मस्जिदे अक्सा का इतिहास
मस्जिद ए अक्सा फ़िलिस्तीन की दारुल हुकूमत बैतुल मुकद्दस में स्थित है। बैतुल मुकद्दस को अल-कुदस भी कहा जाता है, और अल-कुदस को पश्चिमी शब्दों में यरुशलम कहा जाता है। इबरानी में अल-कुदस को यरुशलम कहा जाता है। इसका एक नाम इलिया भी है। इस्लाम से पहले इसे एक रोमी बादशाह ने इलिया रखा था।
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यह स्थान बहर-ए-रूम से 52 किलोमीटर, Red Sea से 250 किलोमीटर, और Dead Sea से 22 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। बहर ए रूम से इसकी ऊँचाई 750 मीटर है और मृत्यु सागर की सतह से इसकी ऊँचाई 1150 मीटर है। सबसे पहले यहाँ यबूसीन आकर आबाद हुए, एक किस्सा है कि इस शहर को “साम बिन नूह” ने आकर आबाद किया। सबसे पहले 1013 ईसा पूर्व में हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम ने इसे फ़तह किया।
Rock Of Dome
मस्जिद अल-अक्सा की ऐतिहासिक एहमियत
अहादीस के अनुसार, यह दुनिया की दूसरी मस्जिद है जिसकी नींव रखी गई थी। बुखारी और मुस्लिम में हज़रत अबूज़र से यह रिवायत है कि मस्जिद बैतुल–हराम की तामीर और मस्जिद अल-अक्सा की तामीर में चालीस साल का अरसा है। और एक रिवायत में है कि मस्जिद बैतुल–हराम को हज़रत आदम की पैदाइश से दो हज़ार साल पहले फ़रिश्तों ने तामीर किया था। इन रिवायतों से यह बात साबित हुई कि हज़रत इब्राहीम और हज़रत सुलेमान मस्जिद अल-अक्सा के मुज़द्दिद हैं, न कि मुअस्सिस। और मस्जिद अल-अक्सा का ज़िक्र क़ुरआन क़रीम की इस आयत में है, जिसमें मेराज़-ए-नबवी का तज़करा है।
मस्जिद अल-अक्सा की तामीर के मुतालिक मुख्तलिफ रिवायतें हैं। पहला है कि सबसे पहले फ़रिश्ते ने इसे तामीर किया। दूसरा है कि हज़रत आदम अलैहिस्सलाम ने सबसे पहले इसे तामीर किया। तीसरा है कि हज़रत साम बिन नूह ने सबसे पहले इसे तामीर किया। और चौथा है कि हज़रत दाऊद और सुलेमान अलैहिस्सलाम ने सबसे पहले इसे तामीर किया।
ऐसा मुमकिन है कि ये रिवायात मुख्तलिफ वक्तों में तामीर होने की तरफ़ इशारा कर रही हों मसलन- फिरिश्तों की तामीर का ज़िक्र मस्जिद अल अक्सा की पहली तामीर को ज़ाहिर कर रहीं हों, हज़रत आदम अलैहिस्सलाम की तामीर दोबारा नई तामीर का इशारा हो, और हज़रत नूह की तामीर भी नई तामीर को और हज़रत दाऊद व सुलैमान अलैहिमस्सलाम की तामीर नए दौर की नई तरह से तामीर यानी पत्थर से नए सिरे से तामीर की तरफ़ इशारा हो।
अंबिया ए बनी इसराइल मस्जिद अल-अक्सा में नमाज और दूसरी इबादत करते थे, ताहम अहादीस से मालूम होता है कि अंबिया ए बनी इसराइल हज के लिए बैत उल्लाह यानी मक्का मुकर्रमा तशरीफ़ लाते रहे। गोया ये दो मरकज रूए ज़मीं पर अल्लाह जलजलालुहु के घर रहे हैं और मरज़आ-उल-खलाइक रहे हैं। जब रसूल अल्लाह ﷺ को अल्लाह ने नूबुव्वत से सरफ़राज़ फरमाया तो एक रात उन्हें अपने अजाइबात की सैर करवाने के लिए उन्हें मस्जिद अल-हराम से मस्जिद अल-अक्सा ले गया, जहां से वह आलम ए बाला यानी आलम ए ग़यब की सैर के लिए तशरीफ़ ले गए।
