाद किए।

अंदलुस के मुसलमान सिर्फ इल्म-ओ-फन (ज्ञान और कला) ही नहीं, बल्कि तहज़ीब-ओ-तमद्दुन में भी दुनिया के लिए मिसाल थे। उनकी बनाई गई इमारतें, जैसे क़ुर्तुबा की मस्जिद, अल-हमरा महल, और ग़रनाटा के बाग़, आज भी इंसानी हुनर और जहानत (प्रतिभा) की गवाही देते हैं। मगर अफसोस, उनके इत्तेहाद (एकता) के ख़ात्मे और ऐशपरस्ती (भोग-विलास) ने उन्हें जंग के मैदान में कमजोर कर दिया। नतीजा यह हुआ कि अंदलुस, जो कभी दुनिया का सबसे तरक़्क़ीयाफ़्ता (विकसित) इलाक़ा था, मुसलमानों के हाथ से निकल गया।

आज अंदलुस की यह तारीख़ हमें यह सिखाती है कि इत्तेहाद, इल्म, और मेहनत ही एक क़ौम को बुलंदी तक पहुंचा सकते हैं। और ऐशपरस्ती और फूट किसी भी क़ौम को उसकी बुलंदी से गिरा सकती हैं।

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