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नाकाम शहज़ादे और दीन की सौदागरी

जिस तरफ देखो शरीअत से खिलवाड़ का दौर-ए-दौरा है, जहाँ नज़र करो दीन के मुसल्मात से छेड़ छाड़ करने वाले नज़र आ रहे हैं और जिस तरफ़ तवज्जो करो उसी तरफ इज्मा-ए-उम्मत क्या इज्मा-ए-सहाबा तक को चैलेंज किया जा रहा है।

खास बात यह है कि यह सब करने वाले कोई आम लोग नहीं; खास लोग हैं बल्कि अखस-उल-अखास हैं यानि ख़ास के भी ख़ास लोग। और गहरी नज़र से देखेंगे तो मालूम होगा कि इनमें अक्सर तो वह हैं जो यह दावा करते हैं कि दीन हमारा है। बाकी तखरीबकार या तो उन्हीं की पैरवी करने वाले हैं, या उनकी देखा देखी वक्ती फायदा उठाने की कोशिश करने वाले बड़े परिवारों के बे इल्म, बे बसिरत और तदब्बुर की दौलत से खाली लोग।

जब उनसे कुछ बन नहीं पड़ता, तामीरी काम करने की सलाहियत उनमें सिरे ही से नहीं होती, और इज़्ज़त चाहिए अपने अकाबरीन जैसी! ज़िन्दगी की ठाठ बाट का आलम यह है कि जिसे देखकर अहल दुनिया भी शरमा जाएं।

इस ठाठ बाट को मैनेज करने के लिए जिस कदर माल-ओ-दौलत की ज़रूरत होती है वह कमाने की उनमें सलाहियत नहीं।

तो यह लोग अपने बड़ों के नाम का फायदा उठाने के लिए स्पॉट लाइट में बने रहना चाहते हैं जिस के सबब यह ऐसे बे-तुके बयान जारी करते हैं जिन से इख्तिलाफ पैदा हो और यह ख़बरों की सनसनी बने रहें।

इनके अकाबरीन के बड़े होने की वजह से शख्सियत परस्त लोग इनकी बे सर पैर की भी बातें उड़ाते रहते हैं। किसी शायर ने क्या खूब कहा है:

मेरे अशआर उड़ जाएं तो इसमें क्या ताज्जुब है

जनाब-ए-शैख़ तो अक्सर उड़ा देते हैं बे पर की

जब कि होना तो यह चाहिए कि बुजुर्ग शख्सियतों को तस्लीम किया जाए, उनकी तालीमात पर अमल किया जाए; मगर उनकी अनपढ़, जाहिल और बे बसिरत औलाद को ढोने की ज़रूरत नहीं!… डॉक्टर इकबाल ने इसी की तर्जुमानी करते हुए कहा है:

बाप का इल्म न बेटे को अगर अजबर हो

फिर पिसर लायक ए मीरास ए पिदर क्यों कर हो

अगर बेटे ने बाप के इल्म को हासिल ही नहीं किया है तो वह बेटा बाप की इल्मी विरासत को कैसे संभाल सकता है ?

कुछ लोग यह कहते हैं कि फलां का बेटा है कैसे गलत हो सकता है तो उनके लिए शैख़ सादी अलैहि रहमा का यह शेर काफी होगा।

पिसर ए नूह बा बिदां बनशस्त

खानदान-ए-नुबुवतश गुम शुद

आप तारीख उठा कर देखेंगे तो पाएंगे कि दीन का ज्यादा और बड़ा नुकसान बड़ों के नालायक बेटों ही ने किया है। नाम ज़िक्र करके किसी नई बहस को हवा नहीं देना चाहता मगर खुली आंख से तारीख पर सरसरी नज़र रखने वाला हर शख्स इस हकीकत से आगाह है।

और फिर सूरज के वुजूद के लिए दलील देने की ज़रूरत भी नहीं होती, क्योंकि जिसे खुली आंखों से सूरज नज़र न आए, उसे आपकी दलील क्या खाक नज़र आएगी…?

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बड़ों के बच्चे क्यों बिगड़ते हैं …?

अक्सर ऐसा होता है कि बड़े लोग अपने बच्चों की तालीम-ओ-तर्बियत पर तवज्जो न देकर उन्हें अपने साथ अपने हल्का-ए-असर में लिए फिरते हैं, प्रोग्रामों में अपने साथ स्टेजों पर बड़ी बड़ी आलीशान कुरसियाँ लगवा कर बिठाते हैं।

फिर मुहब्बीन हज़रात उन कम-सिन बच्चों के खूब हाथ पैर चूमते और नजराना पेश करते हैं, जिस से उनके दिल से हुसूल ए इल्म की राह में आने वाली पर खार वादियों से गुज़रने की मशक्कत का ख्याल तक निकल जाता है और वह बच्चा उसी चका चौंध से भरी दुनिया का आदी हो जाता है।

(यह सब तो उसको एक दिन मिल ही जाना है, मगर तालीम का वक्त निकल गया तो फिर दौलत-ए-इल्म कभी हाथ नहीं आनी। लिहाजा उनकी चूमा चाटी से ज्यादा फिक्र उनकी तालीम-ओ-तर्बियत की होनी चाहिए।)