मैराज का वाक़िया इस्लाम का एक बेहद रूहानी वाक़िया है जिस पर इंसानियत को फ़ख़्र और तशक्कुर है। मैराज के दौरान मुसलमानों पर पाँच वक़्त की नमाज़ें फ़र्ज़ हुईं। मशीयत ख़ुदावंदी से उम्मत-ए-मुहम्मदिया का किबला ये अव्वल बैत उल मकद्दस यानी मस्जिद अल अक्सा मुक़र्र किया गया। अक्सर माना जाता है कि मैराज का वाक़िया हिज्रत ए मदीना से एक साल पहले हुआ। इस दौरान दुनिया में अल्लाह के दो ही घर मौजूद थे
(1) मस्जिद अल हराम
(2) मस्जिद अल अक्सा।
तीसरा मकाम कोई नहीं था। मदीना मुनव्वरा में इस दौर में मस्जिद नबवी बनी ही नहीं थी। कुरान करीम जब पुरानी उम्मतों का तज़क़रा करता है तो दो ही मस्जिदों का ज़िक्र करता है यानी मस्जिद अल हराम और मस्जिद अक्सा।
चूंकि क़ौम ए यहूद बनी इस्राईल की बाक़ीयात थी और ख़ुद को इस दौर में भी अल्लाह की मुंतखिब की हुई कौम समझती थी और क़ौम यहूद ख़ुद को अमबिया ए किराम अलैहिमुस्सलाम की वारिस समझती थी, लेहज़ा अल्लाह ने इसे आख़री मौक़ा दिया ताक़े वह कौमकी हैसियत से कुफ़्र और बग़ावत को छोड़कर अल्लाह की फरमाबरदार बन जाए।
लेकिन क़ौम यहूद ने जब बनी इस्राईल की बजाए बनी इस्माईल में से पैग़म्बर ए आख़िरुज़मान हज़रत मुहम्मद ﷺ को मब’ऊस पाया तो एक बार फिर अपनी कीना परवरी, क़ौमी ताअस्सुब और जाहिलाना घमंड के सबब अल्लाह के कलाम और अह्क़ाम का इनकार किया और रसूल अल्लाह ﷺ को आख़िरी नबी मानने से इनकार कर दिया। इस तरह क़ौम यहूद ने आख़री मौक़ा भी खो दिया और कौम की हैसियत खो दी और दायरा ए इस्लाम-इस्लाम से बाहर हो गई।
मदीना मुनव्वरा में रसूल अल्लाह ﷺ अपने सहाबा किराम रदियअल्लाहु अन्हु के साथ लगातार एक दो साल, यानी सत्रह अठारह महीनों तक उत्तर की दिशा में बैत-उल-मकद्दस की तरफ मुंह करके नमाजें पढ़ते रहे। लेकिन ख़ुद रसूल अल्लाह ﷺ की यह ख़्वाहिश थी कि अल्लाह मेहरबानी करके एक बार फिर मस्जिद-उल-हराम को मुसलमानों का किब्ला मुकर्रर फरमाए। एक दिन जब वे मदीना की एक मस्जिद में नमाज पढ़ रहे थे, तो हज़रत जिब्राईल आमीन वही लेकर नाज़िल हुए तो बैत-उल-मकद्दस की बजाय बैत-उल्लाह, यानी मस्जिद-उल-हराम को हमेशा के लिए मुसलमानों का किब्ला मुकर्रर कर दिया।
जिस मस्जिद में तहवील-ए-क़िब्ला का वाक़िआ हुआ, उस मस्जिद को “मस्जिद अल-क़िब्लतैन” का नाम दिया गया, जहाँ एक नमाज में दो क़िब्लों की ओर मुड़ा गया। तहवील-ए-क़िब्ला का मक़सद साफ़ था कि अब बनी इस्राइल की बहैसियत ए कौम फजीलत ख़त्म कर दी गई। मूसा की शरीयत, तौरात और बैत-उल-मकद्दस, या मस्जिद अल-अक्सा की क़िब्ला को मन्सूख़ कर दिया गया।
अब क़यामत तक वाज़िब-उल-इताअत और वाज़िब-उल-इतबार पैग़म्बर आख़िरी ज़मान होंगे। अब शरीयत मुहम्मदीया ﷺ आख़री शरीयत होगी और क़यामत तक नाफ़िज़ होगी, अब तौरात के अहक़ामात पर अमल मौकूफ़ करके तौरात की बजाय क़ुरआन उज़ीम उल्शान को सर-ए-चश्मा-ए-रूश्द व हुदायत क़रार दिया गया। अब क़यामत तक के लिए सभी इन्सानों का मरकज़ और क़िब्ला मक्का मुकरमा में वाक़िअ बैत-उलल्लाह, मस्जिद अल-हराम होगा।
क्योंकि बनी इस्राइल की कौम, यानी यहूदियों ने आख़री बार फिर अल्लाह से बग़ावत कर दी। इसलिए यहूदी लोगोंको सभी फ़ज़ीलतों, नेमतों और इज़्ज़ततों से महरूम और माजूल कर दिया गया क्योंकि अल्लाह का अटल कानून है कि उसकी नेमतें और रहमतें बाग़ी और काफ़िरों के लिए नहीं होतीं। क्योंकि अल्लाह और उसके आख़िरी रसूल ﷺ पर उम्मत मुहम्मदीया ﷺ ने ईमान ला कर ख़ुद को अब अल्लाह की फ़ज़ीलतें, नेमतें, रहमतें और इज़्ज़तें के काबिल बना दिया, इसलिए अब क़यामत तक उम्मत मुहम्मदीया ﷺ ही मुसलमान लोगों की हैसियत से अल्लाह की मुंतखिब चुनी हुई कौम हो गई।
मुख्तसर: मुहम्मद ﷺ आखिरी नबी और रसूल हैं, क़ुरआन करीम आखिरी किताब है, शरीअत मुहम्मदीयाﷺ आखिरी शरीअत है, बैत उल्लाह दाईमी और अबादी क़िबला है, और उम्मत मुहम्मदीयाﷺ आखिरी और मुअज़िज़ उम्मत है। क्यूंकि क़ौम यहूद ने आखिरी बार भी हिदायत को मुस्तरद कर दिया, इसलिए उन पर क़यामत तक के लिए ज़लालत और मिस्क़िनियत मुसल्लत कर दी गई। उम्मत मुहम्मदीयाﷺ को गुज़िश्ता अमबिया ए किराम अलैहिस्सलाम के वारिसीन करार देकर तमाम दीनी विरासत को हक़दार और निगारान और मुतवल्ली कर दिया गया है। उम्मत मुहम्मदीया ﷺ के गुज़िश्ता तमाम अंबिया किराम अलैहिम सलाम और उन पर नाज़िल की गई किताबों पर ईमान लाना फ़र्ज़ कर दिया गया है।
मस्जिद अल-अक्सा पर आने वाली घटनाऐं
मस्जिद अल-अक्सा की तामीर के बाद इस पर तरह तरह प्रकार के घटनाएँ आईं, जिसके कारण इसकी पुनर्निर्माण और स्थापना की जरूरत पड़ती रही, लेकिन इतिहास की किताबों में 6 वाकियात का जिक्र है, जिनमें बाहर से अल-कुदस पर हमला हुआ, मस्जिद को दो बार नुक़सान पहुँचाया। इन दो घटनाओं का जिक्र कुरान पाक की सूरह अस्रा के शुरुआत में है।
पहला वाक़िया जिसमें मस्जिद की तामीर को नुक़सान पहुंचा، वह हज़रत सुलैमान अलैहिस्सलाम की वफ़ात के 415 साल बाद 588 ईसवी में पेश आया, जब बाबिल के बादशाह बख़्त नसर ने इस पर हमला किया और पूरे शहर को आग लगा दी, जिसमें मस्जिद की इमारत मुनहदिम हो गई, फिर शाह फारस जनाब खुरश (सैरस ए आज़म) अलमारूफ़ ज़ुलक़र्नैन के तावून से दोबारा इसकी तामीर हुई।