फिर एक दिन बाप का साया सर से उठ जाता है, और यह किसी लायक नहीं होते, अक्सर मुताल्लिकीन दूर हो जाते हैं मगर कुछ अंधी अकीदत वाले बच्चे रहते हैं जो अब भी उनकी आंखें खोलने के बजाय बे जा हिमायत का दबीज़ पर्दा उनकी आँखों पर डालते जाते हैं जिस से यह और बिगड़ते चले जाते हैं।

फिर एक दिन तक़लील-ए-हल्का-ए-असर, तक़लील-ए-तहाइफ का बाइस बनती है तो यह किसी की भी गोद में बैठ कर उसका खिलौना बनने को तैयार हो जाते हैं। और वह लोग टुकड़े डालते डालते कब उन्हें ईमान का सौदा करने पर मजबूर कर देते हैं यह अपनी कम इल्मी या बे इल्मी की वजह से समझ ही नहीं पाते।

फिर अगर उलमा-ए-हक़ इन जैसे लोगों की गलत बातों की गिरफ्त करते हुए इस्लाह की कोशिश करते हैं तो इन्हें बड़ा ना गवार गुज़रता है कि अच्छा!…….. मुझे ऐसा बोलने की जुर्रत?………. और फिर यह उसे अपनी अना का मसला बना कर आगे बढ़ते ही जाते हैं।

अंजामकार कब यह अपनी अना की तस्कीन और उलमा-ए-हक़ की तजलील के चक्कर में अपने ईमान का सौदा करके ग़ैरों की कठपुतली बन बैठते हैं इन्हें ख़बर ही नहीं होती।

इन में से कुछ सिर्फ गैर जरूरी खर्चात की तकमील के लिए जानते बूझते हुए इन अग्यार का साथ देने और उनकी बोली बोलने लगते हैं, जो इन की ऐश-ओ-इश्रत का सामान मुहैय्या कराते हैं।

और इनके चक्कर में सादा लोहे आवाम भी अपने ईमान व अकीदा से हाथ धो बैठती है। जिस के नतीजे में बस्तियां की बस्तियां और इलाका के इलाका बद दीन होते चले जाते हैं।

नतीजतन आप गौर करेंगे तो हाल ही में उमुल मोमिनीन हज़रत अइशा सिद्दीका रज़ी अल्लाह तआला अन्हा की शान में गुस्ताखी से लेकर शरीअत मुताहरा की अलानिया खिलाफ वर्जी के दरमियान सेकड़ों शरई उमूर, इस्लामी मुसल्लमात और इज्मा-ए-उम्मत से इनहिराफ़ के वाकियात आपकी आँखों के सामने गर्दिश करते नज़र आएंगे।

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इनसे कैसे बचा जाए…?

सबसे पहली जिम्मेदारी उलमा-ओ-मशाइख की है कि वह अपने बच्चों को चूमा चाटी और नजर-ओ-नियाज की दुनिया से दूर रख कर तालीम-ओ-तअल्लुम की पुर खार वादी (कांटेदार कठिन रास्ता) का मुसाफिर बनाएं, और कनाअत पसन्दी की आदत डालें। जिस से उनकी औलादें किसी की मोहताज न होने के साथ अपनी इल्मी बसिरत की बुनियाद पर किसी के हसद, किसी की चालबाज़ी का शिकार होकर दीन-ओ-मिल्लत का नुकसान करने से महफूज़ रहें।

कई मरतबा देखा गया है कि बड़ों के बाद खांदानी झगड़े में भी कोई जा कर दुश्मनों की गोद में बैठ गया, कोई मुशर्कीन का तो कोई बद दीन-ओ-बद मज़ाहिब का खिलौना बन कर रह गया।

……….अगर इल्मी बसिरत होगी तो आपस में लड़ेंगे नहीं………. अगर लड़े भी तो कम अज़ कम अग्यार की कठपुतली बन कर दीन-ओ-मिल्लत का सौदा तो नहीं करेंगे……

दूसरी जिम्मेदारी हमारे उलमा-ए-कराम की है कि वह आवाम अहल-ए-सुनन्त को बार बार यह बताएं कि ।।।।।।।।। किसी को भी सिर्फ उसी वक्त तक मानना है जब तक वह अहल-ए-सुनन्त-ओ-जमात के अकीदे पर है।।।।।।।।। जैसे ही अकीदे और इस्लामी मुसल्लमात से फिरा, उसकी पैरवी नहीं करनी है।।।।।।।।। ख्वाह वह अल्लामा-ए-दोहर हो या पीर मुगां या बड़े बाप का बेटा।।।।।।।

और डंके को चोट पर एलान करते रहना है:

“لا طاعۃ لمخلوق فی معصیۃ الخالق”

ही हमारी असल है।।।।।।।।। जो इस असल से हटा।।।।। हम उस से जुदा हो जाएंगे।।।।।।। ख्वाह वह हमारा उस्ताद, हमारा शैख़ हो या हमारे शैख़ का शहज़ादा।।।।।।।