दूसरा वाक़िया 63 ईसवी में हुआ, जिसमें दोबारा रोमी काबिज हो गए। फिर हज़रत ईसा علیہ السلام के रफ़ाअ ए जिस्मानी के चालीस साल बाद 70ء में तीतुस (टाईटस) नामी रोमी शहज़ादे और सिपह सालार ने इस शहर को बिल्कुल तबाह कर दिया, इसमें भी मस्जिद को नुक़सान पहुंचा। दोनों मर्तबा मस्जिद अल अक्सा की तबाही बनी इस्राइल के लिए अल्लाह का आज़ाब था। मस्जिद अक्सा 70 ईसावी से हज़रत उमर के ज़माने तक वीरान रही। (तफसीर हक़ानी)
मस्जिद ए अक्सा का इस्लामी दौर
हज़रत उमर के खिलाफ़त के दौर में हज़रत अबू उबैदाह बिन अल-जराह ने 16ھ में बैतुल-मकद्दस का मुहासिरा किया और उनके सामने अपना संदेश रखा, न मानने की सूरत में क़त्ल और सुलह की सूरत में ज़िज़िया और ख़राज का हुक़्म सुनाया, तो वह एक शर्त पर सुलह के लिए तैयार हो गए कि ख़लीफ़ा वक़्त सुलह के लिए ख़ुद तशरीफ़ लाएँ।
हज़रत अबू उबैदाह ने हज़रत उमर को खत लिख कर सारी सूरतहाल से आगाह किया तो हज़रत उमर, हज़रत अली के मशवरे से बैतुल-मकद्दस जाने पर राज़ी हो गए, यूँ हज़रत उमर के दौर खिलाफ़त में मस्जिद अल-अक्सा इस्लाम के साए में आ गई। हज़रत उमर ने मस्जिद को साफ़ करवाया और वहाँ पर मस्जिद तामीर करवाली, जिस को मस्जिद उमर कहते हैं।
फतह के काफी समय बाद उमवी ख़लीफ़ा अब्दुल मलिक बिन मरवान ने 65ھ में इसका निर्माण और मरम्मत का आरंभ किया और वलीद बिन अब्दुल मलिक ने मिस्र के सात साल का ख़राज इसके निर्माण के लिए वक़्फ़ कर दिया था। बाद में आने वाले ज़लज़लों में इसकी इमारत को नुक़सान पहुंचा तो 169ھ में महदी के दौर बादशाही में फिर से इसका निर्माण किया गया।
407ھ के ज़लज़लों में क़ुब्बा की दीवारें मुनहदम हो गईं तो 413ھ में ज़ाहिर फ़ातमी ने इसका फिर से निर्माण किया और अफ़रंगी बादशाहों ने मुसलमान बादशाहों की कमज़ोरियों से फ़ायदा उठाते हुए 492ھ में बैतुल-मकद्दस पर हमला किया और हज़रत उमर के खिलाफ़ इस बादशाह ने सत्तर हज़ार मुसलमानों का क़त्ल आम किया और मस्जिद की बेहरमती की और मस्जिद में घोड़ों के लिए असतवल बनाया, जिस को “असतवल ए सुलैमान” कहा जाता था और माल-माताअ लूट ली थी।
91 साल तक मस्जिद अल-अक्सा उनके क़ब्ज़े में रही। फिर सुल्तान नूर उल्दीन जंगी के फ़तुहात के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए उनके वारिस सुल्तान अल-नासिर सलाह उल्दीन यूसुफ बिन अय्यूब ने 553ھ में फिर से क़ब्ज़ा कर लिया और मस्जिद की सफाई करवा कर इसकी मरम्मत की।
इसके बाद मुस्लिम बादशाह इसकी मरम्मत और सजावट में हिस्सा लेते रहे: 655ھ में मलिक मुअज़्ज़म ने, 668ھ में ज़ाहिर बीबरस ने, 786ھ में मंसूर कलादून ने, 769ھ में मलिक अशरफ ने, 789ھ में ज़ाहिर बर्थूक और ज़ाहिर ज़गमाक अल-अलानी ने, 877ھ में अल-आशरफ अबु अल-नसर ने तजदीद की।
खिलाफत उस्मानिया के खलीफा भी हिस्सा लेते रहे, खासतौर पर सुलेमान अल-कानूनी ने 949 हिजरी में ताज्दीद की। इसके बाद उसमानी खलीफा ने इसकी तरफ़ ख़ास तौर पर ध्यान नहीं दिया, बहरहाल फिर भी 1232، 1256، 1291 और इसके बाद भी तज़्जीन और आराईश का काम जारी रहा और मौजूदा इमारत तुर्क सल्तनत के दौर में सुल्तान अब्दुल्हमीद (1853 ई.) और सुल्तान अब्दुल अज़ीज (1874 ई.) के दौर-ए-हुकूमत की तामीर की गई
मस्जिद ए अक्सा किसे कहते हैं
मस्जिद अल-अक्सा का उस सम्पूर्ण परिसर को कहते हैं , जिसे हज़रत सुलेमान अलैहिस्सलाम ने बनाया था और इस पर मस्जिद अल-अक्सा का इतलाक़ किया गया है। इस दृष्टि से और हर जगह गज और मीटर के अंतर के कारण मस्जिद अल-अक्सा के लंबाई और चौड़ाई में इतिहासकारों के विभिन्न कथन हैं। “अहसनुत तकासीम” और “मुख्तसर किताब अल-बिलदान” में यह है कि मस्जिद की लंबाई एक हज़ार गज और चौड़ाई 700 गज है।
मुअजिमुल विलदान” में है कि इसकी लंबाई इसकी चौड़ाई से अधिक है। नासिर खुसरो ने अपने सफरनामे में जो 428ھ में हुआ, उसमें लिखा है कि मस्जिद बैतूल मुकद्दस की लंबाई 754 गज़ और चौड़ाई 455 गज है, यह खुर्रासान वगैरह के गज के हिसाब से है। इब्न जुबैर ने अपने सफरनामे में जो 578ھ- 581ھ में हुआ, उसमें लिखा है कि मस्जिद अल अक़्सा की 780 गज लंबाई और 450 गज चौड़ाई है और हुदूद हरम के अंदरूनी हॉल की लंबाई 400 गज और चौड़ाई 700 गजहै, निहायत उमदाह और खूबसूरत नक्श व नगार किया हुआ है।
सभी मुआररिखीन का इस बात पर इत्फ़ाक़ है कि मस्जिद अल अक़्सा रोज़ ए अव्वल से जिन हदूद पर कायम हुई, आज भी उन्हें हदूद पर कायम है। कभी चार दीवारी के अंदर पूरे अहाते को मस्जिद अल अक़्सा कहा जाता है और कभी सिर्फ़ इस ख़ास हिस्से को मस्जिद अल अक़्सा कहा जाता है।
मस्जिद अल-अक्सा की फज़ीलत
मस्जिद अल-अक्सा के फ़ज़ाइल हदीसों में आए हैं। एक रिवायत में है कि:”रसूल अल्लाह ﷺ ने फ़रमाया कि तीन मस्जिदों के अलावा (किसी दूसरी जगह के लिए) तुम अपने कुजावों को न बांधो (यानी सफर न करो): मस्जिद हराम, मस्जिद रसूल (यानी मस्जिद नबवी) और मस्जिद अल-अक्सा”। (बुखारी ज:1 स:108)
और एक रिवायत में है कि:”मस्जिद अल-अक्सा में एक नमाज बीस हज़ार नमाजों के बराबर (अजर और सवाब रखती) है।एक रिवायत में है कि:”जो शख्स बीतुल-मुकद्दस में नमाज पढ़े, अल्लाह त’आला उसके सभी गुनाह माफ़ फ़रमाएँगा”। (फ़ज़ाइल बीतुल-मकद्दस,)
मस्जिद अल-अक्सा की हदूद में और भी ऐसी चीज़ें मौजूद हैं, जो मुसलमानों के लिए बाइसे फख्र हैं, जिनमें से हदूद हरम में मोजूद कुबेह, मीनारे और मदरसे हैं, जिनको मुस्लिम बादशाह मुख्तलिफ़ दौर में तय्यार करवाते रहे, उनमें से चंद मशहूर क़ुब्बों के नाम यह हैं: क़ुब्बतुल-मीराज, क़ुब्बतुस-सिलसिला, क़ुब्बतुन-नहविया, क़ुब्बतुस-सख़रा। सब में से ज़ियादा मुक़द्दस क़ुब्बतुस-सख़रा है, जिसका क़द्रे तफ़सील से ज़िक्र किया जाता है।