“किसी की शख्सियत तभी तक तस्लीम की जाएगी जब तक वह शख्सियत शरीअत मुताहरा के उसूलों, दीन के मुसल्लमात और इज्मा-ए-उम्मत को तस्लीम करे”।

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बच्चे के हाथ चूमना हुज़ूर फकीह मिल्लत को सख्त नापसंद गुज़रा

हज़रत अल्लामा मुफ़्ती अज़हार अहमद अमजदी अज़हरी फरमाते हैं:

एक मरतबा मैं हुज़ूर फकीह मिल्लत अलैहि रहमा के साथ बरेली शरीफ़ गया था, उस वक्त मेरी उम्र तक़रीबन नौ से ग्यारह के दरमियान रही होगी। मैं आला हज़रत अलैहि रहमा की बारगाह में हाज़िरी देने, पैदल ही हुज़ूर के साथ जा रहा था, रास्ते में आपके एक मुअम्मर शागिर्द, बेहतरीन आलिम दीन मिले, उन्होंने फकीह मिल्लत अलैहि रहमा की दस्त बोसे के बाद, मुझसे मुसाफ़ा के वक्त, अक़ीदत में मेरा हाथ चूमना चाहा, मैंने हाथ खींच लिया। फकीह मिल्लत अलैहि रहमा को उनकी दस्त बोसे की यह कोशिश, सख्त नापसंद गुज़री, आपने फरमाया:

“आप ही लोगों ने उलमा और पीरों के लड़कों को बिगाड़ रखा है, जब बचपन ही से आप उन्हें इतनी इज़्ज़त दे रहे हैं; तो यह उसके आदी हो जाएंगे और सोचकर यह फैसला करेंगे कि जब ऐसे ही इतनी इज़्ज़त मिल रही है; तो पढ़ने या पढ़ाई में मेहनत करने की क्या ज़रूरत है”.

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पीर की फजीलत

पीरों की फज़ीलत इतनी बयान हुई कि अब पीर ही बानी-ए-शरीअत हो गए हैं, जो मर्ज़ी आए करते हैं और मुरीद उन्हीं की सुनते हैं। यह सब इ’तिदाल से दूर जाने का अंजाम है, जबकि कुरआन और हदीस में कहीं भी कोई फज़ीलत नहीं पीर की।

किसी बुज़ुर्ग ने सच कहा था कि दुनिया बद से बदतर हो जाएगी लेकिन बुरों की वजह से नहीं, बल्कि अच्छे लोगों की ख़ामोशियों की वजह से। मज़ारों पर उर्स के नाम पर मेला, और जलसे जुलूस में हुल्लड़बाज़ियाँ, तथा मुहर्रम में इमाम आली मकाम के नाम पर मुशरिकाना और गैर-शरई काम बढ़ते जा रहे हैं। मरकज़ी इदारों के मुफ़्तियान-ए-कराम ख़ामोश तमाशा देख रहे हैं।

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मुफ़्त का धंधा

यह इतना मुफ़्त और फायदे का धंधा है कि कोई आखिर क्यों न करना चाहेगा। आठ-दस करोड़ की लग्जरी गाड़ियाँ यूँही कुछ दिनों में हाथ में आ जाती हैं। करोड़ों का घर बिना मेहनत के मिलता है, 50 हज़ार का जूता और 14 लाख की घड़ी पहनते हैं। लाख-दो लाख रुपये नजराना हर प्रोग्राम में मिल जाता है, हर महीने 40-45 प्रोग्राम हो ही जाते हैं। एक-एक रात में कई-कई जगह जाना होता है। क़ुरआन और हदीस से कुछ लेना-देना नहीं, हाथ चुमवाकर लंबी सी दुआ ही तो करनी है।

जाहिल आवाम राह में रेड कारपेट बिछाते हैं, वह सिर झटक कर, कंधे उचकाते हुए 50 हज़ार के सजे हुए स्टेज पे आता है। कुछ दर्द भरी आवाज में दुआ करता है और फ्री में जन्नत बाँटकर चला जाता है।

उसके सामने भूखों-नंगों का एक हुजूम जमा हो जाता है। जब हुजूम की नज़र उनपे पड़ती है, तो वह बाआवाज़-ए-बुलंद नारा-ए-तकबीर, नारा-ए-रसालत और नारा-ए-हैदरी बुलंद करते हैं। जब इतनी ठाठ-बाट बिना किसी मेहनत और ओहदे के है तो और क्या चाहिए?

मुरीद और नामुराद सब आपस में सरगोशियाँ करते हैं कि पीर साहब का दीदार हो गया, अब हमारी बिगड़ी बन जाएगी। लेकिन हकीकत में इन लोगों की बिगड़ी बने या न बने, पीर साहब की तो बन जाती है। जब तक जाहिल ज़िंदा हैं, यह कारोबार चलता रहेगा।

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अल्लाह तआला इस कॉम को समझ आता फरमाए: अमीन


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