क़ुब्बतुस-सख़रा
तामीर मशहूर ताबई “रजाअ बिन हैवाह” और “यजीद बिन सलाम” की निगरानी में मुकम्मल हुई, जब तामीर मुकम्मल हुई तो उन हज़रात ने ख़लीफ़ा वक़्त को लिखा कि एक लाख दीनार बच गए हैं, तो ख़लीफ़ा ने उन्हें उनकी ईमानदारी और दयानत का इनाम देना चाहा तो उन्होंने जवाब दिया कि हम इस इज़ाज़ में और नेमत के शुक्राने के तौर पर अपनी बीवियों के ज़ेवर इस पर लगादें, चै जाइके इस के बदले इनाम लें, तो ख़लीफ़ा ने हुक़्म दिया कि इस के सोने को पघला कर तिला कारी करदी जाए। यह उनके इख़लास का नतीजा था।
वह शाखरा जो कि एक चट्टान पर स्थित है, वह चट्टान एक प्राकृतिक पत्थर है, जिसकी लम्बाई 56 फुट और चौड़ाई 42 फुट है और आधे दायरे की अनियमित आकृति है। नासिर ख़ुसरो अपने सफ़रनामे में लिखते हैं कि इसका कुल अहाता (घेराव)100 गज़ है और यह अनियमित आकृति है और न ही गोल है और न ही चौकोर, यह आम पहाड़ों की तरह है।
इस चट्टान के कई फ़ज़ाएल हैं। हज़रत इब्न अब्बास से रवायत है कि यह चट्टान जन्नत की चट्टानों में से है। अक्सर मुख्तलिफ़ मुआर्रीखीन के नज़दीक यह वही जगह है, जहां पर इस्राफ़ील अलैहिस्सलाम खड़े होकर नफ़ख़ा़-ए-अख़ीरा फ़ुंकेंगे। यही अम्बिया-ए-पूर्व का किब्ला रहा है और 16, 17 महीने तक नबी-ए-करीम भी इसकी तरफ़ रुख करके नमाज़ पढ़ते रहे। यहूदियों का किब्ला अव्वल होने की वजह से मसीहियों वहाँ पर कूड़ा क्रिकेट फ़ैंकते थे, जब हज़रत उमर ने फ़तेह किया तो उसको साफ़ करवाया।
कुब्बतुस सखरा के नीचे एक गार है, जो चौकोर शक्ल में है इस गुफा की लंबाई 11 फीट और ज़मीन से ऊंचाई 30 फीट है۔ गुफा तक पहुँचने के लिए क़िबला की तरफ़ ग्यारह सीढ़ियाँ हैं और गुफा के दरवाज़े के पास एक इमारत है जो 2 सुतूनों पर मुश्तमिल है और संग मारमर से इसकी सजावट की गई है। इमारत के अंदर दो मेहराब हैं।
मेहराब के नीचे 2 सुतून बहुत ही सुंदर और संग मारमर से बने हैं। दाईं ओर वाले मेहराब के सामने एक चबूतरा है, जिसे मक़ाम-ए-ख़िज़्र कहा जाता है। उत्तर में स्थित चबूतरा को “बाब-ए-ख़लील” कहा जाता है। गुम्बदऔर गुफा का फर्श ख़ूबसूरत संग मारमर से बना है, जिससे इसकी चमक और ख़ूबसूरती में और इज़ाफ़ा होता है।
मस्जिद का अंदरूनी हिस्सा
मस्जिद के आंतरिक हिस्से के मग़रिबी जानिब जामिउन निसा है، जिसे फातिमीयों ने तामीर करवाया और मग़रिबी जानिब जामिया उमर है، जिसे हज़रत उमर ने फ़तेह के बाद तामीर कराया था और उसी इमारत की तरफ़ एक बड़ा ख़ूबसूरत ऐवान है، जिसे “मक़ाम-ए-उजैर” कहा जाता है। उसी ऐवान के उत्तर की जानिब एक ख़ूबसूरत मेहराब है, जिसे “मेहराब-ए-ज़करिया” कहा जाता है और उसकी लम्बाई और चौड़ाई 606 मीटर है।
मग़रिबी जानिब एक लोहे का जंगल है, जिसमें एक मेहराब “मेहराब-ए-मुआविया” के नाम से है। क़िबला की जानिब एक बड़ा मेहराब है, जिसे मेहराब-ए-दाऊद कहते हैं और उसके साथ एक मिम्बर है, यह मिम्बर सुल्तान नूर उल्दीन ज़ेंगी ने मस्जिद अल-अक्सा के लिए बनवाया था, ख़ुद इंतक़ाल कर गए, लेकिन उनके वारिस सुल्तान सलाह उद्दीन अय्यूबी ने इसे फ़तेह के बाद हलब से मंगवाकर नस्ब किया।
बुराक की दीवार
यह दीवार दक्षिण पश्चिम में है, इसकी लंबाई 47 मीटर और ऊचाई 17 मीटर है। रिवायत है कि हुज़ूर ﷺ ने मेराज की रात यहां अपनी सवारी बांधी थी, इसी वजह से इसे बुराक की दीवार कहते हैं।मुसनद अहमद की रवायत में है कि हज़रत उमर ने फ़तेह के बाद हज़रत का’ब अहबार से पूछा कि कहाँ नमाज़ पढ़ूँ? उन्होंने फ़रमाया कि चट्टान के पीछे खड़े होकर नमाज़ पढ़ें, ताकि सारा क़ुद्स आप के सामने हो।
हज़रत उमर ने फ़रमाया कि आप ने तो यहूदियों से मिली जुली बात कही, मैं तो वहाँ पर नमाज़ पढ़ूंगा, जहां पर रसूल अल्लाह ने नमाज़ पढ़ी थी, चुनांचे आप क़िबला की जानिब गए और फ़ातिहीन सहाबा के साथ बुराक बांधने की जगह के क़रीब नमाज़ पढ़ी, आप ने वहाँ पर मस्जिद बनाने का हुक्म दिया।
मस्जिद अल-अक्सा के उत्तर और पश्चिम की दिशा में चार मीनार थे, ये चारों मीनार चारों दरवाजों के साथ तामीर किए गए थे, उन्हें बाब अल-मग़ारिबा का मीनारा, बाब अल-सिलसिला का मीनारा, बाब ____ का मीनारा और बाब अल-अस्बात का मीनारा कहा जाता है। ये मीनारे ममालिक के दौर-ए-हुकूमत (769ھ से 1367ھ) में तामीर हुए।मस्जिद अल-अक्सा में तालीम और तद्रीस के साथ-साथ इसमें शिक्षा की सुविधा भी प्रदान की गई: छात्रों के लिए कमरे और दरसगाहें बनाई गईं, जिनमें से जामिया अल-मग़ारिबा، मदरसा उस्मानिया، मदरसा कारिमिया، मदरसा बस्तिया और मदरसा तूलूनिया आदि शामिल हैं।
मस्जिद अल-अक्सा की ओर कई इल्मी और धार्मिक शख्सों ने सफर किया, जिनमें मशहूर नाम शामिल हैं: हजरत उमर के खिलाफत के दौरान अबादा बिन सामित (मृत्यु 34 ہ) और शदाद बिन अवस (मृत्यु 58 ھ) यहाँ रहे। मशहूर मुफस्सिर मुकातिल बिन सुलैमान (सन 150ھ) और फ़कीह इमाम अब्दुल रहमान बिन अमर उज़ई (सन 157ھ) और इराक के प्रसिद्ध विद्वान इमाम सुफ़ियान सूरी (सन 161ھ) और मिस्र के इमाम लैस बिन सअद (मृत्यु 175ھ) और फीकह शाफ़िय़ी के बानी इमाम मोहम्मद बिन इद्रीस शाफ़िय़ी (मृत्यु 203ھ) हैं।इसके बाद, ईसाईयों के कब्ज़े में जाने के बाद यह सिलसिला मुअक़फ़्फ़ हो गया था, लेकिन सल्तनत सलाहुद्दीन अय्यूबी की फ़तेह के बाद फिर से इसमें तालीम और तद्रीस का सिलसिला जारी हुआ
हम मस्जिद ए अक्सा पर एक तफसीली पोस्ट लिख रहे हैं जो भाग भाग करके अलग अलग पोस्ट की जा रहीं हैं
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